संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Friday, August 31, 2007

तकदीर का फ़साना--संगीतकार रामलाल के गाने के दो संस्करण

महफिल वाले भाई सागरचंद नाहर के कहने से मैंने संगीतकार रामलाल जी पर इस श्रृंखला का पहला लेख लिखा था और आप सबकी प्रतिक्रियाओं से ये ज़ाहिर हुआ कि अभी भी हमारे मन में ऐसे कम चर्चित संगीतकारों के लिए प्यार कायम है । इससे कुछ बातें और उभर कर सामने आती हैं । नए विषयों की तलाश में जूझ रहा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किस क़दर घिसे-पिटे दायरे में काम करता है और कैसे केवल उगते हुए सूरज को ही सलाम करता है । इसी तरह विविध भारती को छोड़ दें तो रेडियो की दुनिया में भी कैसे कुछ सौ गानों को ही तरजीह दी जाती है । बाकी कई गाने अनछुए रह जाते हैं । मुद्दे की बात ये है कि इन गानों के कद्रदान होते हुए भी ये जनता तक नहीं पहुंचाये जा रहे हैं ।

रेडियोवाणी पर ना सिर्फ चर्चित संगीतकारों की बात की जाती है बल्कि उन संगीतकारों का जिक्र भी किया जाता है जिनका काम बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन उनके काम का असर बहुत ज्यादा है । संगीतकार रामलाल का शुमार भी इसी तरह के संगीतकारों में होता है । जब विविध भारती में मेरी संगीतकार रामलाल से मुलाकात हुई तो वो मुझे मुहल्ले के किसी बुजुर्ग की तरह लगे । बुढ़ापा उनकी शख्सियत का हिस्सा बन चुका था और जो तल्खी उनके भीतर थी वो शायद दुनिया की जुल्म तों से ही आई होगी । हो सकता है कि कामयाब लोगों ने अपनी आक्रामकता के साथ उनके ऊपर वो जुल्म ढाए हों जिनकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी ।

ऐसा क़तई नहीं लगता कि रामलाल ‘वन फिल्म वंडर’ जैसी प्रतिभा थे । कम से कम उनके संगीत संयोजन और उनकी धुनों की गहराई को देखकर तो कभी हम मान ही नहीं सकते कि प्रतिभा का अकाल था रामलाल जी के भीतर । हां ये जरूर है कि बंबई की फिल्मी दुनिया की तहज़ीब उन्होंने सीखी नहीं होगी, जिसके तहत काम प्राप्त करना भी एक तरह का ‘मैनेजमेन्ट’ होता है । बहरहाल आईये रामलाल के संगीत संसार में फिर से प्रवेश करें ।

‘सेहरा’ और ‘गीत गाया पत्थरों ने’ यही दो फिल्में हैं जो रामलाल की संगीत-यात्रा की अहम फिल्में मानी जा सकती हैं । बाकी कुछ छोटी मोटी फिल्मों में भी उनका संगीत रहा है लेकिन अगर जरूरी लगा तो उनके गानों की चर्चा फिर कभी की जाएगी । आज हम आपको रामलाल जी के दो खामोश मिज़ाज गीत सुनवायेंगे । दोनों में एक नाज़ुकी है । एक प्यार के कोमल अहसास का गीत है और दूसरा बेवफ़ाई का नग्मा । और ये तो हिंदी सिने-संगीत के कद्रदान जानते ही हैं कि एक खास तरह की इन्टेन्सिटी की जरूरत पड़ती है इन गानों को रचने के लिए ।

ज़रा इस गीत को सुनिए—

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तकदीर का फसाना जाकर किसे सुनाएं
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।
सांसों में आज मेरे तूफान उठ रहे हैं
शहनाईयों से कह दो कहीं और जाकर गायें
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।
तकदीर का फसाना ।।
मतवाले चांद सूरज, तेरा उठायें डोला
तुझको खुशी की परियां घर तेरे लेके जाएं
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।
तकदीर का फसाना ।।
तुम तो रहो सलामत, सेहरा तुम्हें मुबारक
मेरा हरेक आंसू देने लगा दुआएं
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।
तकदीर का फसाना ।।

यहां हम आपको बताना चाहेंगे कि इस गाने के दो संस्करण हैं । एक लोकप्रिय संस्करण मो. रफी वाला है और दूसरा है लता मंगेशकर वाला संस्करण । वही बात जो पहले भी कह चुका हूं यहां भी कहूंगा कि इस तरह के अन्य कई गानों की तरह यहां भी पुरूष गायक का संस्करण ज्यादा लोकप्रिय हुआ है और शायद बेहतर भी बन पड़ा है ।

रफी साहब वाले संस्करण में शहनाई की करूण तान तो है ही साथ ही रफी साहब की आवाज़ का उफान भी है । रफी साहब अपनी आवाज़ को इस गाने में कितने ऊपर ले गये हैं सुनिए और महसूस कीजिए । ऐसे गाने हमेशा मुश्किल और डिमान्डिंग हुआ करते हैं । रफ़ी साहब ने रामलाल की इस कठिनतर धुन के साथ बिल्कुल न्याय किया है । बेवफ़ाई वाले गानों में जब इस तरह की इन्टेन्सिटी आ जाती है तो उनका लोकप्रिय होना तय हो जाता है । इस गाने को गली कूचों में एकतरफा मुहब्बत करने वाले नौजवानों ने खूब गाया है । रफी के बेहद चुनिन्दा गानों में इस गाने का शुमार किया जाता है । यहां हसरत जयपुरी की कलम को भी सलाम करना जरूरी है । क्यों कि ‘अरमान की चिताएं’ वाला जुमला हो या फिर ‘मेरा हरेक आंसू देने लगा दुआएं’ जैसे जुमले इस गाने में देकर उन्होंने अपनी सादगी भरी शायरी का कमाल दिखाया है ।

लता मंगेशकर वाला संस्करण एक अद्भुत धुन के साथ शुरू होता है फिर एक शेर आता है ।

उजड़ गया है मुहब्बत में जिंदगी का चांद
सितारे हैं मेरी दुनिया के आंसुओं का कफन ।।

और फिर ग्रुप वायलिन की चीत्कार । जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि इस गाने की खासियत ये है इसकी इंटन्सिटी । बहुत नीचे सुर से शुरू होकर ये गीत बहुत ऊपर तक जाता है । मुखड़ा जानबूझकर रामलाल जी ने नीचे सुर पर रखा है । लेकिन जैसे ही अंतरे पर हम आगे बढ़ते हैं गायिका के सुर ऊपर चढ़ते जाते हैं । ऐसे गाने किसी भी कलाकार के लिए एक कठिन चुनौती की तरह होते हैं । लता जी की रेन्ज की एक जिंदा मिसाल है ये गीत । जब हम दूसरे अंतरे तक पहुंचते हैं तो सुर इतना चढ़ जाता है कि आज के जमाने की गायिकाओं की आवाज़ चीं चीं करने लगे । खासकर ये पंक्ति ‘वो बेवफा ना समझें हमसे बदल ना जाएं’ बहुत ऊंचे सुर में है ।

इस गाने के ताल वाद्य पर ध्यान दें तो आपको फिर हैरत होगी । ये मंदिर के नगाड़े जैसा चलन है । बहुत धीमी और शांत चाल के ताल वाद्य रखे हैं रामलाल ने । ताकि गाने का गहरा असर बरक़रार रहे, क्योंकि यहां कमाल तो धुन और गायकी को करना था । आज के गानों की तरह केवल म्यूजिक अरेन्जमेन्ट को नहीं ।

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तकदीर का फसाना जाकर किसे सुनाएं
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं
देखे थे जो भी सपने, वो बन गये हैं आंसू
जाती हुई हवाओं ले जाओ मेरी आहें
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।
तकदीर का फसाना ।।
अपना तो ग़म नहीं है, ग़म है तो इतना ग़म है
वो बेवफ़ा ना समझें, हमसे बदल ना जाएं
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।
तकदीर का फ़साना ।।
इस बेबसी पे मेरी रोएगा आसमां भी
डूबेगी सारी धरती देखेंगी ये फिज़ाएं
इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं ।।
तकदीर का फसाना ।।


संगीतकार रामलाल पर ये अनियमित श्रृंखला जारी रहेगी ।
इस श्रृंखला का पहला लेख—संगीतकार रामलाल की मुफलिसी और सेहरा फिल्म के दो गीत ।

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Wednesday, August 29, 2007

संगीतकार रामलाल की मुफलिसी और सेहरा फिल्म के दो गाने—पंख होते तो उड़ आती रे और तुम तो प्यार हो

दोस्‍तो पिछले कुछ दिनों से ब्‍लॉगिंग का सिलसिला इतर व्‍यस्‍तताओं की वजह से काफी धीमा सा हो गया है । मैं खुद भी रेडियोवाणी पर लगातार लिखने को मिस कर रहा हूं । कल हैदराबाद के मित्र सागर चंद नाहर से चैट हो रही थी कि उन्‍होंने अचानक सवाल दाग़ दिया, आप रामलाल हीरा पन्‍ना पर कब लिख रहे हैं । और मैंने उनसे आज का वादा कर दिया । दरअसल रामलाल जी पर मैं जाने कब से लिखना चाह रहा था । रेडियोवाणी की परंपरा बन गई है, उन संगीतकारों के बारे में भी बातें करने की जिन्‍हें पेशेवर दुनिया में ज्‍यादा काम नहीं मिला, लेकिन जो इक्‍का दुक्‍का मौक़े मिले, उनमें उन्‍होंने अपना सारा हुनर झोंक दिया । संगीतकार रामलाल भी इसी तरह के संगीतकार रहे हैं ।



शायद कुछ छह साल बरस पहले की बात है । विविध भारती पर हमारे एक सहयोगी को फोन आया कि मैं संगीतकार रामलाल बोल रहा हूं । क्‍या आप विविध भारती के सरगम के सितारे कार्यक्रम में मुझसे इंटरव्‍यू नहीं ले सकते । ये रामलाल नहीं उनकी मजबूरी बोल रही थी । शायद उन दिनों मैं छुट्टी पर था जब रामलाल सफेद कुर्ता पाजामा और स्‍लीपर चप्‍पलें पहनकर विविध भारती आये और सबसे मिलकर गये ।



लेकिन ये फोन थोड़े दिन बाद फिर आया । तब तक उनका इंटरव्‍यू हुआ नहीं था । खैर इस बार रामलाल जी की इंटरव्‍यू तय हुआ और वे खुद विविध भारती में आए । वही कुरता पाज़ामा । कपड़े का झोला । और पूरी शख्सियत से झरती मजबूरी । उन दिनों रामलाल एक किसी चाल की एक छोटी सी खोली में रहते थे । ज़रा स्‍क्रीन की इस खबर को एक नज़र देख लीजिए । विविध भारती आने पर उन्‍होंने स्‍वयं बताया कि किस तरह महाराष्‍ट्र सरकार ने उन्‍हें पवई में एक घर देने की घोषण की और फिर वो घर उन्‍हें इसलिए नहीं मिल रहा है क्‍योंकि उसके लिए जो पैसे जमा करने हैं वो उनके पास नहीं हैं । फिर बाद में पता चला कि उन्‍हें वो घर मिल गया है ।



