संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।
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Tuesday, February 12, 2008

धड़कन ज़रा रूक गयी है-फिल्म प्रहार का गीत ।


कुछ गाने ऐसे होते हैं जिन्‍हें आप उम्र भर बस ढूंढते ही रह जाते हैं । मुझे ये खोज अजीब-सी लगती है कभी-कभी। कितने ही ऐसे लोग मिल जाते हैं, जिन्‍हें किसी अज़ीज़, किसी प्रिय गीत की विकल तलाश रहती है। और उन्‍हें ये गाने नहीं मिलते। मुझे ही देखिए--ऐसे कितने ही गाने हैं जिनकी तलाश मुझे बरसों बरस से रही है। अब चूंकि टेक्‍नॉलॉजी अपने शिखर पर है, इसलिए इंटरनेट ऐसे गानों की खोज का स्‍वर्ग बनता जा रहा है।
कुछ साल पहले की बात है, विविध भारती में ही एक सज्‍जन आए। पेशे से चित्रकार। ताल्‍लुक़ एक नामी संगीत-ख़ानदान से । उनके हाथ्‍ा में एक लिस्‍ट थी जिसमें ऐसे गाने थे जिनकी तलाश उन्‍हें कई सालों से रही है। किसी ने उन्‍हें मेरा पता-ठिकाना बता दिया था। ये एक समान तलाश वाले दो लोगों की मुलाक़ात थी। उनकी लिस्‍ट में जो गीत उनमें से एक था--अंबर की एक पाक सुराही । जो पिछले दिनों रेडियोवाणी पर सुनवाया गया था ।

फिर श्‍याम बेनेगल की फिल्‍म 'सूरज का सातवां घोड़ा' का एक गीत था--ये शामें सब की सब ये शामें' । धर्मवीर भारती की कविता । ये गीत मुझे आज तक नहीं मिला है। इसकी खोज कहां कहां नहीं की मैंने। बीते साल इस गीत के संगीतकार वनराज भाटिया से उनके घर जाकर एक लंबी बातचीत करने का मौक़ा मिला था। उनसे इस गाने की खोज-ख़बर ली तो उन्‍होंने शिकायती लहजे में कहा कि श्‍याम (बेनेगल) की एक आदत ख़राब है। वो गाने रिकॉर्ड तो पूरे करता है पर फिल्‍म में ज़रा सा टुकड़ा इस्‍तेमाल करता है। दिक्‍कत ये है कि कई फिल्‍मों की म्‍यूजिक सीडी भी रिलीज़ नहीं हुई। अब मुझे खुद भी नहीं पता कि कौन से गाने उसने बचाकर रखे हैं और कौन से यहां वहां गुम हो गये। इस तरह 'सूरज का सातवां घोड़ा' के गानों की खोज पर फिलहाल विराम लगा है। श्‍याम बाबू से ही इसकी तफ्तीश की जाएगी। उनका एक लंबा इंटरव्‍यू पहले किया था।
बहरहाल बात हो रही थी कुछ गानों की विकल तलाश की। तो आज मैं एक ऐसा ही गीत लाया हूं जिसे मैं काफी समय से खोज रहा था। दो तीन महीने पहले ये गीत मिल भी गया था पर रेडियोवाणी पर इसे चढ़ाने का अवसर मिल नहीं पा रहा था । ये गीत है फिल्‍म 'प्रहार' का। सच तो ये है कि इस फिल्‍म के सारे गीत मैं खोज रहा था और अब मिल भी गये हैं । एक एक करके समय समय पर रेडियोवाणी पर इन्‍हें प्रस्‍तुत किया जाएगा।

आपको याद होगा कि 'प्रहार' सन 1991 में जाने-माने अभिनेता नाना पाटेकर ने ही बनाई थी । वे इस फिल्‍म के लेखक निर्देशक अभिनेता थे । संगीत लक्ष्‍मी-प्‍यारे का था और गाने मंगेश कुलकर्णी ने लिखे थे । एक बेहद सशक्‍त फिल्‍म जिसे आज तक लोग याद करते हैं । इस फिल्‍म का एक गीत है--'धड़कन ज़रा रूक गयी है ।' आईये आज इस गाने की बातें करें ।

धड़कन ज़रा रूक गयी है--एक बाक़ायदा नृत्‍य गीत है । लेकिन आम फिल्‍मों की तरह झूम-झाम नृत्‍य वाला नहीं । ये बॉलरूम का गीत है । दरअसल पार्टी में वॉल्‍ट्ज हो रहा है और पृष्‍ठभूमि में ये गीत बज रहा है । ये है इस गाने की सिचुऐशन । लक्ष्‍मी-प्‍यारे ने गाने के इंट्रो और इंटरल्‍यूड में वॉल्‍ट्ज की तरंग रखी है । मुखड़े के बाद पहले गाढ़ी सी सोलो वायलिन आती है और फिर ग्रुप वायलिन जिसमें सलिल चौधरी के संगीत जैसा अहसास है। इस गाने में आगे चलकर आपको पियानो भी सुनाई देता है। क़रीब साढ़े चार मिनिट के आसपास जाकर। सुरेश वाडकर की आवाज़ इस नर्मो-नाज़ुक गाने के लिए बिल्‍कुल फिट है। शानदार और बेमिसाल गीत  है ये। लंबी खोज के बाद मिला ये गीत मुझे बहुत सुख दे रहा है। आप बताएं आपको कैसा लगा।

धड़कन ज़रा रूक गयी है, कहीं जिंदगी बह रही है ।
पलकों में यादों की डोली, भीतर खुशी हंस रही है ।
ये खुशी तुम हो, तुम्‍हीं तुम मेरी जानम, करो ऐतबार ।।
धड़कन ज़रा रूक गयी है ।।
चेहरों के मेले में चेहरे थे गुम, इक चेहरा था मैं, इक चेहरा थे तुम
जाने क्‍या तुमने दे दिया, मुझको जहान मिल गया ।।
धड़कन ज़रा रूक गयी है ।।
होठों पर बात रहे, बातों में सुर बहे, सुरों में गीत वही, तुम्‍हारी ही बात कहे ।
मिट जाऊं सपनों के आग़ोश में, भीग जाऊं यादों की बौछार में ।
धड़कन ज़रा रूक गयी है ।।
मिलते ही आंखों ने, रिश्‍ता पहचाना, अहसास सीने में सांसों ने जाना
चुपके से प्‍यार छू गया, दिला के इक जनम नया ।
धड़कन ज़रा रूक गयी है ।।

ये रहा इस गाने का यू ट्यूब वीडियो ।


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Friday, January 11, 2008

प्रसून जोशी को सलाम ।

रेडियोवाणी पर आज मैं आपको प्रसून जोशी का लिखा एक बेहद मार्मिक गीत सुनवाना चाहता हूं । हिंदी फिल्‍मों में मां पर बेहद काग़ज़ी कि़स्‍म के गीत लिखे गये हैं, 'मैंने मां को देखा है मां का प्‍यार नहीं देखा' जैसे । लेकिन मां के प्रति अपने जज्‍बात दिखलाने वाले बेहद संवेदनशील गीत गिने चुने हैं, प्रसून जोशी के इस गाने को सुनकर या पढ़कर आंखें भीग जाती हैं । बहुत प्‍यारा-सा नाज़ुक सा गीत है ये ।



