संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।
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Wednesday, February 8, 2017

तुम हमारेे लिए चांद हो जगजीत


प्रिय जगजीत

अस्‍सी का दशक रीत रहा था। नब्‍बे का दशक शुरू होने को था।
मध्‍यप्रदेश का एक बोसीदा, उदास, सुस्‍त शहर।
हमने अदब और मौसिकी की दुनिया में हौले-हौले दाखिल होना शुरू किया था।

तुम्‍हें नहीं पता होगा कि तुम्‍हारे कैसेट्स हमारे लिए कितना बड़ा ख़ज़ाना थे। लड़कों के स्‍कूल में पढ़ने वाले हम
, लड़कियों से उतनी ही दूर थे जितने धरती से चाँद। और तुम्‍हारी कैसेट से रूमानियत छलक-छलक पड़ती थी!

सरकती जाए है रूख़ से नकाब आहिस्‍ता-आहिस्‍ता......
बहुत पहले से इन क़दमों की आहट जान लेते हैं

वो पहली कैसेट थी- जिससे हमने जगजीत-चित्रा आवाज़ की दुनिया को टटोला था।
इसके बाद हमने तुम्‍हारी आवाज़ के ख़ज़ाने में प्रवेश किया...
काग़ज़ की कश्‍ती और बारिश के पानीवाली दुनिया में….उस दुनिया में जहां ‘पत्‍थर के ख़ुदा, पत्‍थर के सनम और पत्‍थर के ही इंसां थे’....हमें चित्रा का गाया मेरे दुःख की कोई दवा ना करो या यूं जिंदगी की राह में मजबूर हो गये भी उतना ही पसंद था जितना तुम्‍हारा तुम इतना जो मुस्‍कुरा रहे होया तेरे खुश्‍बू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे

तुम्‍हें नहीं पता कि उन दिनों में जब शामों को बेवजह उदासी तैर आती थी
, तो तुम्‍हारी आवाज़ में कुछ भी अच्‍छा लगता था। जब चित्रा जी ने गाना बंद कर दिया तो हमने एक चिट्ठी भी लिखी थी कि उन्‍हें गाना चाहिए। तुम्‍हारा पता हमारी डायरी में किसी आयत की तरह दर्ज था। फिर जब हम उसी शहर में आ गये, जिसकी एक इमारत तुम्‍हारा पता था, तो जाने क्‍यों हम कभी वहां रूके नहीं। यही नहीं इसी शहर में तुम्‍हारे कंसर्ट होते थे, हम टिकिट ख़रीदकर जा सकते थे। हम रिकॉर्डिंग के बहाने तुम्‍हारे घर धमक सकते थे। मोबाइल नंबर तो मिल ही गया था, तुमने खुद ही दिया था लैंड-लाइन पर बात करने के दौरान....पर हम ना गये कंसर्ट में। ना घर आए। क्‍यों।

हम उस लुत्‍फ को कम नहीं करना चाहते थे...जो हाई-स्‍कूल से कॉलेज के रूमानी दिनों में तुमने हमें दिया था
, कैसेट्स पर। हमारे लिए तुम चाँद थे जगजीत। पर हमने उस चाँद को कभी छूना नहीं चाहा। बस इसलिए हम नहीं आए तुम्‍हारे पास, मौक़ों के रहते हुए भी।

फिर तुम चले गये
, ये ख़बर जब हम मिली, तो बेसाख्‍ता बहुत रोए हम।
रेडियो पर प्रोग्राम करना था...हमने किया। जो हमें जानते-समझते हैं
, या जिन्‍हें प्रोग्राम याद रहते हैं, उन्‍हें याद होगा, कैसी कांपती आवाज़ में हम विविध भारती पर तुम्‍हें अंतिम विदाई दे रहे थे।

ऐसा नहीं था कि हम तुम्‍हारे पक्‍के भक्‍त थे। बहुत चीजें हमें पसंद नहीं थीं। पर जगजीत
, तुम्‍हारी पूरी यात्रा, तुम्‍हारी आवाज़ वो ईमानदारी, उसका सच्‍चा दुःख हमें पसंद था। इसलिए हमने तुम्‍हें कभी विदाई नहीं थी। तुम्‍हारा नंबर आज भी हमारे फोनबुक में चमकता है।
गए बरस तुम्‍हारे जन्‍मदिन के दिन ही हमारे प्‍यारे शायर निदा भी हमारे बीच से चले गये। उन्‍होंने
कितना सही कहा था-- 


