रात भर दीदा-ए-नमनाक में लहराते रहे- फिर मख़दूम की एक नज़्म
रेडियोवाणी पर इन दिनों मख़दूम मोहिउद्दीन पर केंद्रित श्रृंखला जारी है । मख़दूम के जिन चुनिन्दा गीतों का जि़क्र हमने इस श्रृंखला में किया है उनकी लिंक इसी पोस्ट में नीचे तरतीबवार दी जा रही है ।
आज हम लेकर आए हैं मख़दूम की एक नज़्म, जिसका उन्वान है- लम्हा-ए-रूख़सत । यानी विदाई का पल । और इसके बाद आप सुनेंगे जगजीत सिंह और आशा भोसले की आवाज़ों में मख़दूम की एक और बेहतरीन नज़्म ।
जैसा कि हमने पहले ही जिक्र किया कि मख़दूम एक तरफ तो क्रांति के शायर थे, दूसरी तरफ़ मख़दूम मोहीउद्दीन के भीतर एक बेचैन आशिक भी छिपा हुआ था । उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में आपको मुहब्बत के बेहद नाज़ुक अहसास छिपे मिल जाएंगे । मख़दूम के साथ ज़्यादती ये हुई कि उनके गानों या उनकी शायरी पर ज़्यादा चर्चाएं नहीं हुईं । हां उर्दू-शायरी के चाहने वालों ने अपने इस अज़ीम-शायर को शिद्दत से चाहा है । तो आईये पहले ये नज़्म पढ़ें । आपकी सुविधा के लिए उर्दू के ज़्यादातर कठिन शब्दों का मायने यहां दिये जा रहे हैं ।
लम्हा-ए-रूख़सत
कुछ सुनने की ख़्वाहिश कानों को, कुछ कहने कहा अरमां आंखों में
गरदन में हमायील होने की बेताब तमन्ना बांहों को । *घेरा डालने
मुश्ताक़ निगाहों की ज़द** से नज़रों का हया से झुक जाना ।
*बेताब । **निशाना, पहुंच ।
इक शौक़-ए-हम-आग़ोशी* पिन्हां**, उन नीची भीगी पलकों में ।
*गले लगने की तमन्ना । ** छिपी हुई
शाने* पे परेशां होने को बेचैन सियाह काकुल** की घटा । *कंधे । ** लटें
पेशानी* में तूफान सजदों का, लब-बोसी** की ख्वाहिश होठों में ।
*माथा । ** चूमने ।
वरफ्ता* निगाहों से पैदा है, एक अदा-ए-ज़ुलेख़ाई**।
*दूर तक जाती । **प्यार भरी अदा
अंदाज़-ए-तग़ाफुल तेवर से, रूसवाई का सामां आंखों में ।
*इक़रार । ** बदनामी
फुरक़त की भयानक रातों का रंगी तसव्वुर में आना । *अकेलेपन । **कल्पना
अफ्शां-ए-हक़ीक़त* के दर से हंस देने की कोशिश होठों में । *ज़ाहिर हो जाने
आंसूं का ढलक कर रह जाना, ख़ूं-गश्ता दिलों का नज़राना । *बेक़रार
तकमील-ए-वफ़ा का अफ़साना, कह जाना आंखों आंखों में ।
*वफ़ा का अंजाम तक पहुंचना ।
और आईये अब वो नज़्म सुनी जाए, जिसे जगजीत सिंह और आशा भोसले ने गाया है । ये दूरदर्शन के ज़माने में अली सरदार जाफरी द्वारा निर्मित 'शायरों पर केंद्रित' धारावाहिक 'कहकशां' का एक हिस्सा थी ।
रात भर दीदा-ए-नमनाक* में लहराते रहे । ( भीगी आंखों )
सांस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे
ख़ुश थे हम अपनी तमन्नाओं का ख़्वाब आयेगा
अपना अरमान बर-अफ़गंदा-नक़ाब* आयेगा । *बिना परदा किये ।
