पड़ गए झूले सावन रूत आई रे और गरजत बरसत सावन आयो रे
कल अन्नपूर्णा जी का एक संदेश आया, क्याआआआआ यूनुस ख़ान जी, आप भी !!!!!!!सावन बीत रहा है और अब तक न आपके चिट्ठे में सावन के झूले पड़े, न बोले रे पपीहरा गूंजा और न ही उमड़-घुमड़ कर छाई घटा सावन को ऐसा सूखा तो जाने मत दीजिए………।
जिंदगी की आपाधापी में उलझे हुए अचानक लगा कि बात तो सही है । रेडियोवाणी पर सावन की ज्यादा बात नहीं हो पाई । हां मैंने बारिश के कुछ गीत आपको सुनवाए थे । जिनकी लिंक बांयी ओर लेबल वाले ख़ाने में है । क्या आपको याद है गुलाम अली का वो गीत—जिसकी मैंने रेडियोवाणी पर ही चर्चा की थी । फिर पत्तो की पाजेब बजी तुम याद आये, फिर सावन रूत की पवन चली तुम याद आये । भई याद नहीं आया तो कोई बात नहीं । ज़रा यहां क्लिक कर लीजिये और पहुंच जाईये उस पोस्ट पर ।
बहरहाल आईये आज सुनें दो सावन के दो अनमोल गाने । दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही साहिर लुधियानवी ने लिखे हैं और दोनों का संगीत भी रोशन ने ही दिया है । एक और समानता है इन दोनों गानों की । ये गाने सावन के महीने में उत्तर भारत में पड़ने वाले झूले के गीत हैं । बाग़ों में झूले पड़ गये हैं, सखियां झूलों की पेंग भरते हुए किसिम किसम की शरारतें कर रही हैं । और गीत गा रही हैं । और यूं लग रहा है कि जैसे बारिश का, सावन का ये मौसम नहीं होता और ये समां नहीं बंधता तो क्या होता हमारा । पर अपने दिल में झांककर देखें तो पाते हैं कि अब कहां वो झूले, और अब कहां वो सावन । सावन की फुहार पड़ती है तो लगता है कि थोड़ी बारिश रूक जाए तो बाहर निकले । कमबख्त बारिश । किसी ज़माने में लोग इसे ‘हाय बारिश’ कहते थे । अब ये कमबख्त बारिश है । आधुनिकता और शहरीकरण ने जिन चीज़ों को, जिस मज़े को हमसे छीन लिया है उसमें ये भी शामिल है । ऐसा ना हो कि आगे चलकर हमें एक फेहरिस्त बनानी पड़ जाए कि शहरों की और विदेशों की तरफ भागते हुए हमने किन चीज़ों को बिसरा दिया, भुला दिया, खो दिया ।
इस मुद्दे पर भले सोचते रहिये पर ये दोनों गीत सुनकर कल्पना की दुनिया में सावन के झूलों का आनंद लीजिए--
गरजत बरसत सावन आयो रे—बारिश का ये गीत । बरसात की रात फिल्म का ये गीत लता मंगेशकर और कमल बारोट ने गाया है । सावन पर लिखे गये एकदम ललित गीतों में इसका शुमार होता है । रोशन ने इसकी धुन को एकदम शास्त्रीय रखा है । लता जी और कमल बारोट की आवाज़ें जैसे एक दूसरे में घुलमिल गयी हैं । कुल मिलाकर इस गाने को सुनकर मन मोर जैसे नाच उठता है ।
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गरजत बरसत सावन आयो रे
लायो ना संग में हमरे बिछड़े बलमवा ।।
रिमझिम रिमझिम मेहा बरसे
तरसे जियरवा नील समान
पड़ गई फीकी लाल चुनरिया
पिया नहीं आए । गरजत बरसत ।।
पल पल छिन छिन पवन झकोरे
लागे तन पर तीर समान,
नैनन जल सों गीली चदरिया अगन लगाए
गरजत बरसत ।।
आपको बता दूं कि इसी तरह का एक गीत फिल्म मल्हार में भी था—बोल थे, गरजत बरसत भीजत आईलो, ममता इस गीत को बड़े उत्साह से गाती हैं । आप भी सुनिए और साथ में गाईये--
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सन 1967 में आई फिल्म ‘बहू बेगम’ का गीत है ‘पड़ गये झूले’ । साहिर लुधियानवी ने इसे लिखा और संगीत है रोशन का । ये उन गिने चुने गीतों में से एक है जिसे लता मंगेशकर और आशा भोसले ने एक साथ गाया है । इन गानों पर तो एक पूरी श्रृंखला की जा सकती है । सही मायनों में ये लोकगीत है । बिल्कुल भारतीय संगीत-संयोजन । ढोलक का बेहतरीन इस्तेमाल है इस गाने में । और कोरस बिल्कुल ऐसा चित्र बना देता है मानों आम के बाग़ में सखियां झूला डाल कर मस्ती में पेंग भर रही हों । इस गाने की एक पंक्ति है हमको ना भाए सखी ऐसी ढिठाई रे । कितनी कुशलता से साहिर ने सावन में झूला झूलती किसी सखी की मनोदशा को इस एक पंक्ति में पिरो दिया है । आपको बता दूं कि दूसरे अंतरे के बाद सितार की खूबसूरत धुन रखी गयी है । बारिश में मन वाकई सितार की तरह लहराने लगता है । रोशन इस तरह के गानों के बेहद माहिर संगीतकार रहे हैं । जहां तक मुझे याद आता है फिल्म बहू बेगम इसी गाने से शुरू होती है । ये गाना शानदार समां बांध देता है । आईये हम भी सुनें सखियों की बारिशी शरारत का ये गीत--