मुँह की बात सुने हर कोई
, दिल के दर्द को जाने कौन

आवाज़ों के बाज़ारों में, ख़ामोशी पहचाने कौन।

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Saturday, February 8, 2014

तेरे ख़ुश्‍बू में बसे ख़त...जगजीत के जन्‍मदिन पर।


आज जगजीत सिंह का जन्‍मदिन है।
उस अज़ीम आवाज़ का जन्‍मदिन जिसकी उंगली पकड़कर हमने हाई-स्‍कूल के दिनों में ‘सुनना’ सीखा। क्‍या दीवानगी थी वो...वो तपती पागल दोपहरों और सुरमई उदास शामों और सितारों से जड़ी रातों के दिन थे। वो रेडियो के दिन थे। वो दिन थे फिलिप्‍स के बेशक़ीमती सिंगल स्‍पीकर कैसेट प्‍लेयर के।

वो इंटरनेट के नहीं पत्रिकाओं और अख़बारों के दिन थे। जगजीत के बारे में
jag एक लाइन भी कहीं लिखी मिल जाती तो मानो ख़ज़ाना मिल जाता। जेबख़र्च उन दिनों जगजीत के कैसेट्स ख़रीदने में जाता। और डायरियों में दर्ज होतीं वो ग़ज़लें--वो फिल्‍मी गाने जो जगजीत गाते रहे। फिर कठिन अलफ़ाज के मायने खोजे जाते और दोस्‍तों पर रौब झाड़ा जाता कि हम जगजीत को सुनते हैं। 

उन दिनों की एक और बात याद आयी। अचानक ख़बर आयी कि जगजीत के बेटे विवेक का एक सड़क हादसे में निधन हो गया है। और अब चित्रा जी नहीं गायेंगी। हाई-स्‍कूल के उन दिनों में हमने कहीं से पता खोजकर चित्रा जी के नाम एक चिट्ठी लिखी कि उन्‍हें गाना चाहिए। पता नहीं हमारी चिट्ठी वहां तक पहुंची और पढ़ी गयी या नहीं। पर चित्रा जी ने उससे आगे गाया नहीं। जगजीत ने गाया। पर फिर पुलों के नीचे से इतना पानी बह गया, पहाड़ों की बर्फ इतनी पिघल गयी और दुनिया इतनी बदल गयी कि हमारी जगजीत भी तरल होते चले गये। और हमने तय किया कि जगजीत की पुरानी आवाज़ को संदूक में सहेज कर रखेंगे। और पुरानी तस्‍वीरों के तरह बीच-बीच में वहां पनाह लेंगे।

कम नहीं है जगजीत का योगदान हम सब की जिंदगी में। उन्‍होंने हमारे दिनों को उजला बनाया। हमारी उन उदास शामों को और सुरमई बनाया..जिनमें हम सचमुच और ज्‍यादा उदास रहना चाहते थे। तारों जड़ी रातें तो कब की खो गयीं, पर समंदर किनारे के इस शहर में--सचमुच समंदर के किनारे हमने जगजीत को ख़ूब सुना। उन्‍हें देखा। उनसे फ़ोन पर बातें कीं। अब तक अपनी फ़ोन-बुक से हम उनका नाम-नंबर 'इरेज़' नहीं कर पाए। इसलिए कि जगजीत गये नहीं हैं...हैं...बस हम उनसे बात नहीं कर सकते।

इसलिए अपने अज़ीज़ फ़नकार 'मन-जीते-जगजीत' को सालगिरह की मुबारकबाद। और आपकी नज़र उनकी आवाज़ में ये रचना।

Nazm: Tere Khusboo Mein Base Khat
Lyrics: Rajendra Nath Rehbar
Singer: Jagjit Singh



तेरे ख़ुश्‍बू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे
प्‍यार में डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे 


जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाए रखा



जिनको इक उम्र कलेजे से लगाए रखा
दीन जिनको, जिन्‍हें ईमान बनाए रखा
तेरे खुश्‍बू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे

जिनका हर लफ्ज़ मुझे याद था पानी की तरह
याद थे मुझको जो पैग़ाम-ए-जुबानी की तरह
मुझको प्‍यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह
तेरे ख़ुश्‍बू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे


तूने दुनिया की निगाहों से जो बचाकर लिखे
साल-हा-साल मेरे नाम बराबर लिखे
कभी दिन में तो कभी रात को उठकर लिखे 
तेरे ख़ुश्‍बू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे 
प्‍यार में डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे
तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूं।


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Sunday, January 27, 2013

'मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन'....निदा फ़ाज़ली और जगजीत

निदा फ़ाज़ली को पद्म-श्री देने की घोषणा हो गयी है। वे हमारे समय के महत्‍त्‍वपूर्ण शायर और गीतकार हैं। ये समझना थोड़ा मुश्किल है कि फिल्‍म-संसार में उनकी पारी लंबी और हरी-भरी क्‍यों नहीं रही--फिर भी शुक्रगुज़ार होना चाहिए निदा फ़ाज़ली का...कि OLYMPUS DIGITAL CAMERA         उन्‍होंने हमें अपनी तन्‍हाईयों का साथ देने वाले कुछ नायाब गाने दिये। चाहे 'रजिया सुल्‍तान' का कब्‍बन मिर्जा़ का गाया गाना--'तेरा हिज्र मेरा नसीब है' हो या फिर 'आप तो ऐसे ना थे' का 'तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है' या फिर 'स्‍वीकार किया मैंने' का 'अजनबी कौन हो तुम'...इस तरह के गानों की एक लंबी फेहरिस्‍त है। मुमकिन हुआ तो हम 'रेडियोवाणी' पर निदा के कई गीत एक के बाद एक सुनवायेंगे।

लेकिन निदा के सबसे अच्‍छे अशआर ग़ैर-फिल्‍मी ग़ज़लों की शक्‍ल में नुमाया हुए हैं और ये सहज भी है। ग़ज़लों में वो एक आज़ाद शायर होते हैं--धुनों या अलफ़ाज़ की क़ैद से दूर। जहां वो अपने मन की बात कह सकते हैं। ऐसी ग़ज़लों की भी लंबी फेहरिस्‍त है। बहरहाल.... जब निदा को जगजीत की आवाज़ मिली है तो जैसे एक तिलस्‍म रच गया है।

निदा मन की कंदराओं में छिपे दर्द को सहलाने वाले शायर हैं। ग्‍वालियर से मुंबई तक का ऊबड़-खाबड़ सफ़र तय करने वाले निदा ने अपनी शायरी को आम आदमी से जोड़ा। ख्‍वाबों-ख्‍यालों, हुस्‍न और इश्‍क़ की बजाय उन्‍होंने जिंदगी के कडियल सफ़र को अलफ़ाज़ में उतारा।
वो टूटते हुए रिश्‍तों, धर्म की ख़तरनाक ज़ंजीरों, सरहदों, मां, बच्‍चों और रोज़मर्रा की जाने किन किन चीज़ों पर लिखा है।


उनकी ये ग़ज़ल देखिए--

बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्‍यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्‍यों नहीं जाता।।  
सब कुछ तो है क्‍या ढूंढती रहती हैं निगाहें
क्‍या बात है मैं वक्‍त पे घर क्‍यों नहीं जाता।।
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्‍यों नहीं जाता।।
वो नाम जो बरसों से ना चेहरा है ना बदन है
वो ख्‍वाब अगर है तो बिखर क्‍यों नहीं जाता।।

निदा ने दोहों पर भी प्रयोग किये हैं। 
मैं रोया परदसे में भीगा मां का प्‍यार


दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।।

सीता-रावण-राम का करें विभाजन लोग
एक ही तन में देखिए तीनों का संजोग

बच्‍चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
अल्‍लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।

