संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Monday, April 30, 2007

कुछ ऐसे भी पल होते हैं, जब रात के गहरे सन्‍नाटे गहरी नींद में सोते हैं : एक मई मन्‍ना डे के जन्‍मदिन पर विशेष


मित्रो पिछले कुछ दिनों से मैं मन्‍ना दा के कुछ गैर फिल्‍मी गीतों की ओर आपका ध्‍यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहा हूं । आज उनका जन्‍मदिन है । मन्‍ना डे का जन्‍म एक मई 1919 को हुआ था । मन्‍ना डे इन दिनों बैंगलोर में रहते हैं, और समय समय पर अपने कंसर्ट करते ही रहते हैं । मुझे भी उनके ऐसे ही एक कंसर्ट को सुनने का अवसर मिला है । बहरहाल मन्‍ना डे के जन्‍मदिन पर पिछले कुछ दिनों से चल रहे रेडियोवाणी के इस आयोजन की इस विशेष कड़ी में हम उनके कुछ अनमोल गीतों को सुनेंगे और उनकी विशेषताओं को समझने की कोशिश करेंगे ।


आज हम जिस गीत की सबसे पहले चर्चा कर रहे हैं उसके बोल हैं--
कुछ ऐसे भी पल होते हैं

यहां सुनिए

ये गीत योगेश ने लिखा है, वही योगेश, जिन्‍होंने फिल्‍म ‘आनंद’ का गीत जिंदगी कैसी तू पहेली हाय’ लिखा था । उस गीत में योगेश की इन पंक्तियों पर गौर फरमाईये—कभी देखो मन नहीं माने, पीछे पीछे सपनों के धागे, चला सपनों का राही सपनों से आगे कहां’
उफ़ क्‍या कशिश है योगेश जी की कलम में । क्‍या आपको यक़ीन होगा कि इतना शानदार गीतकार आज गोरेगांव मुंबई में एक लगभग गुमनाम जिंदगी जी रहा है । मुझे योगेश से कई बार मिलने और उनसे लंबी लंबी बातचीत करने का सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ
है । पहली बार की ही मुलाक़ात में मैंने उनसे पूछा था कि योगेश जी आप कैसे लिख लेते हैं इतने नरमो नाज़ुक बोल । कहने लगे—जब कलम चलती है ना तो होश नहीं रहता । बस जो दिल में होता है कागज पर उतर आता है । लिखने का मेरा कोई साइंस नहीं है, बस जो दिल में आया लिख दिया । आज आप लोग इतना पसंद करते हैं तो मुझे हैरत होती है कि ये सब मैंने ही लिखा है या किसी और ने मुझसे लिखवा लिया
है ।
बहरहाल योगेश के इस गीत की पंक्तियों को पढिये ज़रा ---


कुछ ऐसे भी पल होते हैं, जब रात के गहरे सन्‍नाटे गहरी सी नींद में सोते हैं
तब मुस्‍कानों के दर्द यहां, बच्‍चों की तरह से सोते हैं ।
कुछ ऐसे भी पल होते हैं ।।

जब छा जाती है खामोशी, तब शोर मचाती है धड़कन
इक मेला सा लगता है, बिखरा बिखरा सा ये सूनापन
यादों के साये ऐसे में करने लगते हैं आलिंगन
चुभने लगता है सांसों में बिखरे सपनों का हर दरपन
फिर भी जागे ये दो नैना सपनों का बोझ संजोते हैं
कुछ ऐसे भी पल होते हैं ।।

यूं ही हर रात पिघलती है, यूं ही हर दिन ढल जाता है
हर सांझ यूं ही ये बिरही मन, पतझर में फूल खिलता है
आखिर ये कैसा बंधन है, आखिर ये कैसा नाता है
जो जुड़ तो गया अनजाने में पर टूट नहीं अब पाता है
और हम उलझे इस बंधन में दिन रात ये नैन भिगोते हैं ।।
कुछ ऐसे भी पल होते हैं ।।

सबसे पहली बात तो ये कि इतना ललित गीत क्‍या हिंदी फिल्‍मों में कोई और है । चलिए अलबमों की दुनिया में ही ढूंढ निकालिए । नहीं मिलेगा । यकीन मानिए बिल्‍कुल नहीं मिलेगा । क्‍योंकि पहले कभी और ना ही बाद में कभी ऐसा लिखा गया । इसीलिए तो मन्‍ना डे के जन्‍मदिन पर मैं इस गीत को खोजकर आपके लिए लाया हूं ।
जरा इसके दोनों अंतरों को पढिये । खासकर दूसरा अंतरा, हर सांझ यूं ही ये बिरही मन, पतझर में फूल खिलाता है, आखिर ये कैसा बंधन है, आखिर ये कैसा नाता है ।
कितनी अबूझ और कितनी गहरी बात योगेश ने लिखी और मन्‍ना डे को आज तीस चालीस साल बाद ही सही, क्‍यों ना हम बधाई तो दे दें । बधाई तो योगेश जी को भी दी ही जानी चाहिये । क्‍या आप लोगों में कोई योगेश जी का क़द्रदान है । अगर हां तो कृपया अपनी बात कहिए । ऐसा क्‍यूं है कि एक समय के बाद हमारे समय के सबसे अच्‍छे लेखक यूं गुमनाम बना दिये जाते हैं । क्‍या किसी के पास कोई जवाब है ।


आज का दूसरा गीत है---नथली से टूटा मोती रे ।।

ये गीत भी मधुकर राजस्‍थानी का है । और इसे आप रीयल प्‍लेयर पर
यहां सुन सकते हैं । इस गाने को सुनते हुए ज़रा इसके बोलों को भी पढिये ---
सजनी, सजनी
कजरारी अँखियां रह गईं रोती रे
नथली से टूटा मोती रे
रूप की अगिया अंग में लागी
कैसे छुपाए, लाज अभागी,
मनवाऽऽ कहताऽऽ भोर कभी ना होती रे
कजरारी अँखियाँ रह गईं ...
बोली दुलहनिया पलकें झूकाएऽऽ
घूँघटवा में सहमे लजाये
बलमाऽऽ पढ़ाएऽऽ प्रीत की पहली पोथी रे
कजरारी अँखियाँ रह गईं ...

