चिट्ठाजगत ने मिलाया एक पुराने दोस्त से
प्रिय मित्रो
रेडियोवाणी को सत्रह अप्रैल को शुरू किया था, काफी हिचक के साथ, मुझे यक़ीन नहीं था कि मैं इस चिट्ठे को चला सकूंगा । नियमित लिख सकूंगा । पर आप सबके प्यार ने ‘रेडियोवाणी’ को संगीत की नई दुनिया बनाया है । रेडियोवाणी के ज़रिये मेरा ना जाने कितने लोगों से परिचय हुआ है । नए दोस्त बने हैं । मज़ा आ रहा है ।
पुराने मित्र भी रेडियोवाणी को बड़े चाव से पढ़ रहे हैं । लेकिन आज रेडियोवाणी पर मैं आपको बस यही बताना चाहता हूं कि इस चिट्ठे ने मुझे अपने एक पुराने गुमशुदा दोस्त से मिलवा दिया । आनंद ने एक दिन इस ब्लॉग को देखकर ‘गीता रॉय’ वाली पोस्ट पर ये लिखा---
प्रिय यूनुस भाई,
अभी तुम्हारा ब्लॉग पढ़ा तथा फोटो भी देखा। क्या तुम वही यूनुस हो जो जबलपुर थे और उस समय पार्ट/फुल टाइम काम की तलाश कर रहे थे। यदि तुम वही हो, तो मैं तुम्हारे उस दौर का साथी हूँ मुझे इस ईमेल पर संपर्क करो:
इसके बाद मैंने आनंद को लिखा--
आनंद भाई
आपका मेल देखा । मैं वही यूनुस हूं जो आकाशवाणी जबलपुर में कैजुअल अनाउंसर था और नौकरी की तलाश कर रहा था । यानी आपने सही पहचाना ।
लेकिन माफ़ कीजिएगा, मैं आपको पहचान नहीं पा रहा हूं ।
याद आया, क्या आप विवेचना में थे और एग्रीकल्चर यूनीवर्सिटी में पढ़ते थे ।
कुछ याद दिलाएंगे ।
यूनुस
बस इसके बाद आया आनंद का कन्फरमेशन-मेल--
यूनुस भाई,
गले मिलकर नमस्कार,मैं वही आनंद हूँ जो
विवेचना में था। एग्रीकल्चर से M.Sc.पूरा कर चुका था और रोजी रोटी की तलाशमें था।
तुम्हारे साथ जबलपुर की लाइब्रेरी के खाक़छाना करता था।
वहाँ Timesof India का Ascent खोजता था कि कहीं कोई मनमाफिक जॉब मिल जाए।
मुझे याद है कि हम दोनों वहीं के लोकल न्यूज़पेपर में एक विज्ञापन पढ़कर संभावना तलाशने गए थे
(शायद पत्रकार की जगह के लिए)।
हम मन ही मन तैयारी कर रहे थे कि न्यूनतम कितना पैसा मांगना ठीक रहेगा,जबकि वहाँ जाकर पता चला कि पैसा मिलना तोबहुत मुश्किल था, परहमें प्रेस का स्टीकार मिलेगा जिससे गाड़ी (साइकिल)स्टैंड का किराया नहीं लगेगा।
मैंने बहुत कोशिश की थी कि वहीं जबलपुर में कोई ऐसी जॉब मिलजाए जिससे मेरा खाना-खर्चा चल जाए तो मैं इतमीनान से पूरी जिंदगी थिएटर कर सकता हूँ। जबकि यही मिलना मुश्किल था। मैं जून 1996 को वहाँ से दिल्ली चला आया था।(बल्कि मेरे दोस्तों,शुभचिंतकों ने धकेलधकेल कर भेजा था)।
यहाँ दिल्ली में IndianAgricultural Research Institute में एक अस्थायी रिसर्च फैलो की पोस्ट थी। उसमें एक डेढ़ साल बिताया। फिर इसी तरह दो तीन जगह बदल कर इस समय रेगुलर पोस्ट में हूँ।
मैं दिल्ली में पिछले 10 साल से हूँ। शुरूआती 3-4 वर्ष भूखे भेंडि़ए की तरह थिएटर देखने के लिए टूट पड़ता था। ( किसीग्रुप को ज्वाइन करना मुश्किल था,क्योंकि इसके लिए समय का अभाव था, परंतु देख तो सकता था)। तकरीबन रोज़ एक न एक नाटक ज़रूर देखता। फिर... संक्षेप में बताऊँ, तो धीरे धीरे यह शगल कम होता गया। फिर शादी हो गई, फिर एक बच्ची हो गई और इस समय तो सब कुछ एक सपना सा लगता है। (मैंने इसे दो लाइन में निपटाया है, पर यह इतना सरल नहीं है, इस पूरी प्रक्रिया में बहुत समय लगा था)।
फिलहाल तो घर से बाहर निकलने में भी आलस्य आता है। घूमने भी बहुत कम ही जा पाता हूँ। हाँ इन दिनों इंटरनेट सर्फिंग का शौक लगा है । घर पर ही ब्रॉडबैंड कनेक्शन है। इसी कारण तुम्हारा ब्लॉग पढ़ने को मिला। तुमतो छा गए यार। इतना बढिया ब्लॉग !
