संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।
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Tuesday, November 20, 2007

जब कभी बोलना वक्‍त पर बोलना, मुद्दतों बोलना मुख्‍तसर बोलना--हरिहरन की आवाज़ में ये ग़ज़ल

रेडियोवाणी पर पिछले कुछ दिनों से ग़ज़लों का ख़ुमार चढ़ा है । आपको याद होगा हमने भूपेंद्र सिंह की कई ग़ज़लों आपको सुनवाईं । कुछ फिल्‍मी गीत भी सुनवा दिये । आज एक बहुत ही मौज़ूं/प्रासंगिक ग़ज़ल पेश है । अफसोस ये है कि मुझे इसके शायर का नाम पता नहीं चल सका । इस ग़ज़ल को हरिहरन ने अपने एक अलबम में शामिल किया था । देखिए ये रहा इस अलबम का कवर पेज ।


ग़ज़ल सुनवाने से पहले आपको हरिहरन के बारे में कुछ बता दिया जाए । हरिहरन कर्नाटक संगीत के दो महान कलाकारों श्रीमती अलमेलु और एच ए एस मणि के बेटे हैं । बचपन से ही कर्नाटक संगीत के अलावा भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनकी ट्रेनिंग हुई है । जगजीत सिंह और मेहदी हसन से प्रभावित रहे हरिहरन को सुर सिंगार प्रतियोगिता में गाते देखकर संगीतकार जयदेव ने मुजफ्फर अली की फिल्‍म गमन में मौका दिया । जहां उन्‍होंने शहरयार की एक गजल गाई--अजीब सानेहा मुझ पर गुजर गया यारो । जिसे आगे चलकर रेडियोवाणी पर प्रस्‍तुत किया जायेगा ।

फिल्‍म रोजा के बाद उनका और ए आर रहमान का साथ शुरू हुआ । और रहमान ने हरिहरन से कुछ नर्मोनाजुक गीत गवाए । हरिहन बेहद प्रयोगधर्मी और विविध रंगी हैं । एक तरफ आपको वो शॉल ओढ़े शास्‍त्रीयता के साथ ग़ज़लें गाते मिलेंगे तो दूसरी तरफ वो पॉप म्‍यूजिक में भी सक्रिय दिखेंगे और fusion में भी । आपको colonial cousins तो याद होगा ही ना । खैर चलिए फिर से लौटें इस गजल की तरफ ।

इस ग़ज़ल का एक एक शेर अनमोल है । बहुत ही गहरी बात कही गयी है इसमें । फिर संगीत संयोजन भी कमाल का है । हरिहरन ने अपने इंटरव्‍यू में कहा था कि इसमें उन्‍होंने पश्चिमी संगीत वाले blues रचने की कोशिश की है । ग़ज़लों में blues. ख्‍याल अच्‍छा है । नतीजा भी अच्‍छा है ।

इस ग़ज़ल का ऑडियो चढ़ाने का धीरज नहीं हुआ । आगे मौका आने पर जरूर आपके लिए इसका ऑडियो भी पेश करूंगा ।
फिलहाल तो काम चलाईये इस वीडियो से । दिलचस्‍प बात ये है कि इसकी रचना प्रक्रिया के बारे में भी हरिहरन ने कुछ बातें कहीं हैं जो मुझे you tube पर मिल गयीं । वो भी जरूर सुनिएगा ।




जब कभी बोलना वक़्त पर बोलना
मुद्दतों बोलना मुख़्तसर बोलना

डाल देगा हलाक़त में इक दिन तुझे
ऐ परिन्दे तेरा शाख़ पर बोलना

पहले कुछ दूर तक साथ चल के परख
फिर मुझे हमसफ़र हमसफ़र बोलना

उम्र भर को मुझे बेसदा कर गया
तेरा इक बार मूँह फेर कर बोलना

मेरी ख़ानाबदोशी से पूछे कोई
कितना मुश्किल है रस्ते को घर बोलना

क्यूँ है ख़ामोश सोने की चिड़िया बता
लग गई तुझ को किस की नज़र बोलना


और यहां हरिहरन आपको बता रहे हैं इस अलबम के बारे में ।



अगर आप में से किसी को इस ग़ज़ल के शायर का नाम पता हो तो जरूर बताईये । हम ऐसे ज़हीन शायर को सलाम करते हैं । चलते चलते एक बात । राजेंद्र जी ने याद दिलाया कि कानपुर निवासी हरमंदिर सिंह हमराज का 19 नवंबर को जन्‍मदिन था । मुझे पता ही नहीं था । हमराज से संगीत प्रेमी अच्‍छी तरह परिचित हैं । उन्‍होंने हिंदी फिल्‍म गीत कोश का निर्माण किया है । जिसमें शुरूआत से लेकर अब तक की सारी फिल्‍मों के रिकॉर्ड नंबर, गानों की सूची, कलाकारों के नाम वगैरह सब शामिल हैं । ये बेहद श्रमसाध्‍य और thankless काम था । पर एक जुनून है जो उन्‍हें इस रास्‍ते पर लगाए हुए था ।
उनकी श्रृंखला इस तरह से है--
पहली वॉल्‍यूम-- सन 1931 से 1940 तक के गीत
दूसरी वॉल्‍यूम-- सन 1941 से 1950
तीसरी वॉल्‍यूम--सन 1951 से 1960
चौथा वॉल्‍यूम--सन 1961 से 1970
पांचवा वॉल्‍यूम--सन 1971 से 1980

इसके अलावा उनके कई अन्‍य पब्लिकेशन भी हैं । जिनका ताल्‍लुक फिल्‍मों के इतिहास से है ।
हमराज़ के बारे में रेडियोनामा पर जल्‍दी ही एक पूरी पोस्‍ट प्रस्‍तुत की जाएगी । फिलहाल ये रहा उनका पता और ई मेल संपर्क । अगर आप उनके गीत कोश मंगाना चाहते हैं तो यहां संपर्क कीजिए--

Street address :
H.I.G. - 545, Ratan Lal Nagar,
Kanpur 208 022 [U.P.] India

E-mail address :
hamraaz18@yahoo.com

रेडियोवाणी परिवार हरमंदिर सिंह हमराज को जन्‍मदिन की मुबारकबाद पेश करता है ।
रेडियोनामा पर उनके परिचय की पोस्‍ट का इंतज़ार कीजिए ।


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Thursday, November 8, 2007

कभी किसी को मुकम्‍मल जहां नहीं मिलता-फिर फिर भूपिंदर



ये ठीक है कि इस वक्‍त आप पर दीपावली की तैयारियों का खुमार चढ़ा होगा लेकिन हम क्‍या करें । भई हमारे ऊपर तो पिछले कई दिनों से भूपेंद्र का हैंगओवर है । ये ऐसा हैंग हो गया है कि ओवर हो ही नहीं रहा है । और सच कहें तो हम चाहते भी नहीं कि ये हैंग.......ओवर हो जाए । क्‍योंकि भूपिंदर की आवाज़ हमें अकेलेपन की साथी लगती है । ब्‍ल्‍यू मूड की इससे बेहतर और मुकम्‍मल आवाज़ शायद दूसरी मिलनी मुश्किल है ।

मुकम्‍मल....इसी शब्‍द का हाथ पकड़कर हम आज आपको निदा फ़ाज़ली की एक ग़ज़ल सुनवा रहे हैं । इस ग़ज़ल का मिसरा एक मुहावरे की तरह इस्‍तेमाल किया जाता है । इंजीनियरिंग एन्‍ट्रेन्‍स में कामयाबी नहीं मिली, सिर झटक कर हम इस मिसरे को कहते हुए खुद को भुलाने की कोशिश करते हैं । जब जब जो चाहा वो नहीं मिला तो ये ग़ज़ल बहुत साथ देती है । ये सच है कि फेस्टिवल सीज़न में इस ग़ज़ल को सुनवाना थोड़ा सा मिसटाईम होगा, लेकिन दिल है कि मानता नहीं ।
आईये शोर भरे इस मौसम में अपने मन के भीतर की ख़ामोश दुनिया से मुलाक़ात करें । और पढ़ें सुनें ये ग़ज़ल ।


