संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।
ध्वनि-तरंगों की ताल पर
विविध-भारती पर मुझे सुनिए:
वंदनवार:रविवार सुबह 6-05 त्रिवेणी: रविवार सुबह 7-45 छायागीत: रविवार रात 10-00 जिज्ञासा- शनिवार शाम 7-45 और रविवार सुबह 9-15
एक बहुत ही गहन कोरस...और
उस पर सचिन दा की आर्त पुकार....
‘ओ मां....मां...
मेरी दुनिया है मां तेरे आँचल में/
शीतल छाया दो दुःख के जंगल में’
यूं लगता है मानो पहाड़ों की बर्फ़ पिघल जाएगी। आसमान फट पड़ेगा। समंदरों में उबाल
आ जाएगा इस विकल स्वर से।
‘मेरी राहों के दिये तेरी दो अंखियां
मुझे गीता सी लगें तेरी दो बतियां’
मैं स्टूडियो की कल्पना
करता हूं। धोती कुर्ता पहने सचिन दा अपनी ही धुन पर गा रहे हैं। पूरे ऑकेस्ट्रा के
साथ। मजरूह, जिन्होंने ये गीत रचा है...वहां पान खाते हुए मौजूद हैं।
मोटा-सा चश्मा लगाए। मुमकिन है राहुल देव बर्मन भी कहीं मौजूद हों रिकॉर्डिंग में।
निर्देशक ओ पी रल्हन भी आँख बंद करके सुन रहे होंगे—बर्मन दा की पिघले सोने जैसी आवाज़।
‘युग में मिलता जो.... सो मिला है पल में’
हमें दुनिया ने मीठे स्वरों की आदत डाल दी है। चाशनी वाली आवाज़ों की। पर सचिन दा
जैसी आवाज़ें मिट्टी की सोंधी ख़ुश्बू वाली आवाज़ हैं। गांव की सांझ जैसा आकाश है
सचिन दा की आवाज़। सोचता हूं सचिन दा की आवाज़ ना होती तो कौन कहता—‘कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फ़ानी’... कौन पुकारता—‘अल्ला मेघ दे’।
दुनिया की बदहवासी और भयंकर रफ्तार के बीच सचिन दा घायल मन को सहलाते हैं...
‘मेरी निंदिया के लिए बरसों सोई ना
ममता गाती रही....ग़म की हलचल में
शीतल छाया दो दुःख के जंगल में’।।
आज अल्लामा इक़बाल की
याद का दिन है। बचपन से हम सब अल्लामा इक़बाल को याद करते रहे हैं उनके लिए ‘तराना-ए-हिंदी’
के
लिए। इक़बाल का लिखा यह तराना सबसे पहले 16 अगस्त 1904 में ‘इत्तेहाद’ रिसाले में छपा था। बाद में उनकी किताब ‘बांग-ए-दरा’ में इसे शामिल किया गया। आज़ादी की लड़ाई
के दौरान ये गीत ब्रिटिश सरकार के विरोध का एक बड़ा ज़रिया बन गया था। इसे सबसे पहले
सरकारी कॉलेज लाहौर में पढ़कर सुनाया गया था।
यहां ये ज़िक्र ज़रूरी है कि इसकी धुन 1950 के आसपास भारतरत्न पंडित रविशंकर ने तैयार
की थी और इसे सुर-साम्राज्ञी भारत-रत्न लता मंगेशकर ने गाया था। ये भी ज़िक्र ज़रूरी
है कि जब अस्सी के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अंतरिक्ष यात्री
राकेश शर्मा से पूछा के ऊपर से आपको भारत कैसा नज़र आता है तो उनका जवाब था—‘सारे जहां से अच्छा’।
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा
ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा
गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनाँ हमारा
ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा
मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा
यूनान-ओ-मिस्र-ओ- रोमा, सब मिट गए जहाँ से अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा
'इक़बाल' कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा
इक़बाल
को क़रीब से पहचानना इसलिए ज़रूरी है ताकि अहसास हो कि वो कितने बड़े स्कॉलर थे। कई
सालों तक वो लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज में अरबी पढ़ाते रहे और उसके बाद जब जर्मनी गयी
तो म्यूनिख यूनिवर्सिटी से फ़िलॉसफ़ी में पीएचडी की। लंदन से बैरिस्ट्री का इम्तिहान
भी पास किया। और लाहौर में फ़िलॉसफ़ी के प्रोफ़ेसर बन गये। साथ ही वकालत भी करते रहे।
इक़बाल को आप ‘सारे जहां से अच्छा’ के लिए तो याद