कुल मिलाकर चार मि0 बाईस सेकेन्‍ड का गीत है ये । बेहद भारतीय गीत है । अगर आप इसे ध्‍यान से सुनें और पढ़ें तो पायेंगे कि एक बेहद निषिद्ध विषय पर मधुकर राजस्‍थानी ने ये गीत लिखा है, जिसमें अश्‍लील हो जाने की पूरी संभावनाएं थीं । मगर ऐसा नहीं हुआ बल्कि जिस अंदाज़ में इसे लिखा गया है उससे गीत का लालित्‍य कुछ और बढ़ ही गया है । पिछले कुछ लेखों में मैंने आपको मधुकर राजस्‍थानी के गीतों से अवगत कराया है । इन सबको क्रम से पढ़ने के बाद आप जान चुके होंगे कि सादगी, सरलता और शिष्‍टता इन गीतों की सबसे बड़ी विशेषता है । गीत सितार की तान से शुरू होता है । फिर मन्‍ना दा की नर्म आवाज़ में ‘सजनी सजनी’ की पुकार । और फिर ‘नथली से टूटा मोती रे’ । इसी गीत में मन्‍ना दा जब गाते हैं ‘रूप की अगिया अंग में लागी, कैसे छिपाए लाज अभागी’ तो लाज शब्‍द पर मन्‍ना डे अपनी आवाज़ में जिस तरह का भाव लाते हैं वो अनमोल है, नये गायक अगर ये भाव व्‍यक्‍त करना सीख जाएं तो हमारा संगीत बहुत कुछ सुधर जाए ।

बहरहाल मित्रो, इन गीतों को सुनिए और मन्‍ना डे के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कीजिए ।

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Sunday, April 29, 2007

कुछ तस्‍वीरें कुछ बातें

मित्रो, पेश है मुंबई के जनजीवन की झलकियों पर केंद्रित श्रृंखला, जिसमें कुछ बातें होंगी और होंगी मोबाईल कैमेरे से खींचीं तस्‍वीरें । ये तस्‍वीरें डिजिटल-कैमेरे से भी खींची जा सकती थीं । लेकिन सीमित-संसाधनों में अच्‍छे नतीजे खोजने के इरादे से इन्‍हें डिजिटल कैमेरे से खींचा गया है । ये श्रृंखला आगे भी जारी रहेगी ।



बस मिलाकर हाथ अपनी उंगलियां गिन लीजिये
आपको इस शहर में रहने का फ़न आ जायेगा

( यूं बिकते हैं चाकू मुंबई के बाज़ार में )




चलो दूध के लिए लाईन लगाओ



समंदर के तरह बड़ा है दिल आज के लोगों का
पर समंदर का पानी तो प्‍यास बुझाता नहीं

(टैंकरों से पानी की सप्‍लाई)



बरसात में तालाब तो हो जाते हैं कमज़र्फ
बाहर कभी आपे से समंदर नहीं होता


मरीन ड्राईव शाम के धुंधलके में




हर आदमी एक उड़ता हुआ बगूला था
तेरे शहर में हम किससे गुफ्तगू करते ।





ये कौन शख्‍स है ये किस क़दर अकेला है
ये शख्‍स भीड़ में अकसर दिखाई देता है




तमाम जुल्‍मतों के बाद भी जिंदा हैं हम इस शहर में



घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया मगर कोई आदमी ना मिला



हमने इसे भी चलाकर देखा है









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Saturday, April 28, 2007

मेरी भी इक मुमताज थी


मेरी भी इक मुमताज थी ।
मैं कोई शाहजहां नहीं, जो मुमताज की तलाश में बेक़रार हो, ये मन्‍ना डे का गाया और मधुकर राजस्‍थानी का लिखा एक और नग्‍मा है, जिसे मैं आपके लिए लेकर आया हूं ।
पहले ज़रा इसके बोल पढिये ।
ये भी अजीबोग़रीब गीत है—पहले रूबाईनुमा चार पंक्तियां आती हैं, जिन्‍हें धीमी रफ्तार में गाया गया है । इसके बाद आता है अंतरा । जो काफी तेज़ गति में गाया गया है । लेकिन मन्‍ना दा की आवाज़ के कोमल स्‍पर्श ने इन पंक्तियों को जिंदा कर दिया है ।
मेरी इल्तिजा है कि इसे सुनिए और साथ में पढिये ।
यहां सुनिए ।


सुनसान जमना का किनारा
प्‍यार का अंतिम सहारा
चांदनी का कफन ओढ़े
सो रहा किस्‍मत का मारा
किससे पूछूं मैं भला अब
देखा कहीं मुमताज को
मेरी भी इक मुमताज थी
मेरी भी इक मुमताज थी

पत्‍थरों की ओट में महकी हुई तन्‍हाईयां कुछ नहीं कहतीं
डालियों की झूलती और डोलती परछाईयां कुछ नहीं कहतीं
खेलती साहिल पे लहरें ले रही अंगड़ाईयां कुछ नहीं कहतीं
ये जान (बूझ) कर चुपचाप हैं मेरे मुकद्दर की तरह
हमने तो उनके सामने खोला है दिल के राग को
किससे पूछूं मैं भला अब देखा कहीं मुमताज को
मेरी भी इक मुमताज थी

ये जमीं की गोद में कदमों का धुंधला सा निशां, खामोश है
ये रूपहला आसमां, मद्धम सितारों का जहां, खामोश है
ये खूबसूरत रात का खिलता हुआ गुलशन जवां, खामोश है
रंगीनियां मदहोश हैं अपनी खुशी में डूबकर
किस तरह इनको सुनाऊं अब मेरी आवाज़ को
किससे पूछूं मैं भला देखा कहीं मुमताज को
मेरी भी इक मुमताज थी
मेरी भी इक मुमताज थी
मेरी भी इक मुमताज थी ।।।।

मेरा मानना ये है कि ये गीत नहीं है बल्कि एक नाटक या बैले जैसा है । यूं लगता है जैसे कोई दीवाना अपनी मेहबूबा की तलाश में शाहजहां बनकर भटक रहा है । खोज रहा है अपनी मुमताज को । यमुना का किनारा हिलोरें ले रहा है । रात खामोश है । और बाग़ में हवा की हलचल है । रेत पर क़दमों के निशां हैं । मगर कहीं मुमताज का कोई सुराग़ नहीं मिल रहा है । अपने मेहबूब से अलग होने का दर्द है शाहजहां के सीने में, जो उबल रहा है । और वो बेक़रारी से ये गीत गा रहा है ।

कहिए है ना बैले ।
अच्‍छा अब जरा गौर से पढिये ।
ये गीत है ही नहीं । मिनिमम तुकबंदियां हैं इसमें ।
यूं लगता है किसी पारसी ड्रामे के संवाद हैं ।
पर जज्‍बात के मामले में ये गाना बहुत गहरा है ।
मुझे लगता है कि आज के गीतकारों को इस तरह की रचनाओं से सबक़ लेना चाहिये ।
ये प्रयोगधर्मिता की एक और मिसाल है ।
बैंगलोर के शिरीष कोयल ने अभी अभी बताया कि मंगलवार एक मई को मन्‍ना दा की सालगिरह है । इस साल वे पूरे अठासी साल के हो जायेंगे । आईये हम चिट्ठाजगत पर एक साथ मन्‍ना दा को सालगिरह की मुबारकबाद दें । आप सब लिखें । मै भी लिखूंगा ।
हम शिरीष कोयल से अनुरोध करेंगे कि वो हमारी ओर से बैंगलोर में रह रहे मन्‍ना दा को बधाईयां और इन चिट्ठों की खबर पहुंचा दें । कहिए सही कहा ना ।