उम्‍मीद है कि मेरी 'मम्‍मा' भी इस पोस्‍ट को पढ़ेंगी । हालांकि ये वो बातें नहीं हैं जो मैं अपनी मां से कहना चाहता हूं, पर फिर भी ये उन बातों के आसपास पहुंचती हैं जो मेरे मन में हैं । मुझे वो दिन बहुत याद आता है जब मेरे पिता ट्रेनिंग के सिलसिले में दूसरे शहर में थे, उन दिनों तक मैंने सायकिल चलानी नहीं सीखी थी और भोपाल में हमारी कॉलोनी की सड़कों पर जब बड़े संकोच से गिरते पड़ते मैं सायकिल से जूझा करता था तो मां पीछे से उस छोटी सायकिल को पकड़े रहती थीं । मैं पैडल मारता रहता, इस यकीन के साथ कि मां हैं, पीछे मुझे थामे हुए हैं । और शायद हफ्ते भर में ऐसा भी हुआ कि मां ने पीछे से हाथ छोड़ दिया और मैं अपने आप सायकिल चलाने लगा । आज सोचता हूं कि जिंदगी की सायकिल चलाते हुए मैं कितनी दूर आ गया हूं.......मां वहीं खड़ी मेरे लौटने का इंतज़ार कर रही हैं । रोज़गार और महत्‍वाकांक्षाएं हमें ...अपनों से... भौ‍गोलिक रूप से कितनी दूर ले जाकर खड़ा कर देती हैं ना ।



लेकिन मुझे पता है कि विविध भारती पर मुझे और कोई सुन रहा हो या नहीं, मेरी मां हैं जो नर्म सबेरों में, सूनी और बोझिल दोपहरों में, सुरमई शामों में और सर्दीली रातों में मुझे सुन रही हैं । जिस दिन मेरी आवाज़ थोड़ी 'कमज़ोर या नेज़ल' लगे वो फोन पर पूछ लेती हैं--क्‍यों हो गयी फिर से सर्दी । आवाज़ बदल बदल के कितनी बार फोन पर मैंने मां को चकमा देने की कोशिश की, पर कभी कामयाब नहीं हो सका ।

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मैं कभी बतलाता नहीं पर अंधेरे से डरता हूं मैं

यूं तो मैं दिखलाता नहीं, तेरी परवाह करता हूं मैं मां

तुझे सब है पता, है ना मां

तुझे सब है पता मेरी मां ।।



भीड़ में यूं ना छोड़ो मुझे, घर लौट के भी आ ना पाऊं मां

भेज ना इतना दूर मुझको तू, याद भी तुझको आ ना पाऊं मां

क्‍या इतना बुरा हूं मैं मां

मेरी मां ।।



जब भी कभी पापा मुझे जो ज़ोर से झूला झुलाते हैं मां

मेरी नज़र ढूंढे तुझे, सोचूं यही तू आके थामेगी मां

तुमसे मैं ये कहता नहीं, पर मैं सहम जाता हूं मां

चेहरे पे आने देता नहीं, दिल ही दिल में घबराता हूं मां

तुझे सब है पता, है ना मां

मेरी मां ।।



मैं कभी बतलाता नहीं, पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां

यूं तो मैं दिखलाता नहीं, तेरी परवाह करता हूं मैं मां

तुझे सब है पता, है ना मां

मेरी मां ।।

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Monday, December 3, 2007

क्‍यूं प्‍याला छलकता है--मन्‍नाडे का एक अनमोल गीत


आज रेडियोवाणी पर जो गीत रहा है उसे सुनवाने का वादा मैंने कुछ दिन पहले किया थापर व्यस्तताओं की वजह से नहीं सुनवा सका

ये कई मायनों में एक दुर्लभ गीत है
मुझे याद है कि मैंने black and white टी वी के ज़माने में शिवेंद्र सिन्हा की ये फिल् दूरदर्शन पर देखी थीउन दिनों हमने मन्नाडे के गीत खोज-खोजकर सुनने शुरू कर दिये थेइस गीत को मैं कई सालों से खोज रहा था पर अब जाकर हाथ लगा हैइस गाने में एक सादगी है और शब्दों में है लालित्

पंडित नरेंद्र शर्मा के बोल हैं और संगीत रघुनाथ सेठ का हैसुनिए और बताईये कि कैसा लगा ये गीत






क्‍यूं प्‍याला छलकता है क्‍यूं दीपक जलता है
दोनों के मन में कहीं अनहोनी विकलता है ।।

पत्‍थर में एक फूल खिला, दिल को एक ख्‍वाब मिला
क्‍यूं टूट गये दोनों, इस का ना जवाब मिला
दिल नींद से उठ उठकर क्‍यूं आंखें मलता है ।।

हैं राख की रेखाएं लिखती हैं चिंगारी
हैं कहते मौत जिसे जीने की तैयारी
जीवन फिर भी जीवन जीने को मचलता है ।।
क्‍यूं प्‍याला छलकता है ।।

मन्‍ना दा का ये गीत यहां बज नहीं रहा।
नई पोस्‍ट का लिंक ये रहा
http://radiovani.blogspot.in/2012/05/blog-post.html



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Monday, November 26, 2007

जिंदगी को संवारना होगा, दिल में सूरज उतारना होगा--फिर आलाप, फिर येसुदास

कल मैंने रेडियोवाणी पर येसुदास का गाया और डॉ0 हरवंशराय बच्‍चन का लिखा गीत प्रस्‍तुत किया था । अफलातून जी की टिप्‍पणी आई कि फिल्‍म आलाप के और गीत सुनवाए जाये । मेरी खुद की इच्‍छा यही थी कि इस फिल्‍म के कुछ और गीतों का सिलसिला चलाया  जाए ।

आपको ये जानकर हैरत होगी कि आलाप के ज्‍यादातर गीत डॉ0 राही मासूम रज़ा ने लिखे थे । इतनी शुद्ध हिंदी और इतना लालित्‍य कि क्‍या कहें । राही साहब की कलम से निकले कुछ अनमोल गीतों में से हैं ये गीत । राही की कुछ ग़ज़लें आप रेडियो

वाणी पर पहले भी सुन चुके हैं ।

तो आईये आज सुना जाये ये गीत । जो सुबह सुबह प्रेरणा देने का काम भी करेगा । और शायद आप दिन भर यही गुनगुनाएं--जिंदगी को संवारना होगा, दिल में सूरज उतारना होगा ।

ये जो 'दिल में सूरज उतारने' वाली बात है इस पर हमारा दिल आ गया है । येसुदास की गाढ़ी और शहद जैसी आवाज़ अंतरतम की गहराईयों में छा जाती है । एक खुश्‍बू सी बिखेर देती है ।

मैं सोच रहा हूं कि रेडियोवाणी पर अगले कुछ दिन येसुदास के गीतों के नाम कर दिये जायें । आपकी क्‍या राय है । इस गीत के ज़रिए हम संगीतकार जयदेव की प्रतिभा को भी सलाम कर रहे हैं । कमाल का संगीत दिया है उन्‍होंने इस फिल्‍म में । तो आईये इस गीत के ज़रिए जिंदगी को संवारें ।

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जिंदगी को संवारना होगा 

दिल में सूरज उतारना होगा ।।

 

जिंदगी रात नहीं, रात की तस्‍वीर नहीं

जिंदगी सिर्फ़ किसी ज़ुल्‍फ़ की ज़ंजीर नहीं

जिंदगी बस कोई बिगड़ी कोई तस्‍वीर नहीं

जिंदगी को संवारना होगा ।।

जिंदगी धूप नहीं, साया-ऐ-दीवार भी है

जिंदगी धार नहीं, जिंदगी दिलदार भी है

जिंदगी प्‍यार भी है प्‍यार का इक्ररार भी है

जिंदगी को उभारना होगा ।।

जिंदगी को संवारना होगा ।।

इंतज़ार कीजिए कल का । कल आपको सुनवाया जायेगा 'फिर भी' फिल्‍म का एक शानदार और दुर्लभ गीत ।