कभी किसी को मुकम्‍मल जहां नहीं मिलता
कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता ।।
जिसे भी देखिए वो अपने आप में गुम है
ज़बां मिली है मगर हमज़बां न‍हीं मिलता ।।
बुझा सका है भला कौन वक्‍त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुंआ नहीं मिलता ।।
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्‍यार न हो
जहां उम्‍मीद हो इसकी वहां नहीं मिलता ।।

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कल भूपिंदर वाला सिलसिला नहीं होगा । बल्कि कल हम आपको दो ख़ास चीज़ें सुनवायेंगे । इंतज़ार कीजिए ।
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Monday, November 5, 2007

नज़्म उलझी हुई है सीने में--सिलसिला गुलज़ार और भूपेंद्र के साथ का


गुलज़ार और भूपिंदर सिंह की रचनाओं के इस सिलसिले में आज फिर एक मुख्‍तसर सी नज़्म ।
दिलचस्‍प बात ये है कि गुलज़ार की मुख्‍तसर सी रचनाएं भी अपने आप में मुकम्‍मल हैं, संपूर्ण और गहरी हैं ।


इस रचना का शैदाई हूं मैं । बहुत बरस पहले राजेंद्र यादव ने 'राईटर्स- ब्‍लॉक' की बात की थी । ' ना लिखने का कारण' पर हुई बहस काफी लंबी चली गयी थी । हर लेखक की जिंदगी में एक ब्‍लॉक आता है । रूकावट आती है । जब सब कुछ रूक सा जाता है । जब चीज़ें जैसे सीने में अटक-सी जाती हैं बाहर आती ही नहीं । उसी हालत को कितना रूमानी मोड़ दिया है गुलज़ार ने पढि़ये और सुनिए इस नज़्म में ।

इसमें कई जगहों पर भूपिंदर की ख़ालिस आवाज़ रखी है, पीछे कहीं कोई संगीत नहीं है । धुन को शास्‍त्रीय रूप दिया गया है और दूसरे अंतरे पर तबला अपने बेहतरीन चलन के साथ आता है । मुझे भूपिंदर की आवाज़ का एक अलग ही रंग लगता है इस रचना में । आपको क्‍या लगता है ।


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नज़्म उलझी है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ्ज़ काग़ज पे बैठते ही नहीं ।।

कब से बैठा हूं मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्‍मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्‍या होगी ।।

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ऊपर भूपिंदर की एक बहुत पुरानी तस्‍वीर

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Saturday, November 3, 2007

आदतन तुमने कर दिये वादे-फिर भूपिंदर, फिर गुलज़ार




रेडियोवाणी पर गुलज़ार और भूपिंदर की महफिल सजी है पिछले कुछ दिनों से ।

ये महफिल कोई पहले से योजना बनाकर नहीं सजाई गयी । बल्कि सजते सजते सज गयी । मिलते मिलते एक के बाद एक चीज़ें मिलती जा रही हैं । और हम पेश किये जा रहे हैं । एक शेर अर्ज़ है--चूंकि स्‍मृति के आधार पर पेश है इसलिए लफ्ज़ों का हेर-फेर मुमकिन है । अर्ज़ किया है कि--


ये जुनूं भी क्‍या जुनूं ये हाल भी क्‍या हाल है ।
सुनाए जा रहे हैं हम कोई सुनता हो या ना हो ।।

ख़ैर हमें यहां अंदाज़ा है कि कुछ सुधी श्रोता सुन और बुन रहे हैं ।
आज बहुत ही फ़लसफ़ाई और मुहब्‍बती नज़्म पेश है ।

इसकी ख़ासियत है इसका बहुत ही मुख्‍तसर या संक्षिप्‍त होना ।
लेकिन ऐसा सिर्फ अलफ़ाज़ यानी शब्‍दों के मामले में है । असर के मामले में ये बहुत ही गहरी है ।

ज्ञान जी 'मुन्‍नी पोस्‍टों' के इस फैशनेबल समय में हमने भी बहती गंगा में हाथ धोते हुए इस नज़्म को आपके शब्‍दों में कहें तो 'ठेल' दिया है ।

पता नहीं क्‍यूं मुझे ये हमेशा से पॉलिटिकल नज़्म लगती है । अजीब बात है पर ज़रा इसे वादाखिलाफ़ राजनेताओं और ऐतबार करने वाली जनता के संदर्भ में भी सुनिए । फिर देखिए कितनी पॉलिटिकल नज़्म है ।

पर रूकिये । इसे पॉलिटिकिल इंटरप्रिटेशन देने का मतलब ये नहीं कि आप इसके इश्किया मिज़ाज को नज़रअंदाज़ कर दकें । मुझे इस नज़्म की सबसे शानदार पंक्तियां ये लगती हैं --

तेरी राहों में बारहा रूककर
हमने अपना ही इंतज़ार किया ।।

जिन्‍हें जीवन में प्रेम करने का मौक़ा मिला है, वो इस शेर के मर्म को बहुत अच्‍छे से समझ सकते हैं । मुझे लगता है कि हम शायद अपने मेहबूब से प्‍यार नहीं करते । बल्कि खुद से ही करते हैं । इंसानी सेल्फि़शनेस है ये । हम अपने मेहबूब में अपना ही अक्‍स ढूंढते हैं । या फिर जाने अनजाने उसे अपने मुताबिक़ ढाल लेते हैं । यानी किसी और से प्‍यार करना बहुत व्‍यापक अर्थों में खुद से प्‍यार करना ही है । तभी आप ये कह पाते हैं कि तेरी राहों में बारहा रूककर । हमने अपना ही इंतज़ार किया ।

आप इस नज़्म को सुनिए और बुनिए ।
मैं ये चला ।

आदतन तुमने कर दिये वादे
आदतन हमने ऐतबार किया ।

तेरी राहों में बारहा रूककर
हम ने अपना ही इंतज़ार किया ।

अब ना मांगेंगे जिंदगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया ।

आदतन तुमने कर दिये वादे ।।


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चलते चलते कह दूं कि ये ऐतबार मत रखिएगा कि कल भी भूपिंदर ही सुनने को मिलेंगे ।
आदतन तुमने कर दिये वादे । आदतन हमने ऐतबार किया ।

वैसे मिल भी सकते हैं ।


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Friday, November 2, 2007

चौदहवीं रात के इस चांद तले--गुलज़ार की एक क्रांतिकारी नज़्म


फिर मुझे भूपेंद्र/भूपिंदर सिंह की आवाज़ का हैंगओवर हो गया है । बरसों पहले जब मध्‍यप्रदेश में एक छोटे-से रेडियो-स्‍टेशन पर युववाणी किया करता था तो भी यही हुआ था । वो कॉलेज के दिन थे । एक तो ग़ज़लों का शौक़ । दूसरे ताज़ा ताज़ा रेडियो शुरू किया था । उन दिनों जिस तरह का ज़ेहन था, ग़ज़लें दिल में गूंजती रहती थीं । बेवजह अच्‍छी लगती थीं । उन दिनों अपन मेहदी हसन की अनसुनी रचनाएं सुनने के लिए रेडियो पाकिस्‍तान ट्यून करते थे । उर्दू सर्विस सुनते ताकि उर्दू से अच्‍छा-सा परिचय हो जाये । बाक़ायदा उर्दू की तालीम विज्ञान की पढ़ाई की वजह से मिली नहीं ।

बहरहाल जगजीत-चित्रा के बाद भूपिंदर-मिताली की जोड़ी के कुछ अलबम उन दिनों दिल पर छाये रहे थे । फिर कुछ और गहराई में उतरे तो भूपिंदर के कुछ experimental एलबम मिल गये । उनमें से एक था वो एल‍बम जिसका एक क्रांतिकारी गीत मैं आपको सुनवा रहा हूं । जैसे ही ये गीत मुझे मिला है मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । आप समझ नहीं सकते कि कितने अरसे से मैं इस गीत की तलाश में था ।

भूपिंदर की आवाज़ में भावुक रचनाएं बहुत प्‍यारी लगती हैं । उनकी आवाज़ की नरमी उनकी दौलत है । दूसरी ख़ासियत ये है कि जब ज़रूरत हो तो वो अपनी आवाज़ को बहुत ऊंचे सुरों तक ले जाने की काबलियत रखते हैं । आगे चलकर ऐसे कुछ गाने भी आपको सुनवाये जायेंगे । पर अभी ये गीत सुनिए । जिसे गुलज़ार ने लिखा है । संगीत खुद भूपिंदर का है । इस प्रायोगिक अलबम में कई पश्चिमी-शैलियों को अपनाया गया था ।