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Friday, April 27, 2007

मन्‍ना दा का गैर फिल्‍मी गीत- ये आवारा रातें

मन्‍ना दा मेरे प्रिय गायक हैं । नौंवी क्‍लास में था जब उनके गाने सुनने की लत लगी थी । मुझे उनके जिस पहले गीत का नशा चढ़ा था वो था फिल्‍म सीमा का गीत – तू प्‍यार का सागर है तेरी एक बूंद के प्‍यासे हम । उस गाने में जब मन्‍ना दा गाते हैं ‘घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेक़रार’ तो दिल में अजीब सा तूफान मच जाता था । उसके बाद तो हम सब मित्रों ने मन्‍ना दा के ऐसे ऐसे गाने ढूंढ ढूंढकर जमा किये कि पूछिये मत । संगीत के सुधि श्रोताओं को मन्‍ना दा का फिल्‍म फैशनेबल वाईफ का वो गीत याद होगा—धूप हो या छांव हो चाहे थके पांव हों, चलता चल ।
या फिर बहुत बाद की फिल्‍म प्रहार का गीत- हमारी ही मुट्ठी में आकाश सारा । बहरहाल अगर मन्‍ना दा के सारे शानदार गीतों की महफिल सजाई, तो ये चिट्ठा कई किलोमीटर लंबा हो जायेगा । इतना जरूर बता दूं कि मन्‍ना दा से दो बार मुलाक़ात का और एक बार उनका लाईव कंसर्ट सुनने का अवसर मुझे मिला
है । और ये तीनों दिन मेरी जिंदगी के सबसे खुशनसीब दिन रहे हैं ।

आपके लिए मैं जो गीत लाया हूं, उसे इंटरनेट पर खोजने में मुझे काफी वक्‍त लगा । आपको ये बता दूं कि वो गीत मेरे अपने निजी संग्रह में तब से है जब मैं स्‍कूल कॉलेज का विद्यार्थी था और अपने जेबखर्च से दो कैसेट का वो संग्रह खरीदा था जो आजकल ‘आउट आफ प्रिंट’ है । ये मन्‍ना डे के गैरफिल्‍मी हिंदी गीतों का अनमोल संग्रह है, जिसमें कुल सत्रह गीत हैं । आने वाले दिनों में एक एक करके मैं इसके हर गीत की विस्‍तृत चर्चा करना चाहूंगा क्‍योंकि ये गाने नहीं है बेशकीमती दौलत हैं । यक़ीन मानिए ।




चलिए आज इस एलबम का वो गीत—जिसमें ‘आवारा रातों’ का जिक्र है । गाना है ‘ ये आवारा रातें’
यहां सुनिए ।
अब ज़रा इसके बोल पढिये ।

ये आवारा रातें, ये खोई सी बातें, ये उलझा सा मौसम, ये नजरों की घातें
कहां आ गये हम कहां जा रहे थे
ये नागन से बलखाये ख्‍वाबों के साये, ये चिटके से तारे जो पलकों पे छाये
कहां आ गये हम कहां जा रहे थे
ये सोई सी गलियां, ये कुंभलाई कलियां, ये आंखों के भंवरे करें रंगरलियां
कहां आ गये हम कहां जा रहे थे
ये बिखरी हवाएं, ज्‍यों टूटी सी आहें, बुलाएं सभी को नजारों की बाहें
कहां आ गये हम कहां जा रहे थे ।
मधुकर राजस्‍थानी ने इस गीत को लिखा है और संगीत है खुद मन्‍ना दा का ।

नाज़ुक नर्म रात, मेहबूब से मुलाक़ात, मुहब्‍बत के शिद्दत भरे जज्‍बात ।
और इस गाने का साथ । उफ़ जिंदगी में इससे ज्‍यादा और क्‍या चाहिये ।
प्रिय मित्रो । ध्‍यान से देखिए तो इस गाने में कुल चार पंक्तियां हैं----इतनी नाज़ुक जैसे गुलाब की पंखडियां ।

ये आवारा रातें, ये खोई सी बातें, ये उलझा सा मौसम, ये नजरों की घातें
ये नागन से बलखाये ख्‍वाबों के साये, ये चिटके से तारे जो पलकों पे छाये
ये सोई सी गलियां, ये कुंभलाई कलियां, ये आंखों के भंवरे करें रंगरलियां
ये बिखरी हवाएं, ज्‍यों टूटी सी आहें, बुलाएं सभी को नजारों की बाहें


हर पंक्ति के बाद ये जुमला आता है—कहां आ गये हम कहां जा रहे थे ।
गीत का शिल्‍प अजीब-सा है । मगर इसका असर कमाल का है ।
सच कहूं तो मुझे शब्‍द नहीं मिल रहे हैं, क्‍या लिखूं इस गाने के बारे में ।
अंग्रेजी में कहूं तो really i am out of words
सलाम मधुकर राजस्‍थानी की प्रतिभा को ।
सलाम मन्‍ना दा को ।
अफसोस बस यही है कि फिल्‍मी दुनिया ने मन्‍ना दा को केवल मज़ाहिया गीतों, भजनों और कव्‍वालियों का गायक बना कर रख दिया था ।
एक अच्‍छे गायक का सही इस्‍तेमाल नहीं कर पाये उस दौर के लोग ।
शुक्र है कि ये अलबम आया ।

इन गीतों की फेहरिस्‍त आपको दे रहा हूं – जिन पर आगे चर्चा करेंगे

1- सावन की रिमझिम में थिरक थिरक नाचे रे मयूरपंखी रे सपने
2- नथली से टूटा मोती रे
3- शाम हो जाम हो सुबू भी हो
4- कुछ ऐसे भी पल होते हैं जब रात के गहरे सन्‍नाटे गहरी नींद में सोते हैं
5- चंद्रमा की चांदनी से भी नरम और उषा के भाल से ज्‍यादा गरम, है नहीं कुछ और केवल प्‍यार है
वगैरह ।।
बताईये क्‍या याद आया आपको इस गाने को सुनकर ।
और हां । क्‍या आपके पास ये अलबम है ।
अगर नहीं तो बताईये मैं कुछ व्‍यवस्‍था करूं ।

