संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Saturday, August 29, 2009

संगीत की तरंगित बातें और एक instrumental पहेली

एक बार विविध-भारती पर संगीतकार ख़ैयाम ने कहा था कि संगीत एक इबादत है जिसे लोग भूलते जा रहे हैं ।



अब आप बताईये कि सही कहा था या ग़लत । आज की इस पोस्‍ट का ख़ैयाम साहब की इस बात से कोई ख़ास लेना-देना नहीं है । आज तो हम अपने मन की
'तरंग' में हैं । लेकिन चूंकि 'तरंग' पर हम संगीत नहीं चढ़ाते इसलिए अपने मन की ये तरंग यहां ठेले दे रहे हैं । जीवन में इत्‍ता सारा संगीत सुन लो कि दिमाग़ में बस 'सारेगामा' ठुंसा पड़ा रहे, तो यही होता है । फिल्‍मी-संगीत सुनो, इल्‍मी  सुनो, पॉप सुनो, रॉक सुनो, रैप सुनो, फिर चलो 'लेटिन अमरीका' और ज़रा वहां की तरंगों में झूम लो । फिर बुंदेलखंड में 'खुरई' पहुंच जाओ और सुनो 'मेरी बऊ हिरानी है ऐ भैया मुझे बता दैयो' । इत्‍ते में जी ना भरे तो 'दमोह' पहुंच जाओ और सुनो 'बैरन हो गयी जुन्‍हैया मैं कैसी करूं' । बुंदेलखंड से जी ऊब गओ हो तो चलो उत्‍तरप्रदेश पहुंच जाएं और गाएं--'पहिने कुरता पर पतलून आधा फागुन आधा जून' । कमी तो है नहीं लोक-संगीत की । राजस्‍थान चलें और गाएं 'डिग्‍गीपुरी के राजा' । अब चलें हरियाणा और सुनें--'तू एक राजा की राजदुलारी मैं सिर्फ लंगोटे वाला सूं । फिर महाराष्‍ट्र राज्‍य में आ जाओ और सुनो--'मी डोलकर दरयाचा राजा' । पंजाब पहुंच जाओ-'बारी बरसी खटन गयासी' पर 'बल्‍ले-बल्‍ले' कर लो ।





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Thursday, August 27, 2009

ज़रा-सी बात पे हर रस्‍म तोड़ आया हूं : मुकेश की याद में जां निसार अख्‍़तर की ग़ज़ल

आज पार्श्‍वगायक मुकेश की पुण्‍यतिथि है । रेडियोवाणी पर हम मुकेश को पहले भी याद करते रहे हैं । आपको याद होगा मुकेश की आवाज़ में रामचरित मानस गान के अंश और बजरंग बाण भी रेडियोवाणी के ख़ज़ाने में मौजूद है । हम सोच रहे थे कि मुकेश को याद करने का कौन सा तरीक़ा हो इस साल । सीधे-रस्‍ते पर चलना हमको आता नहीं है । इसलिए उल्‍टे रस्‍ते पर निकले और एक जगह हमें वो ग़ज़ल मिल गयी जो अभी तक तो संग्रह में नहीं थी, पर जिसकी बेक़रारी थी बहुत ।
एक ज़माने में मुकेश ने ग़ैर-फिल्‍मी गीत और ग़ज़लें बहुत गाईं थीं । और दिलचस्‍प बात ये है कि वो लोकप्रिय भी ख़ूब हुईं । संगीतकार ख़ैयाम ने फिल्‍मों में संगीत देने के साथ साथ एक बड़ा ही महत्‍वपूर्ण काम किया है ग़ैर-फिल्‍मी अलबमों के मामले में । रफ़ी, मुकेश, आशा भोसले तीनों के ग़ैर-फिल्‍मी अलबम ख़ैयाम ने तैयार किये । मीनाकुमारी से उनके ही अशआर गवाए और यूं गवाए जैसे किसी इबादतगाह में नात और हम्‍द गाई जा रही हो । जी हां मुझे मीनाकुमारी के वो अशआर सुनकर बस ऐसा ही लगता है ।           

jaan nisar and sahir     स्‍वीर में जांनिसार अख्‍तर, साहिर लुधियानवी और मोहिंदर सिंह रंधावा
ख़ैर सन 1968 की बात है । मुकेश और ख़ैयाम का एक एल.पी. आया था ग़ज़लों का । उसमें ज्यादातर रचनाएं जांनिसार अख़्तर की थीं । इस अलबम में मुकेश की गायकी की सादगी हमें 'क्‍लीन-बोल्‍ड' कर देती है । सारी ग़ज़लें उम्‍दा हैं । पर ये तो 'उफ़ उफ़ हाय अश अश' करने लायक़ है । आईये पहले इसे पढ़ते हैं ।






ज़रा-सी बात पे हर रस्‍म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्‍या मिज़ाज पाया था ।
मुआफ़ कर ना सकी मेरी जिंदगी मुझको
वो एक लम्‍हा कि मैं तुझसे तंग आया था ।
शगुफ्ता फूल सिमटकर कली बनी जैसे                      *खिलते हुए
कुछ इस कमाल से तूने बदन चुराया था ।
गुज़र गया है कोई, लम्‍हा-ए-शरर की तरह               *बिजली/चिंगारी
अभी तो मैं उसे पहचान भी ना पाया था ।
पता नहीं कि मेरे बाद उनपे क्‍या गुज़री
मैं चंद ख्‍वाब ज़माने में छोड़ आया था ।

अब इसे सुना भी जाए । ख़ैयाम ( गैर-फिल्‍मी ) ग़ज़लों को स्‍वरबद्ध करते हुए शास्‍त्रीयता का बड़ा ख्‍याल रखते हैं । यहां आपको बहुत कम और बिल्‍कुल भारतीय वाद्य सुनाई देंगे बिना किसी बड़े तामझाम के साथ ।
 ghazal: zara si baat pe har rasm tod aaya tha
 shayar: jaan nisar akhtar
 recored in : 1968
 duration: 5:50



मुकेश की ग़ैर-फिल्‍मी ग़ज़लों की सूची
यहां देखिए ।


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Tuesday, August 25, 2009

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते : अहमद फ़राज़ की याद में

आज नामचीन शायर अहमद फ़राज़ की याद का दिन है । पिछले बरस आज ही के दिन फ़राज़ इस दुनिया से रूख़सत हुए थे । फ़राज़ एक बिंदास शायर थे । सारी दुनिया में उनके चाहने वालों का कारवां फैला है । कविता-कोश पर आप फ़राज़ के अशआर यहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं  । अहमद फ़राज़ को गायकों ने ख़ूब गाया है । मेहदी हसन की आवाज़ में उनकी कई मशहूर ग़ज़लें हैं । आज रेडियोवाणी पर हम उनको खिराजे-अकीदत पेश करते हुए ग़ुलाम अली की गाई ये ग़ज़ल सुनवा रहे हैं ।



सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम* थे कि आते-जाते        
रिश्‍ते
इतना आसां था तेरे हिज्र में मरना जानां
फिर भी इक उम्र लगी है जान से जाते-जाते
सिलसिला-ए-ज़ुल्‍मते शब* से तो कहीं बेहतर था         
रात के अंधेरे का सिलसिला
अपने हिस्‍से की कोई शम्‍मां जलाते जाते
उसकी वो जाने, उसे पास-ए-वफा* था के ना था                   
क़द्र
तुम ‘फ़राज़’ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते ।।

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Sunday, August 23, 2009

बारो घी के दीयना : नायाब क़व्‍वाली, जाफ़र हुसैन ख़ां बदायूंनी की आवाज़

रेडियोवाणी पर कल्‍ट-क़व्‍वालियों की श्रृंखला अपने अनियमित तरीक़े से जारी है । इसी सिलसिले में आज हम एक ऐसी क़व्‍वाली लेकर आए हैं जिसे हज़रत पैग़ंबर मोहम्‍मद के जन्‍मदिन के मौक़े पर ख़ासतौर पर गाया जाता है । इसके बारे में सबसे पहले मुझे भाई अनामदास ने बताया था । उसके बाद एक दिन बोधिसत्‍व ने इसका जिक्र किया । इन दोनों का ही कहना है कि बचपन के दिनों में इसे उन्‍होंने बहुत सुना है । 

जाफर हुसैन ख़ां बदायूंनी हिंदुस्‍तान के नामी क़व्‍वाल हैं । और ख़ालिस-क़व्‍वालियों के मामले में उनका दरजा बहुत ऊंचा है । वरना क़व्‍वालियों के नाम पर आजक़ल मुहब्‍बत भरी ग़ज़लें ठेली जा रही हैं । मुझे इस क़व्‍वाली की सबसे बड़ी ख़‍ासियत इसका 'भदेस' होना लगता है । 'बधावा' उत्‍तरप्रदेश में बच्‍चे के पैदा होने के वक्‍त गाया जाता है । शायद ये 'सोहर' का ही एक रूप है । हम 'अज्ञानियों' को कोई 'टॉर्च' दिखाए तो थोड़ा ज्ञान बढ़े । जाफर हुसैन खां बदायूंनी के बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं । उनकी अन्‍य क़व्‍वालियों के रेडियोवाणी पर आने का इंतज़ार कीजिए ।

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Sunday, August 16, 2009

अधरं मधुरं वदनं मधुरं: मधुराष्‍टकम: पंडित जसराज की आवाज़ में

संगीत खोजने की यायावरी में बड़ा आनंद है । इंटरनेट पर खोजें या स्‍वयं घुमक्‍कड़ी करके । अकसर ही ये होता है कि आप खोजने कुछ चलते हैं और हाथ कुछ और लग जाता है । ज़ाहिर है कि जो खोजने चले थे वो धरा-का-धरा रह जाता है और आप इस नये 'हासिल' की ख़ुशी में फूले नहीं समा रहे होते हैं । इस बार भी यही हुआ है । हम कुछ और खोज रहे थे पर कई आवाज़ों में 'मधुराष्‍टकम 'मिल गया । 'मधुराष्‍टकम' की रचना श्री वल्‍लभाचार्य ने की थी । पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में वल्‍लभाचार्य ने कृष्‍ण-भक्ति से परिपूर्ण अपनी रचनाएं
लिखीं । 'मधुराष्‍टकम' उन्‍हीं में से एक है ।

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Saturday, August 15, 2009

लुग़दी और भोंपू देशभक्ति गीतों के बीच तलाश एक ईमानदार तराने की ।

कुछ चीज़ों से हमें खास तरह की एलर्जी है । जैसे कि ज़रूरत से ज्‍यादा 'मेलोड्रामा' से । चाहे वो जीवन में हो या फिर छोटे-बड़े परदे पर । चूंकि पंद्रह अगस्‍त के दिन देशभक्ति की 'खु़राक' ज़ोरों पर होती है तो आपको बता दें कि यहां भी हमें एक चीज़ से ख़ासी 'एलर्जी' है, देशभक्ति के नाम पर मुफ्त के काग़ज़ी भाषण पिलाने वालों से का.का.ओं से ( का.का. हमारे कॉलेज के ज़माने का संक्षिप्तिकरण है, का.का. यानी का़ग़ज़ी कॉमरेड ) इसी तरह से ख़ासी एलर्जी उन तथाकथित देशभक्ति गीतों से है, जो इत्‍ते बजे इत्‍ते बजे, ज़बर्दस्‍ती इत्‍ते सुनवाए गए कि अपना अर्थ, अपनी संवेदनशीलता, अपना मक़सद सब खो चुके हैं । 


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Tuesday, August 11, 2009

कब याद में तेरा साथ नहीं : संगीतकार ख़ैयाम की गाई एकमात्र ग़ज़ल

रेडियोवाणी पर जगजीत कौर का जिक्र पहले भी हुआ है। जगजीत कौर ने ज्‍यादा गाने नहीं गाए हैं, लेकिन इतने-कम गानों के बावजूद उनके चाहने वाले उनके गाने खोज-खोजकर सुनते हैं । जगजीत जी के गानों की फेहरस्ति आप यहां देख सकते हैं । सभी सुधि-श्रोता और पाठक जानते हैं कि जगजीत कौर संगीतकार ख़ैयाम की शरीके-हयात हैं । संगीतकार ख़ैयाम फिल्‍म-जगत के बेहद ज़हीन संगीतकारों में से एक हैं । उन्‍होंने इतने लंबे सफ़र में कभी अपने काम से समझौता नहीं किया ।

पिछले दिनों रेडियोवाणी पर लगे 'सी-बॉक्‍स' पर गुजरात के हमारे सुधि-पाठक और श्रोता khaiyyam2 मलय का संदेसा आया कि क्‍या आपके पास संगीतकार ख़ैयाम का गाया कोई गीत या ग़ज़ल आपके पास है । ज़ाहिर है कि इसका जवाब 'नहीं' में ही था । जिसके बदले में उन्‍होंने मुझे एक लिंक भेजी और पता चला कि HMV ने ख़ैयाम साहब का जो the golden collection नामक अलबम जारी किया है उसमें ये ग़ज़ल शामिल है ।आपके पास है । ज़ाहिर है कि इसका जवाब 'नहीं' में ही था । जिसके जवाब में उन्‍होंने मुझे एक लिंक भेजी और पता चला कि HMV ने ख़ैयाम साहब का जो the golden collection नामक अलबम जारी किया है उसमें ये ग़ज़ल शामिल है । ये सन 1986 में बनी मुज़फ्फ़र अली की फिल्‍म 'अंजुमन' के लिए रिकॉर्ड की गयी थी । पर शायद कभी रिलीज़ नहीं हो सकी । इस फिल्‍म के गाने आप यहां सुन सकते हैं । आपको वो गाना भी सुनाई देगा जिसे भूपिंदर सिंग और शबाना आज़मी ने गाया है । यहां ये जिक्र करते चलें कि ख़ैयाम ने अपने शुरूआती दौर में कई फिल्‍मी गीत गाए हैं।