करते ही हैं। लेकिन उनके कई ऐसे शेर हैं जिनका हम आम ज़िंदगी में इस्तेमाल करते हैं
और इस अहसास के बिना कि ये इक़बाल के अशआर हैं। जैसे ये शेर--
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर
से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।।
कमाल की बात ये है कि इस शेर का इस्तेमाल RM आर्ट की फिल्मों की शुरूआत में किया जाता रहा।
निर्माता रतन मोहन की ये फिल्में थीं—संग्राम, ज्वाला, हातिमताई, प्राण जाये पर वचन ना जाए, हीरा-मोती, जग्गू, महा-शक्तिशाली वग़ैरह।
अल्लामा इक़बाल का एक और मशहूर शेर है--
हज़ारों
साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी
मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा।।
इसके अलावा इस शेर का भी ख़ूब इस्तेमाल किया जाता है--
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो
तुम्हारी
दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।।
ये शेर भी अल्लामा इक़बाल का लिखा हुआ ही है--
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी
इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं
अदब की महफिलों में इस शेर का ज़िक्र भी अकसर होता है-
अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल
लेकिन
कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे।।
आईये अब आपको बताते हैं गुलज़ार के इक़बाल कनेक्शन के बारे में। गुलज़ार साहब को
फिल्म ‘राज़ी’ के ‘ए वतन’ गाने के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर
पुरस्कार मिला है। आपको बता दें कि इस गाने की रचना-प्रक्रिया बड़ी मजेदार रही
है। बात ये है कि देशभक्ति गीतों के अकाल के इस समय में किसी फिल्म में ऐसा गीत
आये जो अल्लामा इकबाल से प्रेरित हो—तो
इसे एक बड़ी घटना क्यों ना माना जाए। अपने एक इंटरव्यू में गुलज़ार ने कहा भी है
कि इस गीत की प्रेरणा उन्हें बचपन में गाये जाने वाले इकबाल के एक गीत से मिली।
ये गीत गुलज़ार के स्कूल में गाया जाता था। जिन पंक्तियों ने गुलज़ार को प्रेरित
किया है—वो हैं—‘लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी/ जिंदगी शम्मा की सूरत हो
खुदाया मेरी’।
अल्लामा इकबाल की ये रचना ‘बच्चे की दुआ सन 1902 की है और कई स्कूलों में इसे प्रार्थना के
तौर पर गाया जाता है। गुलज़ार ने इन पंक्तियों को भी गाने में शामिल किया है। इसी
गाने के लिए अरिजीत सिंह को सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला है। तो
चलिए अल्लामा इक़बाल की ‘बच्चे की दुआ’ पढ़ी जाए।
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी ज़िन्दगी शमा की सूरत[1] हो ख़ुदाया मेरी
दूर दुनिया का मेरे दम से अँधेरा हो जाये हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाये
हो मेरे दम से यूँ ही मेरे वतन की ज़ीनत[2] जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब इल्म की शम्मा[3] से हो मुझको मोहब्बत या रब
हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत[4] करना दर्द-मंदों से ज़इफ़ों[5] से मोहब्बत करना
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको
I feel
blessed and fortunate to have met noble music director Jaidev ji during my
formative years in the field of music. In the year 1978 he called me to sing 2
bhajans for TV Arohi - Janmashtami programme presented by renowned poet Pt.
Narendra Sharma. The very first meeting with Jaidev ji made me feel at ease
during the rehearsal, as if I was sitting with one of my own affectionate
elderly family member.