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Wednesday, April 25, 2007

रफी साहब के इस गीत को पूरे हुए साठ साल




मो0 रफी के गाये फिल्‍म ‘जुगनू’ के गीत ‘यहां बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्‍‍या है’ को आए साठ साल पूरे हो चुके हैं । (दिलीप कुमार और नूरजहां के अभिनय से सजी इस फिल्‍‍म के गीतकार थे तनवीर नकवी और संगीतकार फीरोज़ निज़ामी । ये वही तनवीर नक़वी हैं जिन्‍‍होंने अनमोल घड़ी फिल्‍‍म के गीत लिखे थे)
बहरहाल इस अवसर पर मशहूर पत्रकार होशांग के0 कात्रक ने मुंबई के अंग्रेज़ी दैनिक में एक लेख लिखा है । ये पोस्‍ट उसी लेख का लगभग अनुवाद है । होशांग लिखते हैं-----


मैं मो0 रफी के गीत सी0डी0 पर सुन रहा हूं, अचानक सी0डी0 का जैकेट पढ़कर मेरे दिमाग़ में कई विचार घुमड़ पड़ते हैं । सन 1947 में रफी साहब ने ये गाना मलिका-ऐ-तरन्‍नुम नूरजहां के साथ गाया था और इसके कुछ दिनों बाद विभाजन के वक्‍त नूरजहां सरहद के उस पार पाकिस्‍तान चली गयी थीं ।
इस गाने को आप यहां सुन सकते हैं ।






कुछ दिन पहले मैंने डेरेक बोस की लिखी किशोर कुमार की आत्‍‍मकथा-Method in Madness पढ़ी थी । इस पुस्‍तक ‍ में एक जगह डेरेक ने लिखा है: ‘सन 1969 में फिल्‍म आराधना के आने के बाद एक ही झटके में किशोर कुमार ने मो0 रफी, तलत महमूद, और मन्‍‍नाडे की छुट्टी कर दी थी । तब से वो संगीत के बेताज बादशाह बने रहे’

किसी लेखक के लिए जीवनी लिखते हुए इस तरह की स्‍थापना देना मुनाफ़े का सौदा हो सकता है, लेकिन फिल्‍म-संगीत का अल्‍पज्ञानी भी इस तरह के दावे का खोखलापन समझ जायेगा ।

ऐसा नहीं है कि फिल्‍म आराधना और एस0डी0 या आर0डी0 बर्मन ने किशोर की डूबती हुई नैया को बचा लिया था, क्‍योंकि इससे पहले भी वो हर साल कम से कम एक हिट गाना तो दे ही रहे थे । जैसे सन 1968 में उन्‍होंने पड़ोसन का ‘मेरे सामने वाली खिड़की में’ दिया ।
यहां सुनिए । फिर 1967 में ज्‍वेल थीफ का ‘ये दिल ना होता बेचारा’ दिया । यहां सुनिए । 1969 में तो किशोर के तीन एकल हिट गीत आये थे, तीनों लोकप्रिय हुए थे । मेरे नसीब में ऐ दोस्‍त तेरा प्‍यार नहीं (फिल्‍म-दो रास्‍‍ते) यहां सुनिए , वो शाम कुछ अजीब थी (फिल्‍म-खामोशी) यहां सुनिए, और तुम बिन जाऊं कहां (फिल्‍म-प्‍यार का मौसम ) यहां सुनिए

फिल्‍म आराधना से काफी पहले तलत महमूद का समय खत्‍म हो गया था । उनकी आखिरी हिट फिल्‍म थी सन 1964 में आई ‘जहांआरा’ । 1964 से 1969 तक उन्‍होंने केव दस गीत ही गाए ।
रही बात मुकेश की, तो उन्‍हें राजकपूर की आवाज़ कहा जाता था, लेकिन 1964 में
फिल्‍म संगम के बाद राजकपूर का कैरियर बतौर अभिनेता फीका हो गया था । लेकिन मैंने एक दिलचस्‍प अध्‍ययन किया जिससे कई अनोखे आंकड़े सामने आये हैं । फिल्‍म आराधना के आने के पहले के पांच सालों में मुकेश ने कुल 138 गीत गाये । और फिल्‍म आराधना आने के बाद के पांच सालों में उन्‍होंने कुल 139 गीत गाए । यहां तक कि 1970 से 1976 के बीच तो उन्‍होंने तीन तीन फिल्‍मफेयर पुरस्‍कार भी जीते ।

अब मन्‍ना डे की बात । उन्‍हें राजकपूर और मेहमूद भाईजान की आवाज़ कहा जाता था, पर शास्‍त्रीय गीतों और क़व्‍वालियों के लिये सदा उन्‍हें ही याद किया जाता रहा । सन 1971 में
फिल्‍म मेरा नाम जोकर के गीत ‘ऐ भाई’ के लिए उन्‍हें फिल्‍मफेयर अवॉर्ड भी मिला । यहां सुनिए ।

रफी साहब ने 1970 से 1980 के बीच कुल 1258 गीत गाये और किशोर कुमार ने गाये 1266 गीत । अगर अकेले सन 1969 की बात करें जब आराधना
फिल्‍म आई, तो इस साल रफी साहब ने किशोर से कहीं ज्‍‍यादा गीत गाये । कुल 190 गीत । जबकि किशोर ने गाए कुल 20 गीत ।

रफी साहब के कैरियर में ढलान दरअसल शम्‍मी कपूर, जॉनी वॉकर, दिलीप कुमार और राजेंद्र कुमार के कैरियरों के ढलने से आया था । ये ढलान ओ0 पी0 नैयर, रवि, शंकर जयकिशन और चित्रगुप्‍‍त का काम घटने से आया था । रफी साहब के एक चौथाई गीत इन संगीतकारों के साथ ही हैं । इसकी एक वजह ये भी थी कि अब किशोर अभिनय की बजाय गाने पर ज्‍यादा ध्‍‍यान दे रहे थे ।

आईये अब रफी साहब के आखिरी
फिल्‍मफेयर की बात करें । वो गाना था ‘क्‍या हुआ तेरा वादा’ (फिल्‍म हम किसी से कम नहीं, सन 1977, मजरूह/आर0डी0बर्मन) । इसे सुनिये, आप पायेंगे कि अंत तक उनकी आवाज़ में वो कशिश थी । किशोर ने शास्‍‍त्रीय संगीत की तालीम नहीं ली थी, जबकि रफी साहब शास्‍‍त्रीय संगीत की मज़बूत बुनियाद लेकर आये थे । आज भी कोई ऐसा दिन नहीं बीतता जब दुनिया के किसी भी हिंदुस्‍तानी रेडियो स्‍टेशन पर रफी की आवाज़ ना गूंजती हो । रीमिक्‍स के पागलपन वाले युग को बढ़ावा देने वाले एफ0एम0 स्‍टेशन भी रफी साहब के ओरीजनल गाने बजा लेते हैं ।