ज़रा एक शेर सुन लीजिए--
कहते हैं कि इश्‍क नाम के गुज़रे हैं एक बुज़ुर्ग
हम लोग भी फ़कीर उसी सिलसिले के हैं ।।

यहां 'इश्‍क' की जगह गुलज़ार का नाम रख दीजिए, फिर पढि़ये । जी हां हम भी गुलज़ार के शैदाईयों में से हैं । उनके लिखे को कोई भी गाये हम खोज-बीन करके जुटा लेते हैं । सुनते हैं और फिर अपनी बेबाक राय भी देते हैं । शैदाई हैं लेकिन उनकी ऐसी-वैसी रचना को खारिज करने में ज़रा भी चूक नहीं करते । तभी तो सच्‍चे शैदाई कहलाए ना । इस रचना के आगे गुलज़ार की सारी लेखनी को एक तरफ़ कर सकते हैं हम । जी हां । इसलिए, क्‍योंकि ये एक साहसी रचना है । हो सकता है कि लिखते वक्‍त गुलज़ार की कलम भी थरथराई होगी । लेकिन उनके भीतर का हिम्‍मती / हिमाकती शायर अड़ गया हो, कि जो लिख दिया सो लिख दिया । पहेली को उलझाना ठीक नहीं होगा, चलिए इस रचना के बोल पहले पढ़े जायें । ताकि आपके सामने बात साफ़ हो सके ।

चौदहवीं रात के इस चांद तले
सुरमई रात में साहिल के क़रीब *साहिल-किनारा
दूधिया जोड़े में जो आ जाये तू ।

सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में जो आ जाये तू
ईसा के हाथों से गिर जाए सलीब
क़सम से, क़सम से ।

सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाये जो तू
बुद्ध का ध्‍यान भी उखड़ जाए
क़सम से, क़सम से ।

सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाये जो तू
तुझको बर्दाश्‍त ना कर पाए ख़ुदा
क़सम से, क़सम से ।

इस गाने में कुछ ऐसी पंक्तियां आपको मिल गयी होंगी जिन पर मज़हबी-मठाधीश हंगामा खड़ा कर सकते थे । लेकिन अच्‍छा हुआ कि ऐसा कुछ नहीं हो सका । उन्‍होंने इसे सुना ही नहीं होगा । गिटार के बेस पर इस नज्‍़म को पिरोया गया है । शानदार कंपोज़ीशन और उससे भी अच्‍छी और नशीली गायकी । सुनिए--
इस नज़्म से पहले गुलज़ार की लंबी-सी कॉमेन्‍ट्री है । ज़रा इसे भी सुनिएगा ध्‍यान से । इसमें उन नज़्मों की बात गुलज़ार कह रहे हैं जो इस अलबम का हिस्‍सा हैं--जैसे- आदतन तुमने कर दिये वादे, वो जो शायर था, बस एक चुप सी लगी है वग़ैरह । फिर ये नज्म आती है ।


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बताईये कि भूपिंदर की इस महफिल का सिलसिला कैसा लग रहा है । क्‍या इसे जारी रखना चाहिए ।

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Thursday, November 1, 2007

एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने- भूपेंद्र, गुलज़ार और आर.डी.बर्मन


रेडियोनामा पर आजकल भूपेंदर सिंग की तरंग चढ़ी हुई है । सर्दीली आवाज़ वाले भूपेंद्र मुझे हमेशा से पसंद रहे हैं । उनकी कुछ ग़ज़लें भी कमाल की हैं । लेकिन हम इस श्रृंखला को नियमित रख सके तो केवल फिल्‍मी गीतों की ही बात करेंगे । हां उनका एक ग़ैरफिल्‍मी गीत है जो मिला तो मैं ज़रूर सुनवाना चाहूंगा । बोल हैं--चौदहवीं रात के इस चांद तले, दूधिया
जोड़े में जो आ जाए तू, बुद्ध का ध्‍यान भी भटक जाए । इसे गुलज़ार ने लिखा है ।

बहरहाल, मैंने पहले ही सोच रखा था कि इस श्रृंखला का दूसरा गीत 'किनारा' का होगा । और कुछ पाठकों ने भी इसकी फ़रमाईश कर डाली है । तो चलिए आज एक और मासूम और नाज़ुक गीत से रूबरू हो जाएं ।

फिल्‍म 'किनारा' 1977 में आई थी । गुलज़ार इसके निर्देशक थे । धर्मेंद्र, जीतेंद्र और हेमामालिनी प्रमुख कलाकार थे । हिंदी सिनेमा की बहुत समझदार फिल्‍मों में इसकी गिनती होती है । इस फिल्‍म में संगीत राहुलदेव बर्मन का था ।

दिलचस्‍प बात ये है कि गुलज़ार और राहुलदेव बर्मन में एक रचनात्‍मक भिड़ंत सदा-सर्वदा चलती रही । उसका कारण था गुलज़ार की लेखनी । पंचम यानी राहुलदेव बर्मन गुलज़ार से कहते थे कि कल को आप एक अख़बार ले आयेंगे और कहेंगे ऐसा करो इस वाली ख़बर को कंपोज़ कर दो । दरअसल गुलज़ार की बीहड़ लेखनी को सुरों में पिरोना वाक़ई जिगर वाले संगीतकारों के ही बस की बात है । और ये गाना भी इसी की मिसाल है ।

फिल्‍म-संसार के बेहद नाज़ुक और बेहद रूमानी गीतों में इस गाने का शुमार होता है ।
आप इसे सुनकर खुद ही ज़ेहन में गुलाबी-गुलाबी सा महसूस करेंगे । इसके संगीत में गिटार का अद्भुत प्रयोग है । यहां आपको ये बता देना ज़रूरी है कि भूपिंदर बरसों बरस गिटार प्‍लेयर के तौर पर काम करते रहे हैं । उन्‍होंने कई मशहूर गीतों में शानदार गिटार बजाया है । जैसे 'हरे रामा हरे कृष्‍णा' का गीत 'दम मारो दम' का आरंभ सुनिए । ये रहा केवल आरंभ ।



इसी तरह 'ज्‍वेल थीफ़' के गीत 'होठों में ऐसी बात' में भी उन्‍होंने गिटार बजाया है । साथ में 'हो शालू' वाली पुकार भी भूपेंद्र की ही है । नाज़ुकी और रूमानियत भूपेंद्र की खासियत है ।
इसलिए उन्‍हें कई ऐसे गीत मिले हैं, जिनमें अकेलापन है, या फिर शिद्दत से प्‍यार करने का जज्‍़बा है । या फिर जिंदगी के ग़मों का नीला समंदर है । इस तरह के कई और गाने रेडियोवाणी पर आपको सुनने मिलेंगे । पर फिलहाल सुनिए, पढि़ये और देखिए--ये गीत

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एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने
तूने साड़ी में उड़स ली हैं मेरी चाभियां घर की
और चली आई है बस यूं ही मेरा हाथ पकड़ कर
एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने ।

मेज़ पर फूल सजाते हुए देखा है कई बार
और बिस्‍तर से कई बार जगाया है तुझको
चलते-फिरते तेरे क़दमों की वो आहट भी सुनी है
एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने ।

क्‍यों । चिट्ठी है या कविता ।
अभी तक तो कविता है । ( सुलक्षणा पंडित का नाज़ुक आलाप )

गुनगुनाती हुई निकली है नहाके जब भी
और, अपने भीगे हुए बालों से टपकता पानी
मेरे चेहरे पे छिटक देती है तू टीकू की बच्‍ची
एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने ।

ताश के पत्‍तों पे लड़ती है कभी-कभी खेल में मुझसे
और लड़ती है ऐसे कि बस खेल रही है मुझसे
और आग़ोश में नन्‍हे को लिए
will you shut up?

