संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Saturday, June 9, 2007

फिर पत्‍तों की पाजेब बजी तुम याद आए--गुलाम अली और मेंहदी हसन के बहाने पुराने दिनों की याद

प्रिय मित्रो
गुलाम अली और मेंहदी हसन मेरे प्रिय गायक हैं । मुझे याद नहीं है पर विविध भारती के किसी श्रोता ने एक बार बड़ी गहरी बात कही थी । उनका कहना था कि कुछ गाने हम इसलिये बार बार सुनना पसंद करते हैं क्‍योंकि उनमें हमारी जिंदगी की कोई पुरानी याद घुली-मिली होती है । और जब भी हम उस गाने को सुनते हैं वो दिन हमारी आंखों के सामने आकर खड़े हो जाते हैं और सुकून सा मिलता है ।

मैंने गुलाम अली और मेंहदी हसन साहब को सुनना शुरू किया था तब जब मैं दसवीं क्‍लास में था और म0प्र0 के शहर सागर में पढ़ रहा था । वो कैसेट्स का ज़माना था, जेबख़र्च इतना नहीं मिलता था कि बार-बार नए कैसेट्स ख़रीदे जा सकें । मुझे याद है मेरे मित्र श्रवण हलवे ने मुझे गुलाम अली और मेंहदी हसन के कुछ कैसेट्स उधार दिये थे, जिन्‍हें हमने कॉपी कर लिया था और रोज़ सुना करते थे । फिर जब उन ग़ज़लों से मन भर गया और नए कैसेट्स की व्‍यवस्‍था नहीं हुई तो रेडियो पाकिस्‍तान लगाने लगे । बस मेंहदी हसन और गुलाम अली को सुनने का नया ठिकाना मिल गया । वहां से हमने मेंहदी हसन के वो गीत भी सुने जो उन्‍होंने पाकिस्‍तानी फिल्‍मों में गाए थे । जैसे ‘मुरझाए हुए फूलों की क़सम इस देस में फिर ना आयेंगे’ । क्‍या आपमें से कोई है जिसने ये गीत सुना है या जिसके पास ये गीत है ।

फिर मेरे छोटे भाई ने ना जाने कहां से मेंहदी हसन का एक ऐसा कैसेट जुटा लिया जिसमें उनके पाकिस्‍तानी फिल्‍मी गीत थे । आप यक़ीन नहीं करेंगे हम दोनों भाईयों के लिए मैग्‍नासाउंड का वो कैसेट पा लेना कितनी बड़ी उपलब्धि थी । आज भी वो कैसेट जबलपुर वाले हमारे घर में सही सलामत है । आपको ये भी बताना चाहता हूं कि आज मेंहदी हसन साहब एक ख़ामोश जिंदगी जी रहे हैं । उन्‍हें लकवा लग गया है और पिछली बार जो ख़बर मिली थी वो ये कि मेंहदी हसन साहब को अब बोलने के क़ाबिल भी नहीं रहे । यक़ीन मानिए मेरी आंखें भीग गईं । कितने कितने अनमोल गीत और ग़ज़लें उन्‍होंने दी हैं । प्‍यार भरे दो शर्मीले नैन, जिनसे मिला मेरे दिल को चैन, या फिर फैज़ की वो ग़ज़ल ‘गुलों में रंग भरे बादा-ए-नौबहार चले, चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले’ या फिर वो नग्‍मा ‘मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो, मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे’ ।

पुराने दिनों की उन सुनहरी यादों के बहाने पहले पेश हैं गुलाम अली के दो अनमोल वीडियो । पक्‍का वादा रहा कि अपने अगले चिट्ठे में मैं मेंहदी हसन के कुछ अनमोल वीडियो पेश करूंगा ।

चलते चलते बस एक बात, अगर इन ग़ज़लों को सुनकर आपको गुज़रे दिनों का कोई लम्‍हा याद आ गया हो, तो ज़रूर बताईयेगा ।

जिहाले मिस्‍किन मकुन तग़ाफुल बराए नैना बनाए बतियां ।
मैं चाहता था कि इस ग़ज़ल की इबारत मायने के साथ पेश करूं । पर इसे लिख सकना थोड़ा मुश्किल लगा ।