मित्रो होषांग कात्रक ने वाक़ई एक अहम मुद्दे पर ध्‍यान खींचा है । आमतौर पर लोग बिना किसी आधार या शोध के साबित करने लगते हैं कि कौन गायक किस गायक से ज्‍‍यादा बड़ा था । और हम सब इन बातों पर यक़ीन भी कर लेते हैं । अच्‍‍छा हो कि हम भी स्‍वयं तथ्‍यों को परखें और फिर किसी भी दावे पर यक़ीन करें ।
बहरहाल चर्चा हो रही थी जुगनू फिल्‍म
के इस गाने की । जरा इसके बोलों पर एक नजर डालिये । एक पंक्ति रफी गाते हैं अगली नूरजहां गाती हैं ।

यहां बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्‍या है
मुहब्‍बत करके भी देखा मुहब्‍‍बत में भी धोखा है ।।
कभी सुख है, कभी दुख है, अभी क्‍या था अभी क्‍या है
यूं ही दुनिया बदलती है, इसी का नाम दुनिया है
तड़पने भी नहीं देती हमें मजबूरियां अपनी
मुहब्‍‍बत करने वालों का तड़पना किसने देखा है
मुहब्‍‍बत करके भी देखा मुहब्‍‍बत में भी धोखा है
बड़े अरमान से वादों ने दिल में घर बसाया था
वो दिन जब याद आते हैं कलेजा मुंह को आता है
भुला दे वो जमाना जब मुझे अपना बनाया था
भुला दो नामे-उल्‍‍फत जब तुम्‍हारे लब पे आया था
भुलादो वो क़सम जो दिलाई थी कभी तुमने
भुला दो वो क़सम जो कि खाई थी कभी तुमने
भूला दो दिल से तुम गुजरे हुए रंगीन जमाने को
भुला दो हां भुला दो इश्‍‍क़ के ताज़ा फसाने को
तमन्‍नाओं की बस्‍ती में अंधेरा ही अंधेरा है
किसे अपना कहूं कोई जो अपना था पराया है
यूं ही दुनिया बदलती है, इसी का नाम दुनिया है
कभी सुख है, कभी दुख है अभी क्‍या था अभी क्‍या है
मुहब्‍बत करने वालों का तड़पना किसने देखा है
यहां बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्‍या है ।

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Tuesday, April 24, 2007

ये हैं रेडियो सीलोन वाले मनोहर महाजन ( पुन:संशोधित )








रेडियो के सुधी श्रोता मनोहर महाजन के नाम से तो वाकिफ होंगे ही । वो रेडियो सीलोन की एक बुलंद आवाज़ रहे हैं । जिस ज़माने में रेडियो सीलोन अपने पूरी शबाब पर हुआ करता था, यानी विविध भारती के आने से पहले—तब गोपाल शर्मा, मनोहर महाजन, मोना अलवी, शिवकुमार सरोज जैसे रेडियो सीलोन के उद्घोषक स्‍टार हुआ करते थे । इनमें सबसे ऊपर थे ‘बिनाका गीत माला’ पेश करने वाले अमीन सायानी साहब । बहरहाल, मुद्दे की बात ये है कि मनोहर महाजन जबलपुर के रहने वाले हैं । जबलपुर से रेडियो सीलोन और फिर वापस मुंबई तक का सफर उन्‍होंने कैसे तय किया, ये जल्‍दी ही अपने किसी चिट्ठे में । पर फिलहाल आप सभी के लिये मनोहर महाजन जी की ताज़ा तस्‍वीरें । आपका ये दोस्‍त उन्‍हें चाचा कहता है । और विविध भारती में आने के बाद मैंने उनका पता ठिकाना खोजकर खुद उनके निवास पर ही मुलाक़ात की थी । तब से अकसर भेंट होती है और खुल जाता है किस्‍सों का पिटारा । बेहद दिलचस्‍प शख्सियत हैं मनोहर जी । आज वो विविध भारती आये थे हमारे नये कैजुअल अनाउंसरों को ‘बोलना’ सिखाने के लिए । तो मैंने अपने मोबाईल कैमेरे का सदुपयोग करते हुए उनकी ये तस्‍वीरें खींच डालीं । ताकि आप सभी उन्‍हें देख पायें । अकसर रेडियो के उद्घोषकों की आवाज़ें तो सभी सुनते हैं पर उनकी शख्सियत से वाकिफ नहीं हो पाते । कई मित्रों का अनुरोध है कि अपने तमाम साथियों की तस्‍वीरें भी प्रस्‍तुत करूं । फिलहाल तो देखिये मेरे मनोहर चाचा और आपके प्रिय उद्घोषक मनोहर महाजन की तस्‍वीरें । अपनी राय से अवगत कराईयेगा ।




मुझे अंदाज़ा नहीं था कि इस चिट्ठे में आज ही संशोधन करना होगा । दरअसल आज सबेरे की शिफ्ट करने के बाद जब मनोहर महाजन जी से मिलकर और गप्‍पें करके घर लौटा और फौरन ये चिट्ठा पोस्‍ट किया तभी पीछे पीछे फोन आ गया, हमें मनोहर महाजन का एक लंबा इंटरव्यू करना है, फौरन चले आईये । दोबारा दफ्तर लौटना पड़ा, और फिर शुरू हुआ मनोहर चाचा से ऑफ रिकॉर्ड और ऑन रिकॉर्ड अनगिनत बातों का दौर । इस दौरान उनकी एक नई तस्‍वीर भी ले डाली । वो भी पेश कर रहा हूं । ये इंटरव्यू जल्‍दी ही विविध भारती पर प्रसारित होगा । जिसकी सूचना आपको ज़रूर दूंगा ।
पिछले दिनों महाजन जी को पैंक्रियास का इंफेक्‍शन हो गया था, लंबी अस्‍वस्‍थता के बाद अब फिर कामकाज कर रहे हैं ।

भाई रवि रतलामी ने पूछा है कि क्‍या पुराने कार्यक्रम दोबारा सुनवाये जा सकते हैं । जवाब ये है कि ऐजेन्सियों ने ये कार्यक्रम तैयार किये और उनके अधिकार उनके ही पास हैं । आप सभी को अफसोस होगा कि उनकी प्रतियां तक ऐजेन्सियों के पास नहीं । बस अमीन सायानी साहब के पास अपने कई पुराने कार्यक्रम मौजूद हैं और उन्‍होंने संभाल कर रखे हैं । हैदराबाद की अन्‍नपूर्णा जी मेरी सुधी श्रोता हैं, उन्‍हें बचपन याद आ गया, ये हर्ष का विषय है । मेरी इच्‍छा तो बस ये थी कि आप सभी आवाज़ की दुनिया की इस वरिष्‍ठ हस्‍ती से वाकिफ हो पायें । क्‍योंकि आवाज़ें परदे के पीछे ही बनी रहती हैं । उनके चेहरों को बहुत कम लोग जानते हैं ।

