मख़दूम मोहीउद्दीन का गीत--जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है । फिल्म उसने कहा था ।
कल हमने रेडियोवाणी पर मखदूम मोहिउद्दीन का फिल्म चा चा चा का गीत सुना था--दो बदन प्यार की आग में जल गये । हमने आपसे वादा किया था कि आज हम आपको मख़दूम का ही रचा एक और गीत सुनवाएंगे । तो लीजिए हम हाजि़र हैं । लेकिन गाना सुनवाने से पहले मख़दूम के कुछ अशआर पढ़ लिए जाएं ज़रा । जैसा कि हमने आपसे पहले भी कहा कि मख़दूम इंकलाबी शायर थे । क्रांति के गीत गाने वाले । लेकिन उन्होंने मुहब्बतों की शायरी भी की । आईये उनका एक ऐसा नग्मा पढ़ें जो शोले उगलता है । इसे नासिरूद्दीन ने अपने चिट्ठे 'ढाई आखर' पर चढ़ाया था । यहां क्लिक करिए और पढि़ये ।
इश्क़ के शोले को भड़काओ के कुछ रात कटे
दिल के अंगार को दहकाओ के कुछ रात कटे ।
हिज्र में मिलने शबे-माह के ग़म आये हैं
चारासाज़ों को भी बुलवाओ के कुछ रात कटे ।।
चश्मो-रूख़सार के अज़गार को जारी रखो
प्यार के नग़मे को दोहराओ के कुछ रात कटे ।।
कोहे-ग़म और गरां और गरां और गरां
गमज़ा-ओ-तेश को चमकाओ के कुछ रात कटे ।।
हिज्र-विरह । शबे-माह-पूरे चांद की रात । चारासाज़-इलाज करने वाले । कोहे-ग़म-दुख का पहाड़ । गरां-भारी, विशाल । तेश-कुल्हाड़ी ।
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और अब आईये ज़रा मख़दूम की रचना से प्रेरित एक गाना सुन लिया जाये । सन 1960 में आई फिल्म 'उसने कहा था' में इस गाने को शामिल किया गया था ।
कौन दुखिया है जो गा रही है.....भूखे बच्चों को बहला रही है.....लाश जलने की बू आ रही है.....जिंदगी है कि चिल्ला रही है
मैंने मखदूम की रचना से प्रेरित इसलिए कहा क्योंकि गीतकार शैलेन्द्र ने मखदूम की पंक्तियों को मुखड़ा बनाकर अंतरे अपने रचे हैं । इस फिल्म के निर्माता बिमल रॉय थे लेकिन इसे निर्देशित किया था मोनी भट्टाचार्य ने । सितारे थे सुनील दत्त, नंदा, राजेंद्र नाथ और दुर्गा खोटे । हाल ही में राजेंद्र नाथ ने इस संसार को अलविदा कह दिया है । बहरहाल- इस फिल्म का संगीत था सलिल चौधरी का । और ये उनका स्वरबद्ध किया एक अनमोल नग्मा माना जाता है । पहले वो मूल- रचना जिसे मखदूम ने लिखा था ।जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है
कौन दुखिया है जो गा रही है
भूखे बच्चों को बहला रही है
लाश जलने की बू आ रही है
जिंदगी है कि चिल्ला रही है
कितने सहमे हुए हैं नज़ारे
कैसे डर डर के चलते हैं तारे
क्या जवानी का खून हो रहा है
सुर्ख हैं आंचलों के किनारे
गिर रहा है सियाही का डेरा
हो रहा है मेरी जां सवेरा
ओ वतन छोड़कर जाने वाले
खुल गया इंक़लाबी फरेरा ।
और अब ज़रा वो गीत पढि़ये और सुनिए जिसे शैलेंद्र ने मख़दूम से प्रेरित होकर लिखा था ।
जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है
इश्क़ है क़ातिले जिंदगानी
ख़ून से तर है उसकी जवानी
हाय मासूम बचपन की यादें
हाय दो रोज़ की नौजवानी
जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है ।।
