एक जंगल है तेरी आंखों में: दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल-मीनू पुरूषोत्तम की आवाज़ ।
पिछले दिनों मनीष ने अपने ब्लॉग पर 'दुष्यंत कुमार' की याद दिला दी ।
और वो स्कूल-कॉलेजिया दिन याद आ गये जब मध्यप्रदेश के छोटे-से शहर सागर के दो पुस्तक भंडारों से दुष्यंत की 'साये में धूप' अकसर ख़रीदी जाती थी । होता ये था कि जो भी मित्र देखता वो इसे 'उठा' ले जाता । और हम फिर से 'वेरायटी' या 'साथी बुक डिपो' जाकर फिर से 'साये में धूप' ख़रीद लेते । ये वो दिन थे जब 'वाद-विवाद' प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने का शौक़ परवान चढ़ रहा था । और ऐसे 'अशआर' की ज़रूरत महसूस होती थी, जिससे विरोधी-पक्ष को धराशाई किया जा सके । 'साए में धूप' ने ये काम बहुत आसानी से किया ।
'साए में धूप' पढ़कर ही हमने दुष्यंत कुमार को जाना-पहचाना । मध्यप्रदेश में होने की वजह से दुष्यंत की मित्र-मंडली के काफी साहित्यकारों को भी पहचाना । उनके संस्मरणों के ज़रिए भी दुष्यंत की शख्सियत से परिचित हुए । उनकी दूसरी पुस्तक 'आवाज़ों के घेरे' भी खोजकर पढ़ी । पर जो बात 'साए में धूप' में है...वो दुष्यंत की दूसरी रचनाओं में नहीं । 'कविता-कोश' में आप 'साए में धूप' यहां पढ़ सकते हैं ।
दुष्यंत की शायरी का 'उपयोग' पिछले दिनों एक फिल्म में किया गया था । हो सकता है कि 'रेडियोवाणी' पर हम उनमें से कुछ गीत भी आपके लिए लेकर आएं । लेकिन फिलहाल तो मीनू पुरूषोत्तम की आवाज़ में आपके लिए दुष्यंत की वो ग़ज़ल लेकर आया हूं जो अपनी संवेदनशीलता और अपने रूपकों में बड़ी ही नायाब है ।
एक जंगल है तेरी आंखों में
मैं जहां राह भूल जाता हूं ।
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूं ।
तू किसी रेल-सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं ।
हर तरफ एतराज़ होता है
मैं अगर रोशनी में आता हूं ।
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूं ।
एक जंगल है तेरी आंखों में ।।
मीनू पुरूषोत्तम ने कुछ मशहूर फिल्मी-गीत भी गाए हैं । जैसे मोहम्मद रफी के साथ 'चायना-टाउन' का गीत 'बार बार देखो' । और फिल्म 'दाग़' का गीत-'नी मैं यार मनाणा नी' । दुष्यंत की ये ग़ज़ल मीनू पुरूषोत्तम के ग़ज़लों के एक अलबम से ली गयी है । सुना है कि आजकल मीनू पुरूषोत्तम ह्यूसटन में रहती हैं और नई पीढ़ी को संगीत भी सिखाती हैं । कोई इस बात की पुष्टि करेगा ?