सीधा-सादा डाकिया जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्‍कान

सबकी पूजा एक-सी, अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत।।

निदा के ये दोहे अनूठा प्रयोग हैं। आधुनिक परिप्रेक्ष्‍य में दोहों की पुनर्खोज। उनकी आवाज़ में ये दोहे यहां सुने जा सकते हैं।

आज हम निदा की एक नायाब ग़ज़ल लेकर आये हैं जिसे जगजीत सिंह ने गाया। इसे आपने दूरदर्शन वाले ज़माने में  (शायद 1991 के आसपास) डॉ राही मासूम राजा के लिखे मशहूर सीरियल 'नीम का पेड' के शीर्षक-गीत के रूप में काफी सुना होगा। निदा की इस बेहद मानीख़ेज़ ग़ज़ल को जिस इन्‍टेन्‍स तरीक़े से जगजीत ने गाया है, उससे ये रचना आपके भीतर ठहर जाती है। आप इससे बहुत देर तक बाहर नहीं आ पाते।

ghaza:  Munh ki baat sune har koi
album: MARASIM
singer: jagjit singh
shayar: Nida Faazli
duration: 6:06

https://youtu.be/B4eLE3Um1jU

मुंह की बात सुने हर कोई दिल का दर्द जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन

सदियों-सदियों वही तमाशा, रस्‍ता-रस्‍ता लंबी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं खो जाता है जाने कौन।।
वो मेरा आईना है, मैं उसकी परछाईं हूं
मेरे ही घर में रहता है, मुझ जैसा ही जाने कौन।।
किरन-किरन अलसाता सूरज, पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है, ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन।। 


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Saturday, May 17, 2008

कैसे कैसे रंग दिखाए कारी रतिया-जगजीत सिंह की आवाज़ फिल्‍म कालका

रेडियोवाणी पर कुछ दिन पहले फिल्‍म कालका का वो गीत आपको सुनवाया था जो मैं बहुत दिनों से खोज रहा था । बिदेसिया । जब कालका का रिकॉर्ड मिल ही गया तो उसके साथ आए इस फिल्‍म के सारे नग़्मे । उनमें से एक ये भी है जिसे आज आप तक पहुंचा रहा हूं । ये गीत जगजीत सिंह अपने लगभग सभी कंसर्टों में गाते हैं ।

चूंकि मैंने फिल्‍म कालका नहीं देखी इसलिए पता नहीं है कि इस गीत की jagjit फिल्‍म में क्‍या जगह है । पर जगजीत सिंह के संगीतबद्ध किये इन गानों का क़द्रदान जरूर रहा हूं । जगजीत की गाढ़ी और खरजदार आवाज़ में शास्‍त्रीय-गीत बहुत जंचते हैं । इसलिए जब कंसर्टों में वो अपनी मनचाही रचनाएं गाते हैं तो आनंद की अनूठी अनुभूति होती है । मुझे जगजीत से हमेशा एक शिकायत रही है और वो ये कि अपनी ग़ज़लों को कम्‍पोज़ करने में जगजीत पिछले बीस सालों से बहुत ज्‍यादा टाइप्‍ड हो गये हैं । धुनों की कोई बड़ी क्रांति उन्‍होंने नहीं दिखाई । अपने ही बनाए एक पक्‍के रास्‍ते पर टहलते रहे और इस तरह हम जैसे चाहने वालों का दिल तोड़ दिया है जगजीत सिंह ने । बहरहाल कालका फिल्‍म का ये गीत सुनिए । इसे किन्‍हीं सत्‍यनारायण जी ने लिखा है ।

इस गाने को सुनने का एक और जुगाड़ ये रहा । अगर आपको अपने ब्राउज़र पर दिक्‍कत आए तो जांचें कि आपके पास फ्लैश प्‍लेयर है या नहीं ।

कैसे कैसे रंग दिखाए कारी रतिया

हमको ही हमसे चुराए कारी रतिया ।।

माया की नगरिया में सोने की बजरिया

नाच नाच हारी रामा बावरी गुजरिया

रह रह नाच नचावै कारी रतिया ।।

जेह दिन आइहैं पिया के संदेसवा

उड़ जईहैं सुगना, छूट जइहैं देसवा

रोए रोए हमको बताए कारी रतिया ।।

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