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Sunday, November 25, 2007

कोई गाता मैं सो जाता--डॉ. हरिवंश राय बच्‍चन के बोल और येसुदास की आवाज़


आज सुबह सुबह मुंबई के नवभारत टाईम्‍स से पता चला कि इस साल
डॉ.हरिवंश राय बच्‍चन की जन्‍मशती है । इसलिए रेडियोवाणी पर हमने तय किया है कि इस साल के बचे हुए इन गिने चुने दिनों में आपको बच्‍चन जी की कुछ अनमोल रचनाएं सुनवाई जायेंगी । मधुशाला तो आपको मनीष सुनवा ही चुके हैं । अगर आप मधुशाला पढ़ना चाहते हैं तो यहां पढि़ये ।

डॉ. बच्‍चन की कुछ रचनाओं का इस्‍तेमाल फिल्‍मों में भी हुआ है ।
पर यहां आपको 'मेरे अंगने में' जैसा कुछ नहीं बल्कि आज फिल्‍म 'आलाप' का एक गीत सुनवाया जा रहा है । ऋषिकेश मुखर्जी ने ये फिल्‍म सन 1977 में बनाई थी । संगीतकार थे जयदेव । ये गीत येसुदास ने गाया है । और मेरी राय के मुताबिक़ येसुदास के सर्वश्रेष्‍ठ गीतों में इसे शामिल किया जा सकता है । आपको ये भी बतलाना चाहता हूं कि ये गीत राग बिहाग पर आधारित है ।

ज़रा इस गीत को सुनिए और महसूस कीजिए कि कितना लालित्‍य है इस रचना में, गायकी में और संगीत में ।

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कोई गाता मैं सो जाता कोई गाता ।

संसृति के विस्‍तृत सागर पर
सपनों की नौका के अंदर।।
सुख दुख की लहरों पे उठ गिर
बहता जाता मैं सो जाता ।।
कोई गाता ।।

आंखों में भरकर प्‍यार अमर
आशीष हथेली में भरकर
कोई मेरा सिर गोदी में रख
सहलाता, मैं सो जाता ।।
कोई गाता ।।

मेरे जीवन का खारा जल
मेरे जीवन का हालाहल
कोई अपने स्‍वर में मधुमय कर
बरसाता, मैं सो जाता ।।
कोई गाता ।।

ऊपर जो चित्र दिया गया है शायद अपने पहचान लिया हो कि इसमें डॉ. हरिवंश राय बच्‍चन के साथ मौजूद हैं सुमित्रानंदन पंत और पं.नरेंद्र शर्मा

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Friday, November 16, 2007

छुपाकर मेरी आंखों को और छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा -आज सुनिए रेडियोसखी ममता सिंह के दो पसंदीदा गीत



रेडियोवाणी संगीत का मंच है ।

हम गीत-संगीत के शैदाई हैं । इसीलिए जब रेडियोवाणी पर कोई बेक़रारी से किसी गीत की फ़रमाईश करता है तो हम खुद को रोक नहीं पाते और खोज बीन कर वो गीत सुनवाने की कोशिश करते हैं । कुछ लोगों की फरमाईशें अभी तक समय के अभाव के कारण या गीतों की उपलब्‍धता की वजह से पूरी नहीं हो सकी हैं । बहरहाल आज हम रेडियोवाणी के एक ख़ास पाठक बल्कि कहें कि पाठिका की फ़रमाईश पूरी कर रहे हैं । उनकी जो दूसरों की फ़रमाईशें रेडियो पर सुनवाती हैं । फ़रमाईश सुनवाने वाला अगर कोई फ़रमाईश करे तो वो ख़ास बन जाती है । फिर आप ये भी समझ सकते हैं कि अगर पत्‍नी फ़रमाईश करे तो उसे पूरा कर देने में ही भलाई है । ज्‍यादा बातें ना बनाते हुए सीधे ही बता दें कि आज आपको रेडियो-सखी ममता सिंह की पसंद के दो गीत सुनवाए जा रहे हैं ।

सन 1957 में एक फिल्‍म आई थी जिसका नाम था भाभी । ये मद्रास के AVM प्रोडक्‍शन की पेशक़श थी । निर्देशक थे कृष्‍ण पंजू और कलाकार थे-अनवर, बलराज साहनी, दुर्गा खोटे, जगदीप, नंदा, श्‍यामा वग़ैरह । राजेंद्र कृष्‍ण ने इसके गीत लिखे थे और इन्‍हें संगीत से संवारा था चित्रगुप्‍त ने । सच मानिए ये सामाजिक फिल्‍म अपने संगीत की वजह से ही आज तक याद की जाती है । चित्रगुप्‍त ने इस फिल्‍म के संगीत में वाक़ई कमाल कर दिया था । ये रही इस फिल्‍म के गीतों की सूची ।

चल उड़ जा रे पंछी- मो. रफी
चली चली रे पतंग मेरी चली रे-लता रफ़ी
छुपाकर मेरी आंखों को-लता रफ़ी
जवान हो या बुढि़या-रफी
कारे कारे बादरा-लता
टाई लगा के माना बन गये नवाब-शायद लता

बहरहाल, इन्‍हीं गीतों में से एक है रेडियोसखी ममता का पसंदीदा गीत और वो है--छुपाकर मेरी आंखों को वो पूछें कौन हैं जी हम । राजेंद्रकृष्‍ण ने इस गीत में जीवन की जिस छोटी सी भावना को पकड़ा है, उसे कविताओं में भले ही पिरोया गया हो पर कहीं भी फिल्‍मी गीतों में नहीं पिरोया जा सका । ये गाना अपने बोलों और अपने भव्‍य संगीत की वजह से ख़ास है । अब आप सोच रहे होंगे कि इस गीत में ऐसी क्‍या भव्‍यता है । ज़रा इसे सुनिए और इसके ऑरकेस्‍ट्रेशन पर ध्‍यान दीजिए , ठेठ भारतीय शैली है, ऐसा नहीं है कि वेस्‍टर्न साज़ नहीं हैं । पर जिस तरह का संयोजन है, ढोलक की जैसी चाल है । वाक़ई मन वाह वाह करने लगता है । लता मंगेशकर और मो. रफ़ी ने इस गीत को बड़ी ही सहजता से गाया है । इसे भी मैं बेहद संक्रामक गीतों में शामिल करूंगा । एक बार सुन लीजिए, दिन भर इसे गुनगुनाते रहेंगे और आपको समझ ही नहीं आयेगा कि आखिर क्‍या बात है कि ये गीत दिलोदिमाग़ पर तारी हो गया है । आपको ये भी बताना चाहूंगा कि ये गीत बरसों बरस से मेरे मोबाइल की रिंग टोन के रूप में बज रहा है । लेकिन इसे कुछ इस तरह संयोजित किया गया है कि केवल ममता जी के फोन करने पर ही बजे । ये रहे बोल और ये रहा गीत ।

छुपाकर मेरी आंखों को वो पूछें कौन हैं जी हम
मैं कैसे नाम लूं उनका जो दिल में रहते हैं हरदम ।।

ना जब तक देख लें वो दिल तो कैसे एतबार आए
तुम्‍हारी इस अदा पर भी हमारे दिल को प्‍यार आए
तुम्‍हारी ये शिकायत भी मुहब्‍बत से नहीं है कम
छुपाकर मेरी आंखों को ।।

नहीं हम यूं ना मानेंगे, तो कैसे तुमको समझाएं
दिखा दो दिल हमें अपना, कहां से दिल को हम लाएं
के दे रखा है वो तुमको दिखा सकते हैं कैसे हम
छुपाकर मेरी आंखों को ।।

