संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Thursday, January 24, 2008

वक्‍त का ये परिंदा रूका है कहां: रूला देने वाला गीत ।

मुझे हमेशा से लगता रहा है कि हम सबके भीतर एक ग्रामीण-व्‍यक्ति छिपा है । कुछ इसे जल्‍दी पहचान लेते हैं और कुछ को शायद उम्र के दूर वाले छोर पर इस ग्रामीण-मन की पहचान हो पाती है । शायद यही गंवई-मन है जिसकी वजह से हम वो गीत बहुत पसंद करते हैं जिनका ताल्‍लुक़ गांव की....अपनी मिट्टी की याद से होता है । या फिर ग्रामीण भावनाओं से होता है । फिर चाहे जगजीत सिंह की गाई-'वो बारिश की कश्‍ती' जैसी नज्म हो । या राही साहब की लिखी ग़ज़ल 'अजनबी शहर के अजनबी रास्‍ते' । या इसी तरह के वो गीत जिसमें कहीं 'मां का इंतज़ार' है । कहीं किसी ख़ास मौसम या त्‍यौहार की याद ।

आज इंटरनेट पर आवारगी करता भटक रहा था कि सबेरे सबेरे ऐसे ही एक अच्‍छे से गीत से सामना हो गया । jewels-lg-abcइसे मैंने पहले नहीं सुना था । पर जब सुना तो अच्‍छा लगा । और राही साहब की लिखी ग़ज़ल ' अजनबी शहर के अजनबी रास्‍ते' की धुन ज़ेहन में ताज़ा हो गयी । इसे जसवंत सिंह ने गाया है, इंटरनेटी छानबीन से ये भी पता चला कि ये गीत दो अलबमों में है । एक तो 'शिखर' और दूसरा 'ज्‍वेल्‍स' । जिसका कवर फोटो मैंने खोज-बीनकर यहां लगा दिया है । ये अलबम 'टी-सीरीज़' पर निकला था । कहीं से ये भी पता चला है कि इसे तलत अज़ीज़ ने भी गाया है । पर कुछ भी कन्‍फर्म नहीं है  । मुझे शायर का नाम भी पता नहीं चल सका है । अगर इस अलबम को आप में से किसी ने पहले भी सुना हो और शायर का नाम बता सके तो मज़ा आ जाएगा । तो आईये सुनें । ये रहा लाईफ़लॉगर पर ।

 

और ये e snips पर भी  ।

 

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वक्‍त का ये परिंदा रूका है कहां

मैं था पागल इसे बुलाता रहा

चार पैसे कमाने मैं आया शहर

गांव मेरा मुझे याद आता रहा ।।

लौटता था जब मैं पाठशाला से घर

अपने हाथों से खाना खिलाती थी मां

रात में अपनी ममता के आंचल चले

थपकियां देके मुझको सुलाती थी मां

सोचके दिल में एक टीस उठती रही

रात भर दर्द मुझको जगाता रहा ।

चार पैसे कमाने मैं आया शहर

गांव मेरा मुझे याद आता रहा ।।

सबकी आंखों में आंसू छलक आए थे

जब रवाना हुआ था शहर के लिए

कुछ ने मांगी दुआएं कि मैं खुश रहूं

कुछ ने मंदिर में जाकर जलाए दिए

एक दिन मैं बनूंगा बड़ा आदमी

ये तसव्‍वुर उन्‍हें खुदबुदाता रहा

चार पैसे कमाने मैं आया शहर

गांव मेरा मुझे याद आता रहा ।।

मां ये लिखती है हर बार ख़त में मुझे

लौट आ मेरे बेटे तुझे है क़सम

तू गया जब से परदेस बेचैन हूं

नींद आती नहीं भूख लगती है कम

कितना चाहा ना रोऊं मगर क्‍या करूं

ख़त मेरी मां का मुझको रूलाता रहा

चार पैसे कमाने मैं आया शहर

गांव मेरा मुझे याद आता रहा ।।

10 comments:

अनिल रघुराज January 24, 2008 at 9:53 AM  

यूनुस भाई सच कहा। हम सब में एक ग्रामीण बैठा है, सांस्कृतिक अभिरुचियों के मामले में ही नहीं, पूरी सोच के रूप में। कई दिनों में मन में यह बात उमड़ रही थी। इसके सामाजिक पहलू पर भी लिखा जाना चाहिए। गाना पढ़के अच्छा लग रहा है। सुनूंगा बाद में।

annapurna January 24, 2008 at 11:14 AM  

ग़ज़ल अच्छी है।

आज पहली ही बार नज़रों में आई। और कोई जानकारी नहीं हैं।

डॉ. अजीत कुमार January 24, 2008 at 6:30 PM  

इन चार पैसों की खातिर ही तो लोग अपनी मिट्टी से दूर जाते हैं. माएं कितनी भी आवाज़ क्यूं न दें, बेड़ियों में उलझे हम आने को तरसते ही रह जाते हैं. तभी तो याद आती है अपने खेतों में गेहूँ के पौधों के संग हिलोरें लेती बयार,मिट्टी से निकलती वो पहली बारिश के बूंदों की सोंधी महक, शाम को घर लौटते गायों, बछड़ों के घंटियों की वो टुन-टुन, अपनी माँ दादी का वो प्यार, पिता की वो डांट, दादा की वो सीख.
पोस्ट के लिए धन्यवाद.

Gyan Dutt Pandey January 24, 2008 at 7:22 PM  

बहुत सरल और बहुत अपना आपबीता याद करा देने वाला!
आज गांव पूरी प्रबलता से याद आया।

Anita kumar January 24, 2008 at 10:51 PM  

बहुत ही मार्मिक गीत है

Vipin Kumar January 24, 2008 at 11:21 PM  

bahut hi sundar geet hai. :)

कंचन सिंह चौहान January 25, 2008 at 11:47 AM  

यूनुस साहब ये तो नही कहूँगी कि मैने ये गज़ल पहली बार सुनी है...और अगर मुझे ग़लत नही याद है तो एक बार तो मैने आपके विविध भारती पर ही सुनी है..... लेकिन बहुत अधिक confirm नही हूँ...और दूसरी बार सुनी है बड़ी दीदी के घर ..मैने तुरंत उन्हे फोन कर के शायर का नाम पूँछा तो पता चला कि कैसेट तो पता नही कहाँ ग़ुम हो गया...तो कौशिश तो की मैने लेकिन ९० पैसे खर्च करने के बावज़ूद शायर का नाम नही पता चला एक दो दिन में अगर पता चला तो बताती हूँ....! याद दिलाने के लिये धन्यवाद!

Anonymous,  January 30, 2008 at 5:01 AM  

Please you can find writer from her www.answers.com/topic/nawa-i-waqt

सुशील छौक्कर August 9, 2009 at 10:44 AM  

एक बार फिर से इस गीत को सुनने को आ गए जी। मुझे बहुत पसंद है यह गाना ठीक बिदेशिया की तरह। पता नही कितनी बार सुन चुका हूँ और दोस्तों को सुना चुका हूँ।

Anonymous,  November 21, 2009 at 6:34 AM  
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