संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।
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Tuesday, July 19, 2022

आज बिछड़े हैं...भूपी की याद में: यूनुस ख़ान

 




कुछ आवाज़ें हमारी उदासियों की आवाज़ें होती हैं। यक़ीन मानिए जिस तरह ज़िंदगी में हम मुस्‍कानें सहेजते हैं
, उसी तरह सहेज कर रखना होता है उन आवाज़ों को जो गहरी उदासियों में हमें सहलाती हैं। जब हम डूब रहे होते हैं—ये आवाज़ें हमें थाम लेती हैं। ज़िंदगी की दुश्वारियों को सहने का हौसला देती हैं और हम पथरीली राहों पर ठोकरें खाकर आगे बढ़ जाते हैं। भूपिंदर सिंह इसी तरह की आवाज़ हैं।

मैंने
हैंइसलिए कहा क्‍योंकि जब उनके शरीर छोड़ने की ख़बर कल रात आयी, तो पल भर के लिए सन्‍न रह गया। पर सच यही है कि शरीर चले जाते हैं, आत्‍मा कायम रहती है। शरीर चले जाते हैं, आवाज़ें कायम रहती हैं। संगीत की दुनिया के मुसाफिर हम सब यही मानते हैं कि जगजीत भी हमारे क़रीब हैं, एक पुकार पर हाजिर हो जाते हैं हमारे पास और कह उठते हैं—आंखों में नमी, हँसी लबों पर, क्‍या हाल है, क्‍या दिखा रहे हो....जब पुकारें तो मेहदी हाजिर हो जाते हैं—देख तो दिल कि जां से उठता है, ये धुआं कहां से उठता है। आइंस्‍टीन ने संसार को बताया था कि ध्‍वनियां कहीं नहीं जातीं। संसार में सदा कायम रहती हैं।

भूपी हमारी उजली-केसरिया सुबहों और सुरमई-उदास शामों की एक ज़रूरी आवाज़ रहे हैं। सुबहों के माथे पर उनकी आवाज़ चमक बिखेर जाती है जब वो गाते हैं—
ना मंदिर में ना मस्जिद में ना कासी-कैलास में ,मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास रे। भूपिंदर सुरमई शामों में हमारे आसपास गूंजते रहे हैं—या गर्मियों की रात जो पुरवाईयां चले/ ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागे देर तक/ तारों को देखते रहें/ छत पर पड़े हुए। भूपिंदर रातों को जुगनू की तरह चमकते हैं—जब उनकी आवाज़ गूंजती है—चौदहवीं रात के इस चाँद तले, सुरमई रात में साहिल के क़रीब, दूधिया जोड़े में आ जाए जो तू। भूपी आते हैं अपने आबो-ताब के साथ ये कहने—कोसा-कोसा लगता है.../ तेरा भरोसा लगता है..../ रात में अपनी थाली में/ चाँद परोसा लगता है। भूपी के गिटार की तरंगें भी जब तक गूंजती हैं। कभी दम मारो दमके इंट्रो का गिटार, कभी मेहबूबा मेहबूबातो कभी चुरा लिया है तुमनेवाला पीस, उनके ख़ज़ाने में यादों की बारातभी है और आने वाला पलभी।

भूपिंदर की आवाज़ में एक अजीब-सा वीतराग नज़र आता है। जैसे वो दुनिया में हैं तो पर वैसे जैसे पत्‍थर ऊपर पानी। जिस वक्‍़त वो आए कितना मुश्किल वक्‍़त था
, इतने सारे सूरज चमक रहे थे, रफ़ी, किशोर, मुकेश, मन्‍ना डे जैसे। उनके बीच एक नया-छोटा-सा तारा आकर पुकारता है—एक एक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा या
रूत जवां-जवां, रात मेहरबां