रामलाल के मन में फिल्‍म-संसार के प्रति बहुत सारा रोष था । अपना हक़ मार लिये जाने का रोष । मैं आपको बता दूं कि फिल्‍म्‍ ‘गूंज उठी शहनाई’ में उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खां के साथ रामलाल ने भी शहनाई बजाई थी । लेकिन रामलाल का कहना था कि ज्‍यादा काम मेरा था और सारा नाम उस्‍ताद जी ले गये । रामलाल ने कई फिल्‍मों में शहनाई की तान छेड़ी । वे कमाल के शहनाई वादक थे । दरअसल फिल्‍म संसार में सीधे सादे गऊ आदमी की कोई कद्र नहीं होती । रामलाल जी यहीं मार खा गए । और यही कटु सत्‍य है ।
इस पोस्‍ट के ज़रिए मैं आपको ये अहसास भी दिलाना चाहता हूं कि फिल्‍म संसार में एक एक कायमाब व्‍यक्ति के पीछे हज़ारों या लाखों स्‍ट्रग्‍लर होते हैं । जो एकाध मौक़े के बाद गुमनामी की धुंध में खो जाते हैं । फिल्‍मी दुनिया में सब चलता है, किसी का काम अपने नाम करवा लेना, ज्‍यादा पैसे देने का वादा करके काम करवाना और फिर पेमेन्‍ट ना करना, फिल्‍म रिलीज़ के वक्‍त क्रेडिट ना देना और ना जाने क्‍या क्‍या ।



बहरहाल एक दिन रामलाल जी गुमनाम मौत मर गये । अखबारों में ख़बर इतनी छोटी थी कि किसी को पता भी नहीं चला । विविध भारती पर हमने उन्‍हें श्रद्धांजली दी । उनकी रिकॉर्डिंग आज भी हमारे पास है, जिसमें वो अपनी पूरी कहानी बयान करते हैं । इन पंक्तियों को लिखते वक्‍त मुझे रामलाल जी की वो बेफिक्र ठहाका भी याद आ रहा है और उनकी वो किससागोई भी जो हमारे बीच बैठकर उन्‍होंने पूरी फुरसत से की थी । कितनी कितनी बातें उन्‍होंने बताईं । अफ़सोस कि मुझे रामलाल जी की कोई तस्‍वीर नहीं मिल पा रही है । अगर मिली तो आप तक जरूर पहुंचाऊंगा । एक बात और बता दूं कि रामलाल जी ने एक विदेशी महिला से शादी की थी । ये संगीत के ज़रिए हुई मुहब्‍बत थी, जो जीवन भर चली ।
रामलाल ने दो बड़ी फिल्‍मों में संगीत दिया था—1963 में आई ‘सेहरा’ और ‘गीत गाया पत्‍थरों ने’ । संगीत के नज़रिये से ये दोनों फिल्‍में काफी कामयाब रही थीं । सेहरा फिल्‍म के गीत तो आज भी ज़बर्दस्‍त लोकप्रिय हैं । दिलचस्‍प बात ये है कि ‘गूंज उठी शहनाई’ में जब रामलाल ने शहनाई बजाई तो उनकी ख्‍याति निर्माता निर्देशक वी. शांताराम तक पहुंची और शांताराम ने ही अपनी दो फिल्‍मों में रामलाल को मौक़ा दिया । इसके बाद किसी ने उन्‍हें मौक़ा नहीं दिया ।
सेहरा रामलाल की सबसे बड़ी फिल्‍म थी । इस फिल्‍म के सारे गाने हिट थे । आईये इसी फिल्‍म के दो गीत सुने जाएं । इन्‍हें हसरत जयपुरी ने लिखा है । और यहां मैं अनिवार्य रूप से गाने के बोल भी दे रहा हूं ताकि आप जान पायें कि उत्‍कृष्‍ट लेखनी गाने के रस को कितना बढ़ा देती है । रामलाल जी के संगीत-संयोजन में एक परफेक्‍शन है । सेहरा फिल्‍म के गीत ‘पंख होते तो उड़ जाती रे’ को ही लीजिये । लता जी का जैसा शुरूआती आलाप इस गाने में है, वैसा अन्‍यत्र दुर्लभ है । बिल्‍कुल यूं लगता है कि जैसे किसी पंछी की उड़ान का आलाप है । इस गाने के मुखड़े के बाद पंछी की चहक डाली गयी है । और संगीत संयोजन देखिए, यहां गुप वायलिन भी है, तबला भी और हिंदी फिल्‍म संगीत में बहुत ही कम बजने वाला जलतरंग भी । बेहद पेचीदा लेकिन सादगी भरा संयोजन । तबले का चलन देखिए । उसकी तरंग को महसूस कीजिए । इस गाने में लता जी की आवाज़ में हल्‍की सी गूंज रखी गयी है जो इस गाने के प्रसंग के मुताबिक बिल्‍कुल सटीक लगती है । पहले अंतरे के बाद का इंटरल्‍यूड सुनिए । लता जी के आवाज़ के साथ तबले की रफ्तार । साथ में सितार और वायलिन । और फिर जलतरंग की तेज़ लहर । यूं लगता है जैसे हम आकाश में उड़े जा रहे हैं । ना जाने कितने लोगों को ये गीत ही नहीं इसके संगीत संयोजन का एक एक हिस्‍सा याद है । अद्भुत सही मायनों में अद्भुत गीत । लता जी ने राग भोपाली पर आधारित इस कठिन गाने को कितनी कुशलता से गाया है । उनकी प्रतिभा पेचीदा गाने को भी सरल बना देती है । गाने के अंत में मुखड़े से पहले जो हल्‍की सी बांसुरी है उस पर ध्‍यान जरूर दीजियेगा ।

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पंख होते तो उड़ आती रे रसिया हो ज़ालिमा
तुझे दिल के दाग़ दिखलाती रे ।।
किरनें बनके बांहें फैलाईं
आस के बादल पे जाके लहराई
दूर से देखा मौसम हसीं था
आने वाले तू ही नहीं था रसिया हो ज़ालिमा ।।

यादों में खोई पहुंची गगन में
पंछी बनके सच्‍ची लगन में
झूल चुकी मैं वादे का झूला
तू तो अपना वादा भी भूला रसिया हो ज़ालिमा ।।

दूसरा गाना है ‘तुम तो प्‍यार हो सजना’ । लता मंगेशकर और मुहम्‍मद रफी की आवाज़ । ये कई मायनों में मुझे एक दिव्‍य गाना लगता है । अगर आप इस गाने के रिदम को सुनें तो लगेगा कि किसी रोमांटिक गाने का नहीं बल्कि भजन का रिदम है । मुखड़े के बाद संतूर की स्‍वरलहरी और उसके बाद कोरस और फिर उसमें घुला मिला संतूर और लता जी का आलाप । सब कुछ इस गाने को एकदम दिव्‍य और अलौकिक बना देता है । आज के गानों को ग्रांड बनाने के लिए उनमें रिदम और बीट ठूंस दी जाती हैं । रामलाल ने यहां दिखाया है कि कैसे सादगी भरे संगीत संयोजन से गाने को एक भव्‍य रूप दिया जा सकता है । लेखनी और गायन दोनों में भी बेमिसाल है ये गाना । यूं लगता है जैसे प्‍यार छलक छलक पड़ रहा है ।

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तुम तो प्‍यार हो सजना,
मुझे तुमसे प्‍यारा और ना कोई ।।
कितना है प्‍यार हमसे इतना बता दो
अंबर पे तारे जितने इतना समझ लो
सच मेरी कसम
तेरी कसम तेरी याद मुझे लूटे
कसमें तो खाने वाले होते हैं झूठे
चलो जाओ हटो जाओ दिल का दामन छोड़ो
तुम तो प्‍यार हो ।।
आके ना जाए कभी ऐसी बहार हो
तुम भी हमारे लिए जीवन सिंगार हो
सच मेरी क़सम
तेरी क़सम तू है आंख के तिल में
तुम भी छुपी हो मेरे शीशा-ऐ-दिल में
मेरे हमदम मेरी बात तो मानो
तम तो प्‍यार हो ।।


संगीतकार रामलाल को फिल्‍म संसार वाले रामलाल हीरा पन्‍ना कहते थे । क्‍योंकि वो अपनी उंगलियों में पन्‍ना पहनते थे । रामलाल के जीवन के कुछ और पहलुओं पर बात होगी आगे चलकर । और तब मैं आपको सुनवाऊंगा उनके कुछ और अनमोल गाने ।
अंत में ये कह दूं कि ये मेरी सौंवीं पोस्‍ट थी ।
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Sunday, August 26, 2007

आईये सावन के गीतों की श्रृंखला में आज सुनें ‘बाग़ों में पड़े झूले’—ग़ुलाम अली का गाया गीत-ऑडियो सुधार दिया है




अन्‍नपूर्णा जी ने सावन की याद दिलाई तो हमने अपनी पिछली पोस्‍ट में आपको सावन के तीन गीत सुनवा डाले ।

लेकिन तीन गीतों से भला मन कहां मानता है । आज ठानकर आए हैं कि आपको गुलाम अली का एक शानदार गीत सुनवाएंगे और आपको ये भी बताएंगे कि ये गीत उनके उपशास्‍त्रीय गीतों के एलबम ‘शीशमहल’ में मौजूद है । मैं आपको बता दूं कि इसे ‘माहिया’ कहा जाता है । जो शायद पंजाब की लोकसंगीत की एक विधा है । इतना सीधा-सादा गीत है कि क्‍या कहें । आप पढ़कर ही समझ जायेंगे । लेकिन एक तो वाद्यों के ज़रिए ग़ुलाम अली साहब ने इसका चलन काफी तेज़ रखा है दूसरे उनकी लहरदार आवाज़ ने इस गाने को यादगार बना दिया है । मैं इस तरह के कई गीतों को ‘इन्‍फेक्‍शस’ श्रेणी में रखता हूं । संक्रामक गीत हैं ये । बस एक बार सुन लिया कि आपके होठों पर सज गए । आप हो होश हो या नहीं । फिर अचानक आपको लगेगा अरे ये गीत मैं कैसे गुनगुना रहा हूं ।
ज्‍यादा कुछ नहीं कहना इस गाने के बारे में । बस इतना कहना है कि आपने गुलाम अली की ग़ज़लें तो सुनीं । सबने सुनीं । पर शीशमहल सुनना अब तक छूटा हो तो फटाफट जाईये और ख़रीद डालिए । इस एलबम के अधिकार एच एम वी के पास हैं और इतना दुर्लभ भी नहीं है । पहले से बता दूं कि इस एलबम में कुल चार रचनाएं हैं । जी हां कुल चार केवल चार ।

बालम मोहे छोड़ के ना जा—मिश्र पीलू में ठुमरी
काहे बनाओ झूठी बतियां हमसे—दादरा
तुम बिन ना आवे चैन—ठुमरी मिश्र खमाज
और बागों में पड़े झूल—मा‍हिया ।

अगर हमें पिनक चढ़ गयी तो ये सारे गीत आपको इसी चिट्ठे पर सुनवा दिये जायेंगे । बस हौसला अफ़ज़ाई तो जारी रखिए सरकार ।
तो सुनिए और पढि़ये---

Baagon Main pade j...