I
had just finished my college then and was working in the commercial wing of All
India Radio. Soon after 6 months Jaidev ji called me again to sing for Film GAMAN.
Since I was working and had to reach office by 10 am, Jaidev ji used to call me
for rehearsals in the morning. Luckily his house was very close to my office.
Apart from learning the composition, I was amazed by Jaidev jis extreme
commitment, polished disciplined life style. He never kept me waiting. During the
rehearsals sometimes eminent personalities used to drop in without appointment
but he never stopped abruptly teaching me, rather I saw him politely telling
his guests to wait for some time. This was an eye opener for me to respect everyone’s
time. Whether you are a new comer or eminent personality he made everyone feel
wanted. Never saw him discriminating anyone .A great quality you find only in
truly awakened human beings.
In
those days I was learning light classical music from my Guru Smt. Heeradevi
Mishra of Varanasi. After her demise I started learning from renowned ghazal artiste
Madhurani ji whom I met in Jaidev jis house for the first time .His house was
like a pilgrimage of artistes from all spheres. He could easily connect with
people from all walks of life and personalities of all levels, with his
elegance and yet he never compromised in his firmness in dealing with
situations.
Jaidev jis music was like a Triveni Sangam
deeply soaked in Classical - Light Classical, Bhakti and Folk rasa. This is
because during his childhood he had heard lot of Folk music and Ramayan Paath
from his mother. Later on he learnt shastriya sangeet from Prof. Barkat Rai and
later became disciple of great musical giant sarod maestro Us. Ali Akbar Khan. He
also assisted us. Ali Akbar Khan when he composed for Film Aandhiyan . Later on
when Us. Ali Akbar khansaab shifted to Kolkata, Jaidev ji assisted one of the
greatest music director of our times Shri Sachin Dev Burman till he started
bagging films as composer independently.
Jaidev
jis contribution in introducing new upcoming talents to the multi-dimensional
world of playback singing has been immeasurable. He was an institution by himself.
His love for literature was profound. He knew many languages. It is his deep
understanding of sahitya and music made his compositions immortal. A great
Guru. He taught us his compositions with lot of love and care to bring out the
best from each singers retaining his or her originality. A true Karma Yogi
“ever giving” “ever sharing” and “ever doing” for others expecting nothing in
return. He encouraged us to stretch our potentials to its maximum. His
compositions had a unique quality. One could fill up space with gayeki ang in
each and every note. His compositions were
based in raga mostly in thumri ang which had a flowing quality of a river. He
allowed us to add our own phrases that emerged naturally if sounded good.
I
remember him telling me never expect anything from anyone, once you expect you
will be sad. Always keep doing for others. A great Guru mantra I learnt. He not
only inspired but enriched all of us. Gave a vision to lead a life with a
purpose being deeply connected with music and divinity.
Will
be ever grateful to Jaidev ji my Guru Guide Philosopher for inculcating in me –
once we are successfully tuned-in to our
divine core and securely fastened to our moorings excellence in inner and outer
worlds becomes inevitable.