( ऊपर की तस्‍वीर में ख़ैयाम जगजीत कौर और बीचोंबीच हैं साहिर लुधियानवी...कह नहीं सकते कि 'कभी-कभी' की रिकॉर्डिंग की तस्‍वीर है या फिर 'शगुन' के गानों की रिकॉर्डिंग के दौरान ली गयी तस्‍वीर )

रेडियोवाणी पर जल्‍दी ही आपको ये सभी गाने सुनवाए जा सकते हैं । बहरहाल....ख़ैयाम
photo12 साहब की आवाज़ सुनकर सुखद-आश्‍चर्य हुआ । और 'मधुशाला' की मन्‍नाडे की गाई वो पंक्ति याद आ गयी...'और और की रटन लगाता जाता हर पीने वाला' । अशआर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के हैं । ये ऐसी ग़ज़ल है जो आपके ज़ेहन में बस जायेगी । ( तस्‍वीर में ख़ैयाम और जगजीत कौर )

यहां सुनिए। 








कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
सद-शुक्र* के अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं   *
सौ बार शुक्र
मैदाने-वफ़ा दरबार नहीं, यां नामो-नसब* की पूछ कहां     *नाम और वंश
आशिक़ तो किसी का नाम नहीं, कुछ इश्‍क़ किसी की ज़ात नहीं
जिस धज से कोई मक्‍तल* में गया, वो शान सलामत रहती है  
*फांसी या बलि देने की जगह
ये जान तो आनी-जानी है, इस जां की तो कोई बात नहीं
गर बाज़ी इश्‍क़ की बाज़ी है, जो चाहे लगा दो डर कैसा

गर जीत गए तो क्‍या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

इस ग़ज़ल से जुडी इंटरनेटी खोजबीन में कुछ और चीज़ें मिली हैं । ये एक वीडियो प्रेजेन्‍टेशन है जिसे किसी ने इस ग़ज़ल को यू-ट्यूब पर उपलब्‍ध करवाने के लिए बनाया है ।




और ये है इसी ग़ज़ल का एक और संस्‍करण जिसे उस्‍ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ां साहब ने गाया है । ये भी यूट्यूब से कबाड़ा गया है ।


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Sunday, August 9, 2009

अठन्‍नी-सी ये जिंदगी : फिर रविवार-फिर गुलज़ार

 

 

कुछ गाने कैसे अनायास याद दिला दिए जाते हैं । 'फेसबुक' पर पवन झा ने आज लिखकर टांग दिया 'कभी चांद की तरह टपकी, कभी राह में पड़ी पाई, अठन्‍नी-सी ये जिंदगी' । और ये गाना अचानक हमारे ज़ेहन में ताज़ा हो गया । जहां तक याद आता है, मुंबई में हमारे शुरूआती साल ही थे जब ये फिल्‍म आई थी । और वो कैसेट्स का ही ज़माना था । ज़ाहिर है कि ये कैसेट हमने छोड़ा नहीं । अब भी संग्रह में है ।



गुलज़ार अपने 'एक्‍सप्रेशन' में कितने कमाल हैं यहां । ज़रा-सा गाना है तीन मिनिट बारह1223037839 सेकेन्‍ड का । लेकिन दिलो-दिमाग़ पर छा जाता है । ये वही टीम है 'कमीने' वाली । यानी गुलज़ार और विशाल भारद्वाज की टीम । विशाल अपनी इस कंपोज़ीशन में उसी तरह 'एक्‍सपेरीमेन्‍टल' हैं जैसे वो हमेशा होते हैं । हरिहरन पर तो आंख मूंदकर भरोसा किया जा सकता है कि वो जब भी गायेंगे और जो भी गायेंगे अच्‍छा ही गायेंगे । तो आईये अपनी जिंदगी को 'अठन्‍नी-सी जिंदगी' कहें । और इस गाने से होकर गुज़रें ।


song-aththanni si zindagi
singer-hariharan
lyrics:gulzar
music-vishal
film-jahan tum le chalo
duration-3-12




कभी चांद की तरह टपकी कभी राह में पडी पाई
अठन्नी सी ज़िन्दगी, ये ज़िन्दगी
कभी छींक की तरह खनकी कभी जेब से निकल आई
अठन्नी-सी ज़िन्दगी, ये ज़िन्दगी
कभी चेहरे पे जड़ी देखी..
कभी मोड़ पे पडी देखी
शीशे के मर्तबानो मे दुकान पे पड़ी देखी
चौकन्नी-सी ज़िन्दगी, ये ज़िन्दगी
तमगे़ लगाके मिलती है मासूमियत सी खिलती है
कभी फूल हाथ में लेकर शाख़ों पे बैठी मिलती है
अठन्नी-सी ज़िन्दगी, ये ज़िन्दगी


ये इस गाने का वीडियो तो नहीं है पर एक प्रेजेन्‍टेशन ज़रूर है ।

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Saturday, August 8, 2009

तुम्‍हें याद होगा कभी हम मिले थे : फिल्‍म सट्टा बाज़ार : श्रद्धांजलि गुलशन बावरा

 

 

रेडियोवाणी पर गुलशन बावरा का जिक्र पहली बार नहीं हो रहा है । हम उनके पक्‍के शैदाईयों में से रहे हैं । चाहे पंचम के तूफानी युवा गीत हों या फिर पुराने ज़माने वाले मेलोडीयस गाने.....गुलशन की कलम ने हमें गुनगुनाने के कई बहाने दिए । दिलचस्‍प बात ये है कि हम 'खुल्‍लम खुल्‍ला प्‍यार करेंगे' जैसे गाने पर भी वैसे ही झूमते हैं जैसे गुलशन बावरा के लिखे 'बीते हुए दिन कुछ ऐसे ही हैं' पर । हम मानते हैं कि संगीत का कोई एक युग नहीं
होता । ये तो एक 'महा-धारा' है जिसमें असंख्‍य सहायक धाराएं मिल रही हैं । इसलिए हम एक साथ कई युगों और कई शैलियों वाले गीतों के प्रशंसक हो सकते हैं ।