भूपी उन लोगों की ख़ासी क़रीब आवाज़ रहे हैं जिन्‍होंने संसार के तयशुदा नियमों को तोड़ा
, जिन्‍होंने लीक पर चलना कभी गवारा नहीं किया। भूपी गिटार की तरंगें लेकर ग़ज़लों की दुनिया में आए। भूपी का अपनी आवाज़ को जब मर्ज़ी खींचना, जब मर्ज़ी अल्फ़ाज़ को हवा में टाँग देना, फिर उठाना और आगे चल देना....पहले हैरान करता था, फिर लुभाने लगा, और अब उसकी आदत पड़ गयी है। शायद इसीलिए वो तमाम एक्सपेरीमेंटललोगों से जुड़े। फिर चाहे गुलज़ार हों, पंचम हों या मदनमोहन और जयदेव। उनकी प्रयोगधर्मिता का बड़े पैमाने पर आकलन किया जाना शायद अभी बाक़ी है।

इन सबके बावजूद भूपी शास्‍त्रीयता की राह के पक्‍के मुसाफ़िर भी हैं।
बीती ना बिताई रैना’, ‘मीठे बोल बोले पायलिया’, ‘आई ऋतु सावन की’, ‘सैंयां बिना घर सूनाजैसे गानों में भूपी कठिन डगर पर कितनी सहजता से क़दम रखते बढ़ निकलते हैं।

भूपी इस बेरहम दुनिया में हताशा की आवाज़ भी रहे हैं।
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्‍यार न हो/ जहां उम्‍मीद हो इसकी वहां नहीं मिलता। वो गाते हैं—अहले दिल यूं भी निभा लेते हैं/ दर्द सीने में छिपा लेते हैं। भूपिंदर आंखों को छलका देते हैं जब उनकी आवाज़ में गूंजता है सारांश का गाना—अंधियारा गहराया, सूनापन घिर आया/ घबराया मन मेरा/ चरणों में आया/ क्‍यों हो तुम यूं गुमसुम/ किरणों को आने दे/ पत्‍थर की आंखों से करूणा को झरने दो। भूपी घनघोर रात में हमारी धुंआ-धुंआ आंखों को देख हमारा हाथ पकड़कर कहते हैं—चाँद की बिंदी वाली, बिंदी वाली रतियां/ जागी हुई अंखियों में रात ना आई रैना

ज़िंदगी में मुड़कर देखने के कई मौक़े आते हैं। हम सोचते हैं काश ऐसा नहीं होता
, कुछ वैसा होता। हम बदल देते समय के प्रवाह को। भूपी की आवाज़ गूंजती है—जब कभी मुड़कर देखता हूं मैं/ तुम भी कुछ अजनबी सी लगती हो/ मैं भी कुछ अजनबी सा लगता हूं। भूपी तरह तरह से हमारे जीवन में दाखिल होते हैं—ज़िंदगी सिगरेट का धुंआ/ ये धुंआ जाता है कहां/ या कहीं जाता नहीं। भूपी ज़िंदगी के लिए एक तमन्‍ना करते हैं—ज़िंदगी फूलों की नहीं/ फूलों की तरह महकी रहे

बारिश का ये मौसम भूपी का ख़ास मौसम है। अचानक दिल धक से रह जाता है कि हमारी इस सबसे प्रिय आवाज़ वाला शख्‍़स इन बारिशों में ही हमसे रूठ गया। भूपी की गाढ़ी आवाज़ में गूंजती है ये लाइन—
बैरन बिजुरी चमकन लागी, बदरी ताना मारे रे/ ऐसे में कोई जाए पिया....तू रूठो क्‍यों जाए रे/ आई ऋतु सावन की
चाँद परोसा हैसे गुलज़ार साहब के बोल गूंजते हैं—याद है बारिशों के दिन पंचम’….और आखिरी लाइन आती है—मैं अकेला हूं धुंध में पंचम। नहीं सुना हो तो ये कंपोज़ीशन सुनकर ख़ुद को घुला दीजिए बारिशों में। भूपी हर बारिश में जैसे आग लगा जाते हैं दिल में.....बरसता भीगता मौसम धुआं-धुआं होगा, पिघलती शम्‍मों पे दिल का मेरे गुमां होगा, हथेलियां की हिना याद कुछ दिलायेगी। अलफ़ाज़ अलफ़ाज़ ही रहते हैं, भूपी जी की आवाज़ मिलती तो वो चमकते तारे बन जाते हैं। भूपी सावन के इस मौसम में गाते हैं—बिरहा जिया तड़पाये/ दूरी सही ना जाए सजनिया आन मिलो