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पड़ गए झूले सावन रूत आई रे ।
सीने में हूक उठी अल्ला दुहाई रे ।।
चंचल झोंके मुंह को चूमें, बूंदे तन से खेलें ।
पेंग बढ़े तो झुकते बादल पांव का चुंबन ले लें ।
हमको ना भाई सखी रे ऐसी ढिठाई रे ।।
बरखा की मुंहज़ोर जवानी क्या क्या आफत ढाए ।
दिल की धड़कन जिस्म की रंगत, आंचल से छन जाए ।
हाय आंखों के आगे लुटे अपनी कमाई रे ।।
गीतों का ये अल्हड़ मौसम, झूलों का ये मेला ।
ऐसी रूत में हमें झुलाने आए कोई अलबेला ।
थामे तो छोड़े नहीं नाज़ुक कलाई रे ।।
कल रेडियोवाणी पर आप सुनेंगे गुलाम अली की आवाज़ में सावन का एक शानदार गीत ।
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8 comments:
बिल्कुल सामयिक! गाना सुन कर एकबारगी तो उमस की चिपचिपाहट भूल ही गये!
वर्षा का आनन्द है पर रुकती है तो कष्ट भी होता है!
एक गजल सुनी है- साववन के सुहाने मौसम सें ववो रूप पुरानी याद आयी......................
आप भी गीतों के बहाने वो सब कुछ याद करा डाला....
कमाल कर दिया यूनूस भाइ, आज तक गरजत बरसत वाला गाना सुनकर ही खुश हो लेते थे, आज जब गरजत बरसत भीजत आईलो सुना, मन भीग गया। आपके इस लेख के तीनों गानों में सबसे अच्छा यही लगा, बाकी पड़ गये झूले तो ठीक ठाक सा लगा।
आज यहाँ तेज बारिश हो रही है और इसे में सावन के गाने सुनना मजा दुगुना हो गया।
कमल बारोट की आवाज - गरजत बरसत वाले पहले गाने में कहीं लता जी से इक्कीस लगती है। कुछ और बतायें कमल बारोट जी के बारे में।
जगजीत सिंह का गाया एक गीत गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला भी ऐसे मौसम में सुनना बहुत अच्छा लगता है।
युनुस भाई चकाचकम्।
गर्म हवा फिल्म में एक कव्वाली थी-मौला सलीम चिश्ती, आका सलीम चिश्ती।
इस कव्वाली का जुगाड़मेंट आपके खजाने से हो सकता है क्या। मैंने तो बहूत तलाश लिया।
सादर
प्रियवर यूनुस,
आप बड़ा पुण्य का काम कर रहे हैं । प्रतिक्रिया नहीं दे पाता हूं इसका ये अर्थ नहीं कि आपके घाट पर संगीत सरिता में डुबकी लगाने नहीं आता। आपने कमाल किया सावनी धुनें सुना कर। दूसरी वाली बरसों पहले सुनी थी। निहाल हो गया।
अपने पिताजी को कुछ बंदिशें सुनवाउंगा। वे ग्वालियर संगीत घराने से ताल्लुक रखते हैं और जीवनभर संगीत शिक्षक रहे हैं। संगीत की खाकर ही हम बड़े हुए और आज तक इसी वजह से आशावादी हैं। संगीत कभी मन में अंधेरा नहीं होने देता है न...? शुक्रिया मित्र । ईश्वर आप पर मेहरबान है, रहेगा । आमीन ।
सावन के गीत सुनाकर तो आपने जाते हुए सावन का मजा दोगुना कर दिया। बधाई और धन्यवाद !
पहला गीत पसंद आया! सुनवाने का शुक्रिया !
जब फरमाईश की थी तब मन में बहुत उमंग और उत्साह था जो मेरे संदेश लिखने के ढंग से समझा जा सकता है लेकिन फरमाईश पूरी हुई तो माहौल (हैदराबाद में) बहुत सहमा-सहमा सा हो गया है विषेश्कर आज श्रावण पूर्णिमा (राखी) के दिन जब मैं यह चिट्ठा देख पा रही हूं तो…
इस माहौल के लिये एक प्रार्थाना गीत लिखना चाहती हूं -
हे प्रभो ! आनन्दाता ज्ञान हमको दीजिए
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए
लीजिए हमको शरण में
कीजिए हम पर उपकार
काम आए हम दूसरों के
और करें ज्ञान का विस्तार
अन्न्पूर्णा
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