संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Wednesday, August 15, 2007

आईये सुनें-- वंदे मातरम् और ये जो देस है तेरा

देश की आज़ादी की साठवीं सालगिरह के मौक़े पर पेश हैं दो बेमिसाल नग़्मे । एक पुराना और एक एकदम नया ।

सबसे पहले आईये 'आनंद मठ' फिल्‍म का 'वंदे मातरम्' सुनें ।
ये गीत दुर्लभ तो है ही साथ ही हमारी स्‍मृतियों पर भी छाया हुआ है, ये हमारी रूह में बसे हैं ।
हमारी संस्‍कृति का हिस्‍सा है । हमारे रक्‍त में घुला है ।

मैं स्‍वयं ए.आर. रहमान के प्रशंसकों और आलोचकों में से हूं । प्रशंसक होने का मतलब ये नहीं कि आपको किसी व्‍यक्ति की सारी अदाएं पसंद हों । असहमतियों की गुंजाईश हमेशा होनी चाहिये । तो रहमान के संगीत से कहीं कहीं मेरी असहमतियां भी हैं । वरना बहुधा मैं उनका प्रशंसक ही हूं । रहमान का ज़ि‍क्र इसलिए कि उनके बनाए 'वंदे मातरम्' के अनेक संस्‍करण हैं । पहला संस्‍करण 'मां तुझे सलाम' मुझे बेहद प्रिय है । पर अन्‍य कई संस्‍करण काफी तकनीकी लगते हैं ।

अगर आप 'आनंद मठ' के इस संस्‍करण को सुनेंगे तो पायेंगे कि इसमें एक ईमानदारी है, इसमें एक जुनून है । एक सच्‍चाई है । यहां तकनीक हावी नहीं हुई है । रहमान वाले संस्‍करण में आधुनिकता है, पर कहीं ना कहीं कलाबाज़ी भी है । और कलाबाज़ी चीज़ों को नकली बना देती है ।

अगर दोनों संस्‍करणों की तुलना की जाए तो मैं इस संस्‍करण को ही पसंद करूंगा ।
सुनिए--लता जी और हेमंत कुमार की जोशीली आवाज़ें । साथ में कोरस । बेहद सरल संगीत और शायद यही वजह है कि जब भी रेडियो चैनलों से ये गीत बजता है तो दिल को सुकून महसूस होता है कि ये गीत अब भी बचा है । ये संस्‍करण अब भी सुना जाता है । तो आप भी सुनिए--बार बार सुनिए--

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दूसरा गीत जो मैंने चुना है वो फिल्‍म 'स्‍वदेस' का है ।

आमतौर पर देश‍भक्ति के गीतों में एक अजीब-सी नारेबाज़ी और काग़जीपन नज़र आता है लेकिन इस गाने में ऐसा नहीं है । ये एक सच्‍चा गीत है । जिसके लिए लिखा गया उस पर एकदम तीर चलाता है । शाहरूख़ ख़ान स्‍वदेस में नासा में काम कर रहे एक युवा भारतीय वैज्ञानिक हैं, जिन्‍हें अपने देस की बड़ी याद आती है । एक अपराध बोध है जो उन्‍हें साल रहा है, उन्‍हें वापस लौटने के लिए प्रेरित कर रहा है ।

इस गाने को वाक़ई जावेद अख्‍तर ने एन आर आई जनरेशन को समर्पित किया है । ये सच है कि विदेशों में रह रहे भारतीयों के मन में भारत के प्रति एक अजीब सा नॉस्‍टेलजिया होता है, देश लौटने की चाह होती है । पर ग़मे-रोज़गार या अन्‍य कारणों से लोग साहस कर नहीं पाते । चाहकर भी लौट नहीं पाते । जावेद अख्‍तर का ये गीत अपनी हर पंक्ति से उन अप्रवासी भारतीयों की मनोदशा को व्‍यक्‍त करता है । ज़रा इसके बोलों पर नज़र डालिये---


जो देस है तेरा, स्‍वदेस है तेरा
ये वो बंधन है जो कभी टूट नहीं सकता ।।
मिट्टी की है जो खुश्‍बू, तू कैसे भुलाएगा
तू चाहे कहीं जाए, तू लौट के आयेगा
नई नई राहों में, दबी दबी आहों में
खोए खोए दिल से तेरे, कोई ये कहेगा
ये जो देस है तेरा, स्‍वदेस है तेरा ।।
तुझसे जिंदगी है ये कह रही,
सब तो पा लिया,अब है क्‍या कमी
यूं तो सारे सुख हैं बरसे,
पर दूर तू है अपने घर से
आ लौट चल तू अब दीवाने
जहां कोई तो तुझे अपना माने
आवाज़ दे तुझे बुलाने, वही देस
ये जो देस है तेरा, स्‍वदेस है तेरा ।।
ये पल हैं वही, जिसमें है छुपी
कोई इक सदी, सारी जिंदगी,
तू ना पूछ रास्‍ते में काहे
आये हैं इस तरह दो राहे
तू ही तो है राह जो सुझाये
तू ही तो है अब जो ये बताए
जाये तो किस दिशा में जाए वही देस
ये जो देस है तेरा ।।