और वो स्कूल-कॉलेजिया दिन याद आ गये जब मध्यप्रदेश के छोटे-से शहर सागर के दो पुस्तक भंडारों से दुष्यंत की 'साये में धूप' अकसर ख़रीदी जाती थी । होता ये था कि जो भी मित्र देखता वो इसे 'उठा' ले जाता । और हम फिर से 'वेरायटी' या 'साथी बुक डिपो' जाकर फिर से 'साये में धूप' ख़रीद लेते । ये वो दिन थे जब 'वाद-विवाद' प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने का शौक़ परवान चढ़ रहा था । और ऐसे 'अशआर' की ज़रूरत महसूस होती थी, जिससे विरोधी-पक्ष को धराशाई किया जा सके । 'साए में धूप' ने ये काम बहुत आसानी से किया ।
'साए में धूप' पढ़कर ही हमने दुष्यंत कुमार को जाना-पहचाना । मध्यप्रदेश में होने की वजह से दुष्यंत की मित्र-मंडली के काफी साहित्यकारों को भी पहचाना । उनके संस्मरणों के ज़रिए भी दुष्यंत की शख्सियत से परिचित हुए । उनकी दूसरी पुस्तक 'आवाज़ों के घेरे' भी खोजकर पढ़ी । पर जो बात 'साए में धूप' में है...वो दुष्यंत की दूसरी रचनाओं में नहीं । 'कविता-कोश' में आप 'साए में धूप' यहां पढ़ सकते हैं ।
दुष्यंत की शायरी का 'उपयोग' पिछले दिनों एक फिल्म में किया गया था । हो सकता है कि 'रेडियोवाणी' पर हम उनमें से कुछ गीत भी आपके लिए लेकर आएं । लेकिन फिलहाल तो मीनू पुरूषोत्तम की आवाज़ में आपके लिए दुष्यंत की वो ग़ज़ल लेकर आया हूं जो अपनी संवेदनशीलता और अपने रूपकों में बड़ी ही नायाब है ।
एक जंगल है तेरी आंखों में
मैं जहां राह भूल जाता हूं ।
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूं ।
तू किसी रेल-सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं ।
हर तरफ एतराज़ होता है
मैं अगर रोशनी में आता हूं ।
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूं ।
एक जंगल है तेरी आंखों में ।।
मीनू पुरूषोत्तम ने कुछ मशहूर फिल्मी-गीत भी गाए हैं । जैसे मोहम्मद रफी के साथ 'चायना-टाउन' का गीत 'बार बार देखो' । और फिल्म 'दाग़' का गीत-'नी मैं यार मनाणा नी' । दुष्यंत की ये ग़ज़ल मीनू पुरूषोत्तम के ग़ज़लों के एक अलबम से ली गयी है । सुना है कि आजकल मीनू पुरूषोत्तम ह्यूसटन में रहती हैं और नई पीढ़ी को संगीत भी सिखाती हैं । कोई इस बात की पुष्टि करेगा ?
26 comments:
वीनू पुरूषोत्तम का एक और बढिया गीत है फ़िल्म दो बूँद पानी से -
पीतल की मेरी गागरी दिल्ली से मोल मँगाई रे
पाँवों में घुँघरू बाँध के अब पनिया भरन हम जाई रे
Dushyant Ji ki ye ghazal hamesha se pasand hai.aaj ise sur lay me sunaane ka shukriya.
यूनुस जी काफी दिनों से आपको स्क्रैप करने के सोचने के बावजूद यह स्थगित ही रहता है. कि कोई पसंद है तो है, क्यों चिल्लाया जाये. कई महीने केरल रहना पड़ा और हिंदी जुबान के लिए तरस गया तो एफएम के सहारे आपकी प्रस्तुति सूनी और मोहब्बत कई गुना बढ़ गई. संजीदगी और उम्दा जानकारियों के साथ दुर्लभ से गीतों का खजाना हैं आप. रात फिर आपकी आवाज़ सुनी और आज आपसे बतियाना पक्का किया. दुष्यंत और साये की धूप के बारे में आपने सही फ़रमाया. मुझे भी इसे कई दफा खरीदना पड़ा और हद तब हुई जब एक मोहतरमा का फ़ोन मेरी खो गई इस किताब पर लिखे नाम और नंबर के जरिये आया. जाने कैसे ये किताब किसी वाद-विवाद वाले ने उदा ली थी और इस मोहतरमा तक जापहुंचे थी. हाँ लाख पसंद होने के बावजूद वाद-विवाद प्रतियोगिता में इसके उपयोग-दुरूपयोग ने चिढ भी पैदा कर दी थी एक ज़माने में.
आपकी तारीफ हज़ार बार.
आप की बदौलत बहुत दिनों में कोई संगीतमय रचना सुन सका हूँ। बहुत सकून दिया इस ने।
ठीक वही कहना है जो द्विवेदी जी ऊपर कह गए हैं !
