बहुत उम्दा शायर थे डॉ. राही मासूम रज़ा । आईये सुनें अजनबी शहर के अजनबी रास्ते मेरी तन्हाईयों पे मुस्कुराते रहे ।
हाशिया की इस पोस्ट पर पर आज डॉ. राही मासूम रजा़ के जन्मदिन पर कुरबान अली का एक संस्मरणात्मक लेख छापा गया है । बस ये समझ लीजिए कि इस लेख ने दिल के किसी छिपे हुए तार को झिंझोड़ कर रख दिया है । राही साहब का मैं जाने कब से शैदाई हूं । क्या तब से जब मैंने ‘टोपी शुक्ला ‘ पढ़ा था । या फिर तब से जब ‘आधा गांव’ पढ़ा । या फिर तब से जब पता चला कि टी.वी.सीरियल महाभारत की पटकथा वही लिख रहे हैं । पता नहीं ।
लेकिन राही मासूम रज़ा की शख्सियत का जो पहलू मैं ‘रेडियोवाणी’ पर उजागर करने जा रहा हूं वो इस सबसे जुदा है ।
मुझे याद है कि जब मैं जबलपुर से मुंबई आया विविध भारती में काम करने के लिए तो एक शेर मेरे साथ आया था । मेरा साथ देने के लिए । ये राही साहब का ही शेर था----
सोचता था कैसे कटेंगी रातें परदेस की
ये सितारे तो वही हैं मेरे आंगन वाले ।।
यक़ीन मानिए, इस शेर ने आसमान पे चमकते सितारों पर नज़र डालने को कहा, और अपने आंगन वाले उन सितारों के सहारे ही मुंबई के अजनबी भरे शुरूआती दिन कट गए । बहरहाल, आज मैं राही साहब की शायराना शख्सियत का ही जिक्र कर रहा हूं ।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि राही साहब बहुत उम्दा शायर थे । और इसकी सबसे अच्छी मिसाल ये ग़ज़ल है । जिसके कई संस्करण हैं । पर अशोक खोसला और अहमद हुसैन मुहम्मद हुसैन वाले दो संस्करण मेरी पसंद रहे हैं । इनमें भी अहमद हुसैन-मुहम्मद हुसैन वाला संस्क़रण तो वाक़ई दिल को सुकून से भर देता है । अफ़सोस की ये संस्करण इंटरनेट पर नहीं मिल सका ।
ये ग़ज़ल बाद में सुनिएगा । पहले मुझे अपने दिल की बात तो कह लेने दीजिये ।
राही साहब की ग़ज़लें उनकी बहू और जानी मानी गायिका पार्वती ख़ान ने अपने एक अलबम में गाई हैं । और ये अलबम विविध भारती में तो है । पता नहीं और कहीं है या नहीं । पहले विषयांतर करते हुए बता दूं कि राही मासूम रज़ा के बेटे नदीम ख़ान फिल्म-संसार के जाने माने सिनेमेटोग्राफर हैं । सुभाष घई जैसे निर्देशकों की फिल्में शूट कर चुके हैं नदीम । नदीम और पार्वती की मुलाक़ात हुई थी विनोद पांडे की फिल्म ‘ये नज़दीकियां’ के दौरान । जिसमें पार्वती ने एक छोटी सी भूमिका निभाई थी । पता नहीं नदीम और पार्वती की शादी पर शुरूआत में क्या प्रतिक्रिया रही होगी राही साहब की । लेकिन बाद में तो पार्वती को राही साहब नदीम से भी ज्यादा चाहने लगे । आपको ये भी बता दूं कि पार्वती ख़ान फिल्म संसार में भले डिस्को डान्सर के ‘जिमी जिमी’ जैसे गानों के ज़रिए एक डिस्को गायिका के रूप में चर्चित रही हों । लेकिन जब आप राही साहब की लिखी ग़ज़लों का उनका अलबम सुन लेंगे तो आपको उनकी शख्सियत का दूसरा ही पहलू देखने को मिलेगा ।
विविध भारती में मेरी मुलाक़ात ना सिर्फ़ पार्वती से हुई बल्कि नदीम साहब से भी हुई ।
मैंने रेडियो के लिए पार्वती ख़ान का लंबा इंटरव्यू़ लिया और रेडियो-सखी ममता सिंह ने नदीम साहब से लंबी बातचीत की । लेकिन ऑफ रिकॉर्ड मैंने भी नदीम से लंबी गप्पें मारीं । और ख़ासकर राही साहब की शख्सियत के कई पहलुओं के बारे में पूछा । उन्हों ने भी बड़ी प्यारी बातें बताईं । कभी मौक़ा मिला तो नदीम से फिर बात की जायेगी और वो भी ख़ासतौर पर रेडियोवाणी के लिए । एक्सक्लूसिव ।