इस गाने का संगीत-संयोजन मुझे बहुत प्रिय है । इसके कई कारण हैं । रहमान ने बड़े ही अनूठे तरीक़े
से इसमें शहनाई का प्रयोग किया है । बहुत समय बाद शहनाई इतनी प्रोमिनेन्‍ट होकर किसी गाने में आई है। इसी तरह से कोरस का भी बेहतरीन इस्‍तेमाल है इस गाने में । खास बात ये है कि रहमान के कुछ गानो की तरह यहां बोल संगीत में दब नहीं जाते । बल्कि उभरकर दिल में हलचल पैदा करते हैं ।

ये जो देस है तेरा--यहां सुनिए--
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इस गाने को आप यहां देख सकते हैं --







रहमान ने इस गाने की शहनाई पर बजाई धुन भी स्‍वदेस की सी.डी. में रिलीज़ की थी ।
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इस धुन को सुनिए यहां पर और बताईये कि क्‍या ये धुन आपको एक अजीब तरह का सुकून नहीं
देती । क्‍या आपको ये अहसास नहीं देती कि आज के ज़माने के कलाकार भी अच्‍छा संगीत बना रहे हैं ।



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9 comments:

Sanjeet Tripathi August 15, 2007 at 4:58 PM  

शुक्रिया!!

स्वतंत्रता दिवस की बधाई व शुभकामनाएं

Gyan Dutt Pandey August 15, 2007 at 5:02 PM  

हालात यह हैं कि कई नेताओं को वन्देमातरम ठीक से याद नहीं है! पर इन शब्दों ने एक समय देश को फौलाद बनाया था और जरूरत पड़ने पर पुन: बनाने की क्षमता है इस करिश्माई गीत में!

Udan Tashtari August 15, 2007 at 7:48 PM  

आभार हमेशा की तरह और इस बार करबद्ध.

स्वतंत्रता दिवस की बधाई व शुभकामनाएं

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` August 15, 2007 at 10:09 PM  

स्वतंत्र भारत की ६० वी साल गिरह आप को भी खुशी दे ...
इस शुभ कामना के साथ...
स स्नेह -- लावन्या

mamta August 15, 2007 at 10:13 PM  

pahle to hm maafi maang le kyunki hm english me likh rahe hai. vo hamare blog me kuch gadbad ho gayi hai. ye wala vande maatram to hm subah se you tube par dhundh rahe the. swatantrata divas ki haardik shubhkamaayen.

Rajendra August 15, 2007 at 10:15 PM  

Bhai Yunus,
You are right. A.R. Rehman is purely technical- all gimmickry of sound, often repetitive. His sound mimic sharply cut Ad Films- episodic.

Swadesh's Sehnai CD touches and holds us because it has a serenity of the instrument that succeeds in keeping under control what can be called Rehman’s trade-mark style.

By using Sarangi and other instruments O.P.Nayyar too had his own trade-mark style. But that never irritated us. We really enjoyed his sound. But I am afraid we can’t say this for Rehman who is product of market driven phenomenon. He is sleek, sometimes very loud in unnecessarily asserting his style. For him song lyrics are secondary. Although some lyricists fantastically liberate themselves by their sheer mastery of words and feelings - as happened in ‘Zubeida’ and ‘Rosa’- to show their mettle amidst over assertive tech-sound of Rehman.

I do not know if I am correct in my assessment. But frankly I am not a great fan of Rehman.

Aazadi Ke Din Ki Badhai to all.

अजित वडनेरकर August 15, 2007 at 11:32 PM  

यूनुस भाई,
हमेशा की तरह शानदार पेशकश......

अनूप भार्गव August 16, 2007 at 10:37 PM  

युनुस भाई :
मैनें कभी लिखा नहीं लेकिन मैं और मेरी पत्नी आप का ब्लौग नियमित रूप से पढते हैं और आनन्द लेते हैं ।
नेहरू जी का भाषण देनें के लिये धन्यवाद । मेरे पास उन की ’light is gone' speech (MP3 format) है जो उन्होनें महात्मा गांधी जी की मृत्यु के बाद दी थी । इस के अलावा गांधी जी की भी काफ़ी सारी ’प्रार्थना सभा’ में दी गई speeches हैं यदि आप चाहे और प्रयोग करना चाहें तो ।

Yunus Khan August 17, 2007 at 7:19 AM  

अनूप जी बहुत धन्‍यवाद टिप्‍पणी के लिए । अच्‍छा लगा जानकर कि आप दोनों नियमित पढ़ते हैं मेरा चिट्ठा । आपने अच्‍छा याद दिलाया । नेहरू जी की लाईट हैज़ गॉन आउट आफ अवर लाईव्‍स एक मर्मस्‍पर्शी भाषण है । क्‍या आप उसका एम पी 3 भेज सकते हैं । मेरा ई मेल आई डी है yunus.radiojockey@gmail.com

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