आज मोहम्मद रफी की याद का दिन है। और आज ही है प्रेमचंद का जन्मदिन।
हमने सोचा कि ‘रेडियोवाणी’ पर किसी ऐसे गाने की बात की जाए- जिसमें
इन दोनों कलाकारों का संगम हुआ हो और ऐसे में ‘गोदान’
की याद आना सहज ही था। प्रेमचंद का उपन्यास गोदान सबसे पहले सन
1936 में मुंबई से ही प्रकाशित हुआ था। इसके प्रकाशक थे हिंदी ग्रंथ रत्नाकर। इस
उपन्यास को आप ऑनलाइन यहां पढ़ सकते हैं।
प्रेमचंद और मुंबई का क्या यही एकमात्र कनेक्शन था। जी नहीं....यहां आपको दिलचस्प
बात बतायी जाये कि मुंशी प्रेमचंद एक ज़माने में मुंबई आए थे। वो भी फिल्मों में
अपना भाग्य आज़माने के लिए। पर उससे भी पहले उनका मुंबई कनेक्शन बन गया था। उनके
उपन्यास ‘सेवा-सदन’ पर बाज़ार-ए-हुस्न
नाम की फिल्म बनाने का क़रार हुआ था और इससे प्रेमचंद बड़े खुश थे। उन्होंने 14
फरवरी 1934 को जैनेंद्र कुमार को एक ख़त लिखा जिसमें लिखा--"सेवा सदन का
फिल्म हो रहा है. इस पर मुझे साढ़े सात सौ मिले... साढ़े सात सौ."। पर दिक्कत
ये हुई कि मुंबई की कंपनी महालक्ष्मी पिक्चर्स ने किताब के अधिकार ले लिये और
नानूभाई वकील के निर्देशन में एक दोयम दर्जे की फिल्म परोस दी, जिससे प्रेमचंद खासे दुःखी हुए। इसके बाद जब प्रेमचंद की आर्थिक स्थिति
ख़राब हुई ‘हंस’ और ‘जागरण’ को छापना तक मुश्किल होने लगा तो भगवतीचरण
वर्मा के आग्रह पर प्रेमचंद मुंबई आए थे। और अजंता सिनेटोन में आठ हज़ार रूपए
सालाना की नौकरी कर ली थी। 1935 में वो वापस भी लौट गए थे। इस बीच उनकी कहानी पर
मोहन भवनानी ने ‘मिल मज़दूर’ बनायी थी-
इस फिल्म में प्रेमचंद ने एक रोल भी किया था। फिल्म मजदूरों के बीच इतनी हिट हुई
कि अँग्रेज़ सरकार को इस पर प्रतिबंध लगाना पड़ गया था।
आगे चलकर प्रेमचंद की कृतियों पर कई फिल्में बनीं—जिन पर हम बाद में कभी चर्चा
करेंगे। सन 1963 में ‘गोदान’ पर
त्रिलोक जेटली ने इसी नाम की फिल्म बनायी थी, जिसमें होरी
बने थे राजकुमार, धनिया बनीं कामिनी कौशल और गोबर की भूमिका
निभाई महमूद ने। यहां दिलचस्प बात ये है कि जब फिल्म के लिए गीत-संगीत की जिम्मेदारी
देने की बारी आयी तो बड़ा ही अनूठा चयन किया गया। फिल्म के लिए संगीत का जिम्मा मैहर
घराने के प्रसिद्ध सितार वादक पंडित रविशंकर को दिया गया और गीतकारी का जिम्मा
सहज रूप से आया अंजान के नाम। अंजान चूंकि मूल रूप से बनारस के रहने वाले थे—वहां
की बोली-बानी को भली-भांति जानते थे इसलिए यह एकदम सही चयन बन गया। कहते हैं कि
पंडित रविशंकर ने इस फिल्म के संगीत के लिए खूब रिसर्च किया था। बनारस के आसपास
के गांवों के लोक-संगीत को गहराई से जाना समझा और तब बना ‘गोदान’
का संगीत- जो सही मायनों में अमर हो गया। पंडित रविशंकर ने इस फिल्म
के संगीत में क्या कमाल किया था इसे समझने के लिए आपको ‘गोदान’
का टाइटल म्यूजिक ज़रूर सुनना चाहिए। हम आपके लिए इसे खोजकर लाए
हैं। ये रहा।
आज हम जिस गाने की बात करने जा रहे हैं- वो है—‘पिपरा के
पतवा सरीखे डोले मनवा’। अद्भुत गीत है ये। गोबर यानी महमूद
को होली पर शहर से गांव जाना है। वो अपने सेठ जी से छुट्टी मांगता है और जब छुट्टी
मिल जाती है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। अब गोबर चल पड़ा है—कांधे पर लाठी—और