बारिश का मौसम दस्‍तक दे रहा है । शायद आपके शहर में पहली बारिश हो भी गयी हो, अब सावन का महीना आयेगा और फुहारों का ऑरकेस्‍ट्रा शुरू हो जायेगा । पहले एक शेर उसके बाद देखिए और सुनिए ये ग़ज़ल ।

बारिशें छत पर खुली जगहों पर होती हैं मगर
ग़म वो सावन है जो बंद कमरों के भीतर बरसे ।।



फिर सावन रूत की पवन चली तुम याद आए

फिर पत्‍तों की पाज़ेब बजी तुम याद आए ।।

फिर कूंजें बोलीं घास के हरे समंदर में

रूत आई पीले फूलों की तुम याद आए ।।

फिर कागा बोला घर के सूने आंगन में

फिर अमृत रस की बूंद पड़ी तुम याद आए ।।

दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया था

जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आए ।।



ज़रा इस ग़ज़ल की शायरी पर ग़ौर फ़रमाईये—यूं लगता है कि एक एक लफ्ज़ दिल की गहराई से निकला है ।

दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया था

जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आए ।।

वाह क्‍या शेर है । ये नासिर क़ाज़मी की ग़ज़ल है । और आशा भोसले और गुलाम अली के मशहूर अलबम ‘मेराज़-ऐ-ग़ज़ल’ से ली गयी है ।

7 comments:

Dr Prabhat Tandon June 9, 2007 at 6:32 PM  

यूनूस भाई ,क्या गजब का कलेक्शन ढूँढ लायें हैं ,मै तो मेहदीं हसन जी का फ़ैन हूँ , अब लगे हाथ उनकी भी गजलें सुनवा डालें कुछ दिन पहले मेहदी हसन जी की कुछ गजलों को मैने अपलोड किया था देखें-
सरहद के पार- 'मेहंदी हसन'
http://funnychehre.blogspot.com/2006/10/blog-post.html

sanjay patel June 9, 2007 at 9:52 PM  

यूनुस भाई ..आज जब कंसर्ट्स डेढ़ - दो घंटे में ख़्त्म होने लगे हैं तब क्या आप और हमारे संगीत प्रेमी यक़ीन करेंगे कि ग़ुलाम अली इन्दौर में लगातार दो शामों की प्रस्तुति देकर गये थे.सत्तर का दशक पूरा हो रहा था और इस शहर की नामचीन संस्था अभिनव कला समाज ने गु़लाम अली के दो दिनी जलसे की मेज़बानी की थी. हुआ यूं कि जब प्रोग्राम एनाउंस किया गया तो उम्मीद नहीं कि टिकिट इतने ज़्यादा बिकेंगे.हज़ार कुर्सियों वाला हमारे शहर का तब का एकमात्र सभागार दो हज़ार ग़ज़ल-प्रेमियों को कैसे अपने में समाता.सो निर्णय लिया गया कि चलिये दो दिन गवा लेते है.गु़लाम अली साहब...यूनुस भाई यक़ीन जानिये इस शहर में प्रोग्राम्स करते करते और सुनत-सुनतेतक़रीबन तीस होने आ रहे है..मैने ग़ज़ल सुनने के लिये जुनून नहीं देखा. तब न तो इतने प्रचार - प्रसार के माध्यम थे न इतने अधिक अख़बार..लेकिन माशाअल्लाह क्या भीड़ आई थी.