यूनुस जी, बहुत सुंदर गज़ल सुनवाई आपने। आनंदा गया।
बहुत अच्छा लगा दुष्यन्त की गजल सुनना।
किसी पुरुष की आवाज में और बेहतर लगता।
रचनाकार के शब्दोँ को
जब स्वर मिलते हैँ
तब यादगार बन जाती है
हर कृति - ज्योँ
सोने मेँ सुगँध !
बढिया प्रस्तुति रही युनूस भाई
- लावण्या
सही शब्द है"तू किसी रेल सी गुजरती है/ मै किसी पुल सा थरथराता हूँ" मैने यह पुस्तक एक रात मे अपनी डायरी मे उतारी थी और यह गज़ल सुमन जी और दुश्यंत जी की पत्नी रजेश्वरी जी को गाकर सुनाई थी 1978 मे
शरद जी शुक्रिया शब्द सही कराने के लिए । असल में इबारत उतारने में ग़लती हो गई थी । इसे सुधार लिया है ।
युनूस जी इस प्रस्तुति के लिये तमाम शुक्रियायें कम हैं...
यूनुस जी, ये mp3 मेल में मिल सकता है क्य..?
शुक्रिया युनुस भाई!
अक्सर ही इसे गुनगुनाते हैं हम...
आपने वाद विवाद प्रतियोगिताओं की बात की, मैंने तो तकरीबन हर कवि सम्मेलन में सूत्रधार को इनका कोई ना कोई शेर उछालते देखा है। यहाँ तक कि नेता भी जब अपने वक्तव्य को शायराना मोड़ देना चाहते हैं तो दुषयन्त जी का सहारा लेते हैं। हाल फिलहाल मैं मैंने बिहार की जनसभाओं में शत्रुघ्न सिन्हा को ऍसा करते देखा।
दरअसल इसका कारण ये है कि दुष्यन्त की लेखनी आम समाज के हालातों को ऐसे सहज परंतु मारक शब्द में लपेटती है कि मासेज और क्लॉसेज एक साथ धाराशायी हो जाते हैं।
बहरहाल मीनू जी की आवाज़ में पहली बार इसे सुना। सुनवाने का आभार !
धन्यवाद आपका इसे सुनवाने के लिये.
बचपन में दुष्यंत जी के घर जाते रहते थे,उनकी पत्नी से पढते थे. मगर अकल नहीं थी उनके हिमालयीन ऊंचाई को समझने की...यादें ताज़ा हो गयी.
यूनुस जी,
मैं हमेशा से ही आपका मुरीद रहा हूँ. आपके कार्यक्रम भी सुनता हूँ. आपकी प्रेरणा से हिंदी में अपना एक ब्लॉग शुरू किया है....आशा है आप को पसंद आएगा.
चलते-चलते बता दूं कि ग़ज़ल बहुत ही उम्दा है. सुनवाने के लिए शुक्रिया.
साभार
हमसफ़र यादों का.......
आभार इस प्रस्तुति के लिये मुझे नहीं पता था कि दुष्यंत जी की ग़ज़लें गाई भी गईं हैं । आज एक अनुरोध लेकर आया हूं । आपके खजाने में से कुछ मोती सुनना चाहता हूं । दरअसल में ये वे गीत हैं जो कि मैंने कभी बचपन में एकाध बार सुने थे और सुनने में बहुत अच्छे भी लगे थे लेकि उसके बाद कभी सुनने को नहीं मिले । बहुत इच्छा है इनको सुनने की यदि आप सुनवा सकें ।
1 वो जो औरों की खातिर जिये मर गये सोचती हूं उन्हें क्या मिला : लता मंगेशकर जी फिल्म आईना पुरानी कलाकार मुमताज
2 हम तो कोई भी नहीं हमको भुला दो ऐसे टूटे तारे को भूल जाये आसमां जैसे : लता मंगेशकर जी फिल्म शरारत ( पुरानी गीता बाली वाली नहीं और नई अभिषेक बच्चन वाली भी नहीं )
3 मैं हूं जोधपूर की जुगनी : लता मंगेशकर फिल्म पाप और पुण्य कलाकार शशि कपूर और शर्मिला
इसी फिल्म का एक गाना ओर भी है लता किशोर का बोलो बादल की मेहबूबा कौन है बिजली है ।
4 हम ही नहीं थे प्यार के काबिल : लता जी फिलम प्यासी आंखें ।
अगर सुनवा पायें तो आभारी रहूंगा । पिछले कई सालों से इन गीतों को ढूंढ रहा हूं ।
मुझ जैसे न जाने कितने हिन्दीभाषियों को दुष्यंतकुमार ग़ज़लों की ओर लाए होंगे. युनूस भाई मीनू पुरूषोत्तम आकाशवाणी के उस दौर का बहुत ही प्रतिष्ठित नाम हैं जब सुगम संगीत विधा पूरे शबाब पर थी. न कैसेट्स होते न सीडीज़ लेकिन आकाशवाणी जब तक लाइव कंसर्ट्स कर मीनू पुरूषोत्तम,नीलम साहानी,सतीश भूटानी और उषा टंडन जैसी गुणी आवाज़ों को श्रोताओं से रूबरू करती रह्ती थी. फ़िर इन कार्यक्रमों की रेकॉर्डिंग्स कई दिनों तक आकाशवाणी के केन्द्र प्रसारित किया करते थे.