भूपी बहुत गहन उदासियों से बहुत गहन प्रेम की तरफ़ बहता झरना हैं।
पिया तुझ आशना हूं मैं तू बेगाना ना कर। यही भूपी गाते हैं—बादलों से काट-काटके/ काग़़ज़ों पे नाम जोड़ना/ ये मुझे क्‍या हो गया। हमारे भूपी गुलज़ार साहब को जब-जब गाते हैं तो यूं लगता है दुनिया वाक़ई रहने लायक़ है। मुझको भी तरकीब सिखा दे यार/ मेरे यार जुलाहेयारपर उनकी वो तान। उफ़.....। एक ही ख़्वाब कई बार देखा है मैंनेको सुनते हुए गीतों की राह पर आगे चलें तो बारिश से भीगी रात में भूपी हौले से हमसे कहते हैं—रात में घोलें चाँद की मिसरी/ दिन के ग़म नमकीं लगते हैं/ नमकीन आंखों की नशीली बोलियां

भूपी वसंत देव को भी गाते हैं
, कैफ़ी को भी, गुलज़ार को भी और नक्‍श को भी। भूपी सबको अपनी तरह से गाते हुए बारिश भरी जुलाई की अठारह तारीख़ को हमसे कह जाते हैं—
आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं/ ज़िंदगी इतनी मुख्‍़तसर भी नहीं। हम उसांस भर कर रह जाते हैं। भूपी जी उदासियां अगर मज़हब हों तो आप उस मज़हब के औलिया होंगे। रहेंगे आप—सदा।  


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Sunday, November 29, 2009

ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं--रामप्रसाद बिस्मिल की रचना, भूपिंदर सिंह की आवाज़ ।

भूपिंदर सिंह हमारे प्रिय गायकों में से एक हैं । और 'रेडियोवाणी' पर भूपी जी पर केंद्रित एक पूरी श्रृंखला भी हो चुकी है । अगस्‍त की ही तो बात है, हमारे मित्र 'डाकसाब' ने हमसे एक गाने की फ़रमाईश की । सन 1977 में आई फिल्‍म 'आंदोलन' का गीत--'दरो-दीवार पर हसरत से नज़र रखते हैं' । 'डाक साब' ने इस गीत की फ़रमाइश करके जैसे हमारी दुखती रग पर हाथ रख दिया । हम भी इस गाने को जाने कब से खोज रहे थे । पर ये गीत जाने कहां बिला गया था । कहां-कहां नहीं खोजा हमने । इंटरनेटी-ख़ज़ानों से लेकर संगीत के ठिकानों तक । सोच लिया था कि जब तक ये गीत नहीं मिलेगा चैन से नहीं बैठेंगे । और  फिर एक दिन तय किया कि जब तक गीत नहीं मिलता 'रेडियोवाणी' पर काम आगे नहीं बढ़ेगा । सो समझ लीजिए कि इत्‍ते दिन अगर 'रेडियोवाणी' का कारोबार सूना रहा--उसकी वजह ये गीत भी हो सकता है ।