दिया था किसलिए बोलो, अमानत ही तुम्‍हारी थी
ये जब तक पास था अपने, अजब सी बेक़रारी थी
चलो छोड़ो गिले शिकवे, हुआ है चांद भी मद्धम
छुपाकर मेरी आंखों को ।।



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और अब रेडियोसखी की पसंद का दूसरा गीत ।

ये फिल्‍म ममता से है । जो सन 1966 में आई थी । बांगला निर्देशक असित सेन ने इसे बनाया था । अभिनेता असित सेन समझने की भूल ना कीजिएगा । इस फिल्‍म के सितारे थे अशोक कुमार और सुचित्रा सेन । इस फिल्‍म के गीत हमारे प्रिय शायर मजरूह सुल्‍तानपुरी ने लिखे थे और संगीतकार थे रोशन । ये फिल्‍म ना केवल अपने गीतों बल्कि अपनी कहानी की वजह से हिंदी सिनेमा की एक कालजयी फिल्‍म मानी जाती है । इसके भी सारे गाने कमाल के हैं । जैसे- इन बहारों में अकेले ना फिरो, रहें ना रहें हम या फिर छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा ।

आज मैं आपको सुनवा रहा हूं तीसरा गीत--छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा ।
ये सचमुच एक दिव्‍य गीत है । एक तो हेमंत कुमार की संत सरीखी आवाज़ । उस पर लता जी का नाज़ुक सा साथ । संगीत तो जैसे है भी और नहीं भी । अगर ऐसा होता है तो बहुत अच्‍छा होता है । लगे कि संगीत है भी और नहीं भी ।
इस गाने को पिछले चालीस सालों में इतने बार सुना और खोजा गया है कि पूछिये मत । बहुत कम विरले लोग ऐसे होंगे जिन्‍हें ये पसंद ना आए । चलिए इसे सुना जाये ।

छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा
के जैसे मंदिर में लौ दिए की ।।
तुम अपने चरणों में रख लो मुझको
तुम्‍हारे चरणों का फूल हूं मैं
मैं सर झुकाए खड़ी हूं प्रीतम
के जैसे मंदिर में लौ दिये की ।।

ये सच है जीना था पाप तुम बिन
ये पाप मैंने किया है अब तक
मगर है मन में छबि तुम्‍हारी
के जैसे मंदिर में लौ दिए की ।।

के आग बिरहा की मत लगाना
के जलके मैं राख हो चुकी हूं
ये राख माथे पे मैंने रख ली
के जैसे मंदिर में लौ दिए की ।।

छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा ।।




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तो ये थे रेडियोसखी ममता के दो पसंदीदा गीत । बताईये क्‍या ये गीत आपको भी पसंद आए । चलते चलते बता दूं कि ऊपर की तस्‍वीर में हैं रेडियोसखी ममता सिंह और गायिका सुनिधि चौहान ।


चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: रेडियोसखी, ममता, फिल्‍म-ममता, फिल्‍म-भाभी, रफी, लता, रोशन, चित्रगुप्‍त, राजेंद्र-कृष्‍ण, मजरूह,

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Tuesday, November 13, 2007

ज्ञान जी की फरमाईश पर 'चना जोर गरम' वाले तीन गाने



कल ज्ञान जी ने 'चना जोर गरम' पर अपनी एक दिलचस्‍प पोस्‍ट 'ठेली' थी । और साथ में हमें भी ठेल दिया था कि कहीं से ऐसे फिल्‍मी-गीत लाएं जिनमें चना जोर गरम का जिक्र हो ।

रेडियोवाणी पर हमें चुनौतियों से प्‍यार रहा है । रेडियोवाणी को शुरू करना ही हमारे लिए किसी चुनौती से कम नहीं था । बहरहाल ज्ञान जी की दिलचस्‍प पोस्‍ट और दिलचस्‍प फरमाईश का जवाब तो देना ही था । जब हमने अपने दिमाग़ की हार्ड डिस्‍क पर ज़ोर डाला तो याद आया कि फिल्‍म क्रांति के अलावा भी हमने 'चना जोर गरम वाला' एक गीत सुना है । लेकिन ये याद नहीं आया कि कौन सा गीत है वो । बहरहाल खोजबीन का सिलसिला चल पड़ा और फिर जब हमें तीन गीत मिल गये तो ज्ञान जी के ब्‍लॉग पर अपनी इस पोस्‍ट का ऐलान भी कर दिया गया ।

तो मित्रो । आपको बता दें कि सिर्फ फिल्‍म क्रांति में ही 'चना जोर गरम' वाला गीत आया हो ऐसा नहीं था । ना ही क्रांति में पहली बार ये गीत आया था । जितने पुराने चना जोर गरम वाले हैं उससे कम पुराना नहीं है उनके गीतों के फिल्‍म में आने का इतिहास । जी हां इस तरह का पहला गीत सन 1940 में आया था । हैरत की बात ये है कि हमारी फिल्‍मों में गीत आने का सिलसिला ही सन 1931 में शुरू हुआ था । यानी ठीक नौ साल बाद ही 'चना जोर गरम' को फिल्‍मी गीतों में जगह मिल गयी । इससे 'चना जोर गरम' वालों के सामाजिक और सांगीतिक महत्‍त्‍व का अंदाज़ा लगता है । सन 1940 के ज़माने में तीन बड़ी फिल्‍में आई थीं अशोक कुमार यानी दादा मुनी और लीला चिटणीस की जोड़ी की । कंगन, बंधन और झूला । इनमें से ये गीत फिल्‍म बंधन का है । आईये इसे सुन लिया जाये । आवाज़ है अरूण कुमार की । और ठीक ठीक तो नहीं पता पर संभवत: ये वही अरूण कुमार आहूजा हैं जिनकी पत्‍नी प्रख्‍यात गायिका निर्मला देवी थीं और जिनके बेटे हैं चर्चित अभिनेता गोविंदा । इस बात की तफ्तीश की जानी चाहिए । सुनिए ये गीत- जो भारत का पहला फिल्‍मी चना जोर गरम गीत है ।

चने जोर गरम बाबू मैं लाया मजेदार चने जोर गरम
मेरे चने हैं चटपटे भैया और बड़े लासानी
और कैसे चाव से खाते देखो और रमजानी
और चुन्‍नू मुन्‍नू की जबान भी हो गयी पानी पानी
और कहें कबीर सुनो भई साधो सुनो गुरू की बानी ।।

पढ़ें मदरसे काजी बन तो चंद दिनों का ठाट
और पढ़ लिख कर सब चल दोगे तुम अपनी अपनी बाट
फिर कोई तुममें अफसर होगा कोई गवरनर लाट
फिर मैं आऊंगा दफ्तर घूमने लिये चने की चाट
चने जोर गरम ।।

मेरा चना बना है आला
इसमें डाला गरम मसाला
चखते जाना जी तुम लाला
कहता हूं मैं दिल्‍ली वाला
इसका स्‍वाद है बड़ा निराला ।।

आई चने की बहार
खाते जाना जी सरकार
मेरे चने जायकेदार ।
अगर तुमको ना होय एतबार
मैं कहता हूं ललकार ।।

देख लो मेरा ये दरबार
जहां पर खड़े सिलसिलेवार
रियासत भर के सरदार
एक से एक सभी हुसियार
ये देखो मेरे सूबेदार
ये देखो मेरे तहसीलदार
ये हैं मेरे थानेदार
और ये बड़े सिपहसालार
वानर सेना के सरदार
चने जोर गरम बाबू
मैं लाया मजेदार चने जोर गरम ।।