और जानती है टीकू, जब तुम्‍हारा ये ख्‍वाब देखा था ।
अपने बिस्‍तर पे मैं उस वक्‍त पड़ा जाग रहा था ।।



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Tuesday, October 30, 2007

आज बिछड़े हैं तो कल का डर भी नहीं--सर्दीली आवाज़ वाले भूपेंद्र की आवाज़


सन 1980 में एक फिल्‍म आई थी 'थोड़ी सी बेवफाई' । इस्‍माईल श्रॉफ ने इसे बनाया था । अपने गानों के लिए ये फिल्‍म हमेशा याद की जाएगी । गुलज़ार ने इस फिल्‍म के गीत लिखे थे । आज मैं आपको इस फिल्‍म का सबसे कम सुना गया गाना सुनवा रहा हूं । भूपेंद्र ने इसे गाया था । इस गाने में एक विकलता है । एक दर्द है । एक हल्‍की-सी तल्‍ख़ी भी है । लेखनी के नज़रिए से देखा जाए तो बहुत अजीब-सा गीत है । शायद ख़ैयाम को इसे स्‍वरबद्ध करने में ख़ासी परेशानी हुई होगी ।
भूपेंद्र की आवाज़ के तो कहने ही क्‍या । उनकी सर्दीली, ज़ुकामी से आवाज़ मुझे बहुत पसंद है । आगे चलकर रेडियोवाणी पर आपको भूपेंद्र के गाये कुछ और गीत सुनवाए जायेंगे । पर फिलहाल इस गीत का मज़ा लीजिए और बताईये कि कैसा लगा ।


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आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं
जिंदगी इतनी मुख्‍तसर भी नहीं ।।

ज़ख़्म दिखते नहीं अभी लेकिन

ठंड होगे तो दर्द निकलेगा
तैश उतरेगा वक्‍त का जब भी
चेहरा अंदर से ज़र्द निकलेगा
आज बिछड़े हैं ।।

कहने वालों का कुछ नहीं जाता
सहने वाले कमाल करते हैं
कौन ढूंढे जवाब दर्दों के
लोग तो बस सवाल करते हैं
आज बिछड़े हैं ।।




ज़रा इन पंक्तियों पर ध्‍यान दीजिएगा ख़ासतौर पर--
कहने वालों का कुछ नहीं जाता
सहने वाले कमाल करते हैं
कौन ढूंढे जवाब दर्दों के
लोग तो बस सवाल करते हैं ।




अकेली सूनी उजाड़ जिंदगी का गीत है ये । बीहड़ और खंडहर जिंदगी का गीत ।
क्‍या आपको नहीं लगता कि हम सबकी जिंदगी में ऐसे लम्‍हे ज़रूर आते हैं जब जिंदगी बीहड़-सी बन जाती है । नहीं भी आएं तो भी दुनिया में दर्द भरे गानों को पसंद करने वालों का कारवां बहुत बड़ा है । हम भी उसी में शामिल हैं ।


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Tuesday, July 31, 2007

मो. रफी पर रेडियोवाणी का विशेष आयोजन: तीसरी कड़ी—रफी साहब के गाये मराठी, पंजाबी, बांगला और कन्‍नड़ गीत और साथ में एक ग़ज़ल भी ।

तीसरी कड़ी में मैं आपको सुनवा रहा हूं रफी साहब के गाये अन्‍य भाषाओं के नग्‍मे । सबसे आखिर में एक ग़ज़ल है ग़ालिब की ।
ये रहा रफी साहब का गाया मराठी गीत—शोढीषी मालवा


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पंजाबी गीत’-रब्‍बा रे तेरीयां बेपरवाहियां
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मो0 रफी का गाया बांगला गीत सुनने के लिये यहां क्लिक करें



मो0 रफी का गाया कन्‍नड़ गीत सुनने के लिये
यहां क्लिक करें



और ये है कलाम-ऐ-ग़ालिब--

बस के दुश्‍वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्‍सर नहीं इंसां होना
गिरीयां चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की
दरो दीवार से टपका है बयाबां होना
इशरते कत्‍ल गहे अहले तमन्‍ना ना पूछ
ईदे नज्‍जारा है शमशीर का उरियां होना
की मेरे क़त्‍ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा
हाय उस दूद-पशेमां का पशेमां होना

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मो.रफी की पुण्‍यतिथि पर ‘रेडियोवाणी’ का विशेष आयोजन:दूसरा भाग—जब रफ़ी ने किशोर कुमार के लिए ‘प्‍लेबैक’ किया ।

मो0 रफी की पुण्‍यतिथि है आज ।

बहुत मुश्किल में हूं कि आपको क्‍या सुनाऊं और क्‍या छोड़ दूं ।
दरअसल रफी साहब इतने वरसेटाईल गायक थे कि उनके गानों में से श्रेष्‍ठ गीत चुनना भी किसी सज़ा से कम नहीं । बड़ी मुश्किल हो जाती है । जहां तक मुझे याद आता है दो मौक़े ऐसे थे जब रफ़ी साहब ने किशोर कुमार के लिए प्‍लेबैक किया था । फिलहाल हम ऐसा ही एक गीत सुनेंगे और उसकी बात करेंगे ।

इसका श्रेय जाता है संगीतकार ओ.पी.नैयर को । नैयर साहब दिलदार आदमी थे । एक पंजाबी जिद उनके भीतर समाई हुई थी । जो सोच लेते वही करते । एक किस्‍सा आपको बताता हूं । गीतकार प्रदीप फिल्‍म ‘संबंध’ के गीत लिख रहे थे । याद कीजिए मुकेश का गाया गीत—‘चल अकेला’ । लेकिन प्रदीप की सूरत पसंद नहीं थी नैयर साहब को । हालांकि वो उनकी इज्‍जत बहुत करते थे । उनकी प्रतिभा से आतंकित भी थे । अजीब बात लगती है, पर नैयर तो नैयर थे । उन्‍होंने प्रदीप को अपने स्‍टूडियो आने से मना कर दिया था । वो फेमस स्‍टूडियो के बाहर अपनी गाड़ी में बैठे रहते और गाना किसी आदमी के ज़रिए स्‍टूडियो में नैयर को पहुंचा देते । और नैयर उसकी धुन बना
लेते । क्‍या गाने हैं फिल्‍म ‘संबंध’ के ।


बहरहाल यही नैयर साहब ही थे जिन्‍होंने रफ़ी की आवाज़ उस फिल्‍म के लिए जिसमें अभिनय कर रहे थे किशोर कुमार । ये फिल्‍म ‘रागिनी’ थी । सन 1958 में आई थी । प्रोड्यूसर उनके अपने भाई अशोक कुमार ।

ओ0पी0 नैयर ने खुद अपने इंटरव्यू में बताया था कि जब किशोर कुमार को पता चला कि ये गीत उनकी बजाय रफी साहब से गवाया जायेगा और फिल्‍माया उन्‍हीं पर जायेगा तो वो बहुत नाराज़ हुए और फिल्‍म के प्रोड्यूसर यानी अपनी बड़े भैया अशोक कुमार के पास पहुंचे । दादा मुनि ने किशोर से कहा कि देखो किशोर, संगीत के बारे में सारे फैसले संगीतकार करेगा । अगर नैयर साहब को लगता है कि इस गाने के लिए रफ़ी साहब ठीक रहेंगे तो इस बारे में मैं क्‍या कर सकता हूं । हारकर किशोर कुमार को राज़ी होना पड़ा । नैयर साहब का कहना था कि ये एक शास्‍त्रीय रचना है और इसे किशोर ठीक से नहीं गा सकेंगे । रफी साहब की शास्‍त्रीयता का किशोर से भला क्‍या मुक़ाबला । जिद्दी नैयर साहब फिल्‍म संसार के एकमात्र ऐसे संगीतकार रहे जिन्‍होंने ये करिश्‍मा किया । तो आईये सुनें फिल्‍म ‘रागिनी’ का ये गीत—जो अपने आप में पक्‍का शास्‍त्रीय गीत है । इस गाने में रफी साहब की गायकी के तो कहने ही क्‍या ।

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मन मोरा बावरा, मन मोरा बावरा
निसदिन गाये गीत मिलन के
मन मोरा बावरा ।।

आशाओं के दीप जलाके
बैठी कब से आस लगाके
आया प्रीतम प्‍यारा
मन मोरा बावरा ।।

मन मंदिर में श्‍याम बिराजे
छुनछुन मोरी पायल बाजे
कैसा जादू डारा
मन मोरा बावरा ।।

है ना कमाल की बात । फिल्‍म-संसार का एक ऐतिहासिक गाना बन गया है ये ।
रफ़ी की आवाज़ का सच्‍चाई, मासूमियत और समर्पण का शिखर है ये गीत ।




