इश्क़ के शोले को भड़काओ के कुछ रात कटे- मख़दूम मोहिउद्दीन पर केंद्रित श्रृंखला की आखिरी कड़ी ।
कॉपीराईट पर हुए विचार-विमर्श और कुछ जिंदगी की व्यस्तताएं थीं जिनकी वजह से मख़दूम मोहीउद्दीन पर केंद्रित श्रृंखला की आखि़री कड़ी प्रस्तुत नहीं की जा सकी । आज हम आपको मख़दूम की एक बेहद मकबूल रचना सुनवा रहे हैं । जिसका उन्वान है 'इश्क़ के शोले को भड़काओ कि कुछ रात कटे' । इस श्रृंखला में मैंने बार बार कहा है कि मख़दूम ऐसे शायर हैं जिन्होंने बहुत क्रांतिकारी अशआर भी लिखे और मोहब्बत के नाज़ुक अहसासों को भी अपनी रचनाओं में ढाला ।
आज जो ग़ज़ल पेश की जा रही है उसके दो संस्करण मुझे मिले हैं । एक संस्करण 'अंतर्ध्वनि' वाले भाई नीरज रोहिल्ला ने भेजा है । ये जगजीत सिंह की आवाज़ में है और दूरदर्शन पर कभी आए धारावाहिक 'कहकशां' का हिस्सा है । बरसों से विदेश में रह रहीं हमारी एक भारतीय-मित्र ने पूछा है कि क्या 'कहकशां' अब डी वी डी पर उपलब्ध है, ये सवाल हम आपके सामने रख रहें हों, कृपया बताएं कि क्या 'कहकशां' को दोबारा देखने का सौभाग्य मिल सकता है । हां तो अब दूसरे संस्करण की बात । कई महीनों से मैं सोच रहा था कि ये रचना मैंने आशा भोसले की आवाज़ में कहीं तो सुनी है । बहुत खोजबीन के बाद आखिरकार मुझे ये संस्करण मिल ही गया । इसे सन 1983 में आई श्याम बेनेगल की फिल्म 'मंडी' में इस्तेमाल किया गया था । आशा भोसले ने इसे वनराज भाटिया के संगीत निर्देशन में गाया था । चलिए पहले इसे सुना जाए ।
यहां आशा जी ने पूरी शास्त्रीयता और हरकतों के साथ इस गाने को गाया है । वनराज की रचनात्मकता की एक मिसाल आखिरी शेर हैं । 'आज हो जाने दो' से गाने की रफ्तार बढ़ जाती है । और इस रचना में एक नया आयाम जुड़ जाता है । ये रहे इस गाने के बोल । आपको बता दें कि जिन शेरों को बोल्ड किया गया है....वो जगजीत सिंह वाले संस्करण में नहीं हैं ।
इश्क़ के शोले को भड़काओ कि कुछ रात कटे
दिल के अंगारे को दहकाओ कि कुछ रात कटे
हिज्र में मिलने शब-ए-माह के गम आये हैं
चारासाजों को भी बुलवाओ कि रात कटे
कोई जलता ही नहीं कोई पिघलता ही नहीं
मोम बन जाओ पिघल जाओ कि कुछ रात कटे
चश्म-ओ-रुखसार के अज़गार को जारी रखो
प्यार के नग़मे को दोहराओ कि कुछ रात कटे
आज हो जाने दो हर एक को बद्-मस्त-ओ-ख़राब
आज एक एक को पिलवाओ कि कुछ रात कटे
कोह-ए-गम और गराँ और गराँ और गराँ
गमज़दों तेश को चमकाओ कि कुछ रात कटे ।
और ये रहा जगजीत सिंह वाला संस्करण ।
दोनों को सुनकर आपको फ़र्क़ साफ़ समझ में आ जाएगा । और हां ये भी बताईये कि इनमें से ज्यादा असरदार धुन किस संस्करण की लगी । बहरहाल...मख़दूम मोहीउद्दीन की रचनाओं पर केंद्रित ये श्रृंखला अब ख़त्म की जा रही है । आप सभी ने इस श्रृंखला के दौरान जिस तरह हौसला बढ़ाया उसके लिए आभार । रेडियोवाणी पर हम संगीत की ये महफिल जारी रखेंगे ।
मख़दूम मोहीउद्दीन पर केंद्रित श्रृंखला की बाक़ी कडि़यों के लिंक ये रहे---
1. दो बदन प्यार की आग में जल गए
2. जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है
5. रात भर दीदाए-नमनाक में लहराते रहे
10 comments:
युनूस भाई ,
बेहतरीन शायर जनाब मख़दूम मोहीउद्दीन पर पूरी सीरीज़ बेहद उम्दा रही -
बहुत पसंद आए सारे ऑफ़ बीट गाने --
'रेडियोनामा" पर पापा जी का जयमाला प्रस्तुत करने का भी बहुत बहुत शुक्रिया
स स्नेह
-लावण्या
ये हुई ना बात. यूनुस भाई, अब हम जम कर संगीत सुनेंगे और सुनाएंगे.