तुम बताओ, इतने दिन क्या किया ? आज किस पोजीशन में हो ?
बाक़ी बातें बाद में लिखूँगा ।
आनंद
आनंद से पूछे बिना पत्र को छाप रहा हूं, सो इसलिये कि इसमें छिपाने जैसा कुछ नहीं है, उन दिनों की याद आ गयी जब मैं पढ़ाई ख़त्म करने वाला था और तय किया था कि आकाशवाणी में ही जाना है । उस वक्त ‘विविध भारती’ माउंट एवरेस्ट जैसा सपना लगती थी । जबलपुर इप्टा यानी विवेचना मेरा अड्डा हुआ करता था । आनंद वहां थियेटर करता था और मैं कभी इन नाटकों पर लेख लिखता, कभी परोक्ष सहयोग करता, नियमित रूप से थियेटर करना उन दिनों ‘आकाशवाणी’ की कैजुएल अनाउंसरी के साथ मुमकिन नहीं था । आकाशवाणी, साहित्य, दोनों समय लाईब्रेरी में दो दो घंटे बिताना इतनी सारी गतिविधियां थीं । मुझे याद आ रहा है कि बाद में हम तसलीमा नसरीन का ‘लज्जा’ करने वाले थे । मैं भी इसमें अभिनय कर रहा था । आनंद था या नहीं याद नहीं आ रहा है, पर शायद सोनू पाहूजा निर्देशन कर रहा था । इसी बीच मेरा सिलेक्शन हो गया और नाटक के मंचन से पहले मैं मुंबई आ गया ।
आनंद उन दिनों एग्रीकल्चर यूनीवर्सिटी में पढ़ता था और थियेटर का ज़बर्दस्त प्रेमी होता था । विवेचना का सक्रिय सदस्य ।
आज दुख इसी बात का है कि थियेटर एक पुराना सपना बन गया है आनंद के लिए ।
पर रेडियोवाणी के ज़रिये आनंद से दोबारा जुड़ना सचमुच आनंद का विषय है ।
चिट्ठों के ज़रिए ऐसा भी होता है ।
रेडियोवाणी को सत्रह अप्रैल को शुरू किया था, काफी हिचक के साथ, मुझे यक़ीन नहीं था कि मैं इस चिट्ठे को चला सकूंगा । नियमित लिख सकूंगा । पर आप सबके प्यार ने ‘रेडियोवाणी’ को संगीत की नई दुनिया बनाया है । रेडियोवाणी के ज़रिये मेरा ना जाने कितने लोगों से परिचय हुआ है । नए दोस्त बने हैं । मज़ा आ रहा है ।
पुराने मित्र भी रेडियोवाणी को बड़े चाव से पढ़ रहे हैं । लेकिन आज रेडियोवाणी पर मैं आपको बस यही बताना चाहता हूं कि इस चिट्ठे ने मुझे अपने एक पुराने गुमशुदा दोस्त से मिलवा दिया । आनंद ने एक दिन इस ब्लॉग को देखकर ‘गीता रॉय’ वाली पोस्ट पर ये लिखा---
प्रिय यूनुस भाई,
अभी तुम्हारा ब्लॉग पढ़ा तथा फोटो भी देखा। क्या तुम वही यूनुस हो जो जबलपुर थे और उस समय पार्ट/फुल टाइम काम की तलाश कर रहे थे। यदि तुम वही हो, तो मैं तुम्हारे उस दौर का साथी हूँ मुझे इस ईमेल पर संपर्क करो:
इसके बाद मैंने आनंद को लिखा--
आनंद भाई
