'रहने को घर दो'--मन्ना दा की आवाज़ (श्रृंखला 'बीवी और मकान' दूसरा भाग)
रेडियोवाणी पर फिल्म 'बीवी और मकान' के गानों की अनियमित श्रृंखला चल रही है। पिछली कड़ी में मैंने आपको एक गीत सुनवाया था--'जब दोस्ती होती है, तो दोस्ती होती है'। आज इसी फिल्म का एक और गीत। लेकिन पहले गुलज़ार की बातें।
गुलज़ार आने गीतों को याद करते हुए फिल्मफेयर के एक पुराने अंक में कहते हैं--
ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों का संगीत अनूठा होता था। उसे कहानी में काफी बारीकी से बुना जाता था। कभी ऐसा नहीं होता था कि गाना चाहिए इसलिए गाना है। ना ही आइटम नंबर का कोई कंसेप्ट था। गाने कहानी को आगे बढ़ाते। वो कहानी कहते थे। ऋषि दा और मुझमें कुछ समानताएं थीं। हम दोनों ने फिल्म की बारीकियां बिमल रॉय से सीखी थीं। मैं तो ये भी कहूंगा कि अगर बिमल रॉय उस स्कूल के प्रिंसिपल थे तो ऋषि दा उसके स्कूल-मास्टर। मैंने सबसे पहले ऋषि दा के साथ जिस फिल्म में काम किया था उसका नाम है--'बीवी और मकान'। पहली बार उन्होंने एक संगीत-प्रधान फिल्म पर हाथ आज़माया था। फिल्म में परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि कुछ अनूठे गानों की ज़रूरत थी। इसलिए इस फिल्म के गाने अनूठे थे।
गुलज़ार की ये बात पूरी तरह सही है। ऋषि दा की फिल्मों और ख़ासकर इस फिल्म के बारे में तो एकदम सटीक। मिसाल के लिए आज के गाने को ही लीजिए। इसका शीर्षक है--'रहने को घर दो'। इसे मेहमूद पर फिल्माया गया है। आगे की कडियों में भी इस फिल्म की कहानी के बारे में चर्चा की जाएगी पर फिलहाल तो इतना बता दें कि इस कहानी का ताल्लुक महानगर में घर की समस्या से है। गांवों से आए अकेले युवकों को कोई शहर में मकान नहीं देता। बस...यही सूत्र है कहानी का। और कमोबेश ये समस्या आज तक कायम है।
मन्ना दा की अदायगी इस गाने का USP है।
अब हम शब्दों में क्या कहें। आप ख़ुद सुन लीजिए।
रहने को घर दो
छत पे हो फर्श या फर्श पे छत हो।
खिड़की-विड़की, बिजली-खुजली, घंटी-वंटी कुछ नहीं चईए प्यारे।
बस इक छोटा-सा दरवाज़ा हो।।
ईंट पे ईंट जमा कर लो
घर ऊपर ऊपर ज्यादा है
आए थे ऊंची बिल्डिंग में
बिल्डिंग से ऊंचा भाड़ा है
फ़र्श पे रहने वाले कैसे अर्श पे जाएं जाएं।
रहने को घर दो।।
थोड़े सा जल, थोड़े से चने
इक चारदीवारी, पांच जने।
पांच पांडवा, युधिष्ठिरा, भीम, अर्जुना, नकुल-सहदेवा
वन फोर फाइव, फाइव परसना।
थोड़ा-सा जल, थोड़े से चने
इक चारदीवारी पांच जने।
शहर में तेरे शरण बिना
शरणार्थी हो गए प्यारे।
कुटिया ना सही कोई ख़ाली कुंआ
ऊपर ना सही तहख़ानों में
ख़ाली हो अगर तो जेल सही
शामिल कर लो दीवानों में
आस-पड़ोस उधार मिले तो
कुछ नईं चईये प्यारे
रहने को घर दो।।
कहना ना होगा कि घर की समस्या को लेकर लिखा गया गुलज़ार का ये अपने आप में एकदम अनूठा गाना है। रूमानियत ये लबरेज़ 'दो दीवाने शहर में' का मिज़ाज बिल्कुल अलग है। अगली बार जब मिलेंगे तो चर्चा करेंगे इसी फिल्म के किसी और गाने की।
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अगर आप चाहते हैं कि 'रेडियोवाणी' की पोस्ट्स आपको नियमित रूप से अपने इनबॉक्स में मिलें, तो दाहिनी तरफ 'रेडियोवाणी की नियमित खुराक' वाले बॉक्स में अपना ईमेल एड्रेस भरें और इनबॉक्स में जाकर वेरीफाई करें।
