ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं--रामप्रसाद बिस्मिल की रचना, भूपिंदर सिंह की आवाज़ ।
भूपिंदर सिंह हमारे प्रिय गायकों में से एक हैं । और 'रेडियोवाणी' पर भूपी जी पर केंद्रित एक पूरी श्रृंखला भी हो चुकी है । अगस्त की ही तो बात है, हमारे मित्र 'डाकसाब' ने हमसे एक गाने की फ़रमाईश की । सन 1977 में आई फिल्म 'आंदोलन' का गीत--'दरो-दीवार पर हसरत से नज़र रखते हैं' । 'डाक साब' ने इस गीत की फ़रमाइश करके जैसे हमारी दुखती रग पर हाथ रख दिया । हम भी इस गाने को जाने कब से खोज रहे थे । पर ये गीत जाने कहां बिला गया था । कहां-कहां नहीं खोजा हमने । इंटरनेटी-ख़ज़ानों से लेकर संगीत के ठिकानों तक । सोच लिया था कि जब तक ये गीत नहीं मिलेगा चैन से नहीं बैठेंगे । और फिर एक दिन तय किया कि जब तक गीत नहीं मिलता 'रेडियोवाणी' पर काम आगे नहीं बढ़ेगा । सो समझ लीजिए कि इत्ते दिन अगर 'रेडियोवाणी' का कारोबार सूना रहा--उसकी वजह ये गीत भी हो सकता है ।
तलाश ज़ोरों पर रही, हताशा भी होती रही । लेकिन जब 'फेसबुक' पर एक दिन यूं ही लिख दिया कि किसी के पास ये गीत हो तो संपर्क करें । एक तरह से ये 'फ़ेसबुक' की संभावनाओं का 'टेस्ट' भी था । मेरठ से आकांक्षा का संदेश आया कि ये गीत उनके पास है और उनके दादाजी के संग्रह का हिस्सा रहा है । फौरन उन्हें अपना ई-मेल पता प्रेषित किया और उनसे गाना भेजने की दरख़्वास्त की । अगर आप किसी गीत को अपने संग्रह से खो दें और फिर अचानक कहीं से उसका सुराग़ मिले, तो जैसी विकलता हो सकती है, वैसी ही विकलता से हम गुज़र रहे थे । किसी तरह तमाम मुसीबतों से पार पाते हुए आकांक्षा गर्ग ने वो गीत भेजा और आज 'रेडियोवाणी' पर ये उनकी इजाज़त से आप सबकी नज़र है । इसी बहाने हम एक बार फिर आकांक्षा का शुक्रिया भी अदा कर रहे हैं ।
ये कोई आम गीत नहीं है । ये रामप्रसाद 'बिस्मिल' की वो अनमोल रचना है जो आज़ादी की लड़ाई में बिना किसी स्वार्थ को खुद को न्यौछावर कर देने के जज़्बे पर रची गयी थी । मुझे लगता है कि आज शायद हम उस जज़्बे को केवल महसूस कर सकते हैं । सच...दुनिया इस दौरान कितनी बदल गयी है । इस गीत को सुनकर रोमांच होता है । अपनी रचना, गायकी और अपने संगीत तीनों में ये गाना अद्भुत है । तो सुनिए ये गीत ।
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर
हमको भी पाला था मां-बाप ने दुख सहकर
वक्त-ए-रूख़सत* उन्हें इतना भी ना आए कहकर *जाते वक्त
गोद में आंसू जो टपके कभी रूख़ से बहकर
तिफ़्ल* उनको ही समझ लेना दिल के बहलाने को *बच्चा
अपनी क़िस्मत में अज़ल* से ही सितम रक्खा था *जन्म से ही/शुरूआत से ही
रंज रक्खा था, मेहन रक्खा था, ग़म रक्खा था
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत*में क़दम रक्खा था *ग़रीबी की घाटी/ अभावों की दुनिया
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को
दिल फ़िदा करते हैं क़ुरबान जिगर करते हैं
पास जो कुछ है वो माता की नज़र करते हैं
खाना वीरान कहां देखिए घर करते हैं
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन*,हम तो सफ़र करते हैं *वतन वालो/ देशवासियो
जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को
खुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं
जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को ।
नौजवानों यही मौक़ा है उठो खुल खेलो
और सर पर जो बला आए ख़ुशी से झेलो
क़ौम के नाम पे सदक़े पे जवानी दे दो
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएं ले लो
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को
रामप्रसाद 'बिस्मिल' की मूल-रचना बहुत लंबी और अद्भुत है । सुदीप पांडे ने इसे अपने ब्लॉग 'मंथन' पर प्रस्तुत किया है । यहां क्लिक करके आप 'मंथन' पर पहुंच सकते हैं । इसे आप 'दूसरे पन्ने' पर भी पढ़ सकते हैं ।
आज से 'रेडियोवाणी' का सहायक-ब्लॉग दूसरा पन्ना शुरू किया गया है । मक़सद ये है कि किसी भी पोस्ट से जुड़ी सहायक और संदर्भ-सामग्री को वहां जमा किया जा सके । इससे पोस्ट की लंबाई भी सीमित रहेगी और संदर्भ-सामग्री भी 'रेडियोवाणी' के अपने पन्ने पर ही होगी । भले ही ये 'दूसरा पन्ना' हो । 'रेडियोवाणी' पर पिछले लगभग दो महीनों से
पसरी ख़ामोशी को अब हम तोड़ रहे हैं । आवाज़ों के दीवारों से छनने का सिलसिला अब जारी रहेगा ।
