फिर फिर मख़दूम--फिर छिड़ी रात बात फूलों की । फिल्म बाज़ार
रेडियोवाणी पर हम इन दिनों आपको सुनवा रहे हैं वो नग़्मे जो मख़दूम मोहिउद्दीन के रचे हुए हैं । मख़दूम का जन्म सन 1908 में हुआ था और उनकी मृत्यु सन 1969 में हुई थी । उनकी हयात में ही कुछ ऐसी फिल्में आ गयी थीं जिनमें उनके अशआर शामिल किए गए थे । इसलिए हम ये मान लेते हैं कि उनकी सहमति और स्वीकृति के बाद ही फि़ल्मों में उनके गाने शामिल किए गये होंगे । पर जहां तक हमारी जानकारी है मख़दूम ने ख़ुद कभी फिल्मों में गीत रचने की नहीं सोची थी ।
आज हम आपको मख़दूम का लिखा एक और नायाब गीत सुनवा रहे हैं । मुझे लगता है मख़दूम की रचनाओं से मेरा पहला परिचय इसी के ज़रिए हुआ था । ये गीत सन 1982 में रिलीज़ हुई फिल्म 'बाज़ार' का है । जिसके निर्देशक थे सागर सरहदी । समर्थ कलाकारों की पूरी फ़ौज थी इस फिल्म में । नसीरूद्दीन शाह, फ़ारूख शेख़, स्मिता पाटील, सुप्रिया पाठक । संगीत ख़ैयाम का था । इस फिल्म का संगीत बेहद मकबूल हुआ था । मुझे याद है कि वो बाज़ार से कैसेट भरवाने वाले दिन थे जब मैंने इस फिल्म का कैसेट तैयार करवाया था । हर गाने के पहले इस कैसेट में संवाद थे । और वो भी ऐसे भावुक और असरदार संवाद कि पूछिए मत । अभी भी फ़ारूख़ शेख़ की आवाज़ कानों में गूंजा करती है--चूडियां ले लो चूडि़यां । रंग बिरंगी चूडि़यां । या फिर नसीर का वो संवाद--कभी रास्ते में मिल गयीं तो पहचान लोगी मुझे । तो स्मिता जवाब देती हैं--सलाम ज़रूर करूंगी......और शुरू होता है गाना--'करोगे याद तो हर बात याद आएगी' । उफ़ क्या दौर था वो । स्कूल कॉलेज का ज़माना और इत्ते रूमानी गीतों का साथ । बहरहाल मख़दूम पर केंद्रित इस श्रृंखला में आज हम इसी फिल्म का 'फूलों वाला गीत' सुनेंगे ।
मुझे नहीं लगता कि फूलों पर कहीं और इतना ख़ूबसूरत कुछ लिखा गया है । शानदार बेमिसाल और अद्भुत है ये ग़ज़ल । और उतना ही प्यारा संगीत । ख़ैयाम ने इस गाने का इंट्रो इतना भव्य तैयार किया है कि आज सुबह सुबह जब मैंने इस गाने को शुरू किया तो लगा वाह क्या दिन है ये ।
.... ये महकती हुई ग़ज़ल मख़दूम......जैसे सहरा में रात फूलों की ।।
फिर चाशनी में भीगी दोनों आवाज़ें---तलत अज़ीज़ और लता मंगेशकर । वायलिन पर कुछ अरबी धुन की स्वरलहरियां । ग़ज़लों को स्वरबद्ध करने में ख़ैयाम का कोई सानी नहीं है । सितार कितना ख़ूबसूरत है इस गाने में ज़रा ध्यान दीजिएगा । ख़ैयाम एक ख़ास तरह का रिदम रखते हैं अपने नाज़ुक गानों में । यही रिदम आपको रजिया सुल्तान के गानों में भी दिखेगा और उमराव जान के गानों में भी । लेकिन हर संगीतकार का एक मुहावरा होता है । ये रिदम और अरेबियन फ्लेवर ख़ैयाम का मुहावरा हैं । आईये सुनें---
ये रहे इस गीत के बोल--
फिर छिड़ी रात बात फूलों की
रात है या बारात फूलों की ।।
फूल के हार फूल के गजरे
शाम फूलों की रात फूलों की ।।
आपका साथ, साथ फूलों का
आपकी बात, बात फूलों की ।।
फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बात फूलों की ।।
नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं
मिल रही है हयात* फूलों की ।। हयात-जिंदगी
ये महकती हुई ग़ज़ल मख़दूम
जैसे सहरा में रात फूलों की ।।
गाना थोड़ा लंबा है । तसल्ली से सुनियेगा और फिर मख़दूम की रूमानियत को सलाम ज़रूर कीजिएगा । अगर वीडियो देखने का मन है तो ये रहा--
18 comments:
सुबह सुबह इतना मधुर गीत सुनवाने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
Wonderful song and the VDO added a great pleasure.
