संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Friday, May 15, 2009

कोई दिन गर जिंदगानी और है-विनोद सहगल के बहाने सीरियल मिर्जा़ ग़ालिब की याद ।

पिछले कुछ दिनों से कानों में विनोद सहगल की आवाज़ गूंज रही थी । 'कोई दिन गर जिंदगानी और है, अपने दिल में हमने ठानी और है' । शायद आप‍ विनोद को जानते हों, शायद नहीं जानते हों । विनोद एक ग़ज़ल गायक हैं । अस्‍सी के दशक में जगजीत सिंह ने ग़ज़ल की दुनिया की कुछ नई प्रतिभाओं को मौक़ा दिया था । और दो LP रिकॉर्डों का एक सेट जारी किया था । नाम था ‘chitra-jagjit singh presents the talents of eighties’ । इस अलबम में विनोद सहगल, घनश्‍याम वासवानी, अशोक खोसला, सीमा शर्मा, सुमिता चक्रवर्ती और जुनैद अख़्तर जैसे युवा कलाकार शामिल थे । यहां से विनोद का सफ़र शुरू तो हुआ पर लंबा नहीं चला । इन प्रतिभाओं में से अशोक खोसला का तो फिर भी काफ़ी नाम हुआ बाक़ी कलाकार जैसे गुमनामी की धुंध में खोते चले गए । यही वो अलबम है जिसमें अशोक खोसला ने 'अजनबी शहर के अजनबी रास्‍ते' ग़ज़ल गाई थी । जिसे डॉ. राही मासूम रज़ा ने लिखा था ।


विनोद मुंबई की सेंट्रल रेलवे लाइन के एक बेहद सुदूर उपनगर में रहते हैं । संघर्ष तब भी था, अब भी है । पर विनोद की आवाज़ पता नहीं क्‍यों मेरे कानों में गाहे-बगाहे गूंजती रहती है । मेरा मानना है कि विनोद की आवाज़ में एक अजीब सी सूफियत है । आपको याद होगा कि सन 1988 में गुलज़ार ने दूरदर्शन के लिए एक नामचीन धारावाहिक बनाया था 'मिर्ज़ा ग़ालिब' । नसीर ने इसमें मुख्‍य भूमिका की थी और कुछ इस गेट-अप में नज़र आए थे ।
mirza-ghalib
ये धारावाहिक 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में शामिल ग़ज़लों के HMV द्वारा जारी किए गए अलबम का 'जैकेट' है । शायद आपको याद हो, ये सीरियल इस शेर से शुरू होता था---


'हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्‍छे
कहते हैं कि ग़ालि‍ब का है अंदाज़-ए-बयां और'


इसके बाद गुलज़ार की वो कमेन्‍ट्री है जिसे 'इब्तिदा' के नाम से जाना जाता है । ये रही उस कमेन्‍ट्री की इबारत--
बल्‍लीमारान के मुहल्‍ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नुक्‍कड़ पे बटेरों के वो क़शीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वाह
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे,
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़के चलते हैं यहां
चूड़ीवालान के कटरे की बड़ी बी जैसे,
अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोलें
इसी बेनूर अंधेरी सी गली-क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुराने सुख़न का सफा खुलता है
असद उल्‍ला ख़ां ग़ालिब का पता मिलता है ।

इब्तिदा यहां सुनिए
 




इसे विनोद सहगल ने ही गाया था । यहां क्लिक करके आप इस धारावाहिक की पहली कड़ी (और कई अन्‍य कडियों ) को तसल्‍ली से इंटरनेट पर ही देख सकते हैं । विनोद सहगल की आवाज़ एकदम शुरू में ही आपको मिल जायेगी । बरसों पहले फिल्‍म माचिस में उन्‍होंने हरिहरन के साथ ‘छोड़ आए हम वो गलियां’ गाया था । विनोद की आवाज़ में आज हम आपको 'मिर्ज़ा ग़ालिब' सीरियल में शामिल एक ग़ज़ल सुनवा रहे हैं । कहते हैं कि मिर्ज़ा ग़ालिब ने एक फ़कीर को अपनी यही ग़ज़ल गाकर भीख मांगते हुए देखा था । और उन्‍हें बड़ा अच्‍छा लगा था ।


कोई दिन गर जिंदगानी और है
अपने जी में हमने ठानी और है
बारहा देखीं हैं उनकी रंजिशें
पर कुछ अब के सरगिरानी और है
देके ख़त मुंह देखता है नामाबर
कुछ तो पैगाम-ऐ-ज़बानी और है
हो चुकीं गालिब बलाएँ सब तमाम
एक मर्ग-ए-नागहानी और है

