संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Thursday, February 14, 2008

दो बदन प्‍यार की आग में जल गए: मख़दूम मोहीउद्दीन की नज़्म । फिल्‍म 'चा चा चा'

दुनिया आज वैलेन्‍टाईन्‍स डे मना रही है इसलिए हमें रेडियोवाणी पर शरारत सूझी है । हमें पूरी उम्‍मीद है कि इस 'समझदार शरारत' में आपको भी लुत्‍फ आयेगा । दरअसल मुंबई के बौराए हुए नौजवानों को देखकर लगा कि क्‍यों ना 'वेल इन टाईम' इस गाने को आप तक पहुंचा दिया जाए । हम जो कहना चाहते हैं वो बराबर पहुंचेगा और वो भी बिना कहे ।

ये पोस्‍ट समर्पित है मशहूर शायर 'मखुदूम मोहीउद्दीन' को । आज उनकी लिखी ये नज़्म भले हम आपको सुनवा रहे हैं पर तमन्‍ना  है उनके बारे में आपको कुछ जानकारियां देने की और उनके कुछ अशआर आप तक पहुंचाने की । देखते हैं कि इस लंबी पोस्‍ट में क्‍या क्‍या मुमकिन हो पाता है । 



मस्जिदों के मीनारों ने देखा उन्‍हें
मन्दिरों के किवाड़ों ने देखा उन्‍हें
मयकदे की दरारों ने देखा उन्‍हें ।।

मखदूम मोहीउद्दीन का पूरा नाम था अबू सईद मोहम्‍मद मख़दूम मोहीउद्दीन हुज़री । उनका जन्‍म सन 1908 में आंध्रप्रदेश के क़रीब मेडक में हुआ था । जो उस ज़माने में हैदराबाद रियासत का हिस्‍सा हुआ करता था । सन 1936 में ओस्‍मानिया यूनिवर्सिटी से उन्‍होंने परास्‍नातक की डिग्री ली थी । सन 1943 में उन्‍होंने हैदराबाद में 'प्रगतिशील लेखक संघ' का गठन किया था । मख़दूम विविध-रंगी शायर थे । एक तरफ इंतिहा मुहब्‍बत का रंग उनकी शायरी में उतरा तो दूसरी तरफ मख़दूम ने क्रांति की शमां जलाई । इसीलिये मख़दूम शायर-ऐ-इंक़लाब के नाम से जाने जाते हैं । वे कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी के सक्रिय सदस्‍य थे । 1946-47 में हुए तेलंगाना विद्रोह में मख़दूम ने अहम योगदान दिया था । सन 1969 में उनका निधन हो गया ।

मखदूम की कविताओं का संग्रह 'बिसात-ऐ-रक्‍स' (The Dance Floor) काफी मशहूर हुआ है । वैसे उन्‍होंने रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं पर एक निबंध भी लिखा था और जॉर्ज बर्नाड शॉ की नाटक Widowers' Houses का उर्दू अनुवाद किया था 'होश के नाख़ून' के नाम से  । वैसे सन 1944 में उनकी कविताओं का एक संग्रह आ चुका था 'सुर्ख़-सवेरा' (The Red Dawn)और सन 1961 में उनकी किताब आई थी ' गुल-ऐ-तीर' (The Dewdrenched Rose).

मख़दूम पर चिट्ठों की दुनिया में पहले भी चर्चा हो चुकी है । नासिरूद्दीन ने अपने चिट्ठे ढाई आखर पर मख़दूम की यही नज़्म पेश की थी, कठिन उर्दू अलफ़ाज़ के मायने सहित । नीचे जो इबारत दी जा रही है उसका श्रेय भाई नासिरूद्दीन को ही जाता है । इसके अलावा नीरज रोहिल्‍ला ने अंतर्ध्‍वनि पर इसका ऑडियो भी चढ़ाया है । वहां भी पहुंचिएगा । पर चूंकि यहां हम मख़दूम के कई गीतों की बातें करने वाले हैं इसलिए शुरूआत इस नग़मे से की जा रही है । चलिए इस गाने को पढ़ें और सुनें ।