गुलशन बावरा से हमारी कई बार की मुलाक़ात थी । और उनकी किस्‍सागोई के कायल रहे हैं हम, उनकी सादगी के भी । गुलशन वही गीतकार हैं जो बंबई रेलवे के माल-गोदाम में क्‍लर्की करते हुए पंजाब से आने वाले गेहूं के हज़ारों बोरों को उतरते देख अनायास अपने बही-खाते के किसी कोने में एक पंक्ति दर्ज कर ली 'मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती' । बही-खाते से निकली ये पंक्ति जब संघर्ष के दिनों के साथी मनोज कुमार के सामने उजागर हुई तो 'उपकार' के ज़रिए वो हर पीढ़ी की ज़बान पर दर्ज हो गई । इस गाने को दरअसल देशभक्ति के भोंपुओं ने इत्‍ता पीटा है कि इसका 'वेल्‍यू' कम हो गई है । पर इसकी एक एक पंक्ति दिल को छू लेने वाली है । अफ़सोस यही है कि 'देश की धरती...ई....ई...ई...' की तान पर महेंद्र कपूर और मनोज कुमार को जितना क्रेडिट मिलता है उतना इस 'बावरे' गीतकार को नहीं मिलता ।

गुलशन बावरा ने कई बेमिसाल गीत लिखे हैं । ये वो गीत हैं जो एक तरफ़ इंसानी-रिश्‍तों के _ खोखलेपन का बयान भी करते हैं तो दूसरी तरफ़ रिश्‍तों की गर्माहट और आत्‍मीयता पर पक्‍का भरोसा भी ज़ाहिर करते हैं । गुलशन के कुछ गीत तो जैसे मुहावरा बन गए हैं । ‘हर ख़ुशी हो वहां तू जहां भी रहे, जिंदगी हो वहां तू जहां भी रहे’—विडंबना देखिए कि बेवफ़ाई की सिचुएशन पर लिखे इस गीत के जुमले को आम-जनता एक आर्शीवाद के रूप में ‘इस्‍तेमाल’ करती है ।

राहुल देव बर्मन और गुलशन बावरा का याराना बड़ा मशहूर रहा है । गुलशन राहुल देव बर्मन से जुड़ी कई घटनाएं बताते हैं । बल्कि पिछले साल तो उन्‍होंने राहुल देव बर्मन की याद में एक अलबम भी जारी किया था, जिसका नाम है—‘अनटोल्‍ड स्‍टोरीज़’ । इसमें उन्‍होंने कुछ गानों के बनने की कहानी बताई है ।

ऐसी ही एक प्रसिद्ध घटना है फिल्‍म ‘क़स्‍मे-वादे’ के शीर्षक गीत की, पंचम ने जब इसकी ट्यून बनाई तो उसे एक कैसेट पर रिकॉर्ड करके दे दिया । बावरा जब घर पहुंचे तो उन्‍होंने ये कैसेट सुना और दंग रह गए । कैसेट में आर.डी. ने बस इतना गाया था—‘चाबू चाबू चिया चिया चाबू चाबू चिया’ । आखिरकार परेशान होकर गुलशन ने पंचम को फोन करके कहा कि भाई ये क्‍या है, पर्दे पर अमिताभ और राखी गाना गायेंगे । कोई अच्‍छा मीटर तो दे । आखिरकार पंचम ने कहा मैं तेरे घर आता हूं । वो गुलशन के घर आए और उनकी पत्‍नी अंजू से गुनगुनाते हुए बोले—‘सरसों का साग पकाना अंजू, मक्‍के की रोटी खिलाना अंजू, पहले तू मेरा एक पैग बना तू, ट्यून यही है गुल्‍लू समझ गया तू’ । गुलशन बावरा ने इन डमी-बोलों पर लिखा—‘क़स्‍मे वादे निभायेंगे हम, मिलते रहेंगे जनम जनम’ ।

पंचम और गुलशन की जोड़ी ने कई दिलचस्‍प गाने दिये हैं—आती रहेंगी बहारें, दिलबर मेरे कब तक मुझे, खुल्‍लम खुल्‍ला प्‍यार करेंगे, हमने तुमको देखा, बचके रहना रे बाबा, तू मैके मत जइयो, तुमको मेरे दिल ने, कितने भी तू कर ले सितम, शीशे के घरों में देखो तो पत्‍थर दिल वाले रहते हैं जैसे बेमिसाल गाने दिये हैं । ये पंचम का सुनहरा दौर था और आज के एफ एम चैनल इन्‍हीं गानों के ज़रिए युवा श्रोताओं को लुभाने का प्रयास करते
हैं ।

रेडियोवाणी पर हम गुलशन बावरा का एक ऐसा गीत सुना रहे हैं जिसके लिए वो जाने नहीं जाते । ये उनके नाम से मशहूर गीत नहीं है । सन 1959 में आई थी फिल्‍म 'सट्टा बाजा़र' । संगीतकार थे कल्‍याण जी वीर जी शाह । यानी अकेले कल्‍याण जी । ज़रा गुलशन के लिखे इस गीत से होकर गुज़रिए फिर कहिए कैसा लगा आपको ।



तुम्‍हें याद होगा कभी हम मिले थे satta_bazar
मुहब्‍बत की राहों में संग-संग चले थे
भुला दो मुहब्‍बत में हम-तुम मिले थे  
सपना ही समझो कि मिल के चले थे ।

डूबा हूं ग़म की गहराईयों में
सहारा है यादों का तन्‍हाईयों में 
कहीं और दिल की दुनिया बसा लो
क़सम है तुम्‍हें वो क़सम तोड़ डालो 
तुम्‍हें याद होगा ।। 
अगर जिंदगी हो अपने ही बस में
तुम्‍हारी क़सम ना  भूलें वो क़स्‍में
तुम्‍हें याद होगा ।।



ये गाना यहां पर देखा जा सकता है ।

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Friday, August 7, 2009

प्‍यासी हिरणी बन बन धाए : लता, कैफ़ी, हेमंत ।

रेडियोवाणी पर अपनी पिछली पोस्‍ट में हमने आपको बताया था कि संगीत के हमारे शौक़ ने कैसे हमें फंसा दिया था । लेकिन दिलचस्‍प बात ये है कि इस उलझन, इस पहेली को हल करने के लिए कुछ संगीत-प्रेमियों ने हाथ बढ़ाया । हालांकि कोशिश तो सब ने की । पर कामयाबी कुछ लोगों को हासिल हुई ।

 