आपका मेल देखा । मैं वही यूनुस हूं जो आकाशवाणी जबलपुर में कैजुअल अनाउंसर था और नौकरी की तलाश कर रहा था । यानी आपने सही पहचाना ।
लेकिन माफ़ कीजिएगा, मैं आपको पहचान नहीं पा रहा हूं ।
याद आया, क्या आप विवेचना में थे और एग्रीकल्चर यूनीवर्सिटी में पढ़ते थे ।
कुछ याद दिलाएंगे ।
यूनुस
बस इसके बाद आया आनंद का कन्फरमेशन-मेल--
यूनुस भाई,
गले मिलकर नमस्कार,मैं वही आनंद हूँ जो
विवेचना में था। एग्रीकल्चर से M.Sc.पूरा कर चुका था और रोजी रोटी की तलाशमें था।
तुम्हारे साथ जबलपुर की लाइब्रेरी के खाक़छाना करता था।
वहाँ Timesof India का Ascent खोजता था कि कहीं कोई मनमाफिक जॉब मिल जाए।
मुझे याद है कि हम दोनों वहीं के लोकल न्यूज़पेपर में एक विज्ञापन पढ़कर संभावना तलाशने गए थे
(शायद पत्रकार की जगह के लिए)।
हम मन ही मन तैयारी कर रहे थे कि न्यूनतम कितना पैसा मांगना ठीक रहेगा,जबकि वहाँ जाकर पता चला कि पैसा मिलना तोबहुत मुश्किल था, परहमें प्रेस का स्टीकार मिलेगा जिससे गाड़ी (साइकिल)स्टैंड का किराया नहीं लगेगा।
मैंने बहुत कोशिश की थी कि वहीं जबलपुर में कोई ऐसी जॉब मिलजाए जिससे मेरा खाना-खर्चा चल जाए तो मैं इतमीनान से पूरी जिंदगी थिएटर कर सकता हूँ। जबकि यही मिलना मुश्किल था। मैं जून 1996 को वहाँ से दिल्ली चला आया था।(बल्कि मेरे दोस्तों,शुभचिंतकों ने धकेलधकेल कर भेजा था)।
यहाँ दिल्ली में IndianAgricultural Research Institute में एक अस्थायी रिसर्च फैलो की पोस्ट थी। उसमें एक डेढ़ साल बिताया। फिर इसी तरह दो तीन जगह बदल कर इस समय रेगुलर पोस्ट में हूँ।
मैं दिल्ली में पिछले 10 साल से हूँ। शुरूआती 3-4 वर्ष भूखे भेंडि़ए की तरह थिएटर देखने के लिए टूट पड़ता था। ( किसीग्रुप को ज्वाइन करना मुश्किल था,क्योंकि इसके लिए समय का अभाव था, परंतु देख तो सकता था)। तकरीबन रोज़ एक न एक नाटक ज़रूर देखता। फिर... संक्षेप में बताऊँ, तो धीरे धीरे यह शगल कम होता गया। फिर शादी हो गई, फिर एक बच्ची हो गई और इस समय तो सब कुछ एक सपना सा लगता है। (मैंने इसे दो लाइन में निपटाया है, पर यह इतना सरल नहीं है, इस पूरी प्रक्रिया में बहुत समय लगा था)।
फिलहाल तो घर से बाहर निकलने में भी आलस्य आता है। घूमने भी बहुत कम ही जा पाता हूँ। हाँ इन दिनों इंटरनेट सर्फिंग का शौक लगा है । घर पर ही ब्रॉडबैंड कनेक्शन है। इसी कारण तुम्हारा ब्लॉग पढ़ने को मिला। तुमतो छा गए यार। इतना बढिया ब्लॉग !
तुम बताओ, इतने दिन क्या किया ? आज किस पोजीशन में हो ?