गुलज़ार आने गीतों को याद करते हुए फिल्मफेयर के एक पुराने अंक में कहते हैं--
ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों का संगीत अनूठा होता था। उसे कहानी में काफी बारीकी से बुना जाता था। कभी ऐसा नहीं होता था कि गाना चाहिए इसलिए गाना है। ना ही आइटम नंबर का कोई कंसेप्ट था। गाने कहानी को आगे बढ़ाते। वो कहानी कहते थे। ऋषि दा और मुझमें कुछ समानताएं थीं। हम दोनों ने फिल्म की बारीकियां बिमल रॉय से सीखी थीं। मैं तो ये भी कहूंगा कि अगर बिमल रॉय उस स्कूल के प्रिंसिपल थे तो ऋषि दा उसके स्कूल-मास्टर। मैंने सबसे पहले ऋषि दा के साथ जिस फिल्म में काम किया था उसका नाम है--'बीवी और मकान'। पहली बार उन्होंने एक संगीत-प्रधान फिल्म पर हाथ आज़माया था। फिल्म में परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि कुछ अनूठे गानों की ज़रूरत थी। इसलिए इस फिल्म के गाने अनूठे थे।
गुलज़ार की ये बात पूरी तरह सही है। ऋषि दा की फिल्मों और ख़ासकर इस फिल्म के बारे में तो एकदम सटीक। मिसाल के लिए आज के गाने को ही लीजिए। इसका शीर्षक है--'रहने को घर दो'। इसे मेहमूद पर फिल्माया गया है। आगे की कडियों में भी इस फिल्म की कहानी के बारे में चर्चा की जाएगी पर फिलहाल तो इतना बता दें कि इस कहानी का ताल्लुक महानगर में घर की समस्या से है। गांवों से आए अकेले युवकों को कोई शहर में मकान नहीं देता। बस...यही सूत्र है कहानी का। और कमोबेश ये समस्या आज तक कायम है।
मन्ना दा की अदायगी इस गाने का USP है।
अब हम शब्दों में क्या कहें। आप ख़ुद सुन लीजिए।
रहने को घर दो
छत पे हो फर्श या फर्श पे छत हो।
खिड़की-विड़की, बिजली-खुजली, घंटी-वंटी कुछ नहीं चईए प्यारे।
बस इक छोटा-सा दरवाज़ा हो।।
ईंट पे ईंट जमा कर लो
घर ऊपर ऊपर ज्यादा है
आए थे ऊंची बिल्डिंग में
बिल्डिंग से ऊंचा भाड़ा है
फ़र्श पे रहने वाले कैसे अर्श पे जाएं जाएं।
रहने को घर दो।।
थोड़े सा जल, थोड़े से चने
इक चारदीवारी, पांच जने।
पांच पांडवा, युधिष्ठिरा, भीम, अर्जुना, नकुल-सहदेवा
वन फोर फाइव, फाइव परसना।
थोड़ा-सा जल, थोड़े से चने
इक चारदीवारी पांच जने।
शहर में तेरे शरण बिना
शरणार्थी हो गए प्यारे।
कुटिया ना सही कोई ख़ाली कुंआ
ऊपर ना सही तहख़ानों में
ख़ाली हो अगर तो जेल सही
शामिल कर लो दीवानों में
आस-पड़ोस उधार मिले तो
कुछ नईं चईये प्यारे
रहने को घर दो।।
कहना ना होगा कि घर की समस्या को लेकर लिखा गया गुलज़ार का ये अपने आप में एकदम अनूठा गाना है। रूमानियत ये लबरेज़ 'दो दीवाने शहर में' का मिज़ाज बिल्कुल अलग है। अगली बार जब मिलेंगे तो चर्चा करेंगे इसी फिल्म के किसी और गाने की।
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9 comments:
वाह युनूस जी
मन्ना दा जी का मस्त गीत सुनवाने के लिए आभार ...
वाह! मज़ा आ गया
बस और क्या चाहिये?
वाह!
sundar!
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एक यादगार गीत से अवगत करने का शुक्रिया. सर्वर की प्रोब्लम से शायद प्लेयर नहीं दिख रहा.
बहुत खूब...वाकई अद्भुत गीत..
Bhaut bahdiya. Wiase bhi Gulzar saab ne likha hai - to anootha to hoga hi. Manna de ji ka bhi jazaab nahi.
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