आपके ब्लॉग का पुराना आशिक हूं.
दोनों ही गीत असरदार है।
यूनुसजी
आशाजी की आवाज में इस गजल को सुनवाने के लिये बहुत आभार,
लीजिये हम भी आपके लिये वो तोहफा लाये हैं की आप याद रखेंगे ...
इस लिंक पर चटखा लगाइये और कहकशां टी.वी. सीरियल के सभी ३२ गाने डाऊनलोड कर सकते हैं | जिन्होंने भी आपसे कहकशां के गीतों की फरमाइश की थी उन्हें भी इस लिंक का पता जरूर बता दें |
http://nrohilla.multiply.com/music/item/1
साभार,
नीरज
और हाँ अगर हम जेल में जाएं गाने शेयर करने के लिये तो बस आलू के परांठों का इंतजाम हो जाये :-)
यूनुस भाई,
श्रृंखला की अन्तिम प्रस्तुति भी हमेशा की तरह शानदार रही.
"इश्क के शोले को भड़काओ, कि कुछ रात कटे "
मोहिउद्दीन की ये रचना तो दोनों ही गायकों ने अपने अपने अंदाज में गायी है. जब मैं आशा जी वाला संस्करण सुन रहा था तो मैं ग़ज़ल में डूब गया था,अचानक जब pace change हुआ तो चौंका पर मानो गाने में एक बहार सी आ गई. फ़िर जगजीत जी वाला संस्करण, अपने उसी अंदाज में प्रस्तुत करते अच्छे लगे. पर जब मैंने देखा कि आपने तुलना करने को लिखा है तो मैं असमंजस में पड़ गया. दोनों अच्छे हैं.
धन्यवाद.
शुक्रिया जनाब इस कमाल के सुरीले सफर के लिए. ग़ज़ब की शायरी और उतनी ही उम्दा धुनें. वाह .... इंतज़ार है आप के साथ अगले सुरीले सफर का.
पूरी श्रंखला बेहतरीन लगी. बहुत बहुत शुक्रिया!
युनुस जी हमें तो जगजीत के स्वर में ये गाना और खूबसूरत लगा। आशा जी वाला संस्करण थोड़ा फ़ास्ट हो गया, जब कि इस में चाहिए थी नजाकत वो आयी जगजीत जी के स्टाइअल में।
युनुस जी आपने नीरज जी के ब्लोग पर जाने को जो सुनने को कहा था वो तो नहीं मिला, हां! केवट सवांद जरूर सुन आये पंडित मिश्रा जी की आवाज में और झूम आये इस के लिए श्रेय आप को देना पड़ेगा इसके पहले कभी नीरज जी का ब्लोग देखा नही था न आप ने वो रास्ता भी दिखा दिया, धन्यवाद
यूनुस - मुझे भी जगजीत जी वाला ज़्यादा अच्छा लगा - मनीष [ पांडे जी के आलू पराठे बड़े फेमस हो रहे हैं ?] - [जुम्मे के दिन अडोबी पेलयर जुगाड़ता हूँ - फैज़ साहब को बिल्कुल नहीं पढ़ा ]
यूनुस, आशा जी और वनराज भाटिया वाले version का अपना अंदाज़ है, अपनी energy है।
Loved this track.
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