दरअसल हमारे मित्र 'डाकसाब' समय समय पर कुछ संगीत फाइलें भेजते रहते हैं । अब देखिए ना 'रेडियोवाणी'  पर किशोर दा वाली बमचिक पोस्‍ट ने उस दिन हमें पहेली फाइलें भेजीं । और पूछा कि इस गाने को पहचानिए । अब धुन बड़ी दिलकश लगी पर गाने की do_dil पहचान हो ही नहीं रही थी । तो हमने 'फेसबुक' पर भी खटखटा दिया । नरेश खट्टर ने दिल्‍ली से संदेश भेजा कि पहेली हल को गयी है । बंगाल के संगीत निर्देशक, बंगाल के अभिनेता । पहचान लीजिए । काम नहीं बना तो हमने खटखटाया कि मेल कीजिए । ये गाना नरेश खट्टर के भेजे लिंक से ही 'यू-ट्यूब के सहारे वीडियो पर टांगा जा रहा है । रेडियोवाणी पर चिदंबर काकतकर ने और उनके भी बाद दिलीप कवठेकर ने इस पहेली को हल कर दिया । जिन्‍होंने हल किया और जिन्‍होंने कोशिश की, और जिन्‍होंने हाथ खड़े कर दिये...सबका हृदय से शुक्रिया ।

ऑडियो फाइल खुदै 'डाकसाब' ने भेज दी । सुनिएगा और सराहिएगा इस गाने को । इस गाने में लता जी की गूंजती हुई आवाज़ और हेमंत कुमार के रचे गाने के सारे इंटरल्‍यूड एक सम्‍मोहन और रहस्‍य रचते हैं । चूंकि फिल्‍म हमने देखी नहीं इसलिए पृष्‍ठभूमि पता नहीं है । पता नहीं क्‍यों कुछ 'हॉन्टिंग मेलडीज़' वाला मामला लग रहा है ये । वैसे आपको बता दें कि इस फिल्‍म में कुछ और शानदार गाने भी हैं । जैसे 'सारा मोरा कजरा छुड़ाया तूने' ( रफी, आरती मुखर्जी ) इस गाने में 'ओ सजनी सुख रजनी' जैसा दिव्‍य जुमला आता है । या फिर रफी साहब का गाया गाना 'तेरा हुस्‍न रहे मेरा इश्‍क़ रहे' ( जो अपनी शायरी में बेजोड़ है )

song- pyasi hirni ban ban dhaye
singer-lata
lyrics-kaifi azmi
music- hemant kumar
duration: 6 min.

 




कहां है तू कहां है तू ।
आ जाओ ऐ मेरे सपनों के राजा
प्‍यासी हिरणी बन-बन धाए कोई शिकारी आए रे
चोरी चोरी फंदा डाले बांह पकड़ ले जाए रे ।।
नई नई कली खिली, चुन ले ना कोई
ऐसी-वैसी बातें दिल की सुन ले ना कोई
नन्‍हा-सा जिया मोरा जाने क्‍या गाए रे
चोरी चोरी फंदा डाले बांह पकड़ ले जाए रे ।।
चलते चलते रूक जाऊं मैं, चल नहीं पाऊं
पल-पल भड़के तन में अग्नि, कैसे बुझाऊं
लगी ना बुझे कहीं जी को जलाए रे
चोरी-चोरी फंदा डाले बांह पकड़ ले जाए रे ।।
इक तो मैं हूं भोली-भाली दूजे अकेली
कैसे बूझी जाए मोसे बन की पहेली
चली है हवा नई, जिया घबराए रे
चोरी चोरी फंदा डाले बांह पकड़ ले जाए रे ।।


लीजिए इस गाने को देख भी डालिए ।

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Wednesday, August 5, 2009

संगीत के शौक़ ने फंसा दिया, आप भी फंसिए और इन धुनों को पहचानिए

हमारा बचपन भी वैसा ही गुज़रा है जैसा छोटे शहर के किसी आम मध्‍यवर्गीय परिवार के लड़कों का बीतता है । गाडियों के एक्‍सल से निकले मेटल के पहिये को तार से बने 'ड्राइवर' से चलाते हुए दौडते थे और लगता था कि धरती के उस पार तक चले जायेंगे । धूप में 'पिट्ठू' 'गुल्‍ली-डंडा' या पतंगबाज़ी करते 'काले-ढुस' होकर लौटते थे और मां-पापा की डांट सुनते थे । कॉमिक्‍स की अदला-बदली करते थे और सपनों में खोए रहते थे । माचिस की डिब्बियों के रैपर जमा करते थे, पुराने सिक्‍के और डाकटिकट जमा करते थे और सोचते थे कि दुनिया की सबसे बड़ी दौलत है ये ।

इस दौरान एक चीज़ थी जो यहां-वहां-जहां-तहां 'संतोसी-माता' की तरह 'विराजमान' रहती थी और वो था संगीत और संगीत के नाम पर मुहल्‍लों में होने वाला कानफोड़े शोर ( शोर नहीं बाबा 'सोर'....'सोर' ) कभी 'गनेस जी' के 'गनेसोत्‍सव' के नाम पर तो कभी 'नवरात्र' के नाम पर, कभी किसी मज़ार के 'उर्स' के नाम पर तो कभी किसी के घर का 'चिराग़' पैदा होने के नाम पर, कभी शादी के नाम पर तो कभी 'हैपी-बड्डे' के नाम पर । अब हम क्‍या कहें कल हमारे मित्र 'डाकसाब' की एक मेल आई है : उन्‍होंने जैसे हमारे मन के किसी कोने में घुसकर हमारी भावनाओं पर डाका डालके खुद लिख दिया । समझ लीजिएगा कि शब्‍द उनके हैं और भाव हमारे हैं ( जे हमारे साथ अकसर क्‍यों होता है जी )

बचपन के सुने ज़्यादातर फ़िल्मी गाने,जो हमारे मन में बहुत गहरे अन्दर तक रच-बस गये हैं,वे नहीं हैं

जो हमने रेडियो पर सुने या भोंपूनुमा ग्रामोफ़ोन पर; बल्कि वे हैं, जो हमने लाउडस्पीकर पर सुने।

इलाहाबाद में पैदा हुए और पले-बढ़े लोग इस लाउडस्पीकर संस्कृति से अच्छी तरह परिचित हैं । गली-मोहल्लों,चौराहों की सड़कों पर बिजली के खम्भों या मकानों-दुकानों के छज्जों से बँधे ये बड़े-बड़े चोंगेनुमा प्राणी ( "यन्त्र"कहना अपमान होगा इनका ) आपके आस- पास या कहीं दूर आठों पहर संगीत की स्वर-लहरियाँ छेड़े रहते थे। बहाना-ए-मौका कुछ भी हो सकता था-होली,दीवाली,दशहरा,राखी जैसे त्यौहारों से लेकर  सार्वजनिक समारोहों या शादी-बरात जैसे नितान्त निजी आयोजनों तक कुछ भी । ज़्यादातर तो इनमें से कुछ भी नहीं होता था । बस यूँ ही बजते रहते थे;पता नहीं क्यों । तब घर पर डाँट पड़्ने के बावज़ूद दिन भर छत पर पतंग उड़ाते या गली-मैदानों में कंचे खेलते ये गाने बरबस कानों में पड़ते रहते थे,बल्कि अक्सर कोफ़्त भी पैदा करते थे, ख़ास तौर पर परीक्षाओं के दिनों में।

तब क्या पता था कि आगे चलकर ज़िन्दगी का आधा पड़ाव पार कर लेने के बाद इसी शहर में एक दिन  यही गाने सुनने को तरस जाएँगे हम और पागलों की तरह इनकी याद में तड़पते हुए इन्हें कहीं से भी दोबारा हासिल करने और सुनने के लिये क्या-क्या नहीं करेंगे!