मेहदी हसन से जुड़ी एक प्यारी सी याद है मेंरे ज़हन में.लता अलंकरण जब आशाजी को मिला तो उस साल के जश्न में शिरक़त की थी मेहदी हसन साहब ने.मै शो एंकर रहा था.मैने ग्रीन रूम में कंसर्ट शुरू होने से ठीक पहले मेहदी साहब से पूछा खा़ साहब कठे से सुरू करोगा (हम सब जानते हैं कि मेहदी हसन सा. का बचपन अविभाजित भारत के राजस्थान में बीता है , सो मै उनसे बिंदास राजस्थानी में बतियाता रहा)आशय था आप कौन सी रचना से कार्यक्रम का आग़ाज़ करेंगे...इस महान कलाकार की सादगी देखिये ..उन्होने फ़रमाया..थें को जठे से..( आप कहें उससे)मैने कहा ख़ां साहब हम मालवा में बैठे हैं फ़िलहाल और राजस्थानी मालवी की मां ही तो ठहरी..तो क्यों न आप किसी मांड से आज के आयोजन की शुरूआत करें..मेहदी हसन साहब मंच पर आ बिराजे और हारमोनिय पर सा (षड्ज) छेड़ते ही प्रारंभ की ये मांड...केसरिया बालम आओ नीं ..पधारो म्हारे देस.....क्या समां बना है यूनुस भाई बता नहीं सकता..आज ये प्रतिक्रिया लिखते पंद्र्ह - बीस साल पुरानी उस महफ़िल का मंज़र आखों के सामने आ गया..मुझ आप जैसे कितने ही लोगों को अपनी युवावस्था में मेहदी हसन ने ग़ज़ल से मोहब्ब्त करना सिखाया ..इस लिहाज़ से उन जैसा गुलूकार महज़ एक कलाकार नहीं एक पूरी पीढी़ का एक ऐसा रहनुमा है जिसने अदब के हवाले से न जाने कितनों को मुत्तास्सिर किया..वो जहां हैं स्वस्थ रहें ..हमारी दुआएं उनके साथ है.
संजय पटेल

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` June 10, 2007 at 12:01 AM  

http://antarman-antarman.blogspot.com/2006/11/jeehale-muskin-main-kun-baranjis.html

Jihale Miskin -- Link For Yunus Bhai --
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From : Lavanya
( Sorry I'm sending this Comment in english )

Yunus Khan June 10, 2007 at 10:12 AM  

संजय भाई बहुत अच्‍छा लगा आपकी यादों को पढ़कर । वैसे भी इंदौर सांगीतिक आयोजनों का सरताज शहर माना जाता है । मैं स्‍कूल में पढ़ता था जब तलत साहब को लता अलंकरण मिला था और उन्‍होंने परफॉर्म भी किया था, हम सागर में थे और ‘अकेले’ तब सागर से इंदौर जाने की इजाज़त नहीं मिली थी । मैंने बहुत मिस किया । बाद में मेरे विविध भारती आने के पहले ही तलत साहब नहीं रहे । इंदौर में तो कई कलाकार आये पर अफ़सोस हम तब इंदौर में नहीं थे या नहीं पहुंच सकते थे ।

Yunus Khan June 10, 2007 at 10:12 AM  

लावण्‍या जी शुक्रिया । इसी बहाने हम सब इस अनमोल रचना के मायने समझ पायेंगे, हालांकि गुलज़ार साहब ने केवल मुखड़ा लिया है अंतरे अपने ही रचे हैं

रवि रतलामी June 10, 2007 at 11:07 AM  

मेंहदी हसन साहब के लिए लता जी ने कभी कहा था - उनके गले में तो साक्षात् ईश्वर का वास है.

उनकी गाई ग़ज़लें तो कमाल हैं - एक एक गज़ल दिल में बैठी हुई - रंजिश ही सही...

उनके बारे में ये खबर कि वे अब बोल नहीं सकते, दिल दुखा गई.

Manish Kumar June 10, 2007 at 4:15 PM  

जानकर दुख हुआ कि मेंहदी हसन साहब को लकवा मार गया है । पहली बार इनका कैसेट नेपाल सीमा के पास रहने वाले चाचा से मेरी बड़ी बहन ने मँगवाया था। दीदी की शादी के बाद कई दिनों तक वो घर की एक अलमारी में धूल फांकता रहा । एक दिन घर की सफाई के दौरान मिला । किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े थे ,बिना किसी बात के ही दिल भर भर जाया करता था:) । ऍसे हालातों में इनकी एक concert में गाई १० मिनट लंबी रंजिश ही सही सुनी तो वो सीधे दिल में उतर गई । मुझे इसके आलावा इनकी
देख तो दिल की जां से उठता है ये धुआं सा कहाँ से उठता है..
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो ना थी... और
जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं खास तौर से पसंद है।
गुलाम अली कि बात फिर कभी.. पटेल साहब का भी शुक्रिया इतनी पुरानी यादें बाँटने का !

यूनुस You Tube से सिर्फ audio link क्यूँ नहीं देते। वीडियो में तो slow speed (jo ki bharat mein aam samasya hai) mein sirf buffering hi hoti reh jati hai aur sunne ko ruk ruk kar milta hai

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