फिल्‍म बंधन 1940 अरूण कुमार

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दूसरा गीत सन 1956 में आई फिल्‍म 'नया अंदाज' का है । के. अमरनाथ ने इस फिल्‍म को निर्देशित किया था । किशोर कुमार, मीनाकुमारी, कुमकुम और प्राण इस फिल्‍म के सितारे थे । इस फिल्‍म के संगीतकार थे ओ.पी.नैयर । अगर आप पुराने फिल्‍मी गीतों के क़द्रदान हैं तो आपको इस फिल्‍म को वो कालजयी गीत ज़रूर याद होगा जो अपनी नाज़ुकी के लिए याद किया जाता है--बोल थे--मेरी नींदों में तुम मेरे ख्‍वाबों में तुम । याद आया ना ।

इसी फिल्‍म में एक गाना था 'चना जोर गरम' । मज़े की बात ये है कि इसे भी किशोर कुमार और शमशाद बेगम ने गाया है, 'मेरी नींदों में तुम मेरे ख्‍वाबों में तुम' की तरह । तो आईये इस गाने का भी लुत्‍फ उठाएं ।



और चना जोर गरम वाला सबसे मशहूर गीत ये रहा । जो सन 1981 की फिल्‍म क्रांति का है । मनोज कुमार की फिल्‍म थी ये । इसके बारे में ज्‍यादा बताने की जरूरत नहीं है । आपने ये गीत बहुत सुना है । तो लगे हाथों ये गीत भी सुन लीजिए ।

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ज्ञान जी, कहिए कैसी रही । आपने चना ज़ोर गरम की याद दिला के वाक़ई मज़े ला दिये । देखिए ना हमें खुद ही नहीं पता था कि इतने गाने भी इस विषय पर खोजे जा सकते हैं । अब ये आयडिया भी आया है कि कहीं कोई चना जोर गरम वाला मिले तो उसके गाने को रिकॉर्ड कर लिया जाए । मुंबई में इसकी संभावनाएं ना के बराबर है । क्‍या दूसरों शहरों से कोई ये काम करेगा ।

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Sunday, November 11, 2007

आके सीधी लगी दिल पे जैसे कटरिया--जब किशोर कुमार ने महिला और पुरूष दोनों स्‍वरों में गाया



रेडियोवाणी पर आज हम आपको एक बहुत ही अनोखा गीत सुनवायेंगे ।
इस गीत की ख़ासियत ये है‍ कि इसे किशोर कुमार ने दो आवाज़ों में गाया है । महिला और पुरूष स्‍वर दोनों में । किशोर कुमार improvisation के माहिर कलाकार थे । गाना जैसा रचा गया हो, शायद ही किशोर दा ने वैसा का वैसा गा दिया हो, उन्‍होंने हमेशा हमेशा चीज़ों के साथ खेल किया, प्रयोग किये । और इसी प्रयोग का नतीजा है ये
गीत ।

ये गाना 1962 में आई फिल्‍म half ticket का है । इसे कालिदास ने निर्देशित किया था । किशोर कुमार, मधुबाला, हेलेन और प्राण इस फिल्‍म के कलाकार थे । मज़ाहिया यानी हास्‍य फिल्‍मों में इस फिल्‍म को सरताज माना जाता है । गीत शैलेन्‍द्र ने लिखे थे और संगीत सलिल चौधरी का था ।



ई स्निप्‍स से प्राप्‍त इस गाने में पहले आपको खुद सलिल दा की आवाज़ सुनाई देगी । जो बता रहे हैं कि इस गाने को पहले लता जी को गाना था । लेकिन वो उपलब्‍ध नहीं हो पाईं तो किशोर ने कहा कि मैं ही दोनों आवाज़ों में गा देता हूं, सलिल दा हतप्रभ रह गए और थोड़े हिचकते हुए राज़ी भी हो गए । पर जब फाइनल गीत बना तो वो कमाल का था । शायद इन कलाकारों को अहसास भी नहीं हुआ होगा कि वो अपने समझौते और प्रयोग के ज़रिए एक इतिहास रचने वाले हैं । किशोर कुमार ने ऐसे और भी गीत गाए हैं जिनमें वो लड़के और लड़की की आवाज़ों में गाते हैं । जैसे फिल्‍म लड़का लड़की का गीत 'सुणिए सुणिए आजकल की लड़कियों का प्रोग्राम' । बहरहाल आईये इसी गीत पर वापस लौटते हैं । ये एक मज़ाहिया गीत है । और मज़ाहिया गीत की अदायगी तलवार पर चलने जैसा जोखिम होती है । किशोर दा तलवार की धार पर चले भी और पार भी निकले हैं । इस गाने के बोल भी पेश कर रहा हूं ताकि आपको सुनने समझने और इस गाने की चुनौती को समझने में आसानी रहे ।

इस गाने को सुनते हुए ध्‍यान दीजियेगा कि कितनी जल्‍दी जल्‍दी किशोर ने स्‍वर बदला है । पहले महिला फिर पुरूष । ये भी याद रहे कि वो ट्रैक रिकॉर्डिंग वाला दौर नहीं था । यानी गाना वन टेक ओके होता था । सीधे शब्‍दों में कहें तो शुरू से आखिर तक एक ही कट में रिकॉर्ड किया जाता था । इससे आपको इस गाने की चुनौती का अहसास जरूर हो जायेगा । सलिल दा ने इस गाने के इंटरल्‍यूड में में‍डोलिन पर बड़ी प्‍यारी धुन बजवाई है । कमाल धुन है । सलिल दा अपने काम के हर हिस्‍से को पूरी गंभीरता से पूरा करते थे । वे वाक़ई एक संपूर्ण कलाकार थे ।

एक अफ़सोस ये रह गया कि शुद्ध संगीत के चाहने वाले इस गाने को गंभीरता से नहीं लेते । उन्‍हें ये एक खेल या एक खिलवाड़ लगता है । लेकिन मुझे लगता है कि किशोर कुमार की कलाकारी का बेहतरीन नमूना है ये गीत ।

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महिला-आके सीधी लगी दिल पे जैसे कटरिया ओ संवरिया
ओ तेरी तिरछी नज़रिया
पुरूष- ले गयी मेरा दिल तेरी जुल्‍मी नज़रिया ओ गुजरिया
ओ जाने सारी नगरिया
महिला- आके सीधी लगी ।।

महिला- मेरी गली आते हो क्‍यूं बार बार
छेड़ छेड़ जाते हो क्‍यूं दिल के तार
ओ सैंया ओ सैंया पड़ूं तेरे पैयां

पुरूष- क्‍या मैं करूं गोरी मुझे तुझसे है प्‍यार
जो ना तुझे देखूं ना आये क़रार
ओ गोरी ओ गोरी बड़के बुद्धन तीर वी टक्‍कर

महिला- हटो जाओ ना बनाओ
हटो जाओ हाय हाय ना बनाओ हाय हाय
नटखट रंगीले सांवरिया
आके सीधी लगी दिल पे जैसे कटरिया ।।

पुरूष- ले गयी मेरा दिल तेरी जुल्‍मी नजरिया ओ गुजरिया

महिला- पीछे पीछे आते हो क्‍यूं दिल के चोर
मान जाओ वरना मचा दूंगी शोर
बचाओ ओ मुई मुर्गे ओ कौवे

पुरूष- पहले तो बांधी निगाहों की डोर
अब हमसे कहती हो चल पीछा छोड़
ओ गोरी ओ नटखट ओ खटपट ओ पनघट ओ झटपट

