कल रात जिंदगी से मुलाक़ात हो गयी---शकील बदायूंनी पर केंद्रित श्रृंखला का पहला भाग
‘ तेरे बगैर अजब दिल का आलम है
चराग़ सैकड़ों जलते हैं रोशनी कम है
कफस से आये चमन में तो यही देखा
बहार कहते हैं जिसे खिजां का आलम है ’
एक कहानी जिसका आग़ाज़ तीन अगस्त 1916 को हुआ था, बीस अप्रैल 1970 को पहुंची अपने अंजाम पर । उस दास्तान का नाम था शकील बदायूंनी । तो आईये आज शकील बदायूंनी की इस दास्तान को जानें-सुनें ।
किसी ने क्या खूब कहा है कि शायर की दास्तान उसकी पैदाईश से शुरू तो ज़रूर होती है लेकिन उसकी मौत पर जाकर खत्म नहीं होती । उसके अशआर वक्त और ज़माने की हदों के पार जाकर उसकी याद को जिंदा रखते हैं । शायर पैदा तो होते हैं पर कभी मरते नहीं । आज शकील बदायूंनी जैसे अमर शायर की शायरी के समंदर में डुबकी लगायेंगे हम । हम गुनगुनायेंगे उसके तरानों को । हम पता लगायेंगे कि आखिर ऐसा क्या है उसके नग्मों में—जो बरसों बाद भी हम उन्हें गुनगुना रहे हैं ।
शकील दिल का हूं तरजुमा, मुहब्बतों का हूं राज़दां
मुझे फख्र है मेरी शायरी मेरी जिंदगी से जुदा नहीं ।
रवायत तो ये है कि पहले हम शायर का ताररूफ करायें उसके बाद आगे
बढ़ें । लेकिन रवायत तोड़ने को दिल चाहता है, क्योंकि शकील इतने बड़े और ऊंचे दरजे के शायर और गीतकार थे कि अगर वो बदायूं की जगह अलीगढ़ या इलाहाबाद में भी पैदा होते तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था । हां वो इस दुनिया में नहीं आते तो उनके नग्मों के गिना ये संसार कितना खाली खाली और फीका होता, इसका अंदाज़ा आपको ये आलेख पढ़कर लग जायेगा ।
जिंदगानी खुद हरीफे जिंदगानी हो गई ।
मैंने जब रखा कदम दुनिया पुरानी हो गई ।
है वही अफसाना लेकिन कहने वाले और हैं ।
है वही उन्वां मगर लंबी कहानी हो गयी ।
शकील शायरी की दुनिया से फिल्मों में आये थे । यानी फिल्मों में आने से पहले शायरी के आसमान पर वो एक चमकता सितारा बन चुके थे । वो मुशायरों की जान हुआ करते थे । उस दौर में तरक्की पसंद शायरी पूरे उफान पर थी । जुल्मतों के खिलाफ आवाज बुलंद की जा रही थी, गरीबों और लाचारों को जगाने के लिये शायरी की जा रही थी । शायरी को क्रांति का बायस माना जा रहा था । ऐसे तूफानी दौर में भी शकील उर्दू शायरी की गहरी रवायत का दामन पकड़े रहे । वो मुहब्बतों के शायर बने रहे । और मुशायरों को लूटते रहे ।
ये फलक फलक हवाएं, ये झुकी झुकी घटायें
वो नजर भी क्या नजर है जो ना समझ ले इशारा ।
मुझे आ गया यकीं सा कि यही है मेरी मंजिल
सरे राह जब किसी ने मुझे दफ्फतन पुकारा ।
कोई आये शकील देखे ये जुनूं नहीं तो क्या है
कि उसी के हो गये हम जो ना हो सका हमारा ।