बहरहाल—आज मैं पार्वती ख़ान की गाई और राही साहब की ग़ज़लें पेश नहीं कर पा रहा हूं । पर बाद में पेश करने का वादा ज़रूर किये दे रहा हूं । लेकिन याददाश्त की बिना पर आपको उन अशआर से वाकिफ़ ज़रूर करवा रहा हूं ।
एक ग़ज़ल है—क्याक वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर दिन घबराए/ क्या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए । उफ़ क्या ख्याल है ये । कमाल है ।
दूसरी मेरी पसंदीदा ग़ज़ल है—जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।
यक़ीन मानिए ये मेरे दिल के बहुत क़रीब रही है । इसलिये कि अपने शहर को छोड़ते वक्त कभी कोई नहीं सोचता कि एक दिन वो अपना, आत्मीय शहर भी आपके लिए अजनबी हो जाएगा, दोस्त शहर को छोड़कर कहीं और बस जायेंगे । वो शाम के अड्डे सूने हो जायेंगे । वो यारबाशियां पुरानी बातें हो जायेंगी । वो स्कूल, वो कॉलेज, वो मुफलिसी, वो लाइब्ररी, वो सायकिलों और स्कूदरों पर गलियों चौराहें के चक्कर काटना । वो घर की छत पर खड़े होकर अपने भविष्य के बारे में खूब खूब चिंता करना । वो बिना बात की उदासी । वो दिल के किसी कोने में सिर उठाती अपनी रिबेल शख्सियत । वो सब कुछ, सब कुछ पुरानी बातें हो गयीं । अपना वो शहर जिसके हर कोने से आत्मीयता छलकती थी, एकदम से अजनबी सा बन
गया । हां उस शहर में आत्मीयता का, रिश्तों का जो कोना बचा है वो अपना घर है, जिसमें मां हैं, जिसमें पिता हैं, उसी शहर में रहती अपनी बहन है । पर उस घर के बाहर......उस घर के बाहर शहर अजनबीयत का लबादा ओढ़ चुका है । और शायद ये मेरा ही नहीं, उन तमाम लोगों का अनुभव होगा, जो अपने शहर को छोड़कर रोज़गार के लिए कहीं और जाते हैं । और थोड़े दिनों की छुट्टियों में लौटकर बार बार अपने शहर को बदलते हुए देखते हैं । शायद शहर के बदलने की रफ्तार, हमारे बदलने की रफ्तार से ज्यादा होती है ।
ख़ैर ये ग़ज़ल आगे चलकर ज़रूर आप तक पहुंचेगी । पर फिलहाल तो अशोक खोसला की आवाज़ में सुनिए राही साहब की वो ग़ज़ल, जिसमें अपने शहर को छोड़कर किसी अजनबी शहर में गये एक नौजवान के अहसासात को बयां किया गया है ।
इसे सुनने के लिए यहां क्लिक कीजिए ।
या नीचे लिखी लिंक को कट पेस्ट करें ।
http://dishant.com/jukebox.php?songid=12173
अजनबी शहर के/में अजनबी रास्ते , मेरी तन्हाईयों पे मुस्कुराते रहे ।
मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे ।।
ज़ख्म मिलता रहा, ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे,
जिंदगी भी हमें आज़माती रही, और हम भी उसे आज़माते रहे ।।
ज़ख्म जब भी कोई ज़हनो दिल पे लगा, तो जिंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला
हम भी किसी साज़ की तरह हैं, चोट खाते रहे और गुनगुनाते रहे ।।
कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया,
इतनी यादों के भटके हुए कारवां, दिल के जख्मों के दर खटखटाते रहे ।।
सख्त हालात के तेज़ तूफानों, गिर गया था हमारा जुनूने वफ़ा
हम चिराग़े-तमन्ना़ जलाते रहे, वो चिराग़े-तमन्ना बुझाते रहे ।।
ई स्निप्स पर मुझे राही साहब की ये रचना भी मिली है ।
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इसे सलमान अलवी की आवाज़ में इस वीडियो में सुनिए
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16 comments:
बहुत अच्छा लेख लिखा है .काफी जानकारी मिली . धन्यवाद .
