संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Thursday, September 20, 2007

आईये सुनें उत्‍तरप्रदेश का लोकगीत--जुलम करे मुखड़े पे तिल काला काला



रेडियोवाणी पर लोकगीतों की एक अनियमित श्रृंखला चल रही है ।
पिछले रविवार को आपको सुनवाया था नियामत अली का गाया लोकगीत--पहने कुरता पे पतलून ।
और पता चला कि कई कई लोगों ने इसे सालों बाद सुना । यही तो त्रासदी है लोकगीत अचानक ग़ायब होते चले जा रहे हैं ।
मेरी कोशिश रहेगी कि हर इलाक़े के लोकगीत रेडियोवाणी पर शामिल किये जायें । अगर आप किसी लोकगीत की सिफारिश करना चाहते हैं तो कृपया
अता पता, फाईल वाईल भेजें । ताकि उसे भी रेडियोवाणी पर चढ़ाया जा सके । मैं बड़ी विकलता से कुछ बुंदेली लोकगीतों की तलाश में हूं । लेकिन
चूंकि बुंदेलखंड की ओर जाना हो नहीं रहा है और कोई ऐसा व्‍यक्ति नहीं है जो मुझे ये लोकगीत उपलब्‍ध करा सके । इसलिए यहां निवेदन करना पड़ रहा है ।
क्‍या कोई मुझे बुंदेली लोकगीत उपलब्‍ध करवाएगा । समीर भाई सुन रहे हो बड्डे । कछु करो आर, ऐंसई ने चलहे ।

बहरहाल आज मैं आपके लिए लेकर आया हूं एक और उत्‍तरप्रदेशी लोकगीत । शायद ये भी नियामत अली की आवाज़ है ।
आपकी सुविधा के लिए इसकी भी इबारत लिख दी गयी है ।

इबारत लिखने का सबसे बड़ा कारण है गुनगुनाने में मदद करना ।
मेरी पत्‍नी को भी इस इबारत से सुविधा हो जाती है, और वे इलाहाबाद के दिनों को याद करके ऐसे लोकगीत खूब गुनगुनाती हैं । आप भी गुनगुनाईये । और बताईये कैसा लगा ।






जुलम करे मुखड़े पे तिल काला
ना देखे अंधेरा ना देखे उजाला ।।
जब से देखी सूरतिया प्‍यारी
जियरा पे चलत है मोरे चलत है आरी
हाथ ना आवे मोरे गोरी
लाख जतन कर डाला ।। जुलम करे ।।
गली गली ये शोर मचा है
धरती पर एक चांद उगा है
जिसको देखा उसी को पाया
है तेरा ही मतवाला ।। जुलम करे ।।
सधवों ने छोड़ी सधुवाई
ठकुरन ने छोड़ी ठकुराई
तुमरी जुल्‍मी सूरतिया के कारण
छैलन मां चले तीर भाला ।। जुलम करे ।।
दांव पे लागी है महल अटारी
कहीं के भाग में हो तुम प्‍यारी
अबही से तोरी चाह मां गोरी
कितनों का निकला दीवारा ।। जुलम करे ।।










रेडियोवाणी पर लोकगीतों का अनियमित सिलसिला जारी रहेगा । और हां रेडियोवाणी पर एक विजेट बांयी ओर लगा है । जो संदेसों और फरमाईशों के लिए है, आप इसका उपयोग कर सकते हैं ।


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इस श्रृंखला के अन्‍य लेख--
1. पहने कुरता पे पतलून आधा फागुन आधा जून

2.अंजन की सीटी में म्‍हारो मन डोले

7 comments:

Dr Prabhat Tandon September 20, 2007 at 1:37 PM  

मस्त , बिल्कुल मस्ती से भरपूर !!!

Anonymous,  September 20, 2007 at 1:54 PM  

जोरदार खजाना धरे हो, गुरू !

कहॉ से बटोरेओ ?

रोज रोज सुनने का चस्का लगा है
सुन सुन जियरा मॉ ठसका लगा है
कितनेओ सुनि लेओ मनवा भरै ना
पागल करै "रेडियोवाला"
जुलम करे................

-उहै
.......गंगा किनारे वाला
तोहार "साला"
(अगर तोहका ऐतराज न होए तो ! )

Yunus Khan September 20, 2007 at 8:46 PM  

ना भईया जो चाहे कह लो । कोउ एतराज नहीं ना है । सुक्रिया ।
अभी खजाने में कुछ और मोती हैं । पिलीज वेट

Udan Tashtari September 20, 2007 at 10:20 PM  

बस नवम्बर में जा रहे हैं जबलपुर..करते हैं कछु सालिड इन्तजाम!!

इस भोजपुरिया को सुनने में भी आनन्द आ गया.

सुकेश श्रीवास्तव September 20, 2007 at 11:33 PM  

यूनुस भाई,

कहीँ जाने की ज़रूरत नहीं है, बस इस Site पर चले जाइये...... लोकगीतों का पूरा भंडार है यहाँ-
http://www.beatofindia.com/

Yunus Khan September 21, 2007 at 8:05 AM  

सुकेश जी बहुत बहुत धन्‍यवाद ।
आपने बेहतरीन साईट दी है ।

Vikash September 21, 2007 at 2:25 PM  

वाह वाह! मजा आ गया. :)

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http://www.google.com/transliterate/indic/

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