ये है शकील की शायरी की मिसाल । मजे की बात ये है कि शायर शकील बदायूंनी जिस वक्त मुशायरों पर हुकूमत कर रहे थे तभी घर-गृहस्थी चलाने के लिये राज्य सरकार के सप्लाई विभाग में काम भी कर रहे थे । कितना अजीब था ना ये तालमेल । एक तरफ सप्लाई विभाग की नौकरी की सूखी और उबाऊ लिखापढ़ी । दूसरी तरफ शायरी की नाजुकतरीन दुनिया । सन 1942 से 1946 तक दिल्ली में नौकरी में रहते हुए उन्होंने खूब शायरी की और खूब नाम कमाया । फिर सन 1946 में एक मुशायरे में शिरकत करने के लिये वो बंबई तशरीफ लाए । वो लिखने पढ़ने का ज़माना था । और फिल्म निर्माता भी मुशायरे सुनने जाया करते थे । नामचीन निर्माता निर्देशक ए0 आर0 कारदार ने जब शकील बदायूंनी को सुनाओ तो उस वक्त बन रही अपने फिल्म दर्द में उन्हें लिखने का न्यौता दे डाला । बस फिर क्या था, मुनव्वर सुलताना, श्याम और सुरैया की अदायगी से सजी इस फिल्म से एक सुरीला अफसाना शुरू हुआ । आपको याद होंगे इस फिल्म के नग्मे ।
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अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का, आंखों में रंग भरके तेरे इंतज़ार का
फिल्म-दर्द/1947/कारदार प्रो0
टुनटुन यानी उमादेवी के गाये फिल्म दर्द के इस गाने से ही शुरू हुआ था गीतकार शकील बदायूंनी और संगीतकार नौशाद का साथ । दिलचस्प बात ये है कि शायरी की दुनिया से आने के बावजूद शकील ने फिल्मी गीतों के व्याकरण को फौरन समझ लिया था । उनकी पहली ही फिल्म के गाने एक तरफ सरल और सीधे-सादे हैं तो दूसरी तरफ उनमें शायरी की ऊंचाई भी है । इस गाने में शकील साहब ने लिखा है---
आजा के अब तो आंख में आंसू भी आ गए
साग़र छलक उठा है मेरे सब्र-ओ-क़रार का
अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का
किसी के इंतज़ार को जितने शिद्दत भरे अलफ़ाज़ शकील ने दिये, शायद किसी और गीतकार ने नहीं दिये । ऐसा करते हैं कि इंतज़ार को शिद्दत भरे अलफाज देने की इसी बात पर हम सन 1946 से सीधे छलांग लगाते हैं सन 1949 की तरफ । एक बार फिर ए0 आर0 कारदार की फिल्म । एक बार फिर नौशाद की धुन और एक बार फिर शकील बदायूंनी का इंतज़ार की कशिश से लबरेज़ नग्मा । इस गाने को नौशाद ने राग पहाड़ी में क्या खूब बनाया है । इस गाने का दूसरा अंतरा है-----
तड़प रहे हैं हम यहां किसी के इंतज़ार में
खिज़ां का रंग आ चला है मौसमे-बहार में खिज़ां यानी पतझर
हवा भी रूख़ बदल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे ।।
फिल्म दुलारी का ये गीत गाया है मो0 रफी ने । बहुत ही कम साज़ों के इस्तेमाल से बनाए गये गानों में ये गाना चोटी पर आता है । आज के संगीतकारों को इस गाने को सुनकर सीखना चाहिये कि अच्छा गाना बनाने के लिये बीट्स या स्ट्रिंग डालकर गाने को ठूंस ठूंस कर भरना ज़रूरी नहीं होता । अच्छा गाना दिल से बनता है ।
