संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।
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Sunday, October 12, 2008

काहे को ब्‍याहे बिदेस-जगजीत कौर की आवाज़ ।।

घर में शादी का उत्‍सव । झिलमिल रोशनी, लकदक कपड़े, आंखों में चमक लिये रस्‍मों और परंपराओं को निबाहते बूढ़-बुजुर्ग । शादी को गु‍ड्डे-गुडि़या का खेल समझते बच्‍चे और स्‍पीकर पर बजते गीत । बेटी की शादी में बिदाई से ठीक पहले तक माहौल एकदम चमकीला रहता है । लेकिन बिदाई पर आंसूओं की धारा बहने लगती है ।

जिस मां ने नाज़ों से पाला, जिसने बचपन में बड़े जतन ने नाक-कान छिदवाए, बाली-लौंग-पायल पहनाई, जिसने पहली बार यूनीफॉर्म पहनाकर स्‍कूल भेजा, जिसने बड़े होने पर झिड़‍कियों के तीर चलाए, जिसने सही वर की तलाश में धरती आकाश एक कर दिये, जिस पिता ने हर जायज़-नाजायज़ मांग को पूरा किया, जिसने कड़क अनुशासन का माहौल बनाए रखा, कभी दिखाया नहीं कि भीतर से उनका दिल कितना कोमल है, जिस पिता ने स्‍कूटर चलाना सिखाया, जिसने जिद करके अच्‍छे कॉलेजों में भेजा, जिस भाई ने बचपन से आज तक झगड़े किए, चोटी खींची, तंग किया, जिस बहन ने कभी चिढ़ पैदा की, कभी सहेली की भूमिका निभाई, वो सब के सब.....परिवार के वो सारे सदस्‍य अब घर से बिदा कर रहे हैं ।
बेटी या बहन की बिदाई पर पत्‍थर भी पिघल जाते हैं । हिंदी फिल्‍मों में बिदाई के कुछ मार्मिक गीत बने हैं । रेडियोवाणी पर आज हम आपको

भैया को दियो बाबुल महलां दो महलां अरे हम को दिये परदेस, अरे लखियां बाबुल मोहे । काहे को ब्‍याहे बिदेस
सुनवा रहे हैं सन 1981 में आई मुज़फ्फर अली द्वारा निर्देशित फिल्‍म 'उमराव जान' का एक गीत जिसे जगजीत कौर और सखियों ने गाया है । संगीतकार हैं ख़ैयाम । ये गीत हज़रत अमीर ख़ुसरो ने लिखा है । इसके कुछ अंश जगजीत कौर ने इस फिल्‍म में गाए हैं । पूरी रचना को आप यहां कविता-कोश में पढ़ सकते हैं । जगजीत कौर के बारे में आपको बताना ज़रूरी है । वे संगीतकार ख़ैयाम की पत्‍नी हैं । और बहुत ही कमाल की गायिका हैं ।  वे एक सोंधी पंजाबी आवाज़ हैं । एक खालिस स्‍वर । इस गाने में 'अरे लखियां बाबुल मोहे' की कितनी कितनी अदायगी उन्‍होंने की है, और गाने में किस तरह जज्‍़बात उतारे हैं, ध्‍यान से सुनिएगा । उनके कुछ गानों की सूची आप यहां देख सकते हैं ।

ख़ैयाम के संगीत की ख़ासियत रही है उनका अद्भुत संगीत संयोजन । शहनाई की मार्मिक तान और साथ में ठेठ उत्‍तर भारतीय ढोलक । मुझे हैरत होती है कि एक तरफ शहनाई जहां शुभ अवसरों पर उल्‍लास का स्‍वर बन जाती हैं वहीं बिदाई पर शहनाई किसी मां के चाक-जिगर की आवाज़ जैसी लगती है । ख़ैयाम ने इस गाने के एक अंतरे के बाद बांसुरी का इस्‍तेमाल किया है । चूंकि उमराव जान फिल्‍म का सेट-अप और युग एकदम अलग था इसलिए संतूर भी पूरे गाने में छाया हुआ है । तो आईये रविवार की इस सुबह आंसुओं से भीगे इस गाने को सुनकर थोड़े-से उदास हो जाएं ।
यहां सुनें

यहां देखें 


काहे को ब्‍याहे बिदेस अरे लखियां बाबुल मोहे ।
हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियां
घर-घर मांगी हैं जाये अरे लखियां बाबुल मोहे ।
काहे को ब्‍याहे बिदेस ।।
हम तो बाबुल तोरे पिंजरे की चुनिया
अरे कुहुक कुहुक रह जाएं ।।
काहे को ब्‍याहे बिदेस ।।
महलां तले से डोला जो निकला
अरे बीरन ने खाई पछाड़, अरे लखियां बाबुल मोहे ।
काहे को ब्‍याहे बिदेस ।।
भैया को दियो बाबुल महलां दो महलां
अरे हम को दिये परदेस, अरे लखियां बाबुल मोहे ।
काहे को ब्‍याहे बिदेस