रफी साहब को गाते हुए देखने के लिए यहां पर क्लिक करें

रफी साहब के
इस गीत को पूरे हुए साठ साल


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मो. रफी की पुण्‍यतिथि पर रेडियोवाणी का विशेष आयोजन—पहला भाग : रफ़ी के जीवन के कुछ अनछुए पहलू, बेमिसाल गीत और एक दुर्लभ इंटरव्यू


कल बैंगलोर के हमारे मित्र शिरीष कोयल ने संदेश भेजा कि रफ़ी साहब की पुण्‍यतिथि पर उनसे जुड़े कुछ अनजान तथ्‍य पेश किए जाएं ।

उनका सुझाव अच्‍छा है, इसलिये सिर आंखों पर ।



मो.रफ़ी चाय और मीठे के बड़े शौक़ीन थे । संगीतकार जोड़ी लक्ष्‍मी-प्‍यारे के प्‍यारेलाल जी ने बताया कि उनकी चाय बड़ी शाही हुआ करती थी और सबको नसीब नहीं होती थी । चूंकि लक्ष्‍मी-प्‍यारे युवा थे इसलिये अपना बचपना दिखाकर हिमाक़त कर लेते थे और रफ़ी साहब से ‘चाय’ मांग लिया करते थे । प्‍यारेलाल जी बताते हैं कि रफ़ी साहब की चाय कैसे बनती थी—एक सेर दूध को ओटा कर आधा सेर कीजिए, उसमें बादाम पिस्‍ता, काजू वग़ैरह पीस कर डालिए । फिर थर्मस में भरिए और रिकॉर्डिंग पर लेकर चल पडिये । अगर रफ़ी साहब ने चाय दिलवा दी तो चुपचाप पीने पर वो ख़फ़ा हो जाते थे । इस चाय को ज़ोरदार वाहवाही करते हुए पीना पड़ता था ।


रफ़ी साहब फ़क़ीरों जैसी तबियत रखते थे । उनके भीतर व्‍यापारिक-बुद्धि नहीं थी । कितने-कितने संगीतकारों और निर्माताओं से उन्‍होंने पैसे नहीं लिए । कितने ही छोटे प्रोड्यूसर ऐसे थे जिनके गीत केवल अनुनय-विनय करने पर रफ़ी साहब ने गा लिये, कई बार शगुन के तौर पर थोड़े-बहुत पैसे लिये, पर ज़्यादातर बिल्‍कुल पैसे नहीं लिए । आपके रफ़ी साहब के कई शानदार गाने ऐसे मिलेंगे जो बहुत ही छोटी फिल्‍मों के हैं । इन फिल्‍मों का कोई नामलेवा आज नहीं है, लेकिन रफ़ी के गानों को हम सिर-आंखों पर रखते हैं ।

क्‍या आपको पता है कि मो. रफ़ी का आखिरी नग़्मा कौन-सा है । 31 जुलाई 1980 को रफ़ी साहब ने फिल्‍म ‘आसपास’ का गीत रिकॉर्ड किया था । ये गाना था-‘तू कहीं आसपास है दोस्‍त-दिल फिर भी उदास है दोस्‍त’ । इस रिकॉर्डिंग के बाद ही उनकी तबियत ख़राब हो गयी थी । और बॉम्‍बे हॉस्पिटल उन्‍हें ले जाया गया । जहां उनकी रूह दुनिया को छोड़ चली गयी । वो मीडिया का दौर नहीं था, इंडस्‍ट्री को बहुत देर से इसकी ख़बर मिली थी । ये रहा वो गाना । इसे सुनिए तो लगेगा जैसे रफ़ी को अहसास हो गया था कि उनके हिस्‍से में सांसों का ख़ज़ाना ख़त्‍म हो चुका है । जैसे वो भरे मन से दुनिया को अलविदा कह रहे हैं ।


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मो.रफ़ी जब फिल्‍म ‘नीलकमल’ के गाने ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ की रिकॉर्डिंग कर रहे थे तो उन्‍हें अपनी बेटी की विदाई का ख्‍याल आ गया, उन दिनों जल्‍दी ही उसकी शादी होने वाली थी । इस अहसास ने इस गाने को और भी दर्दीला बना दिया है ।


मो. रफ़ी से जुड़ी कुछ अनमोल तस्‍वीरें देखने के लिए आप
यहां क्लिक कर सकते हैं । याद रहे कि इससे रफ़ी के फ़ोटो अलबम का पहला पृष्‍ठ खुलेगा । पेज के नीचे एक नीली पट्टी है, जिस पर पेज नंबर दिये हुए हैं, उन्‍हें क्लिक करके आप आगे के पन्‍ने देखना मत भूलिएगा । इस फ़ोटो अलबम में कुल चार सौ बावन तस्‍वीरें हैं । एक से एक अनूठी और अनमोल । इसे रफ़ी के जुनूनी दीवानों ने जमा किया है ।

मो. रफ़ी इतना मद्धम बोलते थे कि बगल में बैठा व्‍यक्ति भी ना सुन सके । रफ़ी के शैदाई और मेरे परिचित मुंबई के ख़लीक अमरोहवी बताते हैं कि रफ़ी साहब बहुत ही नाज़ुक-ज़बान थे । वो बहुत कम बोलते थे । बस मुस्‍कुराते रहते थे । आपको हैरत होगी कि ना तो विविध-भारती के पास और ना ही दुनिया के किसी अन्‍य रेडियो-चैनल के पास रफ़ी साहब का इंटरव्यू है । हां बी.बी.सी. ने ज़रूर रफ़ी साहब का एक छोटा-सा इंटरव्यू किया है । जो आज यहां प्रस्‍तुत किया जा रहा है ।









शायद आपको पता न हो कि लता मंगेशकर और ओ.पी.नैयर दोनों से अलग-अलग रफ़ी साहब से ख़फ़ा हो गये थे । लता जी उन दिनों गायकों को रॉयल्‍टी के पैसे दिलवाने की मुहिम चला रही थीं । कई गायक उनके साथ थे । रफ़ी सा‍हब रॉयल्टी के पैसों के लिए संघर्ष करने से इत्‍तेफ़ाक नहीं रखते थे । बस इसी बात पर लता जी थोड़े दिन के लिए ख़फ़ा हो गयीं । बातचीत बंद । पर दोनों ने गाने साथ-साथ गाए । नैयर साहब के ख़फ़ा होने की वजह शायद रफ़ी साहब का एक बार स्‍टूडियो में देर से आना रही । उन्‍होंने महेंद्र कपूर से गवाना शुरू कर दिया था । लेकिन नैयर साहब रफ़ी से बहुत प्‍यार करते थे । उनका कहना था कि उनके गाने अगर कोई गा सकता था तो वो रफ़ी ही थे ।


ये तो सभी जानते हैं कि रफ़ी साहब ने पहला गीत पंजाबी फिल्‍म ‘गुल-बलोच’ के लिए गाया था । गाना था-‘सोणिए हीरीए’ । मुंबई में जब वो नौशाद से मिले तो नौशाद को उनकी आवाज़ पर इतना विश्‍वास नहीं था । इसलिए एक फिल्‍म में उन्‍होंने रफ़ी को कुंदनलाल सहगल के पीछे कोरस में गवाया था । ये रहा वो गीत । इसके आखिर में एक कोरस आता है-जिसमें रफ़ी साहब की आवाज़ साफ़ पहचान में आ रही है ।

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रफ़ी साहब शराब को छूते भी नहीं थे । लेकिन शराबियों के जो गीत उन्‍होंने गाये हैं
वो कमाल हैं । मदनमोहन का स्‍वरबद्ध किया फिल्‍म शराबी का गीत ‘कभी ना कभी कहीं ना कहीं कोई ना कोई तो आयेगा, अपना मुझे बनाएगा’ इसकी सबसे अच्‍छी मिसाल है ।

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ये थे रफ़ी साहब की शख्सियत से जुड़े कुछ दिलचस्‍प तथ्‍य ।



रफी साहब को गाते हुए देखने के लिए यहां पर क्लिक करें

रफी साहब के
इस गीत को पूरे हुए साठ साल


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Monday, July 30, 2007

कल मो. रफ़ी की पुण्‍यतिथि है, बताईये रफ़ी आपको क्‍यों प्रिय हैं


कल मो. रफी की पुण्‍यतिथि है ।
जब शोर और संगीत का फ़र्क़ मिटता जा रहा है, तो इस दिन हम अपने मेहबूब फ़नकार को सलाम करेंगे और ज़माने के चलन पर सोग़ मनायेंगे ।