आज महाजन जी ने भी बताया कि उनके पास भी कई पुराने कार्यक्रमों के अंश मौजूद हैं । मैं उनकी जबलपुर से रेडियो सीलोन जाने और मुंबई आने की कहानी भी लिखना चाहता हूं । पर फिलहाल समयाभाव है ।
जल्‍दी ही लिखकर पेश करूंगा । उनका फोन नंबर तो आपको दे नहीं सकता, सुधी श्रोताओं को उन तक अपने मन की बात पहुंचाने के लिये ई मेल पता दे रहा हूं---
manoharfmahajan@rediffmail.com
कृपया सुविधा के लिए ये रिफरेन्‍स अवश्‍य लिखें ताकि उन्‍हें इस संपर्क सूत्र का स्‍त्रोत पता चले, वरना वे स्‍वयं चक्‍कर में पड़ जायेंगे कि आखिर ये ई मेल पता इतना प्रचारित कैसे हो गया ।

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Tuesday, April 17, 2007

कल रात जिंदगी से मुलाक़ात हो गयी---शकील बदायूंनी पर केंद्रित श्रृंखला का पहला भाग







‘ तेरे बगैर अजब दिल का आलम है
चराग़ सैकड़ों जलते हैं रोशनी कम है
कफस से आये चमन में तो यही देखा
बहार कहते हैं जिसे खिजां का आलम है ’

एक कहानी जिसका आग़ाज़ तीन अगस्‍त 1916 को हुआ था, बीस अप्रैल 1970 को पहुंची अपने अंजाम पर । उस दास्‍तान का नाम था शकील बदायूंनी । तो आईये आज शकील बदायूंनी की इस दास्‍तान को जानें-सुनें ।
किसी ने क्‍या खूब कहा है कि शायर की दास्‍तान उसकी पैदाईश से शुरू तो ज़रूर होती है लेकिन उसकी मौत पर जाकर खत्‍म नहीं होती । उसके अशआर वक्‍त और ज़माने की हदों के पार जाकर उसकी याद को जिंदा रखते हैं । शायर पैदा तो होते हैं पर कभी मरते नहीं । आज शकील बदायूंनी जैसे अमर शायर की शायरी के समंदर में डुबकी लगायेंगे हम । हम गुनगुनायेंगे उसके तरानों को । हम पता लगायेंगे कि आखिर ऐसा क्‍या है उसके नग्‍मों में—जो बरसों बाद भी हम उन्‍हें गुनगुना रहे हैं ।
शकील दिल का हूं तरजुमा, मुहब्‍बतों का हूं राज़दां
मुझे फख्र है मेरी शायरी मेरी जिंदगी से जुदा नहीं ।


रवायत तो ये है कि पहले हम शायर का ताररूफ करायें उसके बाद आगे
बढ़ें । लेकिन रवायत तोड़ने को दिल चाहता है, क्‍योंकि शकील इतने बड़े और ऊंचे दरजे के शायर और गीतकार थे कि अगर वो बदायूं की जगह अलीगढ़ या इलाहाबाद में भी पैदा होते तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था । हां वो इस दुनिया में नहीं आते तो उनके नग्‍मों के गिना ये संसार कितना खाली खाली और फीका होता, इसका अंदाज़ा आपको ये आलेख पढ़कर लग जायेगा ।

जिंदगानी खुद हरीफे जिंदगानी हो गई ।
मैंने जब रखा कदम दुनिया पुरानी हो गई ।
है वही अफसाना लेकिन कहने वाले और हैं ।
है वही उन्‍वां मगर लंबी कहानी हो गयी ।

शकील शायरी की दुनिया से फिल्‍मों में आये थे । यानी फिल्‍मों में आने से पहले शायरी के आसमान पर वो एक चमकता सितारा बन चुके थे । वो मुशायरों की जान हुआ करते थे । उस दौर में तरक्‍की पसंद शायरी पूरे उफान पर थी । जुल्‍मतों के खिलाफ आवाज बुलंद की जा रही थी, गरीबों और लाचारों को जगाने के लिये शायरी की जा रही थी । शायरी को क्रांति का बायस माना जा रहा था । ऐसे तूफानी दौर में भी शकील उर्दू शायरी की गहरी रवायत का दामन पकड़े रहे । वो मुहब्‍बतों के शायर बने रहे । और मुशायरों को लूटते रहे ।

ये फलक फलक हवाएं, ये झुकी झुकी घटायें
वो नजर भी क्‍या नजर है जो ना समझ ले इशारा ।
मुझे आ गया यकीं सा कि यही है मेरी मंजिल
सरे राह जब किसी ने मुझे दफ्फतन पुकारा ।
कोई आये शकील देखे ये जुनूं नहीं तो क्‍या है
कि उसी के हो गये हम जो ना हो सका हमारा ।


ये है शकील की शायरी की मिसाल । मजे की बात ये है‍ कि शायर शकील बदायूंनी जिस वक्‍त मुशायरों पर हुकूमत कर रहे थे तभी घर-गृहस्‍थी चलाने के लिये राज्‍य सरकार के सप्‍लाई विभाग में काम भी कर रहे थे । कितना अजीब था ना ये तालमेल । एक तरफ सप्‍लाई विभाग की नौकरी की सूखी और उबाऊ लिखापढ़ी । दूसरी तरफ शायरी की नाजुकतरीन दुनिया । सन 1942 से 1946 तक दिल्‍ली में नौकरी में रहते हुए उन्‍होंने खूब शायरी की और खूब नाम कमाया । फिर सन 1946 में एक मुशायरे में शिरकत करने के लिये वो बंबई तशरीफ लाए । वो लिखने पढ़ने का ज़माना था । और फिल्‍म निर्माता भी मुशायरे सुनने जाया करते थे । नामचीन निर्माता निर्देशक ए0 आर0 कारदार ने जब शकील बदायूंनी को सुनाओ तो उस वक्‍त बन रही अपने फिल्‍म दर्द में उन्‍हें लिखने का न्‍यौता दे डाला । बस फिर क्‍या था, मुनव्‍वर सुलताना, श्‍याम और सुरैया की अदायगी से सजी इस फिल्‍म से एक सुरीला अफसाना शुरू हुआ । आपको याद होंगे इस फिल्‍म के नग्‍मे ।

