संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Sunday, August 26, 2007

फिल्म ‘गर्म हवा’ की क़व्वाली—मौला सलीम चिश्ती, अज़ीज अहमद ख़ां वारसी की आवाज़


मैंने थोड़े दिन पहले आपको एक बेमिसाल क़व्‍वाली सुनाई थी जिसके बोल थे—
कन्‍हैया बोलो याद भी है कुछ हमारी । फरीद अयाज़ की आवाज़ थी, अभी फ़रीद अयाज़ की आवाज़ में दूसरी क़व्‍वाली सुनवाने के बारे में सोच ही रहा था कि कल आलोक पुराणिक ने संदेस भेजा, गर्म हवा फिल्‍म की एक क़व्‍वाली मिल नहीं रही है । शायद आपके ख़ज़ाने में हो । मेरे ख़ज़ाने में इसका ऑडियो तो नहीं है लेकिन इंटरनेट पर ज़रूर ये क़व्‍वाली प्राप्‍त हो गयी । और एक नहीं इस क़व्‍वाली के कई स्‍त्रोत मिले । तो चलिए क़व्‍वाली पर ख़रामां ख़रामां (धीरे धीरे) चल रही हमारी श्रृंखला की दूसरी कड़ी सुनी जाए । वैसे आजकल नीरज रोहिल्‍ला भी क़व्‍वाली पर अच्‍छा काम कर रहे हैं और मैंने उनसे कहा है कि हम दोनों चिट्ठेकारी की दुनिया में क़व्‍वाली का कारवां चलाएंगे । इसी बहाने कई क़व्‍वालियां दोबारा खोजी जा सकेंगी ।

आलोक भाई धन्‍यवाद । आपने इस क़व्‍वाली की याद दिला दी । मैंने इस श्रृंखला के पहले हिस्‍से में ही अर्ज़ कर दिया था कि मुझे बहुत कम क़व्‍वालियां सुहातीं हैं । और इसके अनेक कारण हैं । कभी डाउन मेमोरी लेन में जाऊंगा तो ज़रूर थोड़ी तुर्शी के साथ अपनी बात कहूंगा और बहुत सारे कट्टर लोगों को बुरा भी लगेगा । पर फिलहाल चूंकि मौक़ा उम्‍दा क़व्‍वाली सुनने का है इसलिए सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि क़व्‍वाली को प्रदूषित करने में भाई लोगों ने कोई क़सर नहीं छोड़ी है, बस इसी बात का अफ़सोस रह जाता है ।

बहरहाल, 1973 में आई फिल्‍म ‘गर्म हवा’ की क़व्‍वाली सुनवाने से पहले इस फिल्‍म के बारे में थोड़ी सी चर्चा कर ली जाए । विभाजन की पृष्‍ठभूमि पर बनी सबसे ऑथेंटिक फिल्‍म थी ये । इस्‍मत चुग़ताई की कहानी, कैफ़ी आज़मी का स्‍क्रीनप्‍ले, उन्‍हीं के नग्‍़मे, निर्देशन एम.एस.सथ्‍यू का और कलाकार कमाल के । बलराज साहनी, फारूख़ शेख, गीता सिद्धार्थ, ए के हंगल, शौक़त कैफी वग़ैरह । ‘गर्म हवा’ भारत की कालजयी फिल्‍मों में गिनी जाती है । अगर आपने ये फिल्‍म अब तक नहीं देखी है तो ज़रूर डी वी डी खोजिए और अभी देख डालिए ।

इस फिल्‍म का संगीत उस्‍ताद बहादुर खां साहब ने दिया था । ये क़व्‍वाली हिंदी फिल्‍मों की बेहद सच्‍ची और अच्‍छी क़व्‍वालियों में से एक है । आवाज़ है अज़ीज़ अहमद ख़ां वारसी की । आज मैं आपको ना सिर्फ़ ये क़व्‍वाली सुनवाऊंगा बल्कि दिखाऊंगा भी ।

इसे सुनकर यूं लगता है जैसे दुनिया के सताए मज़लूम लोग मौला सलीम चिश्‍ती की दरगाह पर सिर झुकाए खड़े हैं, अपनी परेशानियों का हल मांग रहे हैं । निवेदन और याचना की जो मार्मिकता इस क़व्‍वाली से उभरती है, उसके बाद अगर कोई प्‍यार मुहब्‍बत की क़व्‍वाली सुनवाता है तो लगता है जैसे मुंह का स्‍वाद ख़राब हो गया है ।

ये रहे इस क़व्‍वाली के बोल, जिन्‍हें हमने
अक्षरमाला से लिया है ।

सूखी रुत में छाई बदरिया, चमकी बिजुरिया साथ
डूबो तुम भी संग मेरे, या थामो मेरा हाथ

मौला सलीम चिश्ती, आक़ा सलीम चिश्ती -२
आबाद कर दो दिल की दुनिया सलीम चिश्ती -२

जितनी बलायें आई, सब को गले लगाया -२
खूँ हो गया कलेजा, शिकवा न लब पे आया -२
हर दर्द हम ने अपना, अपने से भी छुपाया
हर दर्द हम ने अपना, हा
हर दर्द हम ने अपना, अपने से भी छुपाया -२
तुम से नहीं है कोई पर्दा सलीम चिश्ती
मौला सलीम चिश्ती ...