बाक़ी बातें बाद में लिखूँगा ।
आनंद
आनंद से पूछे बिना पत्र को छाप रहा हूं, सो इसलिये कि इसमें छिपाने जैसा कुछ नहीं है, उन दिनों की याद आ गयी जब मैं पढ़ाई ख़त्म करने वाला था और तय किया था कि आकाशवाणी में ही जाना है । उस वक्त ‘विविध भारती’ माउंट एवरेस्ट जैसा सपना लगती थी । जबलपुर इप्टा यानी विवेचना मेरा अड्डा हुआ करता था । आनंद वहां थियेटर करता था और मैं कभी इन नाटकों पर लेख लिखता, कभी परोक्ष सहयोग करता, नियमित रूप से थियेटर करना उन दिनों ‘आकाशवाणी’ की कैजुएल अनाउंसरी के साथ मुमकिन नहीं था । आकाशवाणी, साहित्य, दोनों समय लाईब्रेरी में दो दो घंटे बिताना इतनी सारी गतिविधियां थीं । मुझे याद आ रहा है कि बाद में हम तसलीमा नसरीन का ‘लज्जा’ करने वाले थे । मैं भी इसमें अभिनय कर रहा था । आनंद था या नहीं याद नहीं आ रहा है, पर शायद सोनू पाहूजा निर्देशन कर रहा था । इसी बीच मेरा सिलेक्शन हो गया और नाटक के मंचन से पहले मैं मुंबई आ गया ।
आनंद उन दिनों एग्रीकल्चर यूनीवर्सिटी में पढ़ता था और थियेटर का ज़बर्दस्त प्रेमी होता था । विवेचना का सक्रिय सदस्य ।
आज दुख इसी बात का है कि थियेटर एक पुराना सपना बन गया है आनंद के लिए ।
पर रेडियोवाणी के ज़रिये आनंद से दोबारा जुड़ना सचमुच आनंद का विषय है ।
चिट्ठों के ज़रिए ऐसा भी होता है ।
10 comments:
आपके बिछुड़े हुए दोस्त से दोबारा मुलाकात की बधाई!
बिछड़े दोस्त का मिलना बहुत सुखद होता है।बधाई।
the power of blogging .... look we also got a new friend in you who brings such beautiful melodies to us- sajeev
अरे युनुस, हमारे साथ तो नाई की दुकान पर मीट हुई थी. यह तो ब्लॉग में मिलन हो गया. बहुत बधाई!
पुराने और बिछडे दोस्त के मिलने की बधाई।
बधाई हो जी!! पुराने दोस्तों से मिलना एक सकून देता है।
ब्लॉग बिछुडे मित्र से मिलने का माध्यम बना, ब्लॉग ही नये मित्रों से मिलने का माध्यम बना-बड़ी गहरी चीज निकली यह ब्लॉग तो. विवेचना से हमारे मित्र अमित मिश्रा, म.प्र.विद्युत मंडल वाले भी बडे करीबी से जुडे थे. अरसा बीता अब तो.
--अच्छा लगा आपकी मिलन कथा पढ़कर.
वाह, ब्लॉगिंग ने बिछड़े दोस्तों को मिला दिया, बधाई!
आज मनमोहन देसाई जिंदा होते तो इस पर एक फिल्म जरुर बना डालते। :)
< इस छोकरे नू अजदक दे पास भेज देओ, वा इस दी छतरी बणाक्के उस दे पिच्छू डाल देवेगा >
यूनुस भाई,
मैं तो तुम्हारे ईमेल का इंतज़ार कर रहा था, यहाँ तुमने पूरा चैप्टर लिख मारा। इस ब्लॉग में अपना पत्र पढ़कर मैं एक बार तो चौंक ही गया। जाने कौन कौन सा राज खोलोगे सरे बाज़ार। तुम लज्जा में रोल करने वाले थे। तुम्हारी कास्टिंग भी हो चुकी थी। तुम्हें शेख मुजीबुर्ररहमान का रोल मिला था। पर तुम भाग आए। हमें लगा कि तुम इस रोल को लेकर या लज्जा के विषय को लेकर कान्सस हो रहे हो। बाद में वह रोल रवींद्र ने किया। मैंने लज्जा में काम किया था। बढि़या शो रहा। तारीफें और गालियाँ दोनों मिलीं। उसके बाद जलयात्रा का कार्यक्रम शुरू हुआ। हम सभी साथी सोनू पाहूजा के साथ उसमें शामिल हो गए। दो माह वहाँ व्यस्त रहे। फिर मैं दिल्ली आ गया। सोनू पाहूजा (सोनू भैया) एक बहुत ही होनहार लीडर, निर्देशक, रंगकर्मी, और भी जाने क्या क्या हैं... उन्होंने ही प्रोत्साहित कर हमें अभिनेता बना दिया। हमारी बहुत बढि़या टीम थी। सुना है कुछ समय बाद वह मुंबई चले गए हैं