गाने का आग़ाज़ होता है लता और रफ़ी के आलाप और पायलों की रूनझुन की आवाज़ से । और फिर लता और रफ़ी की सम्मिलित आवाज़ों में गाने का मुखड़ा सुनाई देता है । यहां आपको बता दें कि ये गाना अभिनेता चंद्रशेखर की फिल्‍म 'चा चा चा' में शामिल किया गया था । संगीतकार थे इक़बाल क़ुरैशी । विविध भारती में मुझे इक़बाल क़ुरैशी से मिलने का मौक़ा मिला था । अहमद वसी ने उनका इंटरव्‍यू किया था । इक़बाल साहब पहले फौजी थे और फिर बन गये संगीतकार । बेमिसाल संगीतकार थे वो । कम काम किया लेकिन शानदार किया । इस नज़्म को संगीत में पिरोना कोई आसान काम नहीं था । आप इसे पढ़ें तो पाएंगे कि इसमें गायकी का element बहुत कम है, पर इक़बाल क़ुरैशी ने जिस ख़ूबी के साथ इसकी तर्ज़ बनाई है वो कमाल की है ।

मैं ज़रा इसकी कुछ ख़ूबियों की तरफ आपका ध्‍यान खींचना चाहता हूं । मुखड़े को आशा भोसले और रफ़ी दोनों ने गाया है लेकिन जब अंतरा आता है तो 'प्‍यार हर्फे़ वफा़'  वाली पूरी पंक्ति रफ़ी साहब ने अकेले गाई है । हैरत की बात ये है कि जब दूसरा अंतरा आता है तो 'ओस में भीगते..' वाली पंक्तियां दोनों से साथ साथ गवाई गयी हैं । और 'काली काली लपटों' वाली पंक्ति फिर रफ़ी साहब ने अकेले गायी है । यही नहीं 'हमने देखा उन्‍हें' वाली पंक्तियां फिर से जुगलबंदी में हैं । और 'मस्जिदों, मंदिरों और मयकदे' वाली पंक्तियां आशा और रफ़ी साहब से बारी बारी से गवाई गयी हैं । यही हाल आखिरी अंतरे में भी है । कुल मिलाकर इक़बाल क़ुरैशी ने इस गाने में गायकों को उनकी पंक्तियां काफी सोच-समझ कर दी हैं इसलिए ये गीत संगीतकारी के नज़रिये से काफी पेचीदा बन गया है ।

इंटरल्‍यूड में सारंगी का शानदार इस्‍तेमाल है । और हर अंतरे की शुरूआत छोटे-से आलाप से होती है । गाना भीतर से इतना पेचीदा होते हुए भी बाहर से एकदम सादगी भरा महसूस होता है । गाने के आखिर में पूरे ऑरकेस्‍ट्रा पर मुखड़े को बजाया गया है । जो एक सुखद अहसास देता है । मुझे पूरी उम्‍मीद है कि आप इस गाने को बारंबार सुनेंगे । और तब भी मन नहीं भरेगा ।

इक चमेली के मंडवे तले
मयकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन प्‍यार की आग में जल गये

प्‍यार हर्फे़ वफ़ा.....प्यार उनका खु़दा
प्‍यार उनकी चिता  ।।

दो बदन प्‍यार की आग में जल गये ।।


ओस में भीगते, चांदनी में नहाते हुए
जैसे दो ताज़ा रू ताज़ा दम फूल पिछले पहर
ठंडी ठंडी सबक रौ चमन की हवा
सर्फे़ मातम हुई
काली काली लटों से लिपट गर्म रुख़सार पर
एक पल के लिए रुक गयी ।

दो बदन प्‍यार की आग में जल गये ।।


हमने देखा उन्‍हें
दिन में और रात में
नूरो-ज़ुल्‍मात में
मस्जिदों के मीनारों ने देखा उन्‍हें
मन्दिरों के किवाड़ों ने देखा उन्‍हें
मयकदे की दरारों ने देखा उन्‍हें ।।

दो बदन प्‍यार की आग में जल गये ।

अज़ अज़ल ता अबद
ये बता चारागर
तेरी ज़न्‍बील में

नुस्‍ख़-ए- कीमियाए मुहब्‍बत भी है
कुछ इलाज व मदावा-ए-उल्‍फ़त भी है।
इक चम्‍बेली के मंडवे तले
मयकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन प्‍यार की आग में जल गये ।

(चारागर- वैद्य/हकीम, हर्फे़ वफ़ा - निष्‍ठा का अक्षर, रू-आत्‍मा, ताज़ा दम फूल-ताज़ा खिले हुए फूल, सबक रौ- मंद गति से चलने वाली, सर्फे़ मातम-उदासी से घिर गयी । रुख़सार -गाल । अज़ अज़ल ता अबद- दुनिया के पहले दिन दिन से दुनिया के अंतिम दिन तक, ज़न्‍बील- झोली में, नुस्‍ख़-ए- कीमियाए मुहब्‍बत- प्रेम के उपचार का नुस्‍खा)