बाग़ों में पड़े झूले
तुम भूल गये हमको
हम तुमको नहीं भूले ।।
सावन का महीना है,
साजन से जुदा रहकर
जीना कोई जीना है ।। बाग़ों में ।।
रावी का किनारा है
हर मौज के होठों पर
अफ़साना हमारा है ।। बाग़ों में ।।
ये रक्‍स सितारों का
सुन लो कभी अफ़साना
तक़दीर के मारों का ।। बाग़ों में ।।
दिल में हैं तमन्‍नाएं
डर है कि कहीं हम-तुम
बदनाम ना हो जाएं ।। बाग़ों में ।।
अब और ना तड़पाओ
या हम को बुला भेजो
या आप चले आओ ।। बाग़ों में ।।



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इस श्रृंखला के अन्य भाग--
1.पड़ गये झूले सावन रूत आई और गरजत बरसत सावन आयो रे

2.फिर सावन रूत की पवन चली तुम याद आए ।

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फिल्म ‘गर्म हवा’ की क़व्वाली—मौला सलीम चिश्ती, अज़ीज अहमद ख़ां वारसी की आवाज़


मैंने थोड़े दिन पहले आपको एक बेमिसाल क़व्‍वाली सुनाई थी जिसके बोल थे—
कन्‍हैया बोलो याद भी है कुछ हमारी । फरीद अयाज़ की आवाज़ थी, अभी फ़रीद अयाज़ की आवाज़ में दूसरी क़व्‍वाली सुनवाने के बारे में सोच ही रहा था कि कल आलोक पुराणिक ने संदेस भेजा, गर्म हवा फिल्‍म की एक क़व्‍वाली मिल नहीं रही है । शायद आपके ख़ज़ाने में हो । मेरे ख़ज़ाने में इसका ऑडियो तो नहीं है लेकिन इंटरनेट पर ज़रूर ये क़व्‍वाली प्राप्‍त हो गयी । और एक नहीं इस क़व्‍वाली के कई स्‍त्रोत मिले । तो चलिए क़व्‍वाली पर ख़रामां ख़रामां (धीरे धीरे) चल रही हमारी श्रृंखला की दूसरी कड़ी सुनी जाए । वैसे आजकल नीरज रोहिल्‍ला भी क़व्‍वाली पर अच्‍छा काम कर रहे हैं और मैंने उनसे कहा है कि हम दोनों चिट्ठेकारी की दुनिया में क़व्‍वाली का कारवां चलाएंगे । इसी बहाने कई क़व्‍वालियां दोबारा खोजी जा सकेंगी ।

आलोक भाई धन्‍यवाद । आपने इस क़व्‍वाली की याद दिला दी । मैंने इस श्रृंखला के पहले हिस्‍से में ही अर्ज़ कर दिया था कि मुझे बहुत कम क़व्‍वालियां सुहातीं हैं । और इसके अनेक कारण हैं । कभी डाउन मेमोरी लेन में जाऊंगा तो ज़रूर थोड़ी तुर्शी के साथ अपनी बात कहूंगा और बहुत सारे कट्टर लोगों को बुरा भी लगेगा । पर फिलहाल चूंकि मौक़ा उम्‍दा क़व्‍वाली सुनने का है इसलिए सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि क़व्‍वाली को प्रदूषित करने में भाई लोगों ने कोई क़सर नहीं छोड़ी है, बस इसी बात का अफ़सोस रह जाता है ।

बहरहाल, 1973 में आई फिल्‍म ‘गर्म हवा’ की क़व्‍वाली सुनवाने से पहले इस फिल्‍म के बारे में थोड़ी सी चर्चा कर ली जाए । विभाजन की पृष्‍ठभूमि पर बनी सबसे ऑथेंटिक फिल्‍म थी ये । इस्‍मत चुग़ताई की कहानी, कैफ़ी आज़मी का स्‍क्रीनप्‍ले, उन्‍हीं के नग्‍़मे, निर्देशन एम.एस.सथ्‍यू का और कलाकार कमाल के । बलराज साहनी, फारूख़ शेख, गीता सिद्धार्थ, ए के हंगल, शौक़त कैफी वग़ैरह । ‘गर्म हवा’ भारत की कालजयी फिल्‍मों में गिनी जाती है । अगर आपने ये फिल्‍म अब तक नहीं देखी है तो ज़रूर डी वी डी खोजिए और अभी देख डालिए ।

इस फिल्‍म का संगीत उस्‍ताद बहादुर खां साहब ने दिया था । ये क़व्‍वाली हिंदी फिल्‍मों की बेहद सच्‍ची और अच्‍छी क़व्‍वालियों में से एक है । आवाज़ है अज़ीज़ अहमद ख़ां वारसी की । आज मैं आपको ना सिर्फ़ ये क़व्‍वाली सुनवाऊंगा बल्कि दिखाऊंगा भी ।

इसे सुनकर यूं लगता है जैसे दुनिया के सताए मज़लूम लोग मौला सलीम चिश्‍ती की दरगाह पर सिर झुकाए खड़े हैं, अपनी परेशानियों का हल मांग रहे हैं । निवेदन और याचना की जो मार्मिकता इस क़व्‍वाली से उभरती है, उसके बाद अगर कोई प्‍यार मुहब्‍बत की क़व्‍वाली सुनवाता है तो लगता है जैसे मुंह का स्‍वाद ख़राब हो गया है ।

ये रहे इस क़व्‍वाली के बोल, जिन्‍हें हमने
अक्षरमाला से लिया है ।

सूखी रुत में छाई बदरिया, चमकी बिजुरिया साथ
डूबो तुम भी संग मेरे, या थामो मेरा हाथ

मौला सलीम चिश्ती, आक़ा सलीम चिश्ती -२
आबाद कर दो दिल की दुनिया सलीम चिश्ती -२

जितनी बलायें आई, सब को गले लगाया -२
खूँ हो गया कलेजा, शिकवा न लब पे आया -२
हर दर्द हम ने अपना, अपने से भी छुपाया
हर दर्द हम ने अपना, हा
हर दर्द हम ने अपना, अपने से भी छुपाया -२
तुम से नहीं है कोई पर्दा सलीम चिश्ती
मौला सलीम चिश्ती ...

जाएगा कौन आके, प्यासा तुम्हारे दर से -२
कुछ जाम से पीएंगे, कुछ महर्बां नज़र से -२
कुछ जाम से पीएंगे, हा
कुछ जाम से पीएंगे, कुछ महर्बां नज़र से -२

एक प्याली भर के दे साक़ी मै-ए-गुलफ़ाम की
एक अपने नाम पी, और एक अल्लाह नाम पी
मेट दे पूरी मेरी हसरत दिल-ए-नाकाम की
देदे देदे दर्द में कोई सूरत आराम की
घूँट ही पिला मगर जोश-ए-तमन्ना डाल कर
एक क़तरा दे मगर क़तरे में दरिया डाल कर
कुछ जाम से पीएंगे, कुछ महर्बां नज़र से ...

ये संग-ए-दर तुम्हारा, तोड़ेंगे अपने सर से -२
ये संग-ए-दर तुम्हारा, हा
ये संग-ए-दर तुम्हारा, तोड़ेंगे अपने सर से -२
ये दिल अगर तुम्हारा टूटा सलीम चिश्ती -२
मौला सलीम चिश्ती ...

इस संग-ए-दर के सदक़े, इस रहगुज़र के सदक़े
भटके हुए मुसाफ़िर, मंज़िल पे पहुंचे आख़िर
उजड़े हुए चमन में, ये रँग-ए-पैरहन में
सौ रँग मुस्कुराए, सौ फूल लैलहाए
आई नई बहारें, पहलने लगी फुआरें
ग़्हूँघट की लाज रखना, इस सर पे ताज रखना
इस सर पे ताज रखना

आक़ा सलीम चिश्ती, मौला सलीम चिश्ती ...


इस क़व्वाली को सुनने के लिए यहां क्लिक कीजिए
और देखने के लिए यहां क्लिक कीजिए या फिर इस लिंक को कट पेस्टc कर लीजिए
http://youtube.com/watch?v=9ilOntNHFhY


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Saturday, August 25, 2007

पड़ गए झूले सावन रूत आई रे और गरजत बरसत सावन आयो रे

कल अन्‍नपूर्णा जी का एक संदेश आया, क्याआआआआ यूनुस ख़ान जी, आप भी !!!!!!!सावन बीत रहा है और अब तक न आपके चिट्ठे में सावन के झूले पड़े, न बोले रे पपीहरा गूंजा और न ही उमड़-घुमड़ कर छाई घटा सावन को ऐसा सूखा तो जाने मत दीजिए………।

जिंदगी की आपाधापी में उलझे हुए अचानक लगा कि बात तो सही है । रेडियोवाणी पर सावन की ज्‍यादा बात नहीं हो पाई । हां मैंने बारिश के कुछ गीत आपको सुनवाए थे । जिनकी लिंक बांयी ओर लेबल वाले ख़ाने में है । क्‍या आपको याद है गुलाम अली का वो गीत—जिसकी मैंने रेडियोवाणी पर ही चर्चा की थी । फिर पत्‍तो की पाजेब बजी तुम याद आये, फिर सावन रूत की पवन चली तुम याद आये । भई याद नहीं आया तो कोई बात नहीं । ज़रा
यहां क्लिक कर लीजिये और पहुंच जाईये उस पोस्‍ट पर ।

बहरहाल आईये आज सुनें दो सावन के दो अनमोल गाने । दिलचस्‍प बात ये है कि दोनों ही साहिर लुधियानवी ने लिखे हैं और दोनों का संगीत भी रोशन ने ही दिया है । एक और समानता है इन दोनों गानों की । ये गाने सावन के महीने में उत्‍तर भारत में पड़ने वाले झूले के गीत हैं । बाग़ों में झूले पड़ गये हैं, सखियां झूलों की पेंग भरते हुए किसिम किसम की शरारतें कर रही हैं । और गीत गा रही हैं । और यूं लग रहा है कि जैसे बारिश का, सावन का ये मौसम नहीं होता और ये समां नहीं बंधता तो क्‍या होता हमारा । पर अपने दिल में झांककर देखें तो पाते हैं कि अब कहां वो झूले, और अब कहां वो सावन । सावन की फुहार पड़ती है तो लगता है कि थोड़ी बारिश रूक जाए तो बाहर निकले । कमबख्‍त बारिश । किसी ज़माने में लोग इसे ‘हाय बारिश’ कहते थे । अब ये कमबख्‍त बारिश है । आधुनिकता और शहरीकरण ने जिन चीज़ों को, जिस मज़े को हमसे छीन लिया है उसमें ये भी शामिल है । ऐसा ना हो कि आगे चलकर हमें एक फेहरिस्‍त बनानी पड़ जाए कि शहरों की और विदेशों की तरफ भागते हुए हमने किन चीज़ों को बिसरा दिया, भुला दिया, खो दिया ।
इस मुद्दे पर भले सोचते रहिये पर ये दोनों गीत सुनकर कल्‍पना की दुनिया में सावन के झूलों का आनंद लीजिए--

