कमाल अमरोही, खैयाम और ‘कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की’
प्रिय मित्रो
रेडियोवाणी पर फ़रमाईशों का सिलसिला लगातार जारी है । यक़ीन मानिए आपकी फ़रमाईशों से मुझे ख़ुशी होती है । मैं स्वयं कई सालों से कई-कई गानों को खोजता रहा हूं, कुछ मिले और कुछ मिलते जा रहे हैं । इसलिये मैं समझ सकता हूं कि किसी गाने को खोजने और खोजने और लगातार खोजते जाने के मायने क्या हैं ।
बहरहाल, विकास शुक्ल ने मुझसे दान सिंह के गानों की प्रस्तुति के लिए कहा है, और मैंने दान सिंह के तीन गीत खोज निकाले हैं । उम्मीद है कि कल से रोज़ाना एक एक करके वो तीनों गीत आपको ‘रेडियोवाणी’ पर सुनने को मिलेंगे । पर फिलहाल एक सरल फ़रमाईश पूरी कर रहा हूं ।
ये फ़रमाईश है हमारे ज्ञानदत्त जी की ।
ज्ञानदत्त जी ने कहा कि उन्हें एक फिल्म की याद आ रही है, जिसमें कुछ खूबसूरत गीत थे और उनमें से एक था—कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की । क्या मैं इसे सुनवा सकता हूं । तो लीजिये ज्ञान जी आपने कहा और हमने सुनाया ।
आपको बता दूं कि ये गीत सन 1977 में बनी फिल्म ‘शंकर हुसैन’ का है जिसे कमाल अमरोहवी ने बनाया था । ये गीत क्या है, ख़ालिस शायरी है । इस गाने का शुमार मो. रफी के बहुत मद्धम गानों में किया जाता है । संगीतकार ख़ैयाम ने बहुत कम साज़ों का इस्तेमाल करके इस गाने की धुन तैयार की है, जिससे इस नाज़ुक गाने के जज़्बात बहुत असरदार तरीक़े से उभरे हैं । इस तरह के गाने साबित कर देते हैं कि साज़ों का शोर गीत की किस तरह जान लेता है और अगर समझदारी से संगीत-संयोजन किया जाये तो कैसे कोई गीत महान बन जाता है ।
कहने वाले ये कहते हैं कि गीतकार जावेद अख़्तर ने इसी गाने से प्रेरित होकर ‘1942 ए लवस्टोरी’ का गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ लिखा था । अगर आप ग़ौर करें तो पाएंगे कि दोनों गीतों की बुनावट एक जैसी है । पर अपने ख्यालों और मिसालों में कमाल अमरोहवी वाक़ई कमाल है ।
मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर वो दांतों तले उंगलियां दबाती तो होगी ।।
इस तरह के नाज़ुक मिसरे लिखना किसी आम शायर के बस की बात नहीं है । कमाल अमरोहवी तो वो शायर थे जो सेल्युलॉइड पर भी कविता रचते थे । और इसकी मिसाल हैं ‘महल’, ‘पाकीज़ा’ और ‘रजिया सुल्तान’ जैसी फिल्में । तो फिर सुनिए और पढिये ये गीत--
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कहीं एक मासूम नाज़ुक-सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर सांवली-सी
मुझे अपने ख्वाबों में पाकर
कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी
उसी नींद में कसमसा कसमसा कर
सरहाने से ताकिये गिराती तो होगी ।।
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।
वही ख्वाब दिन के मुंडेरों पे आके
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साज़ सीने की ख़ामोशियों में
मेरी याद से झनझनाते तो होंगे
वो बेसाख़्ता धीमे धीमे सुरों में
मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी ।।
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।
चलो खत लिखें जी में आता तो होगा
मगर उंगलियां कंपकंपाती तो होंगी
क़लम हाथ से छूट जाता तो होगा
उमंगें क़लम फिर उठाती तो होंगी
मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर
वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी ।।
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।
ज़ुबां से अगर उफ निकलती तो होगी
बदन धीमे धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पांव पड़ते तो होंगे
दुपट्टा ज़मीं पर लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बताती तो होगी
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।
आपको ये भी बता दूं कि इसी फिल्म के कुछ और गीतों की चर्चा हम आगे चलकर करेंगे । इस बार बारी होगी इस गीत की--‘आप यूं फासलों से गुज़रते रहे’ ।
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18 comments:
यूनुस भाई,
यह मेरा सबसे अधिक पसंदीदा गीत है। रोज़ अपने कम्प्यूटर पर इसे कम से कम एक बार ज़रूर सुनता हूँ और इसकी चर्चा 'विविध भारती' पर कई बार सुन चुका हूँ। ब्लॉग पर इसकी चर्चा देखकर अच्छा लगा।
धन्यवाद।
युनुस जी!