22 comments:

नीरज गोस्वामी May 15, 2009 at 1:04 PM  

पहचान लिया हमने विनोद जी की आवाज़ को...दिलकश है. "मिर्जा ग़ालिब" दूर दर्शन के लिए बने सीरिअल्स में बहुत ऊंचे पायदान पर है. नसीर साहेब की लाजवाब अदाकारी और जगीत जी की मखमली आवाज़ ने इसे बुलंदियों पर पहुंचा दिया था. मेरे पास इसका पूरा सेट है और गाहे बगाहे देखता हूँ...जब भी देखता हूँ लगता है पहली बार देख रहा हूँ...ऐसे अजीब सी कशिश है इस सीरियल में...
शुक्रिया आपका विनोद जी के बहाने मिर्जा ग़ालिब की चर्चा कर डाली.
नीरज

दिनेशराय द्विवेदी May 15, 2009 at 3:58 PM  

यह सीरियल लाजवाब है, ऐसा दूसरा न बन पाएगा ठीक ग़ालिब की तरह।

अभिषेक मिश्र May 15, 2009 at 4:07 PM  

मिर्जा ग़ालिब सीरियल और विनोद सहगल की यादें बांटने का शुक्रिया.

सुशील छौक्कर May 15, 2009 at 7:00 PM  

वाह आनंद आ गया यूनूस भाई।

Manish Kumar May 15, 2009 at 8:28 PM  

यूँ तो मिर्जा गालिब अपने आप में एक जबरदस्त कैसेट था पर उसकी तमाम ग़ज़लों में दो मुझे खास तौर पर पसंद आईं थी एक तो "आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक.." और दूसरी ये जिसे आज आपने प्रस्तुत किया। इसे गुनगुनाना भी में मुझे बेहद पसंद है़ क्यूँकि बहुत सुकून का अहसास होता है इस ग़ज़ल की धनात्मक उर्जा से।

मुनीश ( munish ) May 15, 2009 at 8:59 PM  

thnx for a noble endeavour.great indeed!

सागर नाहर May 15, 2009 at 9:13 PM  

गुलाम मोहम्मद के मिर्जा गालिब के बाद पता नहीं क्यों किसी और के गालिब को सुनने की इच्छा नहीं हुई, अपने संकलन में होने के बावजूद भी!
जैसा संगीत गुलाम मोहम्म्द साहब ने जो मिर्जा गालिब की गज़लों के लिये दिया, वह कमाल बस एक बार ही होता है।
पता नहीं क्यों जगजीत सिंह का जगजीत सिंह का यह संगीत दिल को छू नहीं पाया।
बाकी धारावाहिक बहुत ही अच्छा था,इसका निर्देशन और नसीरुद्दीन शाह का अभिनय बहुत ही बढ़िया था।
गुलजार साहब की आवाज में कमेंट्री बहुत अच्छी अगती है, इसे जरुर अक्सर सुना करता हूं।

Himanshu Pandey May 16, 2009 at 5:49 AM  

जाहिराना तौर पर विनोद जी की आवाज में यह ग़ज़ल एक उम्दा प्रस्तुति है ।
गुलजार की आवाज में इब्तिदा सुनने का सुख अवर्णनीय है, और फिर इस सीरियल में जगजीत की मखमली आवाज का चहँओर बिखरा सम्मोहन अद्भुत है ।
धन्यवाद इस प्रविष्टि के लिये ।

Farid Khan May 16, 2009 at 10:17 AM  

युनुस भाई
"......बटेरों के पोशीदे" ?
या "बटेरों के कसीदे" ?

मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।

स्ट्रक्चर May 16, 2009 at 4:49 PM  

युनुस भाई
आपके ब्लॉग पर पहली बार आई
बेहद प्रभावित हूँ
बधाइयां

Anonymous,  May 16, 2009 at 5:08 PM  

Yunus, Dil khush ho gaya hai ye ghazal sunkar...maine phone par apni bahan ko bhi sunwayi...

aap to shaukeenon ko mastam treat dete ho... Shukriya iss treat ke liye...

Unknown May 16, 2009 at 6:29 PM  

Mirza Ghalib, Tamas, aur Bharat Ek Khoj ke liye DD ki ta'umr shukraguzaar rahungi. What a presentation!!I could never decide what was better--Gulzar's direction, Naseer's acting or Jagjeet's music...what a beautiful peace of creativity. My fav sher from this ghazal is--
"Aatish-e-dozakh* mein ye garmi kahan
Soz-e-gham-haye-nihani** aur hai."