गरजत बरसत सावन आयो रे—बारिश का ये गीत । बरसात की रात फिल्‍म का ये गीत लता मंगेशकर और कमल बारोट ने गाया है । सावन पर लिखे गये एकदम ललित गीतों में इसका शुमार होता है । रोशन ने इसकी धुन को एकदम शास्‍त्रीय रखा है । लता जी और कमल बारोट की आवाज़ें जैसे एक दूसरे में घुलमिल गयी हैं । कुल मिलाकर इस गाने को सुनकर मन मोर जैसे नाच उठता है ।

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गरजत बरसत सावन आयो रे
लायो ना संग में हमरे बिछड़े बलमवा ।।
रिमझिम रिमझिम मेहा बरसे
तरसे जियरवा नील समान
पड़ गई फीकी लाल चुनरिया
पिया नहीं आए । गरजत बरसत ।।
पल पल छिन छिन पवन झकोरे
लागे तन पर तीर समान,
नैनन जल सों गीली चदरिया अगन लगाए
गरजत बरसत ।।

आपको बता दूं कि इसी तरह का एक गीत फिल्‍म मल्‍हार में भी था—बोल थे, गरजत बरसत भीजत आईलो, ममता इस गीत को बड़े उत्‍साह से गाती हैं । आप भी सुनिए और साथ में गाईये--



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सन 1967 में आई फिल्‍म ‘बहू बेगम’ का गीत है ‘पड़ गये झूले’ । साहिर लुधियानवी ने इसे लिखा और संगीत है रोशन का । ये उन गिने चुने गीतों में से एक है जिसे लता मंगेशकर और आशा भोसले ने एक साथ गाया है । इन गानों पर तो एक पूरी श्रृंखला की जा सकती है । सही मायनों में ये लोकगीत है । बिल्‍कुल भारतीय संगीत-संयोजन । ढोलक का बेहतरीन इस्‍तेमाल है इस गाने में । और कोरस बिल्‍कुल ऐसा चित्र बना देता है मानों आम के बाग़ में सखियां झूला डाल कर मस्‍ती में पेंग भर रही हों । इस गाने की एक पंक्ति है हमको ना भाए सखी ऐसी ढिठाई रे । कितनी कुशलता से साहिर ने सावन में झूला झूलती किसी सखी की मनोदशा को इस एक पंक्ति में पिरो दिया है । आपको बता दूं कि दूसरे अंतरे के बाद सितार की खूबसूरत धुन रखी गयी है । बारिश में मन वाकई सितार की तरह लहराने लगता है । रोशन इस तरह के गानों के बेहद माहिर संगीतकार रहे हैं । जहां तक मुझे याद आता है फिल्‍म बहू बेगम इसी गाने से शुरू होती है । ये गाना शानदार समां बांध देता है । आईये हम भी सुनें सखियों की बारिशी शरारत का ये गीत--



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पड़ गए झूले सावन रूत आई रे ।
सीने में हूक उठी अल्‍ला दुहाई रे ।।
चंचल झोंके मुंह को चूमें, बूंदे तन से खेलें ।
पेंग बढ़े तो झुकते बादल पांव का चुंबन ले लें ।
हमको ना भाई सखी रे ऐसी ढिठाई रे ।।
बरखा की मुं‍हज़ोर जवानी क्‍या क्‍या आफत ढाए ।
दिल की धड़कन जिस्‍म की रंगत, आंचल से छन जाए ।
हाय आंखों के आगे लुटे अपनी कमाई रे ।।
गीतों का ये अल्‍हड़ मौसम, झूलों का ये मेला ।
ऐसी रूत में हमें झुलाने आए कोई अलबेला ।
थामे तो छोड़े नहीं नाज़ुक कलाई रे ।।


कल रेडियोवाणी पर आप सुनेंगे गुलाम अली की आवाज़ में सावन का एक शानदार गीत ।


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Tuesday, August 21, 2007

शहनाई के शहंशाह बिस्मिल्ला ह खां के बिना एक साल


आज उस्‍ताद बिस्‍मिल्‍लाह ख़ान की बरसी है । पहली बरसी ।
शहनाई की स्‍वरलहरी पर अगर कोई चेहरा याद आता है तो वो बिस्‍मिल्‍लाह ख़ां का ही रहा है । मैंने जब से होश संभाला उन्‍हें बस उसी बनारसी अदा में देखा । सिर पर टोपी, पान से लाल हुए होंठ, चेहरे पर मुस्‍कान और बातों में वही बनारसी ठसक और पिनक । कब क्‍या और कितना तुर्श बोल दें कुछ नहीं पता ।



करीब दो साल पहले डॉ. शोमा घोष के बुलावे पर वो मुंबई के नेहरू सेन्‍टर में आए थे। वे शोमा घोष के गुरू पिता थे । बिस्‍मिल्‍लाह खां ने शोमा घोष के साथ अलबम भी तैयार किया और मंच पर प्रस्तुतियां भी कीं ।


बिस्मिल्‍लाह खां की शहनाई लाल किले की प्राचीर से हमेशा सुनाई देती रही । चाहे पंद्रह अगस्‍त हो या छब्‍बीस जनवरी । अब ये चिरंतन सत्‍य बन गया है कि कुछ शुभ हो, सुंदर हो तो शहनाई बजेगी और अगर शहनाई बजेगी तो वो बिस्मिल्‍लाह ख़ां की ही होगी । ठेठ बनारसी रंग में रंगे बिस्मिल्‍लाह ख़ा साहब ने सारी दुनिया को दिखा दिया कि धार्मिक-कट्टरता के बाहर निकलकर कुछ मुस्लिम कलाकारों ने किस तरह संगीत को अपना धर्म बनाया । काशी के घाटों पर बड़ी तन्‍मयता से शहनाई बजाने वाले बिस्मिल्‍लाह ख़ां पंजवक्‍ता नमाज़ी रहे । लेकिन धर्म को लेकर उनके मन में कोई रूकावट या हिचक नहीं थी । जब वो मूड में होते तो महादेव के भजन गुनगुनाते और ऐसी आवाज़ कि सुनकर लगे जन्‍म सफल हो गया है ।


मुंबई में पत्रकारों ने जब उनसे असुविधाजनक सवाल पूछे तो उन्‍होंने वो ख़बर ली थी कि पूछिये मत । उन्‍होंने वो मिसालें दीं और वो प्रसंग छेड़े के सिर्फ छेड़ने के लिए सवाल पूछने वाले एकदम सहम गये थे । बिस्मिल्‍लाह ख़ां ने शहनाई को शादी की महफिलों से निकालकर शास्‍त्रीय-संगीत की महफिल में सजा दिया । उन्‍होंने जीवन भर संगीत को ही जिया । तमाम तरह के विवादों और झंझटों के बावजूद बिस्मिल्‍लाह ख़ां शहनाई के शहंशाह हैं । और इस संक्षिप्‍त पोस्‍ट के ज़रिए रेडियोवाणी और संगीत के तमाम कद्रदान उन्‍हें श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं ।

आईये सुनें बिस्मिल्‍लाह ख़ां साहब का शहनाई वादन—
ये है उनकी बजाई कजरी--

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ये है एक पहाड़ी धुन--



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बिस्मिल्‍लाह ख़ां साहब ने शहनाई पर भांगड़ा तक बजाया है सुनिए—

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यहां सुनिए शादी की शहनाई—



उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खां और उ.अमीर खां साहब फिल्म गूंज उठी शहनाई ।



रागमाला फिल्‍म गूंज उठी शहनाई--






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Sunday, August 19, 2007

‘अपने आप रातों में’ और ‘आप यूं फासलों से गुज़रते रहे’—शंकर हुसैन फिल्म के दो बेमिसाल गीत, श्रृंखला की आखिरी कड़ी

‘शंकर हुसैन’ फिल्‍म के गानों पर मैंने एक श्रृंखला शुरू की थी । पिछले हफ्ते कोशिश की थी कि लंबे समय से टलती आ रही इस श्रृंखला को पूरा कर लिया जाये । लेकिन कुछ दिनों से म्‍यूजिक इंडिया ऑनलाईन का प्‍लेयर काम नहीं कर रहा था । इसलिए कोई फ़ायदा ही नहीं था । दरअसल ये गाने म्‍यूजिक इंडिया ऑनलाईन के सिवा कहीं दिख नहीं रहे हैं । बहरहाल आगे पढ़ने से पहले अगर आप इस श्रृंखला का पहला भाग पढ़ना चाहते हैं तो ये रहा लिंक--


कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।

हां तो मैं कह रहा था कि कई दिनों से ‘शंकर हुसैन’ फिल्‍म के गाने सुनवाकर इस श्रृंखला को खत्‍म करना चाह रहा था । पर सुनाने का एक तरीक़ा भी तो होता है ना । ये क्‍या कि बस उठे और गाना बजा दिया, लो सुनो । जी नहीं । गाना सुनाने का अपना अंदाज़ होता है । एक माहौल चाहिये, जिसमें व्‍यक्ति जिंदगी के भभ्‍भड़ से बाहर‍ निकलकर गीत की रचना और धुन में प्रवेश कर सके और फिर उसे सुकून का विंध्‍याचल नसीब हो पाए ।

तो आज बहुत दिनों बाद ऐसा रविवार मिला है, जब फ़ुरसत की बयार चल रही है, मुंबई के ‘लीकिंग स्‍काई’ से डरावनी बारिश नहीं हो रही बल्कि मद्धम फुहारें चल रही हैं । विविध भारती की उद्घोषिका मेरी पत्‍नी (गृहस्‍थी के किसी सामान की) फ़रमाईश नहीं कर रही है, सुबह के अख़बार पढ़कर एक तरफ रख दिये गये हैं । ब्रॉडबैंड, जिसने पिछले दिनों हमें चिट्ठाकारी से जुदा कर दिया था आज मेहरबान है, यानी पूरा समां है । आईये सुनें—शंकर हुसैन फिल्‍म के नग्मे ।