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सुहानी रात ढल चुकी ना जाने तुम कब आओगे---फिल्म:दुलारी 1949
इश्क़ का कोई ख़ैरख़्वाह तो है
तू नहीं है तेरी निगाह तो है
जिंदगी इस सियाह रात सही
आशिक़ी इक चराग़े-राह तो है ।।
शकील बदायूंनी का ये शेर सियाह और सुनसान रात को आशिकी के चराग़ के सहारे काट लेने की बात करता है । आपके इस दोस्त को शकील के नग़मों को सुनते सुनते अचानक ये अहसास हुआ कि इस शायर को रात से बेइंतिहा मुहब्बत थी । हालांकि दुनिया में रात पर अगर किसी ने सबसे खूबसूरत ग़ज़लें या नज़्में कहीं हैं तो वो हैं रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी
ऐसा लगता है जैसे फिराक़ साहब ने रात को सही मानी दे दिये हैं । थोड़ी देर के लिये फिराक़ का रात का बयां देखिए ---
ये मौजे-नूर, ये भरपूर ये खिली हुई रात
कि जैसे खिलता चला जाए इक सफेद कंवल
सिपाहे-रूस हैं अब कितनी दूर बर्लिन के
जगा रहा है कोई आधी रात का जादू
क्ररीब चांद के मंडला रही है इक चिड़ीया
भंवर में नूर के करवट से जैसे नाव चले,
कि जैसे सीना-ए-शायर में कोई ख्वाब पले,
वो ख्वाब सांचे में जिसके नई हयात ढले,
वो ख्वाब जिससे पुराना निज़ामे-गम बदले ।।
ये रात, छनती हवाओं की सोंधी सोंधी महक
ये खेल करती हुई चांदनी की नर्म दमक
सुगंध रात की रानी की जब मचलती है
फजां में रूहे-तलब करवटें बदलती है ।।
हां तो बात चल रही थी कि शकील बदायूंनी को रात से बेइंतिहा मुहब्बत
थी । और हो भी क्यों ना । मुहब्बतों का शायर हर उस चीज़ से टूटकर प्यार करता है जो नाजुकतरीन होती है । फिर चाहे वो फूल की नाज़ुक पंखुडियां हों या किसी हसीन शख्स का पंखुडी जैसा नाजुक दिल । आपने शायद ही कभी ध्यान दिया होगा कि एक ही गीतकार ने रात के कितने कितने रंग अपने अलग अलग नग्मों में भरे हैं ।
ऐसी खुशी है कि आंसू निकल पड़े
होठों पर हैं दुआएं मगर दिल पे हाथ है
कैसी हसीन आज ये बहारों की रात है
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कैसी हसीन आज ये बहारों की रात है---फिल्म आदमी/मो0रफी और तलत महमूद/सन 1968
नोट:फिल्म में ये गीत मो0 रफी और महेंद्र कपूर की आवाज़ में है, दरअसल मनोज कुमार ने अपने लिए तलत की आवाज़ की बजाय महेंद्र कपूर की आवाज़ लेने पर ज़ोर दिया और नौशाद साहब को ये बात माननी पड़ी । पर रिकॉर्ड पर रफी और तलत की ही आवाज़ में हैं । गाने के शीर्षक को क्लिक करके आप यही संस्करण सुन सकते हैं । फिल्म में आपको महेंद्र कपूर वाला संस्करण मिलेगा ।
सन 1967 में आई फिल्म पालकी में शकील बदायूंनी ने रात का एक और अनमोल नग्मा लिखा । हिंदी फिल्मों में कुछ गाने जैसे कालजयी बनने के लिये ही रचे गये हैं । उनमें से एक है ये गाना । फिर वही संयोग । नौशाद, रफी साहब और शकील बदायूंनी ।