(*narak/jahannum ki aag
**aantarik santaap ki jalan)

दिलीप कवठेकर May 17, 2009 at 12:40 AM  

यूंहि अलग हट कर सुनवाया किजियेगा, यही हीरे मोती है, जो आप जैसे राज हंस ही चुग सकते है. शुक्रिया!!

Yunus Khan May 18, 2009 at 11:21 AM  

फरीद भाई कसीदे ही सही है ।
मैंने ग़लत सुना था । इसलिए इबारत में ग़लती हो गई ।

RAJ SINH May 18, 2009 at 9:39 PM  

युनुस भयी ,पहली बार आप्से साब्का हुआ और मज़ा आ गया .सागर नाहर जी से थोडा असह्मत होने का मन कर रहा है .गुलाम मोहम्मद के सन्गीत की तो बात ही और है.खस कर तलत सुरैय्या का गीत .......दिले नादां तुझे हुआ... ’पर येह सीरिअल aur उस्का सन्गीत , दोनो ही मील के पत्थर हैन .

युनुस जी मैन येक खस दर्ख्वस्त करून्गा . मैन स्वयम फ़िल्म निर्माण से जुडा हून और विनोद सेह्गल के बारे मे पता करनेकी कोशिश भी कर चुका पर काम्याब ना हुआ .किसी फ़िल्म दिरेक्तरी मे भी नहीन पा सका .मुझे उस गून्जती हुयी आवाज़ की तलाश है और दर्कार भी .ये भी बता सकेन कि क्या अन्धे भिक्चुक के सूर्दास के गाये हुये पद को भी विनोद ने ही गाया है या कि किसी और की आवज़ है. मुझे गर उस गायक का भी कुछ पता मिले तो शुक्रगुज़ार रहून्गा .
मेरा एमैल है rajsinhasan@gmail.com
filhaal newyork me hee hoon par 4 june ke baad mumbai me rahungaa . bharat ka tel.# hai 0996 908 1835. yaa mere sahaayak vivek asthana se sampark hai
0986 741 4797.

bahut hee dhanyavaad .

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` May 18, 2009 at 9:48 PM  

बेहद खूबसुरत -
"कह्ते हैँ कि गालिब का है,
अँदाज़े बयाँ और .."
"उन सा न कोई हुआ ना होगा भी

अनमोल खज़ाने हैँ ये तो -
- लावण्या

siddheshwar singh May 18, 2009 at 10:56 PM  

मन भया प्रसन्न और किया कहूँ?

Kaul May 21, 2009 at 8:20 AM  

यूनुस भाई, बहुत ख़ूब याद दिलाया। सच में ग़ालिब, जगजीत सिंह और नसीरुद्दीन शाह का तो जवाब नहीं, पर एक कम मशहूर शख़्सियत के बारे में जानकारी देने के लिए धन्यवाद। क्या आप को मालूम है इस ग़ज़ल में "सरगिरानी" का क्या अर्थ है? दो शब्द और ठीक कर लीजिए -- "बारहा" और "मर्ग-ए-नागहानी"।

यूनुस May 21, 2009 at 1:28 PM  

क़ौल साहब शुक्रिया टाइप-ओ सुधरवाने का । सरगिरानी का मतलब होता है अप्रसन्‍नता । नाराज़गी । पोस्‍ट लिखते वक्‍त तक मायने मिले नहीं थे । अभी अभी मद्दाह शब्‍दकोष से खोजे हैं ।

Sanjay Grover May 25, 2009 at 7:15 PM  

विनोद सहगल मुझे भी बहुत प्रिय हैं। उनकी गायी यह ग़ज़ल तो मैं लगातार हज़ार बार सुन सकता हूं। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, यूनुस भाई।

Sanjay Grover May 25, 2009 at 7:15 PM  

विनोद सहगल मुझे भी बहुत प्रिय हैं। उनकी गायी यह ग़ज़ल तो मैं लगातार हज़ार बार सुन सकता हूं। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, यूनुस भाई।

Sanjay Grover May 25, 2009 at 7:15 PM  

विनोद सहगल मुझे भी बहुत प्रिय हैं। उनकी गायी यह ग़ज़ल तो मैं लगातार हज़ार बार सुन सकता हूं। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, यूनुस भाई।

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