बैकग्राउण्ड में कहीं दूर क्षितिज या किसी वादी से आती आवाज़ जैसे ये गाने तब एक अजीब सा सम्मोहन पैदा करते थे । तीन-चार बरस की उस उम्र में इनमें से कईयों के तो बोल भी ठीक से समझ नहीं आते थे। अपनी बाल-बुद्धि से ही शब्द गढ़ कर उन धुनों को ज़ुमलों का ज़ामा पहनाते और गुनगुनाते थे हम। अगर शब्द समझ आये भी, तो उनमें से कईयों के पीछे छिपे असली भावों या जीवन-दर्शन की समझ कहाँ थी तब ?

ऐसा ही एक गाना तब अक्सर दूर कहीं लाउडस्पीकर पर ख़ूब बजा करता था। कुछ तो दूरी और कुछ लाउड स्पीकरों की फटी हुई साउण्ड क्वालिटी की वज़ह से बोल तो साफ़ समझ नहीं आते थे,पर धुन बड़ी सम्मोहक थी । उन्हीं दिनों  एक दिन (शायद ज़िन्दगी में पहली बार ) पुलिस को एक आदमी को सड़क पर हथकड़ी लगाकर ले जाते हुए देखा (पीछे-पीछे तमाशबीनों की भीड़ के साथ)। तब इस गाने को सुनकर मन में हमेशा यही सीन घूमता था।

उसके बाद फिर पिछले कोई चालीस सालों से नहीं सुना यह गाना । "विविध-भारती" के पास शायद है भी नहीं । होता तो इतने सालों में  कभी न कभी, कहीं न कहीं, बजता ज़रूर। बाकी सब जगह ढूँढ-ढाँढ कर भी थक गये ।

यू-ट्यूब पर भी नहीं है। बस किसी तरह फ़िल्म का नाम जुगाड़ लिया। फिर वही अपनी पुरानी स्पेशल एप्रोच - फ़िल्म की VCD/DVD जुगाड़ो,गाना ख़ुद-ब-ख़ुद मिलेगा ।

पुराने लोग कह ही गये हैं - ढूँढो तो भगवान भी मिलता है ( वैसे कहते तो हम भी हैं; शायद धीरे-धीरे पुराने पड़ने का लक्षण है ),तो आख़िर VCD क्या चीज़ है ? जाकर हमें भी मिली और इस तरह लगे हाथों यह फ़िल्म देखने की हसरत भी पूरी हो गयी।

तो यह रही साथ में अटैच्ड इस गाने के शुरुआती संगीत की धुन । दूसरी फ़ाइल में है एक अन्तरे की धुन( ख़ास बात यह है कि  प्रचलित प्रथा के विपरीत हर अन्तरे के बीच की धुन एकदम वही नहीं है,बल्कि थोड़ी अलग है)

वैसे आप जैसे (संगीत के) नशेड़ियों के लिये इस पहेली में ज़्यादा दम तो नहीं लगता, फिर भी बताइये कि यह गाना कौन-सा है ? 


इसके बाद उन्‍होंने दो एम.पी3 फाइलें जोड़ दी हैं । एक तो बचपन के उन 'हाय हाय' और 'अश अश' वाले दिनों की याद दिला दी । ऊपर से जे पहेली । जुलम करे । दिमाग़ पर ज़ोर डाला पर बात बन नहीं रही है । मदद कीजिए । पहचानिए इन गानों को । अगर जे पहेली आप पर भी 'जुलम' कर रही है तो 'मुंडी झुकाकर' हार मान लीजिए । हम भी मान जाएंगे । गंगा मैया की कसम, नरबदा मैया की कसम हमें इस पहेली का जवाब नहीं मालूम । जिन्‍हें मालूम है बो तो चिढ़ा रहे हैं ।

पहली फाइल मुखड़े की धुन



दूसरी फाइल अंतरे की धुन

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Tuesday, August 4, 2009

'ओ हंसिनी' 'गोरी ओ गोरी' और 'फटाफट'--बमचिक किशोर दा की जै हो


किशोर कुमार के अनगिनत किस्‍से सुने हैं उनके परिवार वालों और मित्रों से । कई बरस पहले 'यूनियन पार्क' चेम्‍बूर में दाद‍ामुनि अशोक कुमार से मिलने का मौक़ा मिला था । लगभग एक पूरा दिन उनके साथ बिताया । जो किस्‍से दादामुनि ने सुनाए उनमें किशोर दा के भी किस्‍से थे । उन्‍होंने बताया था कि बचपन में किशोर कुमार बड़े कर्कश आवाज़ वाले थे । एक दिन उनकी मां 'गौरी' हंसिये से सब्‍ज़ी काट रही थीं कि तभी किशोर बाहर से शरारत करते हुए आए और उनका पैर हंसिए पर पड़ गया । तीन दिन तक किशोर रोते रहे । उसके बाद उनकी आवाज़ खुल भी गई और सुरीली भी बन गयी । 

एक्टिंग वो करना नहीं चाहते थे ।  ज़बर्दस्‍ती एक्‍टर बनाए गए तो सबको तंग किया ।

इसी तरह जाने-माने निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने बताया था कि अपनी पहली ही निर्देशित फिल्‍म ‘मुसाफिर’ के दौरान किशोर कुमार ने उन्‍हें बहुत तंग किया था । ऋषि दा पहली बार निर्देशन कर रहे थे, नये निर्देशक में एक तरह की घबराहट होती ही है । लेकिन किशोर थे कि कभी स्क्रिप्‍ट का पालन नहीं करते थे । हमेशा इम्‍प्रोवाइज़ कर लेते थे । अगर ज़ोर देकर कहा जाता कि ऐसा ही करो । तो इतनी बुरी एक्टिंग करते थे कि आप सिर पकड़कर बैठ जाएं या फिर हाथ जोड़कर कहें कि महाराज जैसा मन में आए करो ।