चंद दिनों पहले ही आपका ब्लॉग पहली बार पढ़ा और यकीन मानें आपका मुरीद हो गया. विषय के साथ-साथ आपका अंदाज़-ए-बयाँ भी बहुत पसंद आया. यह गीत भी मेरे पसंदीदा गीतों में से है. आज यहाँ इसके बारे में पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.
कभी संगीतकार बनराज भाटिया जी के बारे में भी लिखें और उनके कुछ गाने सुनवायें.
धन्यवाद, यूनुस. इतनी जल्दी इच्छित गीत सुनाने को. इस फिल्म के बाकी गीत - एक याद आ रहा है - आपने आप रातों में चूड़ियां खनकती हैं... भी कभी यत्न करना सुनाने को.
भई वाह!
क्या विविध भारती अपने कार्यक्रमों के 'लाइव वेबकास्ट' के बारे में सोच रही है? छायागीत सुने हुये एक अर्सा बीत गया है.
कभी सी.एच.आत्मा जी के गाने सुनवाइये.
यूनुस भाई,
शुक्रिया इस गीत के लिये. शंकर हुसेन के गाने मुझे भी बहुत प्यारे हैं. खास तौर पर आप यूं फ़ासलों से. अपने आप रातों..भी बहुत अच्छा गीत है. अगर मैं भी आपकी तरह साउंड अपलोड कर सकता होता तो अभी फ़ौरन ये सभी गाने आप सुन सकते थे. ख़ैर.
आपने जो सॉंग ट्रांस्क्रिप्शन दिया है उसमें दो एक छोटी भूलें हैं, ठीक कर लें. एक दो प्रूफ़ की ग़लतियां हैं जिन्हें आप ठीक कर ही लेंगे लेकिन 9वीं लाइन है "उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे" 11वीं लाइन है "मेरी याद से झनझनाते तो होंगें" 20वीं लाइन है "वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी"(हालांकि मुहावरा तो दांतों तले उंगली दबाना ही होता है लेकिन आपसे छुपा नहीं है कि तुकबंदी में ऐसी चूकें नज़रअंदाज़ की जाती हैं) 25वीं लाइन को "ज़मीं पर दुपट्टा लटकता तो होगा". अपना ईमेल का पता भेजें हो सके तो मोबाइल नंबर भी. मेरा पता है: ramrotiaaloo@gmail.com
बहुत नाज़ुक बोल है।
कभी इसे भी प्रस्तुत कीजिए -
पर्वतों के घेरों पर शाम का बसेरा है
सुरमई उजाला है चम्पई अन्धेरा है
दोनो वक़्त मिलते है दो दिलों की सूरत मे
आसमां ने खुश हो कर रंग सा बिखेरा है
अन्न्पूर्णा
यह एक बेहद नाजुक गीत है.. और संयोग देखिये कि मैं भी कल ही इस गीत पर पोस्ट लिख चुका था, लेकिन आपकी इस पोस्ट के आने के बाद उसे "डिलीट" कर दिया..इस गीत को मैं रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर पेश करने वाला था, लेकिन अब....किसी दूसरे गीत पर लिखना होगा :( बेहतरीन प्रस्तुति यूनुस भाई, मेरा तो यह कहना है कि इस गीत को सुनकर यदि किसी को अपनी किशोरावस्था / जवानी के दिन याद नहीं आते तो इसका मतलब यह है कि या तो उसने यह गीत ठीक से सुना ही नहीं, या फ़िर वे सुहाने दिन "सिर्फ़ पढाई" में गुजार दिये और जवान हुए बिना सीधे अधेड़ हो गया हो...
शैलेश जी शुक्रिया ।
अजय भाई अच्छा लगा आपको ये सिलसिला पसंद आ रहा है । दो महीने पहले मेरी वनराज भाटिया से मुलाक़ात भी हुई थी और विविध भारती पर जल्दी ही उनका एक लंबा इंटरव्यू प्रसारित होने वाला है । इसके अलावा मैं आपको यहां रेडियोवाणी पर भी उनके गाने ज़रूर सुनवाऊंगा ।
ज्ञान जी इस फिल्म के सारे गाने मुझे एक एक करके सुनवाने हैं ।
इरफ़ान भाई ग़लतियों को सुधरवाने के लिए शुक्रिया ।
अन्नपूर्णा जी शुक्रिया । शगुन फिल्म के गीत का आपने जिक्र किया है, पर्वतों के घेरों नहीं बल्कि पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है । जल्दी ही हम इस गाने को भी सुनेंगे । सुरेश भाई आपको पोस्ट डिलीट नहीं करनी थीं । कम से कम आपका नज़रिया भी तो मिलता ।
mai pichley kai dinon se aapke blog ko visit kar raha hun... lagta hai dheerey dheerey iski aadat si ho rahi hai... Suna hai aap farmaishen poori karte hain...ek gaana hai... Lata ji ka... film ka naam Aandhiyan, Hai Kahin Par shaadmani aur kahin naashaadiyan... Music: Ustad Ali Akbar Khan... Ho sake to suna dijiye...kai saal pehle 78 rpm record pe suna tha... dil me bas gaya tha...ab kahin bhi milta nahin hai... umeed hai aap dhoond nikaalengey... Shukriya
वाह भाई, ज्ञान जी की और हमारी संगीत की पसंद तो एक सी निकली. :)
आभार इस गीत के लिये.