(नज़रें नीची किये शरमाए हुए आएगा
काकुलें* चेहरे पे बिखराए हुए आएगा ) *जुल्फ़
आ गयी थी दिल-ए-मुज़्तर में शिकेबाई-सी* । *बेचैन दिल को चैन
बज रही थी मेरे ग़मख़ाने में शहनाई-सी
शब के जागे हुए तारों को भी नींद आने लगी
आपके आने की इक आस थी, अब जाने लगी
सुबह ने सेज से उठते हुए ली अंगड़ाई
ओ सबा तू भी जो आई तो अकेली आई
ओ सबा तू भी जो आई तो अकेली आई ।।
हम मख़दूम पर केंद्रित इस श्रृंखला के आखि़री सिरे पर आ गये हैं । इसके बाद संभवत: एक कड़ी और होगी बस । आपकी राय का इंतज़ार रहेगा ।
इस श्रृंखला की बाक़ी कडि़यां----
1. दो बदन प्यार की आग में जल गए
14 comments:
भाई वाह . आपने मख़दूम से शनासाई का सिलसिला अच्छा चलाया हुआ है. कोशिश कर रहा हूँ कि शकीला बानो भोपाली की आवाज़ में एक क़व्वाली आपको एक बार फिर सुनाऊँ जिसमें रात भर दीदा-ए-नमनाक में लहराते रहे..लाइन आती है, सुनाऊँ.
wah...YUNUS ji...sunday khushnuma kar diya aapney ye khuubsurat gazal sunvaa kar....ab din bhar suni jaayegi.....shukriyaa
यूनुस भाई ग़ज़ब. क्या कमाल की चीज़ सुनवा दी आज. "कहकशां" serial के गीत / गज़लें / नज्म दो cassettes के set में हैं मेरे पास लेकिन इस के CDs कभी हाथ न लग सके. क्या कहीं मिल सकते हैं "कहकशां" के सारे नगमे ?? बहरहाल, अगर आप के पास हों तो एक एक कर के सुनवाते रहें, बड़ी मेहरबानी होगी ... ख़ास तौर पे - "अब मेरे पास तुम आयी हो तो क्या आयी हो ......." बहुत अजीब सी ख़लिश है आज इतने दिनों बाद ये नज्म सुन कर. शुक्रिया.
धन्यवाद.
जगजीत सिंह जी और आशाजी की आवाज सुनकर एक सुकून सा मिला है आपको बहुत धन्यवाद रविवार को इस कदर खुशगवार बनने के लिए.
शुक्रिया..... शुक्रिया.... शुक्रिया.....
भाई..वाह वा...सुभान अल्लाह.
नीरज
लाजवाब !
बहुत सुन्दर
इस नज़्म का सबसे सुन्दर भाग इसकी अंतिम दो पंक्तियाँ लगीं।
यूनुस, कृपया यह बताइयेगा कि,दूरदर्शन के serials क्या DVD या VCD रूप में उपलब्ध हैं या नहीं । बरसों से विदेश में रहकर यह सब देखनें का सौभाग्य नहीं रहा है।
लाजवाब...आपसे हमेशा ऐसी ही उम्मीद रहती है शुक्रिया.
बेहद सुंदर नज्मों का चयन किया है आपने..पहली वाली आपकी आवाज़ में सुनने को मिल जाती तो क्या बात थी...
खूब बहुत खूब - हाँ आशिकी और क्रांति/ वाम धारा/ संवेदना का पुराना साम्य है- अधिकतर रूमानी होते हैं - [ है कि नहीं ] [:-)] - मनीष
यूनुस जी पहली नज़्म कि अंतिम कड़ी ने पुराने गीत मैं जब भी अकेली होती हूँ की याद दिला दी पूँछना चाहती हूँ कि ये गीत भी तो मखदूम साहब का नही है,,,?
very beautiful ghazal!
thanks for sharing.
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