पहले
ज्ञान जी का मनपसंद गाना, जिसके बोल ‘कैफ़ भोपाली’ ने लिखे हैं, आपको बता दूं कि कैफ़ भोपाली पर आप जल्‍दी ही मेरी एक लंबी पोस्‍ट पढ़ेंगे, जिसमें उनकी शायरी से परिचित कराया जायेगा आपको । ख़ैयाम की तर्ज़ है जो अपनी धुनों की नाज़ुकी के लिए जाने जाते हैं । प्रदीप कुमार कंवलजीत सिंह और मधु चंदा इस फिल्‍म के सितारे थे और निर्देशक थे यूसुफ़ नकवी । पता नहीं इस फिल्‍म का क्‍या हश्र हुआ पर गाने इतने बेमिसाल थे कि आज भी दुनिया भर में पसंद किये जाते हैं ।

मैं जिस गीत की बात कर रहा हूं वो है—‘अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं’
इस गाने को सुनने के लिए यहां क्लिक कीजिए ।

गाना बहुत मीठी धुन के साथ शुरू होता है, जिसमें सितार की लहराहट है । इसके बाद लता जी का सघन स्‍वर, जज़्बात से धड़कती एक शीरीं आवाज़ । यूं लगता है जैसे लता जी अपने आप में ही मगन हैं, कहीं किसी और ही दुनिया से आ रही है उनकी आवाज़, इस गाने का इंटल्‍यूड सुनिए तो हैरत होती है कि ऐसा मद्धम और ख़ामोश इंटरल्‍यूड भी हो सकता है, जबकि आज ढक चिक ढक चिक करते हुए संगीत का सत्‍यानाश-सा हो रहा है ।

शायरी के पैमाने पर ये गीत बहुत ऊंचा है । इतने नाज़ुक जज़्बात इस गाने में पिरोये गये हैं कि कहने ही क्‍या, चूडियों के खनकने, पायलों के छनकने, दरवाज़ों के चौंकने, गागरों के छलकने को कैफ़ साहब ने सीधे शायरी में उतार दिया है । इसकी जोड़ का दूसरा गीत आपको खोजे नहीं मिलेगा । कैफ़ साहब शायरी में काफी ऊंचाई पर पहुंचे पर संगदिल फिल्‍मी दुनिया में उन्‍हें कामयाबी ज्‍यादा नहीं मिली ।

मुझे याद है कि मुशायरों में कैफ़ साहब बेहद बुज़ुर्ग कांपते हाथ पैरों के साथ आते थे और फिर अपने पोपले मुंह से सुनाते थे अपनी ग़ज़लें—वो भी तरन्‍नुम में । और यक़ीन मानिए लोग फिर फिर सुनाने की गुज़ारिश करते थे । ये मेरे किशोरावस्‍था कि दिनों की अनमोल याद है । कैफ़ की वो ग़ज़ल सुनी है आपने--

तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है
तेरे आगे चांद पुराना लगता है
तिरछे तिरछे तीर नज़र के चलते हैं
सीधा सीधा दिल पे निशाना लगता है
पांव ना बांधा पंछी का पर बांधा है
आज का बच्‍चा कितना सयाना लगता है ।।

ख़ैर कैफ़ के बारे में ज्‍यादा जानना चाहते हैं तो मैं जल्‍द ही ला रहा हूं अपनी एक विस्‍तृत पोस्‍ट । इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार ।


फिलहाल ये गाना सुनिए—और पढिये ।

इसके बोल ये रहे—
अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं
चौंकते हैं दरवाज़े, सीढियां धड़कती हैं
अपने आप ।।

एक अजनबी आहट आ रही है कम-कम-सी
जैसे दिल के परदों पर गिर रही हो शबनम-सी
बिन किसी की याद आए, दिल के तार हिलते हैं
बिन किसी के खनखनाए चूडियां खनकती हैं
अपने आप ।।

कोई पहले दिन जैसे घर किसी-के जाता है
जैसे खुद मुसाफिर को रास्‍ता बुलाता है
पांव जाने किस जानिब, बे-उठाए उठते हैं
और छम-छम-छम पायलें झनकती हैं
अपने आप ।।

जाने कौन बालों में उंगलियां पिरोता है
खेलता है पानी से, तन बदन भिगोता है
जाने किसके हाथों से गागरें छलकती हैं
जाने किसके दाग़ों से बिजलियां लपकती हैं
अपने आप ।।

अब आज का दूसरा गीत—शंकर हुसैन फिल्‍म का ।

इसके बोल हैं—आप यूं फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे ।।
इसे जांनिसार अख्‍तर ने लिखा है । तर्ज़ ख़ैयाम की ।

ये गाना लता जी की गूंजती आवाज़ के साथ शुरू होता है, बेहतरीन आलाप है ये, एकदम मद्धम । इस गाने की धुन में कुछ तो जादू है, एक लहराहट, एक कशिश, एक तिलस्‍म, मुखड़े के बाद जब आप ग्रुप वायलिन और उसमें घुली बांसुरी को सुनते हैं तो दिल अश-अश कर उठता है । इस सबके साथ इस गाने की शायरी, मुझे तो ये ख्‍याल ही लुभा जाता है कि आप फ़ासलों से गुज़रते रहे और दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही । इंतेहा है ये मुहब्‍बत की । फिर वो पंक्ति जिसे पहले लता जी अधूरा छोड़ देती हैं, फिर दोहरा के पूरा करती हैं—क़तरा क़तरा पिघलता रहा आसमां, रूह की वादियों में जाने कहां, एक नदी दिलरूबा गीत गाती रही’ ।

फिर लता की हल्‍की-सी हंसी, जो बहुत कम गानों में सुनाई देती है ।

फिर वो अंतरा आता है जो बेहद सेन्‍सुअल हो सकता था, लेकिन शायर की कुशलता से नाज़ुक मुहब्बत का उरूज/शिखर बन गया है ये । जहां लता जी गाती हैं---आपकी गर्म बांहों में खो जाएंगे...........आपके नर्म ज़ानों पे सो जायेंगे.........इसके बाद एक हल्‍का-सा पॉज़ और फिर लता जी अपने सुर को थोड़ा सा ऊपर उठाकर गाती हैं---‘मुद्दतों रात नींदें चुराती रही’ । सच मानिए तो मैं इस एक पंक्ति पर ही कुरबान हूं । आपको पता है मुझे इस पंक्ति के बाद झट से गाना खत्‍म होने पर अफ़सोस होता है । इसलिए मैं अपने मीडिया प्‍लेयर पर इसे रिपीट फॉर-एवर लगाकर बजाता हूं । एक बार सुनने से संतुष्टि नहीं होती । लता जी ने इसे वाक़ई अलग ही अंदाज़ में गाया है ।

अब ये भी बता दूं कि मेरी पत्‍नी को भी ये गीत बहुत बहुत पसंद है और अकसर वे विविध भारती पर अपने छायागीत में बजाती हैं । घर पर जब ममता ये गीत गुनगुनाती हैं तो भला-भला सा लगता है । दिन संवर जाता है । आप लता जी की आवाज़ में सुनिए ये गीत---


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यहां पढ़ि‍ए--

आप यूं फासलों से गुज़रते रहे

दिल से कदमों की आवाज़ आती रही

आहटों से अंधेरे चमकते रहे

रात आती रही रात जाती रही

गुनगुनाती रहीं मेरी तन्‍हाईयां

दूर बजती रहीं कितनी शहनाईयां

जिंदगी जिंदगी को बुलाती रही

क़तरा-क़तरा पिघलता रहा आसमां

रूह की वादियों में जाने कहां

इक नदी दिलरूबा गीत गाती रही

आप की गर्म बांहों में खो जाएंगे

आप के नर्म ज़ानों पे सो जायेंगे

मुद्दतों रात नींदें चुराती रही

आप यूं फ़ासलों से गुज़रते रहे ।।

शंकर हुसैन में एक क़व्‍वाली भी है । कैफी आज़मी ने लिखी है और गाई है—अज़ीज़ नाज़ां, बब्‍बन ख़ान और साथियों ने । बेहतरीन बोलों वाली क्‍लासिक कव्‍वाली है । इसे आप यहां सुन सकते हैं ।



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Saturday, August 18, 2007

कव्वाली में कन्हैया—सुनिए फरीद अयाज़ की आवाज़ में ये अदभुत कव्वाली-- कन्हैया याद भी है कुछ हमारी

आज तो कमाल हो गया । मैं इंटरनेट पर नज़ीर अकबराबादी की रचना ‘कन्‍हैया का बांकपन’ खोज रहा था । इसे पीनाज़ मसानी ने गाया है और विविध भारती में इसका रिकॉर्ड सही सलामत है । ख़ैर ये रचना तो नहीं मिली मगर कुछ ऐसा मिला है कि ऐन दफ्तर जाने से ठीक पहले सब कुछ छोड़कर मुझे ये पोस्‍ट लिखनी पड़ रही है । जी हां आज मैं रात्रि प्रसारण कर रहा हूं ।
मुझे मिली हैं कुछ क़व्‍वालियां । आमतौर पर क़व्‍वालियों से मेरा ज्‍यादा अनुराग नहीं रहा है । इसकी कई वजहें रही हैं । पर मुझे कुछ चुनिंदा क़व्‍वालियां पसंद है, जिसमें कबीर की एक रचना है जिसे श्‍याम बेनेगल ने अपनी फिल्‍म ‘मंडी’ में इस्‍तेमाल किया था—‘हर में हर को देखा रे बाबा हर में हर को देखा’ इसके अलावा दो चार और होंगी बस । बहरहाल आज मुझे प्राप्‍त हुई हैं फ़रीद अयाज़ क़व्‍वाल की क़व्‍वालियां ।
इंटरनेट पर मुझे फ़रीद अयाज़ के बारे में ज्‍यादा कुछ पता नहीं चल सका । बस इतना पता चला कि ये विशुद्ध क़व्‍वाली को निभाने वाली फ़नकार हैं जिनका ताल्‍लुक भारत से रहा है पर अब रहते हैं पाकिस्‍तान में । दुनिया भर में इनकी कव्‍वालियों की म‍हफिलें काफी चर्चित रही हैं । इनके बारे में ज्‍यादा जानकारी बाद में जुटाई जायेगी, फिल्‍हाल सुनिए ये क़व्‍वालियां ।

इस कव्‍वाली का उन्‍वान है—कन्‍हैया याद भी है कुछ हमारी ।
मुझे अद्भुत लगा कि कव्‍वाली और वो भी कन्‍हैया पर । हालांकि ये अजीब नहीं है । कन्‍हैया सबके प्रिय रहे हैं । क़व्‍वालों और सूफियों के भी ।
ये रहा इस क़व्‍वाली का यू ट्यूब वीडियो । जो वीडियो से ज्‍यादा तस्‍वीरों का मोन्‍टाज है ।

ये रहे इसके बोल--
कन्‍हैया बोलो याद भी है कुछ हमारी,
कहूं क्‍या तेरे भूलने के मैं वारी
बिनती मैं कर कर पमना से पूछी
पल पल की खबर तिहारी
पैंया परीं महादेव के जाके
टोना भी करके मैं हारी
कन्‍हैया याद है कुछ भी हमारी
खाक परो लोगो इस ब्‍याहने पर
अच्‍छी मैं रहती कंवारी
मैका में हिल मिल रहती थी सुख से
फिरती थी क्‍यों मारी मारी ।
कन्‍हैया कन्‍हैया ।।