31 जुलाई का दिन दो हस्तियों के लिए याद किया जाता है । एक मो0 रफी और दूसरे प्रेमचंद ।

दोनों को हमने याद भी रखा पर प्रकारांतर से भुला भी तो दिया है ।

मो0 रफी पर कल ‘रेडियोवाणी’ पर एक विशेष आयोजन किया जायेगा ।
‘ज्ञान’ जी क्‍या मैं आपसे प्रेमचंद पर लिखने का निवेदन कर सकता हूं ।

लेकिन फिलहाल कल तक आपको बताने हैं रफ़ी के अपने पसंदीदा गीत । नहीं
समीर भाई, ये गुज़ारिश मैं अपने नए पॉडकास्‍ट के लिए नहीं कर रहा । थोड़े दिनों के लिए पॉडकास्‍ट को विराम दिया जा रहा है । कुछ हफ्ते रूकियेगा पॉडकास्‍ट के लिए ।

दरअसल जब हमारा सामूहिक-ब्‍लॉग रेडियोनामा शुरू हो जायेगा तब इस तरह की चर्चाएं उस ब्‍लॉग पर ही की जायेंगी । लेकिन रफ़ी साहब के बहाने हम ये जानना चाहते हैं कि एक कालजयी कलाकार हमारी जिंदगी में किस क़दर दख़ल रखता है । हमारी जिंदगी के वो कौन से लम्‍हे होते हैं जो इनकी वजह से अनमोल बन जाते हैं ।

रफ़ी साहब ने आपकी जिंदगी के किन दिनों को यादगार बनाया है यही जानना चाहता हूं मैं । आपकी बातों को संपादित करके एक पूरी पोस्‍ट में प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा है ।

साथ में मैं भी बताऊंगा कि रफ़ी साहब ने मेरी जिंदगी पर क्‍या असर डाला है ।

मैं फिर से स्‍पष्‍ट कर दूं कि केवल गाने मत बताईयेगा बल्कि ये भी बताईये कि जिंदगी के किस मोड़ पर इन गानों ने आपके मन को छुआ । इन गानों का आपकी जिंदगी में क्‍या महत्‍त्‍व है वग़ैरह । ताकि हम गानों से रची एक पूरी दुनिया से वाकिफ़ हो सकें और जान सकें कि कुछ कालजयी कलाकार और कुछ कालजयी गीत केवल रिकॉर्ड पर नहीं होते, वो तो हर सरहद को पार करते हुए हमारे मन की कंदराओं में समा जाते हैं । हमारे लहू में घुल जाते हैं । हमारी ज़ुबां पर चढ़ जाते हैं और हमारे मस्तिष्‍क पर छप जाते हैं । कैसे और
कब । क्‍या पता ।

फिलहाल तो रफ़ी साहब पर तैयार की गयी कुछ पुरानी पोस्‍टों का ब्‍यौरा नीचे दिया गया
है ।

रफी साहब को गाते हुए देखने के लिए
यहां पर क्लिक करें

रफी साहब के
इस गीत को पूरे हुए साठ साल



मुझे आपकी टिप्‍पणियों का इंतज़ार है ।



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Thursday, June 14, 2007

मौसा जी क्‍या आपके पास हिमेश रेशमिया की सी0डी0 है—मेंहदी हसन के बहाने मन की बहुत सारी बातें और तीन बेमिसाल गीत


प्रिय मित्रो पिछले कुछ दिनों से मैं अपने प्रिय गायक मेंहदी हसन पर लिख रहा हूं और उनकी कुछ रचनाएं खोजकर आपको सुनवा रहा हूं । ये सारी मशहूर रचनाएं हैं और ये तय किया है कि कुछ गुमनाम रचनाएं आगे चलकर आपको सुनवाई जायेंगी ।

हाल के दिनों की बात है । एक दिन मैं मेंहदी हसन की एक ग़ज़ल सुन रहा था, कमरे में मद्धम रोशनी थी, माहौल शायराना था । बाहर पत्‍नी अपनी बहन से बतिया रही थी । उसका नौ वर्षीय बेटा अचानक मेरे पास आया और बोला मौसा जी ये आप क्‍या आ आ आ ऊ ऊ सुनते रहते हैं । क्‍या आपके पास हिमेश रेशमिया के गाने नहीं हैं । क्‍या आप मुझे ‘आपका सुरूर’ की सी0डी0 दे सकते हैं ।

थोड़ी देर के लिए दिल धक से रह गया । झटका लगा । फिर मैंने सोचा कि जब मैं इसकी उम्र में था तो क्‍या सुनता था । वही डिस्‍को जो रेडियो पर आया करता था । उन दिनों हम भोपाल में थे । और बप्‍पी लहरी, लक्ष्‍मी-प्‍यारे, आर0डी0 बर्मन सब पर डिस्‍को का भूत सवार था । एशियाड के आसपास वाले दिनों की बात है । हरी ओम हरी और जवान जाने मन का ज़माना था । मुझे भी अच्‍छा लगता था । एक दिन मैं अपनी छुटकू सायकिल को साफ़ करते हुए गा रहा था-‘आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आये तो बाप बन जाये’ । मस्‍ती थी, मज़ा था । पीछे से एक जोर की चपत पड़ी, क्‍या गा रहे हो, कुछ सोच समझकर गाया करो । ये मां थीं, जो सोच रही थीं कि जिंदगी में आये और बाप बन जाये वाला मामला क्‍या है । फिर उन्‍होंने बताया कि बाप नहीं बन जाये, बात बन जाये, बात बात बात । समझे ।

यानी हम भी इस पीढ़ी से अलग नहीं थे । इस घटना के चार पांच साल बाद मुझे मेंहदी हसन, गुलाम अली, जगजीत सिंह, पंकज उधास और तलत अज़ीज़ को सुनने का शौक़ हुआ था । पर मैं उस बच्‍चे की मांग पर सोच रहा था कि क्‍या इस पीढ़ी को मेरी तरह अच्‍छे गंभीर संगीत को सुनने का शौक़ हो पायेगा । मुझे कुछ समझ नहीं आया । लगा शायद ना मिल पाये । एफ0एम0 सुनने के लिए हेडफोन को कान में ठूंसे ये हिप हॉप पीढ़ी आजकल वो कौन सा इग्‍लेसियस है उसको तो जानती है पर हिंदी सिनेमा के महान गायकों को नहीं । ना ही ये एफ0एम0चैनल पुराने गानों को कोई ख़ास जगह दे रहे हैं अपने प्राईम टाईम में । पुराने गानों के नाम पर आर0डी0बर्मन के ओरीजनल या रीमिक्‍स गाने सुनवाये जाते हैं इन पर ।


क्‍या आपको अफ़सोस नहीं होगा जब मन्‍ना डे या तलत महमूद या फिर पंकज मलिक को सुनने वालों को बूढ़ा और बेकार माना जाये, वो भी महज़ चौंतीस साल की उम्र में ।

चलिए इस चिंता के परे निकलकर हम खो जायें मेंहदी हसन की ग़ज़लों और गीतों में । आपको बता दूं कि मेंहदी हसन पर केंद्रित श्रृंखला की ये आखिरी कड़ी है । थोड़े दिन बाद मौक़ा मिलने पर हम फिर उनकी बात करेंगे । भाई सागर चंद नाहर की फ़रमाईश के दो गीत इसमें शामिल हैं ।


यहां सुनिए—रंजिश ही सही । शायर हैं अहमद फ़राज़ ।















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रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
अब तक दिल-ए-ख़ुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आख़िरी शम्में भी बुझाने के लिए आ

एक उम्र से हूं लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम
आए राहत-ए-जां मुझ को स्र्लाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ
माना कि मोहब्बत का छिपाना है मोहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ
जैसे तुझे आते हैं न आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ
शायद आखिरी दो शेर किसी और शायर के हैं । किन्‍हीं तालिब बाग़पती
के । लेकिन उन्‍हें इस ग़ज़ल में शामिल कर दिया गया है ।