मख़दूम मोहीउद्दीन पर केंद्रित इस पोस्‍ट को फिलहाल यहीं खत्‍म करते हैं । अगले हिस्‍से में मख़दूम का एक और मशहूर फिल्‍मी गीत और उनके कुछ चुनिंदा अशआर पेश किये जायेंगे ।

9 comments:

PIYUSH MEHTA-SURAT February 14, 2008 at 4:29 PM  

आदरणिय श्री युनूसजी,

सही समय के लिये सही गीत के चुनाव के बारेमें आपका जबाब नहीं । पर मैं थोडा़ सा अलग विषय इस बार छेड़ता हू~, जो कहीं न कहीं इस गाने के संगीतकार के संगीत से संबंधित है । क्या आप को इस गाने को सुन कर श्री इक़बाल कूरेशी साहब की कोई इससे पूरानी संगीत रचना याद आ गयी, जो भी विविध भारती से कोई कोई वार प्रसारित हूई है ? चलो मैं ही याद दिला देता हू~। फिल्म बनारसी ठग का रफी़ साहब और लताजी का युगल गीत आज मौसम की मस्तीमें गाये पवन सन सनासन सनासन सनन ।

पियुष महेता ।
सुरत३९५००१.

बोधिसत्व February 14, 2008 at 5:33 PM  

भाई
मख्दूम का पहला संग्रह 1944 में छपा था जिसका नाम था सुर्ख सवेरा उनका दूसरा संग्रह था गुल ए तर जो कि 1961 में प्रकाशित हुआ था...
विसात में उनकी 1966 तक की रचनाएँ शामिल हैं... और यह दिसंबर 1966 में छापा गया था...और विसात का लिप्यंतरण प्रभात जी ने किया था।
इस संकलन की प्रतियाँ अभी भी उपलब्ध हैं...पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से पाई जा सकती है...किमत सिर्फ 15 रुपये है...

पारुल "पुखराज" February 14, 2008 at 6:34 PM  

सात स्वरों मे रची बसी…..खूबसूरत रचना,समयानुकूल भी---शुक्रिया

Gyan Dutt Pandey February 14, 2008 at 7:54 PM  

बहुत सुन्दर यूनुस। अगर मैं कवि होता तो कुछ ऐसे ही भाव लिखता।

Manish Kumar February 14, 2008 at 8:00 PM  

ये मेरा पसंदीदा नग्मा नहीं है पर आपने जिस खूबसूरती से गीत और शायर के बारे में जानकारी दी है वो काबिले तारीफ़ है।

अमिताभ मीत February 14, 2008 at 9:11 PM  

बहुत ही बढ़िया गाना. बहुत पसंद रहा है मुझे. फिर सुनवाने का शुक्रिया.

Unknown February 15, 2008 at 1:20 AM  

यूनुस,
कवि मख़दूम मोहिउद्दीन के बारे में पढ़कर,छाया गांगुली, संगीतकार जयदेव और गमन का गीत भी याद आया।
बोधिसत्व जी के सुझाव अनुसार अब पीपुल्स पब्लिशिंग हाऊस से कि़ताबें मँगवाई जायेंगी जहाँ बचपन में अपनें पूरन ताउजी(कामरेड पी सी जोशी) के साथ जानें की स्मॄतियां है।

अजित वडनेरकर February 17, 2008 at 4:44 AM  

यूनुस भाई,
पसंदीदा गीत सुनवाने का शुक्रिया। ये गीत बरसों बरसों से ज़ेहन में बसेरा....मुआफ़ी चाहूंगा...कुलांचे भर रहा है। जो सिफअत है इसकी उसे बयां नहीं किया जा सकता है और उसमें संगीत का बहुत बड़ा हाथ है।
हमारा ध्वनितंत्र ठीक हो गया है । अब आपके मंडवे तले अकसर आएंगे ।
भाई हमें भी ये संगीत लगाने की तरकीब बता दीजिए। कुछ बेहतरीन चीज़ें हमारे पास भी हैं । उन्हें मिल बांट लेगे सबसे। दो बार पहले भी कहीं कही जाके ये इल्तिजा कर चुके हैं।

कंचन सिंह चौहान February 18, 2008 at 1:59 PM  

hmmm bachpan se sunti aa rahi hu.n ye geet.... lekin tab didi ke mu.n se sunti thi..!

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