ऐ मेरी रूहे-ग़ज़ल, मेरी जाने-शायरीदिल मानता नहीं कि तू मुझसे बिछड़ गयी
मायूसियां हैं फिर भी मेरे दिल को आस है
समझाऊं किस तरह से मैं दिल बेक़रार को
वापस कहां से लाऊं गुज़री बहार को
मजबूर दिल के साथ बड़ी घात हो गयी
ये गाना सुनने के लिये इस पंक्ति पर क्लिक करें:
कल रात जिंदगी से मुलाक़ात हो गयी ।।
फिल्म पालकी/गायक-मो0 रफी/ सन 1967
नग्मों से बरसती है मस्ती, छलके हैं खुशी के पैमाने
आज ऐसी बहारें आई हैं, कल जिनके बनेंगे अफसानेअब इससे ज्यादा और हंसीं ये प्यार का मौसम क्या
जब रात है ऐसी मतवाली फिर सुबह का आलम क्या होगा ।।ईस गाने को सुनने के लिये यहां क्लिक करें ।फिल्म---मुगल-ए-आज़म/लता/नौशाद ।
अगर आपने मुग़ल-ऐ-आज़म फिल्म ध्यान से देखी है तो आपको समझ में आयेगा कि ऐसी सिचुएशन पर ऐसा क़व्वालीनुमा गीत लिखना कितनी बड़ी चुनौती रही होगी । और इसे शकील ने कितनी खूबी के साथ निभाया है । इसी तरह फिल्म राम और श्याम में जब मौक़ा आया तो शकील बदायूंनी ने रात से जुड़ा हमारी स्मृतियों का सबसे शिद्दत भरा गाना दिया । बेवफाई से तड़पता आशिक़ शब्दों के ज़हर बुझे तीर चला रहा है और पीछे से पियानो, ग्रुप वायलिन और ढोलक की जुगलबंदी । रफी साहब की वो बेक़रार आवाज़ और शकील के अलफ़ाज़ का अंदाज़ कि मुंह से बेसाख्ता वाह वाह निकल आती है ।
ये रात जैसे दुल्हन बन गयी चराग़ों से करूंगा और उजाला मैं दिल के दाग़ों से.......
तू मेरा साथ ना दे राहे मुहब्बत में सनम,चलते चलते मैं किसी राह पे मुड़ जाऊंगा
कहकशां चांद सितारे तेरे चूमेंगे क़दम
मेरे रस्ते की मैं एक धूल बन जाऊंगा
साथ मेरे मेरा अफसाना चला जायेगा
कल तेरी बज्म से दीवाना चला जायेगा
शम्मा रह जायेगी परवाना चला जायेगा
इस गाने को सुनने के लिये यहां क्लिक कीजिये:फिल्म: राम और श्याम/रफी /नौशाद
शकील के लिखे रात के नग्मों का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हो जाता बल्कि फिल्म कोहीनूर में एक नई ऊंचाई पर पहुंचता है । ये गाना ख्वाबों की ताबीर का गाना है । जिंदगी के खुशनसीब पलों का नग्मा है । शकील लिखते हैं---
जिनसे मिलने की तमन्ना थी, वो ही आते हैं
चांद तारे मेरी राहों में बिछे जाते हैं
चूमता है तेरे क़दमों को गगन आज की रात,
सारी दुनिया नज़र आती है दुल्हन आज की रात
नौशाद ने इस गाने के इंटरल्यूड में पश्चिमी ढंग के कोरस का इस्तेमाल किया है, ऊपर से रफी साहब की आवाज़ की पवित्रता और लता जी की आवाज़ की मासूमियत, जिससे ये गाना और भी दिव्य बन गया है ।
इस गाने को सुनने के लिये इस पंक्ति पर क्लिक कीजिये:
दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन आज की रात/लता-रफी/फिल्म कोहीनूर
इस विश्लेषण के अगले भाग में चर्चा शकील बदायूंनी के कुछ और गानों की आपकी राय का इंतज़ार.....