महिला- तोरे नैना ओ मीठे बैना
मुझको बना दिया बावरिया
आके सीधी ।।

पुरूष- ले गयी मेरा दिल तेरी जुल्‍मी नजरिया ओ गुजरिया
जाने सारी नगरिया ।।।।



इस गाने को आप यहां देख भी सकते हैं ।


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Saturday, November 10, 2007

गाईये गणपति जगवंदन--जगजीत सिंह, अहमद हुसैन और राजन साजन मिश्र की आवाज़ें


ये तो आप जानते ही हैं कि रेडियोवाणी पर फ़रमाईशें भी पूरी की जाती हैं ।
दीपावली पर जब मैंने शुभा मुदगल के गीत सुनवाए तो ज्ञान जी ने कहा कि क्‍या 'गाईये गणपति जगवंदन' कहीं उपलब्‍ध हो सकता है । खोजा तो इसके कुछ संस्‍करण आसानी से मिल गए ।

तो आईये दीपावली के बाद नववर्ष का आरंभ गणपति की वंदना से ही किया जाए ।
गाईये गणपति जगवंदन--इस रचना को असंख्‍य कलाकारों ने गाया है । लेकिन आज हम तीन अनमोल आवाज़ों में इस भजन को सुनेंगे । तीनों ही संस्‍करणों का कोई मुक़ाबला नहीं है । तीनों अपने आप में कमाल हैं ।

पहले इसकी इबारत पढि़ये ।

गाइये गनपति जगबंदन ।

संकर\-सुवन भवानी नंदन ॥ १ ॥
सिद्धि\-सदन, गज बदन, बिनायक ।
कृपा\-सिंधु,सुंदर सब\-लायक ॥ २ ॥
मोदक\-प्रिय, मुद\-मंगल\-दाता ।

बिद्या\-बारिधि,बुद्धि बिधाता ॥ ३ ॥
माँगत तुलसिदास कर जोरे ।
बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥ ४ ॥



अब इसे सुनिए जगजीत सिंह के स्‍वर में । जगजीत ग़ज़ल गाते हैं तो उनकी आवाज़ में गुलाबीपन नज़र आता है ।
पर जब वो भक्तिरस में डूबते हैं तो उनकी आवाज़ में आध्‍यात्मिकता का रंग बड़ा ही गहरा हो जाता है । उनकी आवाज़ के 'ग्रेन्‍स' उभर आते हैं । वो मंदिर में कीर्तन कर रहे एक वीतरागी साधु बन जाते हैं ।

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ये है अहमद हुसैन मोहम्‍मद हुसैन की आवाज़ । थोड़ा सरप्राईजिंग लगता है ना । ग़ज़लों की दुनिया की मशहूर जोड़ी और भजन ? पर ये सच है । अहमद हुसैन मोहम्‍मद हुसैन ने कुछ भजन भी गाए हैं । लंबे समय से ये भजन इन आवाज़ों में मुझे प्रिय रहा है । आईये इसे सुनें । इसकी साउंड क्‍वालिटी संभवत: उतनी अच्‍छी नहीं जितनी बाक़ी दो आवाजों की है ।

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और ये आवाज़ें हैं राजन मिश्र साजन मिश्र की । शास्‍त्रीयता की चरम ऊंचाई । दिव्‍य और अप्रतिम । सुनिए ।

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रेडियोवाणी की ओर से सभी को एक बार फिर शुभ दीपावली !

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Thursday, October 11, 2007

आईये ईर बीर फत्‍ते सुनें । साथ में कुछ और गीत । मौक़ा अमिताभ के जन्‍मदिन का ।


आज अमिताभ बच्‍चन का पैंसठवां जन्‍मदिन है । रेडियोवाणी का ताल्‍लुक चूंकि संगीत की दुनिया से है इसलिए हम आज अमिताभ के गाये कुछ गीत आप तक पहुंचायेंगे ।
तो चलिए पहले आपको 'ईर बीर फत्‍ते' सुनवाया जाये ।
दरअसल ये गीत हमारी पत्‍नी को बहुत पसंद है ।
लेकिन उस ज़माने में जब ये अलबम आया था, हम ख़रीद नहीं पाए ।
अब ये मिलता नहीं ।
तो इंटरनेट पर ही सुनना पड़ता है ।
आईये ईर बीर फत्‍ते की कहानी सुनें ।
बस एक ही शिकायत रहती है इस एलबम से ।
अगर इसमें म्‍यूजिक थोड़ा धीमा और आवाज़ थोड़ी बुलंद होती तो कितना अच्‍छा रहता ।

चलिए अमिताभ के जन्‍मदिन पर 'ईर बीर फत्‍ते' सुना जाये ।


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ये है अमिताभ का गाया फिल्‍म 'सिल‍सिला' का गीत । नीला आसमां सो गया । कई लोग मानते हैं कि इसमें अमिताभ की आवाज़ सुरीली नहीं है । पर मुझे ये गीत बहुत पसंद है, ये गीत अपने संगीत, बोलों और अदायगी की वजह से बहुत ख़ास है । आपका क्‍या कहना है ।


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और ये मिस्‍टर नटवरलाल फिल्‍म का गीत । राजेश रोशन की तर्ज़ है ।
कमाल का गीत है ये । उन दिनों से प्रिय है जब विविध भारती पर कभी कभी सुनाई देता था और हम कान लगाकर सुनते
थे ।

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अमिताभ बच्‍चन को जन्‍मदिन मुबारक ।

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Tuesday, September 25, 2007

हम तो ऐसे हैं भैया--आईये सुनें फिल्‍म 'लागा चुनरी में दाग़' का ये शानदार गीत




आमतौर पर रेडियोवाणी पर हम नये गाने कम ही सुनते हैं । लेकिन आज सोचा कि कोई नया गीत सुनवाया जाये ।
इन दिनों मैं प्रदीप सरकार की आगामी फिल्‍म 'लागा चुनरी में दाग़' फिल्‍म के गीत सुन रहा हूं । इस फिल्‍म का एक गीत मुझे पसंद आया है । तो चलिए इसे सुना जाए ।

जहां तक मेरी जानकारी है ये गीत लिखा है स्‍वानंद किरकिरे ने । और इसे स्‍वरबद्ध किया है शांतनु मोईत्रा ने ।
आवाज़ें हैं सुनिधि चौहान और श्रेया घोषाल की । अरे हां याद आया आपको ये भी बता दूं कि सब कुछ ठीक रहा तो कल सुनिधि विविध भारती आ रही हैं, उनसे बातचीत की जिम्‍मेदारी मुझे ही सौंपी गयी है ।

बहरहाल ये गीत छोटी शहर की स्पिरिट का गीत है । बिल्‍कुल वैसा ही जैसा कुछ साल पहले 'बंटी और बबली' फिल्‍म में आया था--धड़क धड़क सीटी बजाये रेल । ज़रा इसके बोलों पर ध्‍यान दीजिए--

जेब में हमारी दुई रूपैया
दुनिया को रखें ठेंगे पे भैया
इक इक को खूंटी पे टांगे
और पाप पुण्‍य चोटी से बांधे
नाचे हैं ताता थैया
हम तो ऐसे हैं भैया
ये अपना पैशन/टश्‍न है भैया ।।

एक गली बम बम भोले
दूजी गली में अल्‍ला-मियां
एक गली में गूंजें अज़ानें
दूजी गली में बंसी रे भैया ।।

सबकी रगों में लहू बहे है
अपनी रगों में गंगा मैया
सूरज और चंदा भी ढलता
अपने इशारों पे चलता
दुनिया का गोल गोल पहिया ।। हम तो ऐसे हैं भैया ।।

आजा बनारस में रस चख ले आ
गंगा में जाके तू डुबकी लगा
रबड़ी के संग तू चबा ले उंगली
माथे पे भांग का रंग चढ़ा
चूना लगई ले,पनवा चबई ले
उसपे तू ज़र्दे का तड़का लगई ले
पटना से अईबे, टैरेस पे अईबे
गंगा की नहर कोई नंगा नहइबे
जीते जी तो कोई काशी ना आए
चार चार कांधों पे वो चढ़के आए ।।