तलाश ज़ोरों पर रही, हताशा भी होती रही । लेकिन जब 'फेसबुक' पर एक दिन यूं ही लिख दिया कि किसी के पास ये गीत हो तो संपर्क करें । एक तरह से ये 'फ़ेसबुक' की संभावनाओं का 'टेस्ट' भी था । मेरठ से आकांक्षा का संदेश आया कि ये गीत उनके पास है और उनके दादाजी के संग्रह का हिस्सा रहा है । फौरन उन्हें अपना ई-मेल पता प्रेषित किया और उनसे गाना भेजने की दरख़्वास्त की । अगर आप किसी गीत को अपने संग्रह से खो दें और फिर अचानक कहीं से उसका सुराग़ मिले, तो जैसी विकलता हो सकती है, वैसी ही विकलता से हम गुज़र रहे थे । किसी तरह तमाम मुसीबतों से पार पाते हुए आकांक्षा गर्ग ने वो गीत भेजा और आज 'रेडियोवाणी' पर ये उनकी इजाज़त से आप सबकी नज़र है । इसी बहाने हम एक बार फिर आकांक्षा का शुक्रिया भी अदा कर रहे हैं ।
ये कोई आम गीत नहीं है । ये रामप्रसाद 'बिस्मिल' की वो अनमोल रचना है जो आज़ादी की लड़ाई में बिना किसी स्वार्थ को खुद को न्यौछावर कर देने के जज़्बे पर रची गयी थी । मुझे लगता है कि आज शायद हम उस जज़्बे को केवल महसूस कर सकते हैं । सच...दुनिया इस दौरान कितनी बदल गयी है । इस गीत को सुनकर रोमांच होता है । अपनी रचना, गायकी और अपने संगीत तीनों में ये गाना अद्भुत है । तो सुनिए ये गीत ।
दरो-दीवार पे हसरत-ए-नज़र रखते हैं
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर
हमको भी पाला था मां-बाप ने दुख सहकर
वक्त-ए-रूख़सत* उन्हें इतना भी ना आए कहकर *जाते वक्त
गोद में आंसू जो टपके कभी रूख़ से बहकर
तिफ़्ल* उनको ही समझ लेना दिल के बहलाने को *बच्चा
अपनी क़िस्मत में अज़ल* से ही सितम रक्खा था *जन्म से ही/शुरूआत से ही
रंज रक्खा था, मेहन रक्खा था, ग़म रक्खा था
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत*में क़दम रक्खा था *ग़रीबी की घाटी/ अभावों की दुनिया
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को
दिल फ़िदा करते हैं क़ुरबान जिगर करते हैं
पास जो कुछ है वो माता की नज़र करते हैं
खाना वीरान कहां देखिए घर करते हैं
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन*,हम तो सफ़र करते हैं *वतन वालो/ देशवासियो
जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को
खुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं
जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को ।
नौजवानों यही मौक़ा है उठो खुल खेलो
और सर पर जो बला आए ख़ुशी से झेलो
क़ौम के नाम पे सदक़े पे जवानी दे दो
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएं ले लो
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को
रामप्रसाद 'बिस्मिल' की मूल-रचना बहुत लंबी और अद्भुत है । सुदीप पांडे ने इसे अपने ब्लॉग 'मंथन' पर प्रस्तुत किया है । यहां क्लिक करके आप 'मंथन' पर पहुंच सकते हैं । इसे आप 'दूसरे पन्ने' पर भी पढ़ सकते हैं ।
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13 comments:
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर
हमको भी पाला था मां-बाप ने दुख सहकर
वक्त-ए-रूख़सत* उन्हें इतना भी ना आए कहकर
इन अमर वीर शहीदों को और कुछ नहीं ..दो बूंद आंसू तो समर्पित ही कर पाए ... इस अतुलनीय रचना को प्रस्तुत करने का आभार...!!
यह गीत मुझे बचपन से बहुत प्रिय है कभी कभी आज भी गुनगुना लेता हूँ . आभार प्रस्तुति के लिए .
सुन्दर! यह दूसरे पन्ने का विचार बढ़िया लगा।
yunus भाई बहुत बढ़िया मैं तो आपका पूराना फैन हुं ..यदि याद हो तो छिंदवाड़ा डीडीसी कॉलेज में आपका सीनियर था
yunus bhai kya kahoon ramprasad bismil ke likhe aur bhupi ji ke gaye is geet ko sune ek arsa beet gaya tha aapne ek bar fir un lamho ko jilaya. shukriya
आनन्द आ गया पढ़कर. आपका बहुत आभार. सुना भी. जाने क्यूँ, पढ़ना ज्यादा भाया.
Der Aaye Durust aaye aur badi khoj been ke is prernadayak geet ko laye. Is geet ko hum sabhi tak pahuchane ke liye aapka aur aakansha ji ka bahut bahut shukriya.
धन्यवाद यूनुस जी
हमने जो गीत आपको भेजा उसे सब लोगो तक पहुँचाने के लिए
सादर आभार
रामप्रसाद बिस्मिल, भूपेंद्र की आवाज़ , आपकी पसंद.....बहुत अच्छा लगा सुनना
हमने वहां भी शुक्रिया कहा था यहां भी कहे देते है .....वैसे भूपिंदर के गानों में" हकीक़त" के गाने भी बेमिसाल है .....
बहुत लाजवाब, बेहद आनंद आया.
रामराम.
Thanks for posting Bhupinder's voice and Jaidev's music :two of my very favorite music personalities.
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