गाना सुनने के लिये इस पंक्ति पर क्लिक करें :

अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का, आंखों में रंग भरके तेरे इंतज़ार का
फिल्‍म-दर्द/1947/कारदार प्रो0

टुनटुन यानी उमादेवी के गाये फिल्‍म दर्द के इस गाने से ही शुरू हुआ था गीतकार शकील बदायूंनी और संगीतकार नौशाद का साथ । दिलचस्‍प बात ये है कि शायरी की दुनिया से आने के बावजूद शकील ने फिल्‍मी गीतों के व्‍याकरण को फौरन समझ लिया था । उनकी पहली ही फिल्‍म के गाने एक तरफ सरल और सीधे-सादे हैं तो दूसरी तरफ उनमें शायरी की ऊंचाई भी है । इस गाने में शकील साहब ने लिखा है---
आजा के अब तो आंख में आंसू भी आ गए
साग़र छलक उठा है मेरे सब्र-ओ-क़रार का
अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का


किसी के इंतज़ार को जितने शिद्दत भरे अलफ़ाज़ शकील ने दिये, शायद किसी और गीतकार ने नहीं दिये । ऐसा करते हैं कि इंतज़ार को शिद्दत भरे अलफाज देने की इसी बात पर हम सन 1946 से सीधे छलांग लगाते हैं सन 1949 की तरफ । एक बार फिर ए0 आर0 कारदार की फिल्‍म । एक बार फिर नौशाद की धुन और एक बार फिर शकील बदायूंनी का इंतज़ार की कशिश से लबरेज़ नग्‍मा । इस गाने को नौशाद ने राग पहाड़ी में क्‍या खूब बनाया है । इस गाने का दूसरा अंतरा है-----

तड़प रहे हैं हम यहां किसी के इंतज़ार में
खिज़ां का रंग आ चला है मौसमे-बहार में खिज़ां यानी पतझर
हवा भी रूख़ बदल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे ।।

फिल्‍म दुलारी का ये गीत गाया है मो0 रफी ने । बहुत ही कम साज़ों के इस्‍तेमाल से बनाए गये गानों में ये गाना चोटी पर आता है । आज के संगीतकारों को इस गाने को सुनकर सीखना चाहिये कि अच्‍छा गाना बनाने के लिये बीट्स या स्ट्रिंग डालकर गाने को ठूंस ठूंस कर भरना ज़रूरी नहीं होता । अच्‍छा गाना दिल से बनता है ।
गाना सुनने के लिये इस पंक्ति पर क्लिक करें :
सुहानी रात ढल चुकी ना जाने तुम कब आओगे---फिल्‍म:दुलारी 1949


इश्‍क़ का कोई ख़ैरख़्वाह तो है
तू नहीं है तेरी निगाह तो है
जिंदगी इस सियाह रात सही
आशिक़ी इक चराग़े-राह तो है ।।

शकील बदायूंनी का ये शेर सियाह और सुनसान रात को आशिकी के चराग़ के सहारे काट लेने की बात करता है । आपके इस दोस्‍त को शकील के नग़मों को सुनते सुनते अचानक ये अहसास हुआ कि इस शायर को रात से बेइंतिहा मुहब्‍बत थी । हालांकि दुनिया में रात पर अगर किसी ने सबसे खूबसूरत ग़ज़लें या नज़्में कहीं हैं तो वो हैं रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी
ऐसा लगता है जैसे फिराक़ साहब ने रात को सही मानी दे दिये हैं । थोड़ी देर के लिये फिराक़ का रात का बयां देखिए ---




ये मौजे-नूर, ये भरपूर ये खिली हुई रात
कि जैसे खिलता चला जाए इक सफेद कंवल
सिपाहे-रूस हैं अब कितनी दूर बर्लिन के
जगा रहा है कोई आधी रात का जादू

क्ररीब चांद के मंडला रही है इक चिड़ीया
भंवर में नूर के करवट से जैसे नाव चले,
कि जैसे सीना-ए-शायर में कोई ख्‍वाब पले,
वो ख्‍वाब सांचे में जिसके नई हयात ढले,
वो ख्‍वाब जिससे पुराना निज़ामे-गम बदले ।।

ये रात, छनती हवाओं की सोंधी सोंधी महक
ये खेल करती हुई चांदनी की नर्म दमक
सुगंध रात की रानी की जब मचलती है
फजां में रूहे-तलब करवटें बदलती है ।।




हां तो बात चल रही थी कि शकील बदायूंनी को रात से बेइंतिहा मुहब्‍बत
थी । और हो भी क्‍यों ना । मुहब्‍बतों का शायर हर उस चीज़ से टूटकर प्‍यार करता है जो नाजुकतरीन होती है । फिर चाहे वो फूल की नाज़ुक पंखुडियां हों या किसी हसीन शख्‍स का पंखुडी जैसा नाजुक दिल । आपने शायद ही कभी ध्‍यान दिया होगा कि एक ही गीतकार ने रात के कितने कितने रंग अपने अलग अलग नग्‍मों में भरे हैं ।

आई है वो बहार के नग्‍मे उबल पड़े
ऐसी खुशी है कि आंसू निकल पड़े
होठों पर हैं दुआएं मगर दिल पे हाथ है
कैसी हसीन आज ये बहारों की रात है

गाना सुनने के लिए इस पंक्ति पर क्लिक करें ।
कैसी हसीन ये बहारों की रात है---फिल्‍म आदमी/मो0रफी और तलत महमूद/सन 1968

नोट:फिल्‍म में ये गीत मो0 रफी और महेंद्र कपूर की आवाज़ में है, दरअसल मनोज कुमार ने अपने लिए तलत की आवाज़ की बजाय महेंद्र कपूर की आवाज़ लेने पर ज़ोर दिया और नौशाद साहब को ये बात माननी पड़ी । पर रिकॉर्ड पर रफी और तलत की ही आवाज़ में हैं । गाने के शीर्षक को क्लिक करके आप यही संस्‍करण सुन सकते हैं । फिल्‍म में आपको महेंद्र कपूर वाला संस्‍करण मिलेगा ।



सन 1967 में आई फिल्‍म पालकी में शकील बदायूंनी ने रात का एक और अनमोल नग्‍मा लिखा । हिंदी फिल्‍मों में कुछ गाने जैसे कालजयी बनने के लिये ही रचे गये हैं । उनमें से एक है ये गाना । फिर वही संयोग । नौशाद, रफी साहब और शकील बदायूंनी ।

ऐ मेरी रूहे-ग़ज़ल, मेरी जाने-शायरी
दिल मानता नहीं कि तू मुझसे बिछड़ गयी
मायूसियां हैं फिर भी मेरे दिल को आस है
समझाऊं किस तरह से मैं दिल बेक़रार को
वापस कहां से लाऊं गुज़री बहार को
मजबूर दिल के साथ बड़ी घात हो गयी