कुछ कठिन शब्‍दों के मायने:
दिले खुशफ़हम—खुशफहमी का शिकार दिल
लज़्ज़ते गिरिया—रोने का मज़ा
पिन्‍दार ऐ मुहब्‍बत—मुहब्‍बत का गर्व

जिंदगी में तो सभी प्‍यार किया करते हैं ।














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जिंदगी में तो सभी प्‍यार किया करते हैं मैं तो मरके भी मेरी जान तुझे चाहूंगा ।।

तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मुहब्‍बत के लिए थोड़ी है ।
इक ज़रा सा ग़मे दौरां का भी हक़ है जिस पर
मैं वो सांस तेरे लिए रख छोड़ी है
तुझ पे हो जाऊंगा गुलफाम तुझे चाहूंगा ।।
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा ।।

अपने जज्‍बात में नग्‍मात रचाने के लिए
मैंने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे
मैं तसव्‍वुर भी जुदाई का भला कैसे करूं
मैंने किस्‍मत की लकीरों से चुराया है तुझे
प्‍यार का बनके निगहबान तुझे चाहूंगा ।।
मैं तो मरके भी मेरी जान तुझे चाहूंगा ।।

तेरी हर चाप से जलते हैं ख्‍यालों में चराग़ जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये तुझको छू लूं तो फिर ऐ जाने तमन्‍ना मुझ को देर तक अपने बदन से तेरी खुश्‍बू आये तू बहारों का है उन्‍वान तुझे चाहूंगा ।।
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा ।।



तेरी आंखों को जब देखा यहां सुनिए
तेरी आंखों को जब देखा, कंवल कहने को जी चाहा
मैं शायर तो नहीं लेकिन ग़ज़ल कहने को जी चाहा
तेरा नाज़ुक बदन छूकर हवाएं गीत गाती हैं
बहारें देखकर तुझको नया जादू जगाती हैं
तेरे होठों को कलियों का बदन कहने का जी चाहा
मैं शायर तो नहीं लेकिन ग़ज़ल कहने को जी चाहा
इजाज़त हो तो आंखों में छिपा लूं ये हसीन जलवा
तेरे रूख़सार पर कर लें मेरे लब प्‍यार का सज्‍दा
तुझे चाहत के ख्‍वाबों का महल कहने को जी चाहा
मैं शायर तो नहीं लेकिन ग़ज़ल कहने को जी चाहा
तेरी आंखों को जब देखा ।




प्‍यार भरे दो शर्मीले नैन यहां सुनिए


प्‍यार भरे दो शर्मीले नैन, जिनसे मिला मेरे दिल को चैन ।
कोई जाने ना, क्‍यूं मुझसे शर्माएं, कैसा मुझे तड़पाएं ।।

दिल ये काहे गीत मैं तेरे गाऊं, तू ही सुने और मैं गाता जाऊं
तू जो रहे साथ मेरे, दुनिया को ठुकराऊं, तेरा दिल बहलाऊं ।।
प्‍यार भरे दो शर्मीले नैन ।।

रूप तेरा कलियों को शरमाए, कैसे कोई अपने दिल को बचाए पास है तू फिर भी जलूं, कौन तुझे समझाए, सावन बीता जाए
प्‍यार भरे दो शर्मीले नैन ।।

डर है मुझे तुझसे बिछड़ ना जाऊं, खो के तुझे मिलने की राह ना पाऊं
ऐसा ना हो जब भी तेरा नाम लबों पे लाऊं, मैं आंसूं बन जाऊं ।।
प्‍यार भरे दो शर्मीले नैन ।।


इन्‍हें सुनकर आपने महसूस किया होगा कि मेंहदी हसन की आवाज़ में एक ताज़गी और सादगी है । वो कोई लटका झटका नहीं अपनाते । उनकी आवाज़ की मासूमियत ही हमारे दिल में उतर जाती है । उनकी अदायगी कमाल की है । अच्‍छी शायरी और अच्‍छी आवाज़ का अनमोल संगम हैं मेंहदी हसन । इस सबके बावजूद वो छोटा बच्‍चा मुझसे पूछता है—मौसा जी ये आप क्‍या आ आ ऊ ऊ सुनते रहते हैं, क्‍या आपके पास हिमेश रेशमिया के गानों की सी0डी0 नहीं है ।

आप ही बताईये मैं क्‍या करूं ।

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Monday, June 11, 2007

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्‍वाबों में मिलें.......हमारी सुरमई शामों की आवाज़ मेंहदी हसन

उस्‍ताद मेंहदी हसन साहब मेरे पसंदीदा ग़ज़ल-गायकों में से एक हैं । मेंहदी हसन की ख़ासियत ये रही है कि वो केवल उम्‍दा शायरी को ही अपनी आवाज़ बख्‍शते हैं । अब तक का मेरा तजुरबा यही कहता है कि मेंहदी हसन साहब किसी ऐसी-वैसी ग़ज़ल को छूते भी नहीं । मेंहदी हसन साहब अब गा नहीं सकते, सोचिए कि उनके दिल पर क्‍या बीतती होगी, खुद हमारा ही दिल इस बात से भीग भीग जाता है । आईये इस महान गायक को बड़े एहतेराम से सलाम करें और ये क़ुबूल करें कि हमने अपनी जिंदगी के कई ख़ामोश लम्‍हे, कई सुरमई शामें इस आवाज़ के साथ बिताई हैं ।

अपनी पिछली पोस्‍ट में मैंने गुलाम अली की कुछ ग़ज़लों के लिंक दिये थे और ये वादा किया था कि जल्‍दी ही मेंहदी हसन की अपनी पसंदीदा ग़ज़लें भी आपको सुनवाऊंगा । तो आईये आज के इस दिन को रंगीन करें इन नग्‍मों और ग़ज़लों से ।

(इस दौरान मनीष ने बड़ी महत्‍त्‍वपूर्ण बात कही है, उन्‍होंने कहा कि भारत में इंटरनेट की धीमी रफ्तार अकसर परेशान करती है, ऐसे में केवल यू-ट्यूब के लिंक देना नाइंसाफी है, हो सकता है कि बहुत सारे लोगों को परेशानी होती हो । इसलिये इस बार कुछ गानों के ऑडियो लिंक अलग और वीडियो लिंक अलग-अलग कर दिये हैं । जिसकी जैसी सुविधा हो, इनका इस्‍तेमाल कर सकता है । कुछ गीतों के वीडियो लिंक नहीं मिले इसलिये उनका केवल ऑडियो दिया जा रहा है)

मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो, मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे---मेंहदी हसन का गाया ये नग्‍मा पियानो से शुरू होता है । और पियानो भी वैसा नहीं है जैसा धर्मेन्‍द्र, राजेंद्र कुमार या देव आनंद के फिल्‍मी गानों में होता है । अच्‍छा नाज़ुक सा पियानो है । यहां मेंहदी हसन की आवाज़ भी फ़र्क़ है, वैसी नहीं है जैसी उनकी हारमोनियम और तबले की संगत वाली ग़ज़लों में होती है । यहां उन्‍होंने शास्‍त्रीयता का इस्‍तेमाल थोड़ा कम किया है । बहुत शिद्दत भरे प्‍यार का नग्‍मा है ये । पढिये और सुनिए ।


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मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो, मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे ।

ना जाने मुझे क्‍यूं यक़ीं हो चला है, मेरे प्‍यार को तुम मिटा ना सकोगे ।।

मेरी याद होगी जिधर जाओगे तुम, कभी नग्‍मा बनके कभी बनके आंसू
तड़पता मुझे हर तरफ पाओगे तुम, शमा जो जलाई है मेरी वफा ने
बुझाना भी चाहो बुझा ना सकोगे ।।

कभी नाम बातों में आया जो मेरा तो बेचैन होके दिल थाम लोगे निगाहों में छायेगा ग़म का अंधेरा, किसी ने जो पूछा सबब आंसुओं का
बताना भी चाहो बता ना सकोगे ।।