हम तो ऐसे हैं भईया
ये अपनी नगरी है भईया ।।
दीदी अगर तुझको होती जो मूंछ
मैं तुझको भईया बुलाती तू सोच
अरे छुटकी अगर तुझको होती जो पूंछ
मैं तुझको गैया बुलाती तू सोच
दीदी ने ना जाने क्‍यों छोड़ी पढ़ाई
घर बैठे अम्‍मां संग करती है लड़ाई
अम्‍मां बेचारी बीच में है आई
रात दिन सुख दुख की चलती सलाई
घर बैठे बैठे बाप जी हमारे
लॉटरी में ढूंढते हैं किस्‍मत के तारे
मंझधार में हमरी नैया
फिर भी देखो मस्‍त हैं हम भैया ।।
हम तो ऐसे हैं भैया ।।

दिल में आता है यहां से
पंछी बनके उड़ जाऊं
शाम ढले फिर दाना लेकर
लौटके अपने घर आऊं ।।
हम तो ऐसे हैं भैया ।।
हम तो ऐसे हैं भैया ।।

मेरा मानना है कि ऐसा ठेठ मध्‍यवर्गीय गीत आज के ज़माने में आना वाक़ई कमाल की बात है । इसके लिए हमें स्‍वानंद किरकिरे और शांतनु मोईत्रा की टीम को बधाई देनी चाहिये । इस गाने को सुनने के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं । म्‍यूजिक मज़ा के इस पेज में फिल्‍म लागा चुनरी में दाग के सारे गीत हैं ।
हम जिस गीत की बात कर रहे हैं वो आखिरी नंबर पर है । वहां क्लिक करके आप ये गीत सुन सकते हैं ।

मुझे तो ये गीत बहुत पसंद है । बताईये आपको पसंद आया क्‍या ।


तस्‍वीर यशराज फिल्‍म्‍स की वेबसाईट से साभार

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Saturday, September 22, 2007

बाग़ों में बहार आई और मैं ढूंढ रहा था सपनों में--आनंद बख्‍शी के 'गाये' दो गीत




लंबे अरसे से मैं आनंद बख्‍शी के गीत रेडियोवाणी पर प्रस्‍तुत करना चाहता था ।
लेकिन मुमकिन नहीं हो पा रहा था । पर दो एक दिन पहले कुछ 'ऐसा' पढ़ लिया कि लगा अब बख्‍शी साहब की बातें रेडियोवाणी पर करनी ही होंगी ।

आनंद बख्‍शी मुंबईया फिल्‍म-जगत में आने से पहले फौज में थे । दो बार उन्‍होंने गीतकारी के लिए जद्दोजेहद की और हारकर वापस लौट गये । लेकिन तीसरी बार आखि़रकार बख्‍शी साहब को मौक़ा मिल ही गया और मुंबईया फिल्‍म-जगत को एक बाक़यादा गीतकार मिला ।

बाक़ायदा गीतकार से मेरा आशय है फुलटाईम गीतकार से ।
मुंबईया फिल्‍म-जगत में ज्‍यादातर शायर और कवियों से गाने लिखवाये जाते रहे हैं ।
मजरूह सुल्‍तानपुरी से लेकर साहिर लुधियानवी और नीरज से लेकर इंदीवर तक ज्‍यादातर गीतकार पहले शायर या कवि थे और बाद में बने गीतकार । लेकिन आनंद बख्शी गीतकारी की दुनिया में फुलफ्लेज आये थे । लिखने का शौक़ था, उससे भी ज्‍यादा था गाने का शौक़ । आनंद बख्‍शी ने ज्‍यादातर गानों की धुनें तक संगीतकारों ने दीं और संगीतकारों ने उन धुनों को स्‍वीकार भी किया ।

आनंद बख्‍शी का सबसे बड़ा योगदान ये रहा है कि उन्‍होंने जनता की भाषा को कविता की शक्‍ल दी । बख्‍शी साहब पर केंद्रित इस अनियमित-श्रृंखला में हम उनके कुछ गानों का विश्‍लेषण करते हुए पता लगायेंगे कि वो क्‍या चीज़ थी जो बख्‍शी को दूसरे गीतकारों से अलग और ख़ास बनाती थी । बख्‍शी ने गीतकारी की दुनिया को क्‍या दिया । उनका गीतकारी में क्‍या योगदान है ।

मुझे लगता है कि बख्‍शी ने युगल-गीतों का बेहतरीन ग्रामर दिया है फिल्‍म-उद्योग को । उनके ज्‍यादातर युगल-गीतों में कमाल का संयोजन है । सवाल-जवाब वाली लोक-परंपरा को उन्‍होंने फिल्‍मों की गीतकारी में शामिल किया । 'अच्‍छा तो हम चलते हैं, 'सावन का महीना,पवन करे शोर,'कोरा काग़ज़ था ये मन मेरा','बाग़ों में बहार है, कल सोमवार है' जैसे अनगिनत युगल-गीत हैं उनके । जो एक नज़र में तो सादा लगते हैं, लेकिन इनका शिल्‍प कमाल का है । बहरहाल इन मुद्दों पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे ।

गीतकार आनंद बख्‍शी के गीतों पर केंद्रित इस अनियमित श्रृंखला की पहली कड़ी में आपको उनके लिखे और उन्‍हीं के गाये दो अनमोल गीत सुनवाये जा रहे हैं । फिल्‍म है -मोम की गुडि़या । 1972 में आई इस फिल्‍म निर्माता निर्देशक थे मोहन कुमार ।
इस फिल्‍म की नायिका तनूजा थीं और नायक कोई रतन चोपड़ा थे । फिल्‍म की गुमनामी से समझा जा सकता है कि इसका हश्र क्‍या हुआ होगा । लेकिन इसके गीत काफी चले । इस फिल्‍म में लक्ष्‍मी-प्‍यारे ने संगीत दिया था ।

बख्‍शी साहब ने 'मोम की गुडि़या' में दो गीत गाए थे । एक था-बाग़ों में बहार आई । और दूसरा-मैं ढूंढ रहा था सपनों में ।
मुझे दूसरा गीत ज्‍यादा पसंद है । इसलिए पहले हम इसकी चर्चा करेंगे ।

'मैं ढूंढ रहा था सपनों में'काफी नाटकीय ढंग से बहुत ऊंचे सुर वाले ग्रुप वाय‍लिन से शुरू होता है । वायलिन की ये वैसी तान है जैसी मुगलिया सल्‍तनत की कहानियां दिखाने वाली फिल्‍मों में होती थी । लेकिन इसके बाद संगीत मद्धम होता है । फिर रबाब की तान आती है और फिर बख्‍शी साहब की आवाज़ । इस आवाज़ में मुझे एक अलग सी खनक सुनाई देती है ।

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मैं ढूंढ रहा था सपनों में
तुमको अनजाने अपनों में
रस्‍ते में मुझे फूल मिला तो
मैंने कहा मैंने कहा
ऐ फूल तू कितना सुंदर है
लेकिन तू राख है मौज नहीं
जा मुझको तेरी खोज नहीं ।। मैं ढूंढ रहा था ।।

इस गाने के इंटरल्‍यूड में रबाब का शानदार उपयोग है । वैसे तो कल्‍याण जी आनंद जी ने रबाब का उपयोग अपने संगीत में कई बार किया है । पर इस गाने में लक्ष्‍मी प्‍यारे ने रबाब से बेहतरीन इंटरल्‍यूड सजाया है । साथ में गिटार का बेहद सुंदर इस्‍तेमाल । लक्ष्‍मी-प्‍यारे के ऑरकेस्‍ट्रा में झांककर देखो तो अकसर चौंकाने वाले प्रयोग मिलते हैं । इस सपनीले और फंतासी गाने में रबाब ने जो समां बांधा है वो शायद किसी और प्रयोग से नहीं बंध सकता था । ऊपर से आनंद बख्‍शी की अनयूजुअल आवाज़ । दिल अश अश करने लगता है ।