साथ में एक पोटली। महमूद को हमेशा हास्य-भूमिकाओं में देखने की आदत के रहते उनकी
ये भूमिका आपको झटका देती है। शहर में नौकरी करने आए गांव के एक युवक गोबर की
भूमिका। प्रेमचंद का एक किरदार। मोहम्मद रफी गाने की पहली पंक्ति बिना संगीत के
गाते हैं—ये एक पुकार है—एक ललक—खुशी, उत्साह अपने घर वापस
जाने का--
पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा
कि हियरा में उठत हिलोर
पुरवा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा
कि चल आज देसवा की ओर।।
और इसके बाद लोक-वाद्यों का ऐसा संयोजन कि गर्दन और पैर अपने आप ही थिरकने लगते
हैं। इस गाने को डूबकर सुनें तो ऐसा अहसास होने लगता है कि आप खुद ही गांव लौट रहे
हैं। अपने घर। अपने लोगों के पास। पंडित रविशंकर हों और सितार ना हो संगीत में—ऐसा
नहीं हो सकता। बांसुरी, मैंडोलिन और सितार इंटरल्यूड में
आपको बहा ले जाता है अपने साथ।
झुकी-झुकी बोले काले काले ये बदरवा
कबसे पुकारे तोहे नैनों का कजरवा
उमर-घुमर जब गरजे बदरिया रे
ठुमुक ठुमुक नाचे मोर
पुरवा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा
कि चलो आज देसवा की ओर।।
अंजान ने भले अमिताभ बच्चन की फिल्मों के लिए ढेर कमर्शियल गीत रचे हों, पर इस फिल्म के गीतों में उनका भदेस रूप खूब खिला है। ऐसा लगता है जैसे ‘गोदान’ की भावभूमि पर उन्हें बनारस का क़र्ज़
चुकाने का मौक़ा मिला और उन्होंने इसे खूब निभाया। गाने में यहां सितार के टुकड़े
के ज़रिए मोर नाचने का जो प्रभाव पैदा किया गया है—वो अद्भुत से भी परे है।
यहां ये भी ग़ौर करने की बात है कि मोहम्मद रफ़ी के गानों में उनका पंजाबी मिज़ाज
खूब झलकता रहा है। कुछ शब्दों में तो खास तौर पर—जैसे ‘संग’
में वो खास पंजाबी तरीक़े से ‘सांग्ग’
गाते हैं और वो बड़ा प्यारा भी लगता है। रफी को इस उत्तर भारत के
इस ग्रामीण गीत को गाने के लिए खासा अभ्यास करना पड़ा होगा और उन्होंने इसे बड़ी
कुशलता से निभाया है। ऊंचे दर्जे के कलाकार ऐसे ही होते हैं।
यहां जब वो गाते हैं ‘सिमिट सिमिट बोले लंबी ये डगरिया/ जल्दी
जल्दी चल राही अपनी नगरिया’... तो आनंद आ जाता है। गाने में
जो टेर चाहिए थी—जो उछाह- उसे रफी ने गाने में अपनी आवाज़ से साकार कर दिया है।
सिमिट सिमिट बोले लंबी ये डगरिया
जल्दी जल्दी चल राही अपनी नगरिया
रहिया तकत बिरहिनिया दुल्हनिया रे
बांधके लगनिया की डोर
पुरवा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा
कि चलो आज देसवा की ओर।।
मोहम्मद रफी की आवाज़ की मस्ती ‘गोदान’ के होली गीत में भी खूब खिलती है। ‘गोदान’ के किसी भी गाने को सुनें तो आपको
केवल बोल नहीं सुनने होते—प्रील्यूड और इंटरल्यूड में घुली देसी तरंग पर थिरकना भी
होता है। एक अच्छी फिल्म का सही संगीत ऐसा ही होता है। ‘होली
खेलत नंदलाल’ में रफी की आवाज़, अंजान के
बोल और पंडित रविशंकर का संगीत कुछ ऐसा जादू रचता है कि गीत खत्म होने के बाद भी आप
उससे बाहर नहीं निकल पाते। गीत आपके ज़ेहन में गूंजता रहता है।
मोहम्मद रफी की याद का दिन है आज और हम उन्हें सलाम करते हैं। मुंशी प्रेमचंद का
जन्मदिन भी- इन दोनों महान कलाकारों को हमारा नमन।