16 comments:
यूनुस भाई पहले तो स्वागत आपका हिंदी चिट्ठा जगत में ।
बहुत जबरदस्त लेख लिखा है आपने । शकील की शायरी और गीतों का अच्छा संकलन है और पेश तो किया है ही शानदार तरीके से । मैं तो शायद आफिस में रहूँगा जब आपका ये प्रोग्राम आएगा। :(
बस एक सुझाव ये कि पोस्ट का impact बरकरार रखने के लिए इसे दो तीन भागों में बाँटा होता तो ज्यादा बेहतर होता।
आपकी बात सही है ।
इस पोस्ट को कई हिस्सों में होना चाहिये था ।
दरअसल मुझे लगा कि रात वाले नग्मे एक ही हिस्से में आ जायें तो अच्छा होगा ।
पर काफी लंबा हो गया । अभी इसका अगला हिस्सा भी तैयार है पर मैं पोस्ट नहीं कर पा रहा हूं
शायद रविवार तक कर सकूं । अब आपकी बात मानकर अगला हिस्सा नहीं बल्कि हिस्से पोस्ट करूंगा
शेष फिर
यूनुस
यूनुस भाई स्वागत है आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में।
आपके बारे में पहली बार याहू मैसेंजर पर आपके ऑफलाइन संदेश द्वारा ज्ञात हुआ था। उसके बाद रेमिंगटन संबंधी मदद के लिए मैं कई बार आया पर आप ऑनलाइन मिले नहीं। खैर मैंने समझा कि शायद आपकी इस बारे रुचि खत्म हो गई।
आज "सर्वज्ञ" पर आया तो ब्लॉग डायरेक्ट्री में आपका और आपके ब्लॉग का नाम देखा लेकिन कोई लिंक नहीं था (अब मैंने लिंक डाल दिए हैं)। फिर मैंने आपके ब्लॉग के नाम से गूगल सर्च की तो यहाँ पहुँचा।
आपके हिन्दी में लिखे लेख देखकर यह सपष्ट है कि अब आपको हिन्दी लिखने में कोई परेशानी नहीं। वैसे मैंने सर्वज्ञ पर रेमिंगटन संबंधी लेख डाल दिया है, उसे अवश्य देखें।
नारद पर आप रजिस्टर हो ही चुके होंगे यदि अब तक नहीं हुए तो तुरंत होएं। मैं चिट्ठाकार समूह पर आपके बारे में सूचना देता हूँ।
यूनुस जी,
हिन्दी-चिट्ठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत व अभिनंदन। मैं आपसे मिलने को हमेशा ही उत्सुक रहा हूँ, एक-दो बार विविधभारती फ़ोन भी लगाया है, लेकिन शायद मिलना था इस तरह से, चिट्ठाकार-बंधु बनकर। खैर आप भी हमारे ख़ेमे में आ गये, यह देखकर अच्छा लगा। अभी श्रीश भाई से पता चला कि आप भी ब्लॉग पर पधारे हैं। चलिए अच्छा है। अब तो शायद रोज़ ही मुलाकात हो जाया करेगी।
पहले आप अपना ब्लॉग नारद और हिन्दी-ब्लॉग्स आदि एग्रीगेटर पर करायें, ताकि पूरा हिन्दी-ब्लॉग जगत आपका स्वागत करे।
हम, कुछलोग मिलकर नए कवियों का एक हिन्दी ब्लॉग-मंच बनाये हैं, नाम है हिन्द-युग्म, आप भी देखें क्योंकि आप भी कविता-प्रेमी हैं। आपके ब्लॉग को हिन्द-युग्म से जोड़ा जा रहा है।
धन्यवाद।
युनुस भाई,
बहुत अच्छा लगा आपको देख कर। कभी सोचा न था कि रेडियों वालों के भी चित्र देखने को मिलेगा। पर यह हो ही गया।
मेरे स्मृति पटल पर एक फोटो थी आपकी कि करीब आपकी आवाज की तरह आपकी उम्र 50 के आस पास होगी यह कुछ और ही निकला।
मेरी गुजरिस है कि आप आपने मोबइल कैमरे का पूरा उपयोग रेडियो स्टेशन मे करेगें और अन्य सहकर्मी के चित्रों को हम तक पहुचायेगें।
हार्दिक सवागत व बधाई
आपका अभारी रहूँगा
Hello Yunus Bhai,
हिन्दी चिट्ठा संसार में आपका वृहत स्वागत है…।
मुझे अत्यंत प्रसन्न्ता हुई यह जानकर की आप भी हिन्दी विकास की प्रयास साधना में शामिल हो गये…।
शकील साहब की शायरी को थोड़े में संपूर्णता के साथ प्रस्तुत किया जो…मन में हलचल उठा गया है…।धन्यवाद।
यूनुस भाई, खुश-आमदीद। आप के आने से हिन्दी ब्लॉगमंडल में संगीत का सुर गूँजेगा, खुशी हो रही है। रेडियो और विविध-भारती का पुराना शौकीन हूँ। मेरा रेडियो लिंक्स का पृष्ठ देखें। क्या कभी निकट भविष्य में भारत के रेडियो स्टेशन इंटरनेट पर सुनाई देने की उम्मीद कर सकते हैं?