दुष्यंतकुमार की एक ग़ज़ल फ़िल्म शायद में भी है शायद. संगीतकार मानस मुखर्जी हैं और उषा मंगेशकर की आवाज़ में रेकॉर्ड इस ग़ज़ल की एक पंक्ति याद आ रही है कि ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती...या ऐसा ही कुछ. शायद की कहानी जयप्रकाश चौकसे ने लिखी थी. इन्दौर में ही एक दर्दनाक ज़हरीली शराब काण्ड पर आधारित कथानक था .अदाकार थे विजयेन्द्र घाटगे और नीता मेहता. बड़ी लो बजट फ़िल्म थी और तब इन्दौर पाँच लाख से भी कम आबादी का शहर होता था...सो फ़िल्म शायद की शूटिंग की बड़ी धूम थी. इसी शराब काण्ड में हमने एक बहुत प्यारा शायर गँवाया..क़ाशिफ़ इन्दौरी.
क़ाशिफ़ भाई के एक शेर से बात ख़त्म करता हूँ:
मुझ पे इल्ज़ाम ए बलानोशी सरासर है ग़लत
जिस क़दर आँसू पिये हैं उससे कम पी है शराब
इसे कहते हैं लाजवाब रचना की शानदा प्रस्तुति।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
इतना ही कह सकता हूं-बहुत खूब!
आभार इस सुन्दर रचना को सुनवाने के लिये।
युनुस भाई...इस प्रस्तुति के लिए सलाम...
नीरज
युनुस भाई !
आप ने मीनु पुरुषोत्तम जी के बारे में पूछा , वह अधिकांश समय पैन्सिल्वेनिया और न्यू जर्सी में रहती हैं । उन का बेटा यहां पर है । पहले शायद ह्यूस्टन में थी । अभी कुछ दिन पहले उन का एक कार्यक्रम था , मुझे Compere करने का अवसर मिला था ।
मेरे पास उन का सम्पर्क सूत्र है , यदि आप चाहें तो मुझे लिखें ।
Bahut he badhiya laga is ghazal ko sunkar ..... laga jaise saari zindagi ka bojh dubara se utha kar daud sakta hoon .... thodi sahishnuta badh gayi ...aur laga ki is sab k baad bhi main dosron k liye samay nikaal sakta hoon ...
Bahut bahut dhanyawaad...
kya yeh gana download kiya jaa sakta hai
Thanks a lot for uploading and giving me chance to download. I was looking this ghazal for a very long time . Thanks a lot
वाह क्या बात है दोनों ही मेरे बहुत पसंदीदा कलाकार है मीनू पुरषोत्तम जी और दुष्यंत कुमार जी का तो कहना ही क्या छोटी सी life में ही जिंदगी भर का बड़ा सा नाम मर गए.... मीनू जी की कुछ ग़ज़ल भी लाजवाब है....
और sirji आपने तो सागर की भी याद दिल दी बहुत साल सागर में रहना हुआ सारी education भी वोही की है तो साथी बुक डिपो वाले अंकल भी याद आ गए....
पुरानी यादें पुरानी बातें कभी भूलती ही नहीं....
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