इनकी कुछ और क़व्‍वालियां भी मिली हैं । हौसला अफ़ज़ाई तो कीजिये, ज़रूर पेश की जायेंगी ।
अगर आप फरीद अयाज़ कव्‍वाल के बारे में ज्‍यादा जानते हैं तो ज़रा मुझे भी टॉर्च दिखाईये ।


इस क़व्वाली की लिंक ये रही । इसे कट पेस्ट कीजिये या फिर यहां क्लिक कीजिए
http://youtube.com/watch?v=GjQBG7A3bLg

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ज्ञान जी की फ़रमाईश पर फिल्म रूदाली के गीतों पर आधारित श्रृंखला: पहला भाग--दिल हूम हूम करे

भूपेन हज़ारिका के गीत—ओ गंगा बहती हो क्‍यों‘ के बारे में मेरी पिछली पोस्‍ट पर बहुत प्रतिक्रियाएं आईं । अज़दक ने इशारा भी किया कि ये गीत थोड़ा सा भगवा है । बाक़ी सभी को ये गीत बहुत दिनों बाद सुनकर अच्‍छा ही लगा । लेकिन ज्ञानदत्‍त जी ने कल-परसों कहा कि क्‍या मैं ( उनकी पत्‍नी की फरमाईश पर )फिल्‍म ‘रूदाली’ के गीत सुनवा सकता हूं । हालांकि ‘रूदाली’ के गीत सुनवाने का मन उसी दिन किया था जब मैंने ‘गंगा’ वाला गीत पेश किया था । लेकिन लगा कि फिर कभी सुनवाये जायेंगे । रेडियो वालों को फ़रमाईशों पूरी करने का बड़ा शग़ल होता है । सच कहें तो हमें भी है, लीजिये भूपेन हज़ारिका के गानों पर पूरी लेकिन अनियमित श्रृंखला शुरू हो रही है । ख़ासकर रूदाली पर । अनियमित इसलिए कि बीच-बीच में हम ग़ायब भी होते रहेंगे और कुछ दूसरी बातें भी करते रहेंगे ।


भूपेन हज़ारिका के संगीत के बारे में लिखने का मतलब है लोक संस्‍कृति के गहरे रंग से सराबोर हो जाना । भूपेन का के बारे में बात करने से पहले आपको ये बताना चाहता हूं कि मेरा ताल्‍लुक बुंदेलखंड से है । बचपन भोपाल में बीता, उन दिनों मैं बुंदेलखंडी बोली से पूर्णत: अनभिज्ञ था बल्कि अपने तथाकथित शहरी दंभ में बुंदेलखंडी को गांव वालों की बेकार बोली समझता था । बचपना था ना । शहरी परवरिश ने अपना असर दिखाया था । लेकिन समय का फेर देखिए, कि बचपन बीता किशोरवस्‍था के अंतिम दिन थे और पापा का ट्रांस्‍फर हो गया म.प्र. के सागर शहर में ।

समय के प्रवाह ने हमें बुंदेलखंड लाकर पटक दिया । शुरू में थोड़ा बुरा लगा लेकिन बाद में मन इतना रम गया कि पूछिये मत । बुंदेलखंड ने मुझे अपने सबसे प्‍यारे दोस्‍त दिये हैं । वो तमाम दोस्‍त, जो ज़िंदगी के हर मोड़ पर एक आवाज़ पर चले आएं । बड़े प्‍यारे और यादगार लम्‍हे हैं वो जो सागर में बीते । यहां आकर मेरी बुंदेलखंडी जड़ों ने अपना असर दिखाया । मैंने बुंदेली बोली बोलना सीखा । बुंदेली लोकगीतों से मेरा परिचय बढ़ा । आज हालत ये है कि मैं बुंदेलखंड के ठस्‍स और बिल्‍कुल लट्ठ लोगों को बहुत ‘मिस’ करता हूं ।

किसी ने एक बार कहा था कि बुंदेलखंड के किसी व्‍यक्ति से नाम पूछो---
काय भैया का नांव आय तुमाओ
जवाब मिलेगा—काय, तुमें का कन्‍ने ।

समझ तो गये ही होंगे आप । पूछने वाला पूछ रहा है, नाम क्‍या है तुम्‍हारा । जवाब देने वाला कह रहा है क्‍यों तुम्‍हें क्‍या करना मेरे नाम से ।

ऐसा है बुंदेलखंड, किसी दिन विस्‍तार से बुंदेली मिज़ाज और लोकगीतों की चर्चा की जाएगी । समीर भाई---काय बड्डे, चीन नईं रए का ।

दरअसल ये जिक्र इसलिये क्‍योंकि भूपेन की आवाज़ में मिट्टी की सोंधी खुश्‍बू है, उनके गीत‍ किसी बांग्‍ला फ़कीर के गीतों की तरह हैं, जो चिमटा बजाते हुए गांव के बीचोंबीच से गुज़र रहा है । आज से मैं जो श्रृंखला आरंभ कर रहा हूं उसमें हम भूपेन हज़ारिका के फिल्‍म रूदाली के गीत सुनेंगे । लेकिन सिर्फ सुनेंगे ही नहीं बल्कि उनका विश्‍लेषण भी करेंगे । उनकी पड़ताल भी करेंगे । और कुछ गीत तो ऐसे हैं जिनके मूल बांगला गीत भी आपको सुनवाए जाएंगे ।

फिल्‍म रूदाली महाश्‍वेता देवी की कथा पर आधारित थी । जहां तक मेरी जानकारी है बंगाल की जानी मानी रंगमंच कलाकार निर्देशिका उषा गांगुली के इसी नाम के नाटक को देखकर कल्‍पना लाजमी को रूदाली बनाने की प्रेरणा मिली थी । ये फिल्‍म सन 1993 में आई थी । गुलज़ार के गीत और भूपेन हज़ारिका का संगीत ।

इस फिल्‍म के गानों की ख़ासियत ये है कि ज्‍यादातर गीत भूपेन हज़ारिका के पुराने अलबमों से ली गयी धुनों पर आधारित हैं । ज़ाहिर है कि बांगला या असमिया भाषा में गीत उतने व्‍यापक लोकप्रिय नहीं हुए, जितने हिंदी में । तो आईये आज सुनें—दिल हूम हूम करे, घबराए ।

गाने का ओपनिंग म्‍यूजि़क ही जैसे दिल में उतर जाता है । ग्रुप वायलिन के साथ हल्‍के से नगाड़े और मेटल फ्लूट । और उसके बाद लता जी या भूपेन दा की आवाज़ । ऐसा तिलस्‍मी समां बंधता है कि क्‍या कहें । मुखड़े के बाद सारंगी की जो तान आती है, वो बड़ी ललित लगती है । ये तान पूरे गीत के इंटरल्‍यूड में बार बार आती है । मन थिरक उठता है । जिस तरह का संगीत-संयोजन रूदाली में भूपेन हजारिका ने किया है, वैसा हिंदी फिल्‍मों में बहुत कम देखा गया है । बरसों पहले भूपेन हज़ारिका ने कल्‍पना लाजमी की फिल्‍म ‘एक पल’ के लिए कुछ अद्भुत गीत दिये थे । शायद आपको याद होंगे । ‘ज़रा धीरे ज़रा धीरे लेके जैयो डोली, बड़ी नाज़ुक मेरी जाई मेरी बहना भोली’ । बहुत ही मार्मिक डोली गीत है ये । कभी मौक़ा लगा तो सुनवाऊंगा ।

फिलहाल ये गीत लता मंगेशकर और भूपेन हज़ारिका दोनों की आवाज़ में पेश है । हालांकि मुझे लगता है कि गायन की दृष्टि से ये लता मंगेशकर के श्रेष्‍ठतम गीतों में से एक है । लेकिन इस सबके बावजूद भूपेन दा की आवाज़ में गीत ज्‍यादा तरल और मार्मिक बन पड़ा है । एक अहम मुद्दा ये है कि जो गीत पुरूष और महिला स्‍वरों में अलग अलग बनाए गये हैं, यानी दोनों सोलो वर्जन । उनमें बहुधा पुरूष गायक वाला संस्‍करण ज्‍यादा लोकप्रिय हुआ है । शायद ज्‍यादा रचनात्‍मक भी । एक गाना इसका अपवाद है—‘हमें तुमसे प्‍यार कितना’ । कुदरत फिल्‍म का ये गीत परवीन सुल्‍ताना की आवाज़ में ज्‍यादा कलात्‍मक है । हां लोकप्रिय किशोर दा वाला संस्‍करण है ।

बहरहाल इस गाने की लेखनी को ही लीजिये । ठेठ गुलज़ारी गीत है ये । मुझे याद है जिन दिनों ये गीत आया था लोग अकसर मज़ाक़ में ही पूछते थे ये हूम हूम क्‍या होता है, क्‍या किसी का दिल हूम हूम करता है । लेकिन अगर ये गीत संवेदनाओं का सरल संप्रेषण ना कर रहा होता तो क्‍या आज चौदह साल बाद हम इसकी महफिल जमाए होते । ‘ओ मोरे चंद्रमा तेरी चांदनी अंग जलाए’ जैसी पंक्ति गुलज़ार की ही कलम से आ सकती है । संगीत-संसार के हम सब सुधी श्रोता आभारी हैं इन तमाम कलाकारों के, जिन्‍होंने इस गीत को रचा । ये रहे इस गाने के बोल ।


दिल हूम हूम करे, घबराए,
घन घम घम करे, गरजाए
एक बूंद कभी पानी की मोरी अंखियों से बरसाए
तेरी झोरी डारूं, सब सूखे पात जो आए
तेरा छूआ लागे, मेरी सूखी डाल हरियाए
दिल हूम हूम करे ।।

जिस तन को छूआ तूने
उस तन को छुपाऊं
जिस मन को लागे नैना,
वो किसको दिखाऊं
ओ मेरे चंद्रमा तेरी चांदनी अंग जलाए
दिल हूम हूम करे ।।

आपको बता दूं कि इस गीत के तीन संस्‍करण नीचे दिये जा रहे हैं । पहला है लता जी वाला संस्‍करण । फिर भूपेन हज़ारिका वाला । और उसके बाद भूपेन हज़ारिका का मूल बांगला संस्‍करण—मेघ घम घम करे । सुनिए और आनंद लीजिये । अगर आप इस गाने का फिल्‍मांकन भी देखना चाहते हैं तो सबसे नीचे यूट्यूब से लिया वीडियो भी लगा दिया गया है ।



dil hum hum kare- lata


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dil hum hum---bhupen


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megh gham gham kare-bangla version.