‘मुसाफिर’ की शूटिंग का आखिरी दिन था । किशोर का सेट पर इंतज़ार किया जा रहा था । पर किशोर थे कि आए ही नहीं । हार कर ऋषिकेश मुखर्जी ने उनके घर पर फ़ोन किया । किशोर कुमार की पत्‍नी ने फ़ोन उठाया और कहा कि आप खुद आकर देख लीजिये यहां क्‍या हाल हुआ है । ऋषि दा भागे भागे पहुंचे कि माजरा क्‍या है । पहुंचे तो किशोर दरवाज़ा बंद करके भीतर से चिल्‍ला रहे थे, मत आईये, मत आईये । ख़ैर किसी तरह किशोर को सामने बुलवाया गया—तो पता चला कि उन्‍होंने अपना सिर मुंडवा लिया था । उन दिनों वो मिस मेरी फिल्‍म की शूटिंग कर रहे थे । निर्माता-निर्देशक से झगड़ा हुआ तो विरोध स्‍वरूप सिर मुंडवा लिया और कहा लो अब कर लो शूटिंग । इन लड़ाई में फंस गए ऋषि दा ने विग तैयार करवाया और अपनी फिल्‍म पूरी की ।

ऐसे किशोर दा भीतर से बेहद संजीदा थे । अपने आखिरी दिनों में वो खंडवा लौटना चाहते
थे । पर समय ने उन्‍हें इसकी इजाज़त नहीं थीं । आईये किशोर दा के दो अलबेले गाने सुनें और एक अलबेला गाना देखें ।

इस पहले गीत का इंट्रो म्‍यूजिक तकरीबन पौने दो मिनिट का है । जिसमें सेक्‍सोफोन की तरंगें भी शामिल हैं ।
song: o hansini
film:zehreela insaan
lyrics:majrooh sultanpuri
music: R D burman
duration: 05:06 




ओ हंसिनी मेरी हंसिनी
कहां उड़ चली, मेरे अरमानों के पंख लगाके
आजा मेरी सांसों में महक रहा रे तेरा गजरा
आजा मेरी रातों में लहक रहा रे तेरा कजरा
ओ हंसिनी ।।
देर से लहरों में कमल संभाले हुए मन का
जीवन ताल में भटक रहा रे तेरा हंसा




ओ हंसिनी ।।

इस दूसरे गाने में किशोर दा ने पुरूष और महिला दोनों स्‍वरों में गाया है । ऐसे दूसरे गाने तो आपको पता ही हैं ना । 'हाफ टिकिट' का 'आके सीधी लगी' और 'लड़का-लड़की' का 'सुणिए सुणिए' ।
song: gori o gori
film: pyar ki kahani
lyrics:anand bakshi
music: R D Burman
duradion: 3:14



इसके बाद ये गाना देखिए । फिल्‍म है 'मैं सुंदर हूं' । इस गाने में आपको शंकर-जयकिशन की जोड़ी के शंकर, गीतकार आनंद बख्‍शी, क्‍लेरिनेट बजाते मनोहारी सिंह, रिकॉर्डिस्‍ट मीनू कात्रक, शंकर जयकिशन के सहायक (जिनके नामों से उनके चेहरे मिलाने की जुगत जारी है
) नज़र आएंगे । किशोर दा का जन्‍मदिन सबको मुबारक ।


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Sunday, August 2, 2009

रफ़ी साहब का एक अनमोल प्राइवेट गीत- मैंने सोचा था अगर मौत से पहले-पहले

मैं 'रेडियोवाणी' पर हमेशा कहता हूं कि महान कलाकारों की याद के लिए हम तारीख़ों के मोहताज नहीं होते । उनकी याद तो किसी भी वक्‍त और किसी भी बहाने से आ सकती
है । पिछले तकरीबन एक महीने से रफ़ी साहब के गाने सुनने का मन करता रहा है और मैंने कुछ ऐसे गीत ख़ासतौर पर खोजकर सुने हैं जो कम सुने जाते हैं । अब मन कर रहा है कि इस envialble फेहरिस्‍त को आपको भी दिखाया जाए ।

शायद इसकी वजह ये है कि मुझे लगता है, रफ़ी साहब की याद के बहाने ज़माना वही 'मनMohammed_Rafi तड़पत हरि दरशन', 'ओ दुनिया के रखवाले' और 'आज पुरानी राहों से कोई मुझे आवाज़ ना दे' ही सुनकर तसल्‍ली करता रहा है । जबकि
रफ़ी का संगीत-संसार इतना विस्‍तृत है कि उसमें 'सल्‍ले-अला ज़ुल्‍फ़ काली-काली' जैसी नातें और हम्‍द शामिल हैं तो दूसरी तरफ़
'पैंया पड़ूं तोरे श्‍याम बिरज में लौट चलो' जैसी मार्मिक भक्ति-रचनाएं भी हैं । रफ़ी एक तरफ मेहबूबा को रिझा रहे किसी 'थर्ड ग्रेड' फिल्‍म के हीरो को भी आवाज़ देते नज़र आते हैं तो दूसरी तरफ़ हेलीकॉप्‍टर के होंठों पर सजा लटके शम्‍मी कपूर को 'आसमान से आया फ़रिश्‍ता' जैसा गीत भी बन जाते हैं । इसलिए हमें रफ़ी साहब को हर बार एक नए रंग में सुनना चाहिए । चलिए मेरी फेहरस्ति से आपको गुज़ारा जाए । ये वो गाने हैं जिनके साथ जिंदगी आराम से गुज़ारी जा सकती है ।

ख़ामोश ज़माना है-हीर
क्‍या रात सुहानी है--अलिफ लैला
ले गई एक हसीना दिल मेरा-बेनज़ीर
मुहब्‍बत की बस इतनी दास्‍तां है-बारादरी
तेरी तस्‍वीर भी-किनारे किनारे
तुम बिन सजन बरसे नयन-गबन
दिल मेरा तुम्‍हारी अदाएं ले गयीं-गौरी
मेरी मेहबूब मेरे साथ ही चलना है तुझे-ग्‍यारह हज़ार लड़कियां
माना मेरे हसीं सनम तू रश्‍क-ए-माहताब है-the adventure of robinhood
ये दिन नहीं है कि जिसके सहारे जीते हैं-आबरू
इक झूठ है जिसका दुनिया ने रखा है मुहब्‍बत नाम-जादू
जाता हूं मैं मुझे अब ना बुलाना-दादी मां

ये फेहरिस्‍त शायद envialble है....पता नहीं क्‍यों मुझे अंग्रेज़ी के इस शब्‍द का बेहतर हिंदी विकल्‍प नहीं मिलता । हां 'रश्‍क करना' उर्दू का बेहतरीन जुमला है । फिलहाल आपको इतना ही बताना है कि ये सारे गाने वैसे तो आपके आसपास आसानी से उपलब्‍ध हैं पर आज और अगले रविवार को रात दस बजे प्रसारित होने वाले 'छायागीत' में मैंने इन्‍हें विशेष रूप से शामिल किया है ।