पिछले चिट्ठे पर टिप्‍पणी में मनीष ने लिखा था, ‘हम किशोरावस्‍था की दहलीज़ पर खड़े थे, बिना किसी बात के ही दिल भर जाता था’ । एक अबूझ से अहसास को कितनी आसानी से एक वाक्‍य में उतार दिया मनीष ने । बस यही अहसास आज भी होता है मेंहदी हसन की ग़ज़लें सुनने के बाद । ग़ुलाम अली की ग़ज़लों में कभी ख़ुशी की तरंग होती है तो कभी अफ़सोस का रंग । पर मेंहदी हसन हर सूरत में हमारी सुरमई शामों की आवाज़ हैं । हमारी तन्‍हाईयों, हमारे उदासी, हमारी नाकामी की आवाज़ हैं । और कहते हैं कि हम सबके भीतर उदासी का एक कोना होता है । ख़ामोशी और अकेलेपन का एक हिस्‍सा होता है । बस इसी हिस्‍से को मुतमईन करती हैं मेंहदी हसन की ग़ज़लें । ये ग़ज़ल हफ़ीज़ जालंधरी की है ।

यहां सुनिए—

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यहां देखिए—

यहां पढ़िए—
मुहब्‍बत करने वाले कम ना होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम ना होंगे

ज़माने भर का ग़म या इक तेरा ग़म ये ग़म होगा तो कितने ग़म ना होंगे ।।

अगर तू इत्‍तेफ़ाक़न मिल भी जाये तेरी फ़ुरक़त के सदमे कम ना होंगे

दिलों की उलझनें बढ़ती रहेंगी अगर कुछ मशवरे बाहम ना होंगे ।।

हफ़ीज़ उनसे मैं जितना बदगुमां हूं, वो मुझसे इस क़दर बरहम ना होंगे ।।



फ़ुरक़त—जुदाई । इत्‍तेफ़ाक़न—संयोग से । बाहम—जमा ।
बदगुमां—नाराज़ होना । बरहम—टूट कर अलग होना ।

और सबसे आखिर में अहमद फ़राज़ की ये ग़ज़ल । अब के हम बिछड़े । ज्‍यादा कुछ कहना नहीं चाहता, बस बशीर बद्र का शेर याद आ रहा है---

ये एक पेड़ है, आ इससे गले मिलके रो लें हम
यहां से हमारे तुम्‍हारे रास्‍ते बदलते हैं ।।



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अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्‍वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ।।

तू खुदा है ना मेरा इश्‍क़ फरिश्‍तों जैसा
दोनों इंसां हैं तो इतने हिजाबों में मिलें ।।

ग़मे दुनिया भी ग़मे यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है चराग़ों में जो शराबों में मिले ।।

अब ना वो मैं हूं ना तू है, ना वो माज़ी है फ़राज़
जैसे दो साये तमन्‍ना के सराबों में मिलें ।।

हिजाब-पर्दा । सराब—मृगतृष्‍णा ।

मेंहदी हसन की अनगिनत ग़ज़लें हैं जो हमारी तन्‍हाईयों की साथी हैं । आज उनमें से दो ग़ज़लें और एक नग्‍मा आपकी नज़र किया । मेंहदी हसन के गाये कुछ और अनमोल मोती फिर कभी ।

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Saturday, June 9, 2007

फिर पत्‍तों की पाजेब बजी तुम याद आए--गुलाम अली और मेंहदी हसन के बहाने पुराने दिनों की याद

प्रिय मित्रो
गुलाम अली और मेंहदी हसन मेरे प्रिय गायक हैं । मुझे याद नहीं है पर विविध भारती के किसी श्रोता ने एक बार बड़ी गहरी बात कही थी । उनका कहना था कि कुछ गाने हम इसलिये बार बार सुनना पसंद करते हैं क्‍योंकि उनमें हमारी जिंदगी की कोई पुरानी याद घुली-मिली होती है । और जब भी हम उस गाने को सुनते हैं वो दिन हमारी आंखों के सामने आकर खड़े हो जाते हैं और सुकून सा मिलता है ।

मैंने गुलाम अली और मेंहदी हसन साहब को सुनना शुरू किया था तब जब मैं दसवीं क्‍लास में था और म0प्र0 के शहर सागर में पढ़ रहा था । वो कैसेट्स का ज़माना था, जेबख़र्च इतना नहीं मिलता था कि बार-बार नए कैसेट्स ख़रीदे जा सकें । मुझे याद है मेरे मित्र श्रवण हलवे ने मुझे गुलाम अली और मेंहदी हसन के कुछ कैसेट्स उधार दिये थे, जिन्‍हें हमने कॉपी कर लिया था और रोज़ सुना करते थे । फिर जब उन ग़ज़लों से मन भर गया और नए कैसेट्स की व्‍यवस्‍था नहीं हुई तो रेडियो पाकिस्‍तान लगाने लगे । बस मेंहदी हसन और गुलाम अली को सुनने का नया ठिकाना मिल गया । वहां से हमने मेंहदी हसन के वो गीत भी सुने जो उन्‍होंने पाकिस्‍तानी फिल्‍मों में गाए थे । जैसे ‘मुरझाए हुए फूलों की क़सम इस देस में फिर ना आयेंगे’ । क्‍या आपमें से कोई है जिसने ये गीत सुना है या जिसके पास ये गीत है ।

फिर मेरे छोटे भाई ने ना जाने कहां से मेंहदी हसन का एक ऐसा कैसेट जुटा लिया जिसमें उनके पाकिस्‍तानी फिल्‍मी गीत थे । आप यक़ीन नहीं करेंगे हम दोनों भाईयों के लिए मैग्‍नासाउंड का वो कैसेट पा लेना कितनी बड़ी उपलब्धि थी । आज भी वो कैसेट जबलपुर वाले हमारे घर में सही सलामत है । आपको ये भी बताना चाहता हूं कि आज मेंहदी हसन साहब एक ख़ामोश जिंदगी जी रहे हैं । उन्‍हें लकवा लग गया है और पिछली बार जो ख़बर मिली थी वो ये कि मेंहदी हसन साहब को अब बोलने के क़ाबिल भी नहीं रहे । यक़ीन मानिए मेरी आंखें भीग गईं । कितने कितने अनमोल गीत और ग़ज़लें उन्‍होंने दी हैं । प्‍यार भरे दो शर्मीले नैन, जिनसे मिला मेरे दिल को चैन, या फिर फैज़ की वो ग़ज़ल ‘गुलों में रंग भरे बादा-ए-नौबहार चले, चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले’ या फिर वो नग्‍मा ‘मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो, मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे’ ।

पुराने दिनों की उन सुनहरी यादों के बहाने पहले पेश हैं गुलाम अली के दो अनमोल वीडियो । पक्‍का वादा रहा कि अपने अगले चिट्ठे में मैं मेंहदी हसन के कुछ अनमोल वीडियो पेश करूंगा ।

चलते चलते बस एक बात, अगर इन ग़ज़लों को सुनकर आपको गुज़रे दिनों का कोई लम्‍हा याद आ गया हो, तो ज़रूर बताईयेगा ।

जिहाले मिस्‍किन मकुन तग़ाफुल बराए नैना बनाए बतियां ।
मैं चाहता था कि इस ग़ज़ल की इबारत मायने के साथ पेश करूं । पर इसे लिख सकना थोड़ा मुश्किल लगा ।


बारिश का मौसम दस्‍तक दे रहा है । शायद आपके शहर में पहली बारिश हो भी गयी हो, अब सावन का महीना आयेगा और फुहारों का ऑरकेस्‍ट्रा शुरू हो जायेगा । पहले एक शेर उसके बाद देखिए और सुनिए ये ग़ज़ल ।

बारिशें छत पर खुली जगहों पर होती हैं मगर
ग़म वो सावन है जो बंद कमरों के भीतर बरसे ।।



फिर सावन रूत की पवन चली तुम याद आए

फिर पत्‍तों की पाज़ेब बजी तुम याद आए ।।

फिर कूंजें बोलीं घास के हरे समंदर में

रूत आई पीले फूलों की तुम याद आए ।।

फिर कागा बोला घर के सूने आंगन में

फिर अमृत रस की बूंद पड़ी तुम याद आए ।।

दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया था

जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आए ।।



ज़रा इस ग़ज़ल की शायरी पर ग़ौर फ़रमाईये—यूं लगता है कि एक एक लफ्ज़ दिल की गहराई से निकला है ।

दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया था

जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आए ।।

वाह क्‍या शेर है । ये नासिर क़ाज़मी की ग़ज़ल है । और आशा भोसले और गुलाम अली के मशहूर अलबम ‘मेराज़-ऐ-ग़ज़ल’ से ली गयी है ।

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