Thank you sir!
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
मखदूम, तलत अजीज और लता मंगेशकर - यह तो आनन्द तिगुना नहीं, "आनन्द क्यूब" (आनन्दXआनन्दXआनन्द) हो गया!
basant...aur baat phuulon ki.......khuubsurat geet.....shukriyaa
यूनुस भाई,
शायद तलत अजीज़ साहब की नर्म सी आवाज़ का कायल मैं इसी गाने से हुआ था.
मेरे प्रिय संगीतकार ख़य्याम साहब और उसपर लताजी की खनकती आवाज़..
मधुर ग़ज़ल सुनवाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.
बाजार के सभी गीत बहुत ही खूबसूरत हैं। फिल भी बहुत अच्छी थी।
हिंदी में कुछ फिल्में ऐसी हैं जिनका संगीत उन्हें सभी फिल्मों से एकदम अलग करता है, यूनीक बनाता है, बाजार ऐसी ही फिल्म है।
धन्यवाद जी ,किसी रोज ये कहानी है दिये की और तूफ़ान की जरूर सुनवाईयेगा..?
युनुस भाई! पिछली पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में मैंने लिखा था ’फिर छिड़ी आज बात मख्दूम की’ और आज आपने ये गीत सुनवाकर मानो मेरी मुराद पूरी कर दी. शुक्रिया!
बहुत ही मीठा गीत है। और ये गीत मेरे पसंदीदा गीतों मे से एक है।
इस फ़िल्म के दूसरे गीत भी काफ़ी अच्छे थे।
मजा आ गया धन्यवाद , ख्याम जी के संगीतबद्ध किए और गाने भी सुनवाइए
ख़य्याम साहब के संगीत की मींमांसा पढ़नें के पहले यह मालूम नही था कि यह गीत मधुर है, तो क्यों है।
गीत सुनवाने और समझानें का शुक्रिया ।
किसे इंकार हो सकता है मख़दूम की रूमानियत से भला. वैसे मेरी नज़र में इस ख़ूबसूरत गीत की रूमानियत में खै़याम साहब की मूसीकी़ का कमाल भी कम नहीं. ये ख़ूबसूरत गीत सुनवाने का शुक्रिया.
यूनुस भाई
मख़दूम साहब का ख़ूबसूरत गीत, खय्याम की धुन, लता और तलत अज़ीज़ की आवाज़ का जादू और वह भी एक उम्दा फ़िल्म में और फिर आपकी मेहरबानी कि कानों और आंखों ने बार बार सुनने को मजबूर कर दिया। शुक्रिया !
मेरी पसंद। आपका साथ साथ फूलों का ....
क्या बात है। कहां से कहां पहुंच गए,ख़ुश्क वादियों से फूलों के सहरा में... । बरसों का फासला तय हो गया....शुक्रिया भाई इस महकती ग़ज़ल को सुनवाने के लिए।
वाह !
बहुत ही प्यारा गीत है....
aapke blog par aata thaa gane sunta thaa aur laut jata thaa magar aaj "Phir Chidi......" sun kar raha nahin gaya. ye mera favourite gana hai isne mujhe purane dino ki yaad dila di jab college ki ek students, teachers gathering main maine ye duet akele gaya aur gana khatam hone par hindi ki teacher ne dubara apne saath gane ko kaha. Is film ke director Sagar Sarhadi saheb se milne par mujhe utni khushi nahi hui jitni aaj ek arse baad is gane ko sun kar hui. Talat aziz saheb ki ek aur gazal "Aisa lagta hai zindagi tum ho...." jise ga ke maine kai prize jhatke hain. aapka blog bahut nayaab hai. Dhanyawaad
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