युनूस भाई शायद संगीतकार वसंत देसाई ने कहीं कहा था कि मोहम्मद रफ़ी एक कलाकार ही नहीं एक शापित गंधर्व था जो किसी प्रायश्चित के लिये मृत्युलोक भेजा गया था.मै तो ये कहूंगा कि रफ़ी साहब जैसा पाँच वक़्त का नमाज़ी गुलूकार एक सूफ़ी था जो हमारे पापों को धोने के लिये हमारे कानों में अमृत की बूंदे टपका गया.बड़भागी हैं वे जो रफ़ी युग में आस्था रखते हैं.रफ़ी साहब ने जो करिश्मा अपने कालखण्ड में किया है वह कालातीत है....आने वाले समय में क्या ख़ाक होगा.हिमेशजी और उनके मुरीद कम से कम 31 जुलाई को तो ख़ामोश रह कर इस पाक - साफ़ आवाज़ का रस चख ले...समझ जाएंगे सुर की पाक़ीज़गी किस बला का नाम है.युनूस भाई हो सके तो रफ़ी साहब की इस बरसी के पहले मदनमोहनजी की एक ऐसी सुरीली बंदिश हमारी ब्लाँग बिरादरी को सुना दीजिये कि बस वे निहाल हो जाएं..मुखड़ा है..कैसे कटेगी ज़िन्दगी तेरे बग़ैर तेरे बग़ैर..(इस तेरे बग़ैर में रफ़ी के स्वर की नि:ष्पाप हरक़तें सुनने लायक है) ..संसारी हूं मै लेकिन सच कहूं...उल्लेखित रचना को सुनने के बाद की सारी फ़ितरतों को छोड़ बैरागी बन जाने को जी चाहता है..लगता है हम किस ग़लफ़त में जी रहे हैं हम...हमारे कारोबार,रिश्तेदार,ये लिखना - पढना ; सब एक ढोंग तो नहीं...मन भर गया है..भर जाता है युनूस भाई जुलाई के इस आख़री हफ़्ते में..की बोर्ड से हाथ हटकर ..जेब में रूमाल ढूंढ रहा है..ज़रा आँखें पोंछ लूं..क्या टाइप हो रहा है स्क्रीन पर नज़र नहीं आ रह...खु़दा हाफ़िज़.
मुझे डर इस बात का है यूनुस मियाँ कि कहीं आप थक न जाएँ. सच बोल रहा हूँ. थक जाएँगे अपने ही काम से, अपनी ही मेहनत से. और थक जाएंगे बार बार आपके ब्लॉग पर प्रतिक्रिया देने वाले उन्हीं पुराने, बासी चेहरों से.
नुकसान किसका होगा? नुकसान होगा मेरा. समझे ना.
पैशन के लिए मेरी जबान में कोई शब्द है नहीं लेकिन आपके लिए वही शब्द इस्तेमाल करना चाहता हूँ
तो क्या मैं अपनी प्रतिक्रिया देना बंद कर दूं।
अन्न्पूर्णा
मैं कुछ समझा नहीं अन्नपूर्णा जी । लगता है आप किसी बात से नाराज़ हैं । आप सुधी श्रोता हैं और आपकी प्रतिक्रियाएं सिर माथे पर हैं । बल्कि कहना चाहिये कि इन प्रतिक्रियाओं की ऊर्जा ही है जो मुझसे लगातार लिखवा रही है ।
क्माल है ! आप मज़ाक नही समझते
ऊपर आपसे कहा गया पुराने बासी चेहरों की प्रतिक्रिया ……
सो मैंने भी मज़ाक किया ……
और क्या …
अन्नपूर्णा
बेहद प्यारा गीत सुनवाया आपने धन्यवाद !
यूनुस भाई इस गीत को मैनें अपनी कमसिनि में महसूस किया था !
और जब लिखने लिखाने का मामला शुरू हुआ तो लिख डाला ये गीत :-
कटि नीचे तक, लटके चोटी,
चंद्र वलय के से दो बाले।
ओंठ प्रिया के सहज रसीले,
दो नयना मधुरस के प्याले।
प्रीति प्रिया की, धवल पूर्णिमा,नित अनुराग जगाए।
yunus ji kuch din sey aapkey blog pe aa rahi huunn...aapka prayaas bahut khuubsurat hai............yahan kuch aisey anuuthey geet sunney ko miley jinhey dhuundh pana bahut mushkil thaa...aapka bahut bahut shukriya
parul
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