मैं दीवाना अनजाने में
जा पहुंचा फिर मैखाने में
रस्‍ते में मुझे एक जाम मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
ऐ जाम तू कितना दिलकश है
लेकिन तू हार है जीत नहीं
जा तेरी मेरी प्रीत नहीं ।। मैं ढूंढ रहा था ।।


इसके बाद जो अंतरे आते हैं, वो हम जैसे आनंद बख्‍शी के दीवानों को मोहित करने के लिए काफी है । इस कविता में कोई चमत्‍कार नहीं है । इस गीत में कोई कलाबाज़ी नहीं है । कोई बौद्धिकता नहीं है ।
कोई नारेबाज़ी नहीं है । लेकिन इसमें सच्‍चाई है । सादगी है । एक दर्शन है ।

मैं बढ़कर अपनी हस्‍ती से
गुज़रा तारों की बस्‍ती से
रस्‍ते में मुझे फिर चांद मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
ऐ चांद तू कितना रोशन है
पर दिलबर तेरा नाम नहीं
जा तेरे बस का काम नहीं
दीपक की तरह जलते जलते
जीवन पथ पर चलते चलते
रस्‍ते में मुझे संसार मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
संसार तू कितना अच्‍छा है
लेकिन ज़ंजीर है डोर नहीं
जा तू मेरा चितचोर नहीं ।। मैं ढूंढ रहा था ।।

कुछ और चला मैं बंजारा
तो देखा मंदिर का
मंदिर में मुझे भगवान मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
भगवान तेरा घर सब कुछ है
लेकिन साजन का द्वार नहीं
पूजा पूजा है प्‍यार नहीं
जी था बेचैन अकेले में
पहुंचा सावन के मेले में
मेले में तुम्‍हें जब देख लिया
तो मैंने कहा मैंने कहा
तुम्‍हीं तो हो तुम्‍हीं तो हो
चितचोर मेरे मनमीत मेरे
तुम बिन प्‍यासे थे गीत मेरे ।। मैं ढूंढ रहा था ।।

यहां आकर गीत अपने अंजाम तक पहुंचता है और बख्‍शी साहब अपनी प्‍यारी हमिंग करते हैं । और दिल पर एक खलिश सी तारी हो जाती है । मैंने पहले भी कहा कि इस गाने में कितनी सादगी से बख्‍शी साहब ने प्रेम का दर्शन उतार दिया है । ज़रा इन पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए--

रस्‍ते में मुझे संसार मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
संसार तू कितना अच्‍छा है
लेकिन ज़ंजीर है डोर नहीं
जा तू मेरा चितचोर नहीं ।।

मंदिर में मुझे भगवान मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
भगवान तेरा घर सब कुछ है
लेकिन साजन का द्वार नहीं
पूजा पूजा है प्‍यार नहीं

मेले में तुम्‍हें जब देख लिया
तो मैंने कहा मैंने कहा
तुम्‍हीं तो हो तुम्‍हीं तो हो
चितचोर मेरे मनमीत मेरे
तुम बिन प्‍यासे थे गीत मेरे ।।

ये तीनों जुमले या कह लीजिये कि अंतरे के तीनो टुकड़े कमाल के हैं । जिस बात को कबीर ने कहा, मीरा ने कहा, सूफियों ने कहा--कि प्रेम दुनिया की हर चीज़ से बढ़कर है, भगवान से बढ़कर है उसे आनंद बख्‍शी ने भी कहा । लेकिन एक फिल्‍मी गीत में गुंजाईश निकालकर कहा । और इसीलिए वो दूसरों से अलग खड़े नज़र आते हैं ।

दूसरा गीत है 'बाग़ों में बहार आई' । इस गाने को मैं बहुत ही संक्रामक गीत मानता हूं । इंफैक्‍शस सॉन्‍ग । इसे सुनकर बिना गुनगुनाए आप रह ही नहीं सकते । गाने की शुरूआत लताजी और आनंद बख्‍शी के आलाप से होती है । साथ में है बांसुरी और रिदम का कुशल संयोजन । जो इस गाने की पहचान बन गया है । इस गाने में लंबी लंबी पंक्तियां हैं और लक्ष्‍मी-प्‍यारे ने बड़ी अदा के साथ इनकी धुन तैयार की है ।

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बाग़ों में बहार आई, होठों पे पुकार आई
आजा आजा आजा मेरी रानी
रूत बेक़रार आई,डोली में सवार आई
आजा आजा आजा मेरे राजा ।।

फूलों की गली में आईं भंवरों की टोलियां
दिये से पतंगा खेले आंखमिचौलियां
बोले ऐसे बोलियां के प्‍यार जागा जग सो गया ।।
रूत बेक़रार आई डोली में सवार आई
आजा आजा आजा मेरे राजा ।।

सपना तो सपनों की बात है प्‍यार में
नींद नहीं आती सैंयां तेरे इंतज़ार में
होके बेक़रार तुझे ढूंढूं मैं तू कहां खो गया ।।
बाग़ों में बहार आई, होठों पे पुकार आई
आजा आजा आजा मेरी रानी ।।

लंबी लंबी बातें छेड़ें, छोटी सी रात में
सारी बातें कैसे होंगी, इक मुलाकात में
एक ही बात में लो देख लो सबेरा हो गया ।।
बाग़ों में बहार आई, होठों पे पुकार आई
आजा आजा आजा मेरी रानी ।।


आनंद बख्‍शी की आवाज़ नेज़ल है, वो कुछ कुछ नाक से गाते हैं । लेकिन कुछ नया और आकर्षक तो है ही उनकी आवाज़
में । मैं आपको ये भी बताना चाहूंगा कि फिल्‍म-संसार को आनंद बख्‍शी के गाये ज्‍यादा गीत क्‍यों नहीं मिले । मोम की गुडि़या और चरस जैसी फिल्मों में आनंद बख्‍शी के गाने गाने के बाद पता नहीं कैसे फिल्‍म संसार में ये बात फैल गयी कि बख्‍शी साहब जिस फिल्‍म में गीत गाएं वो फ्लॉप हो जाती है । यही वजह थी कि आगे चलकर रमेश सिप्‍पी ने शोले में जो क़व्‍वाली किशोर कुमार, मन्‍नाडे और भूपेन्‍द्र की आवाज़ में रिकॉर्ड की थी उसे फिल्‍म से निकाल दिया गया । ये क़व्‍वाली फिल्‍म के रिकॉर्ड पर तो है लेकिन परदे पर कभी नहीं आ सकी । फिल्‍मी दुनिया में कैसे कैसे अंधविश्‍वास प्रचलित हो जाते हैं । अगर ये बात ना फैली होती तो हमें बख्‍शी साहब के गाये कई और गीत मिल सकते थे । पर अब बख्‍शी साहब नहीं हैं, और हमें इन्‍हीं गानों से तसल्‍ली करनी होगी ।

आनंद बख्‍शी के अनमोल गीतों पर केंद्रित ये अनियमित श्रृंखला जारी रहेगी ।
रेडियोवाणी पर बाईं ओर फरमाईशों और संदेसों का नया विजेट लगाया गया है । इसे आज़माकर देखिएगा ।

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“मोम की गुडि़या”
”बाग़ों में बहार आई”
” मैं ढूंढ रहा था सपनों में”

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