बहरहाल...अब आज की पेशकश पर आया जाए । न्‍याय शर्मा फिल्‍म-जगत के कम चर्चित गीतकार रहे हैं । उनके बारे में ज्‍यादा कुछ पता नहीं है । उनके लिखे कुछ गीतों की सूची यहां है । समय-समय पर यहां भी उनके गीत आपको सुनवाए जाते रहेंगे । वैसे न्‍याय शर्मा की सबसे चर्चित फिल्‍म रही है 'किनारे किनारे' और इस फिल्‍म के गानों की सूची ये रही । इस फिल्‍म में मुकेश का चर्चित गीत था-'जब ग़म-ए-इश्‍क़ सताता है तो हंस लेता हूं' और तलत महमूद का भी....'देख ली तेरी ख़ुदाई अब मेरा दिल भर गया' । इन्‍हीं न्‍याय शर्मा का एक बेहद पेचीदा और मार्मिक प्राइवेट-गीत रफी साहब ने गाया है । इस गाने को मैंने इसके बोलों और जज़्बात के लिए पेचीदा कहा है । हो सकता है कि पहली बार में ये गीत अपने मायने आप तक ना पहुंचा सके....पर इसे सुनने में आपको आनंद आए । लेकिन बार-बार सुनने पर ये गीत ज़ेहन पर एकदम छप ही जाता है ।

ये गाना सितार की तान से शुरू होता है, फिर रफ़ी साहब की गाढ़ी और शीरीं आवाज़ पर सवार होकर इस गाने के बोल ज़ेहन में उतरते जाते हैं । इसके बोल और बनावट देखकर ही आप समझ सकते हैं कि इसे धुन में पिरोना कितना मुश्किल काम रहा होगा । बाबुल ने इसकी धुन बनाई है । आईये ये गाना सुनें ( और डाउनलोड करके दूसरों को सुनवाएं )



 

मैंने सोचा था अगर मौत-से पहले-पहले
मैंने सोचा था अगर दुनिया के वीरानों में
मैंने सोचा था अगर हस्‍ती की शमशानों में


किसी इंसान को बस एक भी इंसान की 'गर
सच्‍ची बेलाग मोहब्‍बत कहीं हो जाए नसीब
वो ही साहिल जो बहुत दूर नज़र आता है
खु़द-ब-ख़ुद खिंचता चला आता है कश्‍ती के क़रीब

मैंने सोचा था यूं ही दिल के कंवल खिलते हैं
मैंने सोचा था  यूं ही सब्रो-सुकूं मिलते हैं
मैंने सोचा था यूं ही ज़ख्‍़मे-जिगर सिलते हैं

लेकिन......
सोचने ही से मुरादें तो नहीं मिल जातीं 
ऐसा होता तो हरेक दिल की तमन्‍ना खिलती
कोशिशें लाख सही बात नहीं बनती है
ऐसा होता तो हरेक राही को मंजिल मिलती
मैंने सोचा था कि इंसान की किस्‍मत अकसर



फूट जाती है बिखरती है संभल जाती है
अप्‍सरा चांद की बदली से निकल जाती है
पर मेरे वक्‍त की गर्दिश का तो कुछ अंत नहीं
खुश्‍क धरती भी तो मंझधार बनी जाती है
क्‍या मुक़द्दर से शिकायत क्‍या ज़माने से गिला
ख़ुद मेरी सांस ही तलवार बनी जाती है

हाय......फिर भी सोचता हूं.....
रात की स्‍याही में तारों के दिये जलते हैं
ख़ून जब रोता है दिल, गीत तभी जलते हैं
जिनको जीना है वो मरने से नहीं डरते हैं
इसलिए....
मेरा प्‍याला है जो ख़ाली तो ख़ाली ही सही
मुझको होठों से लगाने दो, यूं ही पीने दो
जिंदगी मेरी हरेक मोड़ पे नाकाम सही
फिर भी उम्‍मीदों को पल भर के लिए जीनो दो ।

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Saturday, August 1, 2009

यूं तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे : मीनाकुमारी के अशआर उन्‍हीं की आवाज़ में ।

मैंने अभी कुछ दिन पहले की अपनी पोस्‍ट में कहा था कि गीता रॉय की याद कभी भी आ सकती है, वही वाक्‍य मीना आपा के लिए दोहराना चाहता हूं । मीना कुमारी की याद कभी भी आ सकती है । उनके लिए हम तारीख़ों के मोहताज नहीं । ख़ूबसूरत लोग अपने साथ अपनी पीड़ा लेकर भी आते हैं । दुनिया की लगभग सभी ख़ूबसूरत नायिकाओं और इतर महिलाओं को अपने हिस्‍से के संत्रास सहने पड़े और मीना आपा भी उनमें से एक हैं । आज अगर वो होतीं तो सतत्‍तर साल की होतीं और चांदी के रंग वाले बालों में उनका नूर भरा चेहरा कुछ और ही कहानी कहता । पर मीना आपा की जिंदगी बड़ी लेकिन संक्षिप्त होनी
थी । इसीलिए तो महज़ चालीस बरस की उम्र में उनकी कहानी खत्‍म हो गयी । कुछ कहानियां कभी खत्‍म नहीं होतीं । मीना आपा की कहानी भी ऐसी ही है ।



परदे पर उनके निभाए किरदारों के बीच भी पता नहीं क्‍यों मुझे लगता है कि उनका दुख चुपके से उनके चेहरे पर छलक पड़ता था । उनकी शायरी में उनकी निजी जिंदगी के सख्‍त अहसास उतर आए हैं । ख़ैयाम ने उनसे उनके ही कुछ अशआर गवाए थे । वैसे गुलज़ार ने उनकी शायरी की डायरी को संपादित करके प्रकाशित किया है ।

भाई शरद कोकास का इसरार है कि मीना आपा के जन्‍मदिन पर I Write I Recite नामक एलबम वाली पोस्‍ट को दोबारा प्रकाशित किया जाए । तो मैंने सोचा कि उसी अलबम से कुछ और सुना जाए इस बार । अभी यूट्यूब वीडियो लगा रहा हूं । जो एकाध दिन में मीडिया प्‍लेयर में बदल दिया जाएगा ।

कोई बताए कि जब मीना आपा गाती हैं तो उन्‍हें सुनकर मुझे लगता है ....
कोई सफेद लिबास पहने मर्सिया गा रहा है ।



यूं तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे
कांधे पे अपने रखके अपना मज़ार गुज़रे
बैठे हैं रास्‍ते में दिल का खंडहर सजाकर
शायद इसी तरफ़ से एक दिन बहार गुज़रे
बहती हुई ये नदिया घुलते हुए किनारे
कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे
तूने भी हमको देखा, हमने भी तुझको देखा
तू दिल ही हार गुज़रा हम जान हार गुज़रे

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