कैसे सहमे हुए हैं नज़ारे
कैसे डर डर के चलते हैं तारे
क्या जवानी का खूं हो रहा है
सुर्ख है आंचलों के किनारे
जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है ।।
कौन दुखिया है जो गा रही है
भूखे बच्चों को बहला रही है
लाश जलने की बू आ रही है
जिंदगी है कि चिल्ला रही है
जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहां जा रहा है ।।
सलिल चौधरी ने इसे एक विकल कोरस और मार्च पास्ट की ट्यून से शुरू किया है । ऐसे विकल कोरस सलिल दा के संगीत में बहुत मिलते हैं । और फिर मन्ना दा की मार्मिक आवाज़ । जहां तक मुझे याद आता है इस गाने में जो पतला सा महिला स्वर सुनाई पड़ता है वो सबिता चौधरी का है । युद्ध की विभीषिका पर ऐसा मार्मिक फिल्मी गीत दूसरा नहीं है । आपका क्या कहना है ।
मख़दूम मोहिउद्दीन पर केंद्रित ये श्रृंखला जारी रहेगी ।
11 comments:
शब्द, धुन और स्वर का मेल इस गीत के भाव व्यक्त करनें में सफल हैं। सशक्त गीत रचना ।
ओह! सुबह सुबह क्या सुनवा दिया ,अब दिन भर इस गीत से निजात नहीं……अद्धभुत……शुक्रिया यूनुस जी
बहुत ही मार्मिक गीत.. मख्दूम साहब की बहुत सी नज़्मों को तलत अजीज़ ने बड़ी ही खूबसूरती से गाई है।
मखदूम मोहिउद्दीन हमारे प्रिय शायर है जिसकी एक वजह यह भी है मखदूम साहब का संबंध हैदराबाद से है।
ये गीत मैने भूले-बिसरे गीत में बहुत बार सुना था। आज भी सुनना अच्छा लगता है।
आपने लिखा की कड़ी जारी रहेगी, तो इस कड़ी में बाज़ार फ़िल्म को शामिल करना मत भूलिए।
यूनुस - दस दिन गायब रहने के बाद मखदूम मोहिउद्दीन साहब को/ के बारे में / पढ़ना सुनना मज़ा आया [ प्रहार के गाने में भी - जब देखी थी तो बहुत झकझोर लगी थी ] - एक छोटा confusion है - नग़्मे में (चश्मो-रूख़सार के अज़गार को जारी रखो / प्यार के नग़मे को दोहराओ के कुछ रात कटे ।।) "अज़गार" होना चाहिए कि "अज़्कार" होना चाहिए ? - मनीष
फिर छिड़ी आज बात मखदूम की!
युनुस भाई! जिस खूबसूरती से आपने मखदूम की नज़्म और उससे प्रेरित गीत से हमारा परिचय कराया, वह काबिले-तारीफ़ है. और मखदूम की शायरी तो वैसे भी किसी तारीफ़ की मोहताज़ नहीं.
जैसा कि पारुल जी ने कहा, अब सारे दिन इससे निज़ात नहीं मिलने वाली! बहुत बहुत शुक्रिया!
मखदूम मोहिउद्दीन जी के शब्द तो बेचैन कर देने वाले हैं। फिल्म की रूमानी दुनियां में कैसे चलते रहे होंगे?
वाह भाई बड़ा ही संवेदनात्मक गीत है दिल को छू गया। मैंने नहीं सुना था इसे। लाजवाब पोस्ट दिल खुश कर दिया आपने।
भाई ये श्रंखला बहुत सही चयन है । इसे रोज़ सुनना चाहूंगा। मेरे बेटे को संस्कार डालने के लिए इससे बेहतर और कलेक्शन और कहां मिलेगा।
मेरी गुज़ारिश पर तरस खाओ दोस्त और ये संगीत लगाने-चढ़ाने की कोई तो तरकीब बता दो, यूं कि झट से भेजे में घुस जाए और बिलाग पे चढ़ जाए।
कुछ नायाब चीज़ें हम भी सुनवाएंगे फिर। शब्दों के सफर के साथ।
pahali baar suna oj se bhara ye geet
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