नज़्म उलझी हुई है सीने में--सिलसिला गुलज़ार और भूपेंद्र के साथ का
गुलज़ार और भूपिंदर सिंह की रचनाओं के इस सिलसिले में आज फिर एक मुख्तसर सी नज़्म ।
दिलचस्प बात ये है कि गुलज़ार की मुख्तसर सी रचनाएं भी अपने आप में मुकम्मल हैं, संपूर्ण और गहरी हैं ।
इस रचना का शैदाई हूं मैं । बहुत बरस पहले राजेंद्र यादव ने 'राईटर्स- ब्लॉक' की बात की थी । ' ना लिखने का कारण' पर हुई बहस काफी लंबी चली गयी थी । हर लेखक की जिंदगी में एक ब्लॉक आता है । रूकावट आती है । जब सब कुछ रूक सा जाता है । जब चीज़ें जैसे सीने में अटक-सी जाती हैं बाहर आती ही नहीं । उसी हालत को कितना रूमानी मोड़ दिया है गुलज़ार ने पढि़ये और सुनिए इस नज़्म में ।
इसमें कई जगहों पर भूपिंदर की ख़ालिस आवाज़ रखी है, पीछे कहीं कोई संगीत नहीं है । धुन को शास्त्रीय रूप दिया गया है और दूसरे अंतरे पर तबला अपने बेहतरीन चलन के साथ आता है । मुझे भूपिंदर की आवाज़ का एक अलग ही रंग लगता है इस रचना में । आपको क्या लगता है ।
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नज़्म उलझी है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ्ज़ काग़ज पे बैठते ही नहीं ।।
कब से बैठा हूं मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी ।।
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ऊपर भूपिंदर की एक बहुत पुरानी तस्वीर
7 comments:
ये गुलज़ार साहब ही हो सकते है जो सिर्फ़ महबूब के एक नाम को ही नज्म बना दें. कागज़ पर नहीं तो दिल में हर वक्त है ही. क्या बात है!
धन्यवाद यूनुस भाई इस छोटी मगर अच्छी प्रस्तुति के लिए.
waah
भावों के बवण्डर चल रहें हो सीने में तो शब्द का निकलेंगे - यही नज्म निकलेगी।
क्या बात है. गुलज़ार और भुपिन्दर. सोने में सुहागा. कहां से जुटाते हैं ये खज़ाने युनुस भाई
सच है-इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी और इससे बेहतर प्रस्तुति. :)
इस नज़्म का दूसरा हिस्सा दिनकर की कविता ’नामांकन’ की याद दिलाता है उस पर भूपेन्द्र की आवाज़ बिना साज़ के भी असरदार है।
लीक से हटकर गीत सुनने की अपनी ताज़गी है।
Beautiful nazma by Gulzar sahab and equally well sung by Bhupinderji.
Thanx Yunusbhai
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
November 6, 2007
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