तलाश ज़ोरों पर रही, हताशा भी होती रही । लेकिन जब 'फेसबुक' पर एक दिन यूं ही लिख दिया कि किसी के पास ये गीत हो तो संपर्क करें । एक तरह से ये 'फ़ेसबुक' की संभावनाओं का 'टेस्‍ट' भी था । मेरठ से
आकांक्षा का संदेश आया कि ये गीत उनके पास है और उनके दादाजी के संग्रह का हिस्‍सा रहा है । फौरन उन्‍हें अपना ई-मेल पता प्रेषित किया और उनसे गाना भेजने की दरख़्वास्‍त की । अगर आप किसी गीत को अपने संग्रह से खो दें और फिर अचानक कहीं से उसका सुराग़ मिले, तो जैसी विकलता हो सकती है, वैसी ही विकलता से हम गुज़र रहे थे । किसी तरह तमाम मुसीबतों से पार पाते हुए आकांक्षा गर्ग ने वो गीत भेजा और आज 'रेडियोवाणी' पर ये उनकी इजाज़त से आप सबकी नज़र है । इसी बहाने हम एक बार फिर आकांक्षा का शुक्रिया भी अदा कर रहे हैं ।  

ये कोई आम गीत नहीं है । ये रामप्रसाद 'बिस्मिल' की वो अनमोल रचना है जो आज़ादी की लड़ाई में बिना किसी स्‍वार्थ को खुद को न्‍यौछावर कर देने के जज़्बे पर रची गयी थी । मुझे लगता है कि आज शायद हम उस जज़्बे को केवल महसूस कर सकते हैं । सच...दुनिया इस दौरान कितनी बदल गयी है । इस गीत को सुनकर रोमांच होता है । अपनी रचना, गायकी और अपने संगीत तीनों में ये गाना अद्भुत है । तो सुनिए ये गीत ।






दरो-दीवार पे हसरत-ए-नज़र रखते हैं 


ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर

हमको भी पाला था मां-बाप ने दुख सहकर

वक्‍त-ए-रूख़सत
* उन्‍हें इतना भी ना आए कहकर          *जाते वक्‍त


गोद में आंसू जो टपके कभी रूख़ से बहकर

तिफ़्ल
* उनको ही समझ लेना दिल के बहलाने को             *बच्‍चा


अपनी क़िस्मत में अज़ल
* से ही सितम रक्खा था              *जन्‍म से ही/शुरूआत से ही

रंज रक्खा था, मेहन रक्खा था, ग़म रक्खा था

किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था

हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत
*में क़दम रक्खा था             *ग़रीबी की घाटी/ अभावों की दुनिया


दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को

दिल फ़िदा करते हैं क़ुरबान जिगर करते हैं

पास जो कुछ है वो माता की नज़र करते हैं

खाना वीरान कहां देखिए घर करते हैं

ख़ुश रहो अहल-ए-वतन
*,हम तो सफ़र करते हैं                *वतन वालो/ देशवासियो

जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को

खुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं

जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को ।

नौजवानों यही मौक़ा है उठो खुल खेलो

और सर पर जो बला आए ख़ुशी से झेलो

क़ौम के नाम पे सदक़े पे जवानी दे दो

फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएं ले लो

देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को





रामप्रसाद 'बिस्मिल' की मूल-रचना बहुत लंबी और अद्भुत है । सुदीप पांडे ने इसे अपने ब्‍लॉग 'मंथन' पर प्रस्‍तुत किया है । यहां क्लिक करके आप
'मंथन' पर पहुंच सकते हैं । इसे आप 'दूसरे पन्‍ने' पर भी पढ़ सकते हैं ।







आज से 'रेडियोवाणी' का सहायक-ब्‍लॉग दूसरा पन्‍ना शुरू किया गया है । मक़सद ये है कि किसी भी पोस्‍ट से जुड़ी सहायक और संदर्भ-सामग्री को वहां जमा किया जा सके । इससे पोस्ट की लंबाई भी सीमित रहेगी और संदर्भ-सामग्री भी 'रेडियोवाणी' के अपने पन्‍ने पर ही होगी । भले ही ये 'दूसरा पन्‍ना' हो ।  'रेडियोवाणी' पर पिछले लगभग दो महीनों से 
पसरी ख़ामोशी को अब हम तोड़ रहे हैं । आवाज़ों के दीवारों से छनने का सिलसिला अब जारी रहेगा ।

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