युनूस, आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में पदार्पण हिन्दी को और सबल करेगा। अभिनन्दन है आपका!
चिट्ठाकारी की दुनिया में खैरम-कदम । कम से कम फ़ीडबैक यहाँ ज्यादा मिलेगा । निवेदन है कि मनीषजी के खूबसऊरत चिट्ठे को जरूर देखें।अब तक वे हमें गीतों,गीतकारों,रचनाकारों का तार्रुफ़ कराते आए हैं ।
आपको सुनते आये थे..अब पढ भी लिया । इसी तरह सुरों की सरिता बहाते रहें..
चिट्ठा परिवार में आपका स्वागत है. ऐसे ही बेहतरीन लेख हमें पढवाते रहिए.संभव हो तो अपनी पसंद के चुनिन्दा गीत सुनवाते भी रहिए.
यूनुस जी, कल ही पता कि आप हिन्दी-ब्लागिंग की दुनिया में क़दम रख चुके हैं, काफी अच्छा लगा। लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि युनुस खान अपने ब्लाग में लिखेंगे क्या?
और आज मैंने जब आप का ब्लाग देखा तो मुझे मेरे सवाल का एक खू़बसूरत जवाब मिला। शकील साहब के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला।
मैं आप से एक दरख़ास्त करना चाहूंगा कि आने वाले समय में आप मज़रूह साहब और राजा मेंहदी अली खान के बारे में भी बतायें।
यूनुस भाई
आदाब अर्ज है.. रवि भाई को वजह से तो हमने भी ब्लोग लिखना शुरु किया है.. अब आप आ गये हैं तो और मजा आयेगा.. हम तो सालों से विविध भारती सुन रहे हैं, हालांकि आपका फ़ोटो पहले मैने देख रखा था, साथ ही यह भी जानता हूँ कि विविध भारती के अधिकतर अनाऊंसर किसी न किसी तरह से मध्यप्रदेश से जुडे रहे हैं, चाहे वे छत्तीसगढिया (सबसे बढिया) कमल शर्मा हों, इन्दौर की निम्मी मिश्रा जी हों, भोपाल में काम कर चुकीं रेणु बन्सल हों, या फ़िर आप स्वयं... सभी एक से बढकर एक हैं... आपका "यूथ एक्सप्रेस" कार्यक्रम बहुत अच्छा है.. यदि आपसे व्यक्तिगत सम्पर्क (ई-मेल या चैटिंग) से हो जाये तो हम धन्य हो जायें...चिठ्ठा जगत में प्रवेश पर हार्दिक स्वागत और बधाईयाँ...
देरी से सही, मेरी ओर से भी स्वागत है।
भई वाह । बधाई हो । कृपया ब्लाग के अलावा अन्यत्र भी लिखकर संगीत विषयक सामग्री को हिंदी के लिए सर्वसुलभ बनाये ।
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