घुघूती बासूती
गजब है युनुस भाई. आपने तो कमाल कर दिया है. बहुत नयी जानकारियां मिलीं. राही साहब की नज़्में-गज़लें भी बहुत अच्छी थीं. बहुत शुक्रिया इस पोस्ट के लिए. आडियो भी अच्छा है.
अच्छा क्या -हम तो हैं परदेश में, देश में निकला होगा चांद- रा्ही साहब की ही गज़ल हैं?
बहुत ही बेहतरीन आलेख.
क्या बात है- अजनबी शहर के अजनबी रास्ते...
कमाल है, कमाल है, मैं तो राही साहब का पुराना कायल रहा हूं, आधा गाँव तो गजब है, टोपी शुक्ला और नीम का पेड़ का जवाब नहीं है लेकिन उनकी शायरी के बारे में कोई इल्म नहीं था. आभार.
बहुत अच्छा लगा राही मासूम रज़ा के बारे में पढ़कर। किताबों के अलावा उनके महाभारत के डायलाग बेहतरीन हैं।
युनूसभाई,
राही मासूम रजा साब बी.आर. चोप्रा हाउसके हमेशाके लेखक थे. उन्होने महाभारत के संवाद बडे जबरदस्त लिखे थे. हिंदू कट्टरपंथियोंको शायद ये बात उस वक्त जरूर खटकी होगी की चोप्राजी एक मुस्लीम लेखकसे धार्मिक सिरियल के संवाद लिखवा ले रहे है.
उनकी शायरी की खूबसूरती आज आपसे पता चली. उसी प्रकार पार्वती खान ये उनकी बहू है ये भी जानकारी हुवी. उन्हे हमारी ऒर्कूट कम्युनिटी Hindu Muslim Love Marriage का सदस्य करा लेना चाहिये.
दिशांत वाली ग़ज़ल सुन ना सका। शायद रजिस्टर करना पड़ेगा.
अच्छी जानकारी मिली आपके इस लेख से !
कितनी सशक्त प्रतिभा थे राही मासूम रजा! यह सब पढ़ कर लगता है कि कैसे कैसे हीरे हैं विश्व में और हम कोयले का हिसाब ही कर रहे हैं!
जी नहीं मनीष रजिस्टर कराने की जरूरत नहीं है । मैंने फिर से चेक किया है गजल बज रही है
आप फिर से कोशिश करें । सुनाई देगी
युनुस भाई:
आप का ब्लौग मैं और मेरी पत्नी बड़े शौक से पढते हैं ।
रज़ा साहब के बारें में यहाँ कुछ लिखा है :
http://anoopkeepasand.blogspot.com/2007/09/blog-post.html
अनुप भार्गव जीं, मनीष भाई, आप युनूस भाई और कुर्बान अली जीं सभी ने राही मासूम राजा जीं पर लिखा - ये मेरी यादें हैं -- देखियेगा --
http://lavanyam-antarman.blogspot.com/
Lavanyam -Antarman
बहुत ख़ूब !
अन्नपूर्णा
युनुस जी!
रज़ा साहब की एक बेहतरीन गज़ल और उनके बारे में जानकारी के लिये बहुत बहुत आभार!
A great Ghazal. My father sang this back in early 60s to escape ragging in his college!
Here is another great Nazm by Rahi sahab:
http://gdhar.com/2007/09/08/aaj-ki-raat/
I have been looking for "ajnabi shahar" for a while so thank you for sharing.
बहुत दिनों पहले सुना हुआ ये गाना अब भी याद है, शायद पार्वती खान ने गाया है, आप को जानकारी हो तो ज़रूर बताएं :
तुम आओ तो महकी हुई रात होगी,
ये बरसात फूलों की बरसात होगी...
ग़ज़ल छुप के रोएगी शहनाइयों में,
रवाना सितारों की बारात होगी...
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http://www.google.com/transliterate/indic/