ये गाना सुनने के लिये इस पंक्ति पर क्लिक करें:
कल रात जिंदगी से मुलाक़ात हो गयी ।।
फिल्‍म पालकी/गायक-मो0 रफी/ सन 1967

हम बात कर रहे हैं शकील बदायूंनी के लिखे उन गानों की जिनमें आता है रात का जिक्र । ये रात के अलग अलग रंग हैं । कहीं खुशियां हैं, तो कहीं गम हैं । रात कहीं जुदाई की प्रतीक है तो कहीं ये रात बहुत मानीखेज बदलाव लेकर आने वाली है । हिंदी फिल्‍मों के इतिहास की एक अज़ीमुश्‍शान फिल्‍म थी मुगल-ऐ-आज़म । और इस फिल्‍म के कथानक में जब मोड़ आता है तो होती है एक क़व्‍वाली । इश्‍क़ की बग़ावत की क़व्‍वाली । ज़रा सुनिए शकील बदायूंनी ने इसे किस तरह निभाया है । वो लिखते हैं---



नग्‍मों से बरसती है मस्‍ती, छलके हैं खुशी के पैमाने

आज ऐसी बहारें आई हैं, कल जिनके बनेंगे अफसाने



अब इससे ज्‍यादा और हंसीं ये प्‍यार का मौसम क्‍या

जब रात है ऐसी मतवाली फिर सुबह का आलम क्‍या होगा ।।






ईस गाने को सुनने के लिये यहां क्लिक करें ।फिल्‍म---मुगल-ए-आज़म/लता/नौशाद ।


अगर आपने मुग़ल-ऐ-आज़म फिल्‍म ध्‍यान से देखी है तो आपको समझ में आयेगा कि ऐसी सिचुएशन पर ऐसा क़व्‍वालीनुमा गीत लिखना कितनी बड़ी चुनौती रही होगी । और इसे शकील ने कितनी खूबी के साथ निभाया है । इसी तरह फिल्‍म राम और श्‍याम में जब मौक़ा आया तो शकील बदायूंनी ने रात से जुड़ा हमारी स्‍मृतियों का सबसे शिद्दत भरा गाना दिया । बेवफाई से तड़पता आशिक़ शब्‍दों के ज़हर बुझे तीर चला रहा है और पीछे से पियानो, ग्रुप वायलिन और ढोलक की जुगलबंदी । रफी साहब की वो बेक़रार आवाज़ और शकील के अलफ़ाज़ का अंदाज़ कि मुंह से बेसाख्‍ता वाह वाह निकल आती है ।


ये रात जैसे दुल्‍हन बन गयी चराग़ों से करूंगा और उजाला मैं दिल के दाग़ों से.......

तू मेरा साथ ना दे राहे मुहब्‍बत में सनम,
चलते चलते मैं किसी राह पे मुड़ जाऊंगा
कहकशां चांद सितारे तेरे चूमेंगे क़दम
मेरे रस्‍ते की मैं एक धूल बन जाऊंगा
साथ मेरे मेरा अफसाना चला जायेगा
कल तेरी बज्‍म से दीवाना चला जायेगा
शम्‍मा रह जायेगी परवाना चला जायेगा


इस गाने को सुनने के लिये यहां क्लिक कीजिये:फिल्‍म: राम और श्‍याम/रफी /नौशाद
शकील के लिखे रात के नग्‍मों का सिलसिला यहीं खत्‍म नहीं हो जाता बल्कि फिल्‍म कोहीनूर में एक नई ऊंचाई पर पहुंचता है । ये गाना ख्‍वाबों की ताबीर का गाना है । जिंदगी के खुशनसीब पलों का नग्‍मा है । शकील लिखते हैं---

जिनसे मिलने की तमन्‍ना थी, वो ही आते हैं
चांद तारे मेरी राहों में बिछे जाते हैं
चूमता है तेरे क़दमों को गगन आज की रात,
सारी दुनिया नज़र आती है दुल्‍हन आज की रात

नौशाद ने इस गाने के इंटरल्‍यूड में पश्चिमी ढंग के कोरस का इस्‍तेमाल किया है, ऊपर से रफी साहब की आवाज़ की पवित्रता और लता जी की आवाज़ की मासूमियत, जिससे ये गाना और भी दिव्‍य बन गया है ।
इस गाने को सुनने के लिये इस पंक्ति पर क्लिक कीजिये:
दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन आज की रात/लता-रफी/फिल्‍म कोहीनूर

इस विश्‍लेषण के अगले भाग में चर्चा शकील बदायूंनी के कुछ और गानों की आपकी राय का इंतज़ार.....









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गुब्‍बारे


शहर के आसमान पर सपनों की तरह उड़ते गुब्‍बारे
बचपन के वो रंगीन गुब्‍बारे
तस्‍वीर में नहीं है गुब्‍बारे वाला
क्‍योंकि वो खूबसूरत नहीं
शहर सिर्फ़ खूबसूरत चीज़ों को ही
आसमान पर जगह देता है
मोबाईल कैमेरे से खींची तस्‍वीर

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Monday, April 16, 2007

स्‍वागत है मेरे ब्‍लॉग में । रेडियो वाणी नाम इसलिये क्‍योंकि मेरा ताल्‍लुक रेडियो से है ।

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इलाहाबाद का जमना नदी पर बना नया पुल ।



शहंशाह अकबर ने कहा था कि ये संसार एक पुल है, जिस पर हम ठहरने के लिए गुज़र जाने के लिए आये हैं । पुल पर कोई ठहरता नहीं । सिवाय खुद पुल के ।

मोबाईल कैमेरे से ली गई तस्‍वीर ।



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चौराहा


मुंबई का एक चौराहा, ये रास्‍ता लता जी के घर की ओर जाता है । गाड़ी में से ली गई तस्‍वीर । क्‍या आपको नहीं लगता कि महानगरों के चौराहे डराते हैं ।
गाडियां किसी जंगली जानवर की तरह पैदल चलने वालों को लीलने के लिये हरदम तैयार रहती हैं ?


मोबाईल कैमेरे से ली गई तस्‍वीर ।

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उदित नारायण के साथ


पार्श्‍व गायक उदित नारायण के साथ मैं और मेरी सहकर्मी ममता सिंह । अप्रैल 2007 में खींची गयी तस्‍वीर ।

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Monday, April 9, 2007


‍स्वागत है मेरे ब्‍लॉग में । रेडियो वाणी नाम इसलिये क्‍योंकि मेरा ताल्‍लुक रेडियो से है ।

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