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दिल हूम हूम करे-वीडियो


भूपेन दा पर आधारित पिछली पोस्ट. पढ़ने के लिये नीचे शीर्षक पर क्लिक करें--
ओ गंगा बहती हो क्यूं

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Friday, August 17, 2007

अहमद वसी का गीत ‘शाम रंगीन हुई है तेरे आंचल की तरह’—क्‍या आप इसे ढूंढ रहे थे ।


शाम रंगीन हुई है तेरे आंचल की तरह—ये गीत आसानी से उपलब्‍ध नहीं होता, लेकिन मेरे एक मित्र कहते हैं कि बड़ा ही संक्रामक गीत है, दिमाग़ पर ऐसा चढ़ जाता है कि बस गुनगुनाते रह जाओ । मैंने पहले भी कहा है कि कई फिल्‍में ऐसी होती हैं जिनका बाद में कोई नामलेवा नहीं रहा लेकिन उनके कुछ गीत इतने लोकप्रिय हुए कि लोग उन्‍हें ढूंढ ढूंढ कर सुनते हैं । ये इसी तरह का नग़मा है ।

हैदराबाद की अन्‍नपूर्णा जी ने इस गाने की याद दिलाई थी बहुत दिन पहले । लेकिन इंटरनेट पर ये गीत कहीं मिल ही नहीं रहा था । आज मिला है तो बहुत अच्‍छा लग रहा है, आपको बता दूं कि ये गीत विविध भारती में उद्घोषक रह चुके अहमद वसी ने लिखा है । संगीत सी. अर्जुन का है और आवाज़ें हैं सुरेश वाडकर और उषा मंगेशकर की । फिल्‍म क़ानून और मुजरिम का ये गीत अपनी शानदार धुन और बेहतरीन संगीत संयोजन की वजह से यादगार बन गया है ।

इस गाने की शायरी वाक़ई बेमिसाल है । मुखड़ा ही कितना नाज़ुक सा बन पड़ा है । शाम रंगीन हुई है तेरे आंचल की तरह—अपने आप में अनूठी कल्‍पना है ये । मुझे पहली दोनों पंक्तियां बहुत ही अच्‍छी लगती हैं—शाम रंगीन हुई है तेरे आंचल की तरह, सुरमई रंग सजा है तेरे काजल की तरह ।

गाना बहुत ही शानदार सिग्‍नेचर म्‍यूजिक के साथ शुरू होता है और उसके बाद आती है सुरेश वाडकर की आवाज़ । जिस तरह लहराकर उन्‍होंने ‘शाम’ कहा है, वो उफ़ करने लायक़ है । उषा मंगेशकर के यादगार गीतों में इस गाने की गिनती होती है । संगीतकार सी. अजुर्न का नाम कम ही लोग जानते हैं । बड़े ही विनम्र और जिंदादिल इंसान थे सी.अर्जुन । आप सबको फिल्‍म पुनर्मिलन का उनका बनाया गीत याद होगा—पास बैठो तबियत बहल जाएगी, मौत भी आ गयी हो तो टल जाएगी । अर्जुन भी उन संगीतकारों में से एक हैं जो पहली पंक्ति के कलाकारों में अपना नाम दर्ज नहीं करा पाए । इसके अनेक कारण हो सकते हैं ।

तो आईये इस गाने को सुनें और पढ़ें ।











शाम रंगीन हुई है तेरे आँचल की तरह
सुरमई रंग सजा है तेरे काजल की तरह
पास हो तुम मेरे दिल के मेरे आँचल की तरह
मेरी आँखों में बसे हो मेरे काजल की तरह

मेरी हस्ती पे कभी यूँ कोई छाया ही न था
तेरे नज़दीक मैं पहले कभी आया ही न था
मैं हूँ धरती की तरह तुम किसी बादल की तरह
सुरमई रंग सजा है तेरे काजल की तरह

आसमां है मेरे अरमानों का दरपन जैसे
दिल यूँ धड़के कि लगे बज उठे कंगन जैसे
मस्त हैं आज हवाएं किसी पायल कि तरह
सुरमई रंग सजा है तेरे काजल की तरह

ऐसी रंगीन मुलाक़ात का मतलब क्या है
इन छलकते हुए जज़्बात का मतलब क्या है
आज हर दर्द भुला दो किसी पागल की तरह


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Wednesday, August 15, 2007

आईये सुनें-- वंदे मातरम् और ये जो देस है तेरा

देश की आज़ादी की साठवीं सालगिरह के मौक़े पर पेश हैं दो बेमिसाल नग़्मे । एक पुराना और एक एकदम नया ।

सबसे पहले आईये 'आनंद मठ' फिल्‍म का 'वंदे मातरम्' सुनें ।
ये गीत दुर्लभ तो है ही साथ ही हमारी स्‍मृतियों पर भी छाया हुआ है, ये हमारी रूह में बसे हैं ।
हमारी संस्‍कृति का हिस्‍सा है । हमारे रक्‍त में घुला है ।

मैं स्‍वयं ए.आर. रहमान के प्रशंसकों और आलोचकों में से हूं । प्रशंसक होने का मतलब ये नहीं कि आपको किसी व्‍यक्ति की सारी अदाएं पसंद हों । असहमतियों की गुंजाईश हमेशा होनी चाहिये । तो रहमान के संगीत से कहीं कहीं मेरी असहमतियां भी हैं । वरना बहुधा मैं उनका प्रशंसक ही हूं । रहमान का ज़ि‍क्र इसलिए कि उनके बनाए 'वंदे मातरम्' के अनेक संस्‍करण हैं । पहला संस्‍करण 'मां तुझे सलाम' मुझे बेहद प्रिय है । पर अन्‍य कई संस्‍करण काफी तकनीकी लगते हैं ।

अगर आप 'आनंद मठ' के इस संस्‍करण को सुनेंगे तो पायेंगे कि इसमें एक ईमानदारी है, इसमें एक जुनून है । एक सच्‍चाई है । यहां तकनीक हावी नहीं हुई है । रहमान वाले संस्‍करण में आधुनिकता है, पर कहीं ना कहीं कलाबाज़ी भी है । और कलाबाज़ी चीज़ों को नकली बना देती है ।

अगर दोनों संस्‍करणों की तुलना की जाए तो मैं इस संस्‍करण को ही पसंद करूंगा ।
सुनिए--लता जी और हेमंत कुमार की जोशीली आवाज़ें । साथ में कोरस । बेहद सरल संगीत और शायद यही वजह है कि जब भी रेडियो चैनलों से ये गीत बजता है तो दिल को सुकून महसूस होता है कि ये गीत अब भी बचा है । ये संस्‍करण अब भी सुना जाता है । तो आप भी सुनिए--बार बार सुनिए--

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दूसरा गीत जो मैंने चुना है वो फिल्‍म 'स्‍वदेस' का है ।

आमतौर पर देश‍भक्ति के गीतों में एक अजीब-सी नारेबाज़ी और काग़जीपन नज़र आता है लेकिन इस गाने में ऐसा नहीं है । ये एक सच्‍चा गीत है । जिसके लिए लिखा गया उस पर एकदम तीर चलाता है । शाहरूख़ ख़ान स्‍वदेस में नासा में काम कर रहे एक युवा भारतीय वैज्ञानिक हैं, जिन्‍हें अपने देस की बड़ी याद आती है । एक अपराध बोध है जो उन्‍हें साल रहा है, उन्‍हें वापस लौटने के लिए प्रेरित कर रहा है ।

इस गाने को वाक़ई जावेद अख्‍तर ने एन आर आई जनरेशन को समर्पित किया है । ये सच है कि विदेशों में रह रहे भारतीयों के मन में भारत के प्रति एक अजीब सा नॉस्‍टेलजिया होता है, देश लौटने की चाह होती है । पर ग़मे-रोज़गार या अन्‍य कारणों से लोग साहस कर नहीं पाते । चाहकर भी लौट नहीं पाते । जावेद अख्‍तर का ये गीत अपनी हर पंक्ति से उन अप्रवासी भारतीयों की मनोदशा को व्‍यक्‍त करता है । ज़रा इसके बोलों पर नज़र डालिये---


जो देस है तेरा, स्‍वदेस है तेरा
ये वो बंधन है जो कभी टूट नहीं सकता ।।
मिट्टी की है जो खुश्‍बू, तू कैसे भुलाएगा
तू चाहे कहीं जाए, तू लौट के आयेगा
नई नई राहों में, दबी दबी आहों में
खोए खोए दिल से तेरे, कोई ये कहेगा
ये जो देस है तेरा, स्‍वदेस है तेरा ।।
तुझसे जिंदगी है ये कह रही,
सब तो पा लिया,अब है क्‍या कमी
यूं तो सारे सुख हैं बरसे,
पर दूर तू है अपने घर से
आ लौट चल तू अब दीवाने
जहां कोई तो तुझे अपना माने
आवाज़ दे तुझे बुलाने, वही देस
ये जो देस है तेरा, स्‍वदेस है तेरा ।।
ये पल हैं वही, जिसमें है छुपी
कोई इक सदी, सारी जिंदगी,
तू ना पूछ रास्‍ते में काहे
आये हैं इस तरह दो राहे
तू ही तो है राह जो सुझाये
तू ही तो है अब जो ये बताए
जाये तो किस दिशा में जाए वही देस
ये जो देस है तेरा ।।

इस गाने का संगीत-संयोजन मुझे बहुत प्रिय है । इसके कई कारण हैं । रहमान ने बड़े ही अनूठे तरीक़े
से इसमें शहनाई का प्रयोग किया है । बहुत समय बाद शहनाई इतनी प्रोमिनेन्‍ट होकर किसी गाने में आई है। इसी तरह से कोरस का भी बेहतरीन इस्‍तेमाल है इस गाने में । खास बात ये है कि रहमान के कुछ गानो की तरह यहां बोल संगीत में दब नहीं जाते । बल्कि उभरकर दिल में हलचल पैदा करते हैं ।

ये जो देस है तेरा--यहां सुनिए--
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इस गाने को आप यहां देख सकते हैं --







रहमान ने इस गाने की शहनाई पर बजाई धुन भी स्‍वदेस की सी.डी. में रिलीज़ की थी ।
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इस धुन को सुनिए यहां पर और बताईये कि क्‍या ये धुन आपको एक अजीब तरह का सुकून नहीं
देती । क्‍या आपको ये अहसास नहीं देती कि आज के ज़माने के कलाकार भी अच्‍छा संगीत बना रहे हैं ।



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Tuesday, August 14, 2007

देखिए नेहरू जी का भाषण ‘ट्रिस्‍ट विद डेस्टिनी’, साथ में सुभाषचंद्र बोस का वीडियो, पंद्रह अगस्‍त 47 का वीडियो और रामधारी सिंह दिनकर की कविता

कल पंद्रह अगस्‍त है, भारत की आज़ादी की साठवीं सालगिरह ।

मुझे हमेशा से लगता रहा है कि क्‍या कभी हम देख सकते हैं कैसा रहा होगा पंद्रह अगस्‍त 1947 का भारत ।

आकाशवाणी से मैंने कई बार मैंने पं. जवाहर लाल नेहरू का भाषण ‘ट्रिस्‍ट विद डेस्टिनी’ सुना है । आज अचानक इसका वीडियो मिल गया, तो सोचा चलो सबको दिखाएं--
ये रहा वो वीडियो--







इस भाषण का आलेख विकीपीडिया पर उपलब्‍ध है । इसे आप यहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं ।


ये नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आवाज़ और उनका एक दुर्लभ वीडियो है--






और ये किसी डॉक्‍यूमेन्‍ट्री का हिस्‍सा—जिसमें भारत की आज़ादी की ख़बर दी गई है ।



और अंत में रामधारी सिंह दिनकर की ये कविता—जो कविता कोश में मिली, इसे मैंने बचपन में अपने कोर्स में पढ़ा था--

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल
पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही लपट दिशाएं
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल



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Monday, August 13, 2007

आज याद आ रहे हैं बचपन के देशगान

बचपन में मैं शिशु मंदिर में पढ़ा हूं । इससे कई फ़ायदे हुए । एक तो संस्‍कृत आ गई, दूसरे साहित्‍य के संस्‍कार गहरे पड़ गये । भोपाल के वो दिन याद हैं जहां शिशु मंदिर में देशगान बहुत होते थे । सुबह की प्रार्थना से लेकर आखिर के विसर्जन मंत्र तक जब भी मौक़ा मिले देशगान हो जाया करता था । ऐसे कितने ही गीत मुझे याद रहे हैं । और ये सोचकर वाक़ई अच्‍छा लगता
है । आज के बच्‍चों को अगर ये गीत लिखकर दे दिये जायें तो मुमकिन है कि उनसे उच्‍चारण तक ना करते बने । कम से कम मुंबईया बच्‍चों के साथ तो यही देखने मिलेगा ।

देश की आज़ादी की लड़ाई में जागरण-गीतों का अहम योगदान था । ये गीत चेतना जगाते थे, लोगों को हिला-हिलाकर उठाने का माद्दा था इनमें । आज भी जब समूह में इन गीतों को गाया जाता है तो रोंए खड़े हो जाते हैं । इसके बाद मुझे जो समूह-गीत याद आते हैं वो कॉलेज के दौर में इप्‍टा में गाये जाने वाले गीत हैं । सफ़दर हाशमी ने परचम के नाम से शायद दो कैसेट तैयार किये थे । जो मेरे जबलपुर वाले घर में संजोकर रखे हुए हैं । कमाल के गीत थे उनमें । बहुत जोश के साथ गाये जाने वाले ।

आज की हिमेश रेशमिया के गीतों को गुनगुनाने वाली पीढ़ी क्‍या ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग’ गा सकती है, देशभक्ति के भी आजकल पॉपुलर-प्रतीक गढ़ लिये गये हैं । तिरंगे का स्‍टीकर और बिल्‍ला बना लिया, उसे शर्ट पर या कहीं चिपका लिया । छोटा-सा तिरंगा ख़रीद कर टेबल पर सजा लिया, ए.आर.रहमान का हर साल आने वाला ‘वंदे मातरम’ का संस्‍करण सुन लिया, ज्‍यादा से ज्‍यादा ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ या ‘ऐ मेरे प्‍यारे वतन’ । बस हो गये देशभक्ति गीत ।

क्‍या हमारे लिए देशभक्ति गीतों का मतलब केवल फिल्‍मी गीत ही रह गये हैं । मैं फिल्‍मी देशभक्ति गीतों के महत्‍त्‍व को कम करके नहीं आंक रहा हूं लेकिन ज़ोर देकर ये कहना चाहता हूं कि प्रसिद्ध कवियों के रचे ये देशभक्ति गीत हमारी सांस्‍कृतिक धरोहर हैं । क्‍यों कोई लता मंगेशकर या कोई जगजीत सिंह या कोई ए.आर.रहमान इन गीतों को एलबम की शक्‍ल में नहीं उतारता । बहुत मुमकिन है कि ये हस्तियां इन देशभक्ति गीतों से परिचित ही ना हो ।


आपको बता दूं कि आकाशवाणी में लंबे समय से ये महती कार्य हो रहा है । देशगान की लंबी परंपरा है हमारे यहां । बड़े ही सिद्ध कलाकारों से लेकर स्‍थानीय कलाकारों तक सबने देशगान गाये हैं और वो संग्रहालयों में सुरक्षित ही नहीं है, हमेशा बजाए भी जाते हैं । विविध भारती पर वर्षों से देशगान रोज़ सबेरे छह बजकर बीस मिनिट पर सुनवाया जाता है । इनमें से कुछ गीत तो जैसे तन-मन में रच-बस गये हैं । जिनकी चर्चा बहुत विस्‍तार से निकट भविष्‍य में कभी की जाएगी ।

पर फिलहाल आईये तीन महत्‍त्‍वपूर्ण देशभक्ति रचनाएं पढ़ें । पढ़ें, सुनें इसलिए नहीं कि मुझे किसी की आवाज़ में इसकी रिकॉर्डिंग कहीं इंटरनेट पर नहीं मिली । देश के लगभग सारे आकाशवाणी केंद्रों पर ये समूह गान के रूप में मौजूद हैं । अगर आप सबेरे रेडियो ट्यून करें तो शायद आपको सुनाई भी दे जाएं ।

ये रहे वो देशभक्ति गीत---


हिमाद्री तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो ।
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी ।
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी ।
अराती सैन्य सिंधु में - सुबाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो ।
----जयशंकर प्रसाद



अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा ॥
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कंकुम सारा ॥
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किये, समझ नीड़ निज प्यारा ॥
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा ॥
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा ॥
---जयशंकर प्रसाद ।


भारती जय विजय करे
भारति जय विजय करे,कनक शस्य कमल धरे/
लंका पदतल शतदल, गर्जितोर्मि सागर जल
धोता शुचि चरण युगल, स्तव कर बहु अर्थ भरे/
तरु तृण वन लता वसन, अन्चल मे खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल कण, धवल धार हार गले/मुकुट शुभ्र हिम तुषार. प्राण प्रणव ओंकार
मुखरित दिशायें उदार, शतमुख शतरव मुखरे/
--महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"


बताईये आपको कौन से देशगान याद आते हैं ।


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arun ke madhumay,
bharati jai vijay kare,

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Sunday, August 12, 2007

ओ गंगा बहती हो क्‍यों—रविवार को संवारने के लिए डॉ0 भूपेन हज़ारिका के कुछ गीत सुने जायें


भूपेन हज़ारिका मेरे बचपन की स्‍मृतियों से जुड़े रहे हैं । दूरदर्शन के ज़माने में शायद हम भाई-बहन मिलकर पढ़ाई कर रहे थे जब भूपेन दा का गाया ‘गंगा बहती हो क्‍यूं’ आया था । हम सभी उसे सुनकर स्‍तब्‍ध रह गये थे । अद्भुत लगा । बाद में फिलिप्‍स के अपने छोटे से रिकॉर्डर पर हमने उसे रिकॉर्ड कर लिया ताकि बार-बार सुन सकें । बार-बार सुनने की इच्‍छा इसलिए होती थी क्‍योंकि भूपेन दा की आवाज़ में एक व्‍यग्रता थी, एक ऐसा आरोह जो आपको आंदोलित कर दे । कुछ दिन पहले दूरदर्शन पर ही अचानक भूपेन दा पर बनी एक डॉक्‍यूमेन्‍ट्री देखकर पता चला कि भूपेन हजारिक जन-आंदोलनों के सूत्रधार रहे हैं । उनकी एक आवाज़ पर जनता खड़ी हो जाती थी ।

बांगलादेश में भी उनके गीतों को बड़ा सम्‍मान मिलता है, वहां भी उनके चाहने वाले हैं । मुझे दो बातें और याद आ रही हैं । जब कल्‍पना लाजमी की फिल्‍म ‘रूदाली’ आई तो हमने अपने जेबखर्च से उसका कैसेट खरीदा था । और वो गाने लगातार हमारे घर में बजते रहे । आज भी जबलपुर में हमारे घर वो कैसेट संभालकर रखा हुआ है । मैं और मेरा छोटा भाई अपने जेबख़र्च को केवल संगीत और पुस्‍तकों पर ख़र्च करते रहे । आज उस संग्रह पर हमें बड़ा नाज़ होता है । दूसरी बात ये याद आ रही है कि कॉलेज में था मैं, जब भूपेन दा का ए‍‍क हिंदी गैर फिल्‍मी एलबम आया था और जिस छोटे से शहर में था, वहां तक वो कैसेट पहुंचा ही नहीं । आज तक मेरे पास वो एलबम नहीं है ।


बहरहाल कल रेडियोवाणी पर बांगला गीत चढ़ाए थे उसी खोजबीन में मिले भूपेन दा के कुछ अनमोल नग़्मे । तो पहले सुनिए वही गी‍त—‘ओ गंगा तुम बहती हो क्‍यों’

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विस्‍तार है अपार, प्रजा दोनपार करे हाहाकार,
निशब्‍द सदा ओ गंगा तुम ओ गंगा बहती हो क्‍यों
इतिहास की पुकार करे हुंकार,
ओ गंगा की धार
निर्बल जन को सबल-संग्रामी
समग्र-गामी बनाती नहीं हो क्‍यों ।।

अनपढ़ जन अक्षरहीन अनगिन-जन खाद्य-विहीन
निद्र-विहीन देखो मौन हो क्‍यों
इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार
निर्बल जन को सबल संग्रामी,
समग्रगामी बनाती नहीं हो क्‍यों
व्‍यक्ति रहे व्‍यक्ति-चिं‍तित
सकल समाज व्‍यक्तित्‍व रहित
निष्‍प्राण समाज को झिंझोड़ती नहीं हो क्‍यों ।।

गीत की पंक्तियां मैं पूरी नहीं लिख सका, लेकिन इस गीत में जगा देने की ताक़त है । झिंझोड़ने का माद्दा है । और ये भूपेन हजारिका के बोल, गायन और संगीत का कमाल है, ईश्‍वर सबको ये ताक़त नहीं देता है । डॉ0 भूपेन हजारिका की आवाज़ विश्‍व संगीत का एक दुर्लभ और सच्‍चा स्‍वर है ।

इस गाने के बाद एक बांग्‍ला गीत सुनिए । बोल हैं –‘डुग डुग डुग डुग डमरू’
ये भी बहुत जोशीला गीत है ।

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डॉ0 भूपेन हज़ारिका की आवाज़ सुनकर एक तरह से भाग्‍यशाली होने का बोध होता है,
कुछ और गीत हैं जिन पर विस्‍तृत चर्चा करने का मन है । डॉ0 भूपेन हज़ारिका के कुछ और गीत आपको फिर किसी दिन सुनवाये जायेंगे ।

भूपेन हजारिका का ये गीत पॉल रॉब्‍सन के गीत ऑल मेन रिवर पर आधारित है । पॉल रॉब्‍सन का मूल गीत आप यहां
सुन सकते हैं । रियाज़ की इस प्रस्‍तुति में आप भूपेन दा को गाते हुए भी देख सकते हैं ।



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