जाएगा कौन आके, प्यासा तुम्हारे दर से -२
कुछ जाम से पीएंगे, कुछ महर्बां नज़र से -२
कुछ जाम से पीएंगे, हा
कुछ जाम से पीएंगे, कुछ महर्बां नज़र से -२

एक प्याली भर के दे साक़ी मै-ए-गुलफ़ाम की
एक अपने नाम पी, और एक अल्लाह नाम पी
मेट दे पूरी मेरी हसरत दिल-ए-नाकाम की
देदे देदे दर्द में कोई सूरत आराम की
घूँट ही पिला मगर जोश-ए-तमन्ना डाल कर
एक क़तरा दे मगर क़तरे में दरिया डाल कर
कुछ जाम से पीएंगे, कुछ महर्बां नज़र से ...

ये संग-ए-दर तुम्हारा, तोड़ेंगे अपने सर से -२
ये संग-ए-दर तुम्हारा, हा
ये संग-ए-दर तुम्हारा, तोड़ेंगे अपने सर से -२
ये दिल अगर तुम्हारा टूटा सलीम चिश्ती -२
मौला सलीम चिश्ती ...

इस संग-ए-दर के सदक़े, इस रहगुज़र के सदक़े
भटके हुए मुसाफ़िर, मंज़िल पे पहुंचे आख़िर
उजड़े हुए चमन में, ये रँग-ए-पैरहन में
सौ रँग मुस्कुराए, सौ फूल लैलहाए
आई नई बहारें, पहलने लगी फुआरें
ग़्हूँघट की लाज रखना, इस सर पे ताज रखना
इस सर पे ताज रखना

आक़ा सलीम चिश्ती, मौला सलीम चिश्ती ...


इस क़व्वाली को सुनने के लिए यहां क्लिक कीजिए
और देखने के लिए यहां क्लिक कीजिए या फिर इस लिंक को कट पेस्टc कर लीजिए
http://youtube.com/watch?v=9ilOntNHFhY


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5 comments:

मैथिली गुप्त August 26, 2007 at 10:12 AM  

गर्म हवा की पृष्ठ्भूमि में आगरा और इसका जूता व्यवसाय था. सथ्यू साहब ने इसकी ढेर सारी शूटिंग आगरे में ही की थी. इस फिल्म में शबाना भी थीं पर उस समय असिस्टेंट के तौर पर हीं थीं.
एक बेहद दिल के अन्दर उतर जाने वाली फिल्म थी ये.
इसकी याद दुबारा ताजा कराने के लिये धन्यवाद.

Neeraj Rohilla August 26, 2007 at 10:47 AM  

युनुसजी,

इस फ़िल्म के बारे में बस सुन रखा था, आज आपने वीडियो दिखवा दिया, बहुत आभार । अब इस फ़िल्म को जुगाड करके देखा जायेगा ।

कैसा सुखद संयोग है, आज दिन में मैने "दिल ही तो है" फ़िल्म देखी जिसमें रोशन जी ने खूबसूरत कव्वाली बनायी थी । और बस १५ मिनट पहले मैने कव्वाली पर अपनी दूसरी पोस्ट छापी है । आप अपनी राय जरूर दीजियेगा ।

http://antardhwani.blogspot.com

ALOK PURANIK August 26, 2007 at 11:16 AM  

युनुस भाई
वाह ही वाह है जी। बहुत बहुत थैंक्यू है जी।
इस कव्वाली की शूटिंग फतहपुरसीकरी की है और इस फिल्म की शूटिंग आगरा के इन इलाकों में हुई है, उनसे मेरा बचपन जुड़ा है।
कव्वालियां तो बहुत हैं, पर कुछ अलग बात है इसमें। वो अलग क्या है, मुझे नहीं पता। मैं संगीत का गहरा जानकार नहीं हूं। पर कव्वालियों को धुआंधार सुनता हूं। इस कव्वाली का जोड़ तलाशपाना मुश्किल है। और गर्म हवा फिल्म का तो कहना ही क्या, ना भूतो ना भविष्यति। भविष्य का तो खैर क्या कहें, पर अब तक की फिल्मों में उसका जोड़ तलाशना मुश्किल है।
थैंक्यूजी

Gyan Dutt Pandey August 26, 2007 at 4:32 PM  

भैया कव्वाली का शाब्दिक अर्थ समझ में नहीं आया पूरी तरह. पर सुनने में अच्छी लगी. फ़िल्म शायद मैने देखी है.

Anonymous,  August 28, 2007 at 1:37 PM  

इस फिल्म में फारूक़ शेख शायद नहीं है।

हां, जलाल आग़ा की छोटी मगर प्रभावशाली भूमिका थी।

अन्नपूर्णा

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