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Thursday, July 26, 2007

कमाल अमरोही, खैयाम और ‘कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की’



प्रिय मित्रो
रेडियोवाणी पर फ़रमाईशों का सिलसिला लगातार जारी है । यक़ीन मानिए आपकी फ़रमाईशों से मुझे ख़ुशी होती है । मैं स्‍वयं कई सालों से कई-कई गानों को खोजता रहा हूं, कुछ मिले और कुछ मिलते जा रहे हैं । इसलिये मैं समझ सकता हूं कि किसी गाने को खोजने और खोजने और लगातार खोजते जाने के मायने क्‍या हैं ।

बहरहाल, विकास शुक्‍ल ने मुझसे दान सिंह के गानों की प्रस्‍तुति के लिए कहा है, और मैंने दान सिंह के तीन गीत खोज निकाले हैं । उम्‍मीद है कि कल से रोज़ाना एक एक करके वो तीनों गीत आपको ‘रेडियोवाणी’ पर सुनने को मिलेंगे । पर फिलहाल एक सरल फ़रमाईश पूरी कर रहा हूं ।

ये फ़रमाईश है हमारे ज्ञानदत्‍त जी की ।
ज्ञानदत्‍त जी ने कहा कि उन्‍हें एक फिल्‍म की याद आ रही है, जिसमें कुछ खूबसूरत गीत थे और उनमें से एक था—कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की । क्‍या मैं इसे सुनवा सकता हूं । तो लीजिये ज्ञान जी आपने कहा और हमने सुनाया ।

आपको बता दूं कि ये गीत सन 1977 में बनी फिल्‍म ‘शंकर हुसैन’ का है जिसे कमाल अमरोहवी ने बनाया था । ये गीत क्‍या है, ख़ालिस शायरी है । इस गाने का शुमार मो. रफी के बहुत मद्धम गानों में किया जाता है । संगीतकार ख़ैयाम ने बहुत कम साज़ों का इस्‍तेमाल करके इस गाने की धुन तैयार की है, जिससे इस नाज़ुक गाने के जज़्बात बहुत असरदार तरीक़े से उभरे हैं । इस तरह के गाने साबित कर देते हैं कि साज़ों का शोर गीत की किस तरह जान लेता है और अगर समझदारी से संगीत-संयोजन किया जाये तो कैसे कोई गीत महान बन जाता है ।

कहने वाले ये कहते हैं कि गीतकार जावेद अख़्तर ने इसी गाने से प्रेरित होकर ‘1942 ए लवस्‍टोरी’ का गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ लिखा था । अगर आप ग़ौर करें तो पाएंगे कि दोनों गीतों की बुनावट एक जैसी है । पर अपने ख्‍यालों और मिसालों में कमाल अमरोहवी वाक़ई कमाल है ।


मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर वो दांतों तले उंगलियां दबाती तो होगी ।।

इस तरह के नाज़ुक मिसरे लिखना किसी आम शायर के बस की बात नहीं है । कमाल अमरोहवी तो वो शायर थे जो सेल्‍युलॉइड पर भी कविता रचते थे । और इसकी मिसाल हैं ‘महल’, ‘पाकीज़ा’ और ‘रजिया सुल्‍तान’ जैसी फिल्‍में । तो फिर सुनिए और पढिये ये गीत--

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कहीं एक मासूम नाज़ुक-सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर सांवली-सी
मुझे अपने ख्‍वाबों में पाकर
कभी नींद में मुस्‍कुराती तो होगी
उसी नींद में कसमसा कसमसा कर
सरहाने से ताकिये गिराती तो होगी ।।
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।

वही ख्‍वाब दिन के मुंडेरों पे आके
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साज़ सीने की ख़ामोशियों में
मेरी याद से झनझनाते तो होंगे
वो बेसाख़्ता धीमे धीमे सुरों में
मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी ।।
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।

चलो खत लिखें जी में आता तो होगा
मगर उंगलियां कंपकंपाती तो होंगी
क़लम हाथ से छूट जाता तो होगा
उमंगें क़लम फिर उठाती तो होंगी
मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर
वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी ।।
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।

ज़ुबां से अगर उफ निकलती तो होगी
बदन धीमे धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पांव पड़ते तो होंगे
दुपट्टा ज़मीं पर लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बताती तो होगी
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।


आपको ये भी बता दूं कि इसी‍ फिल्‍म के कुछ और गीतों की चर्चा हम आगे चलकर करेंगे । इस बार बारी होगी इस गीत की--‘आप यूं फासलों से गुज़रते रहे’ ।


Technorati tags: शंकर हुसैन, कमाल अमरोही, shankar hussain,kaheen ek masoom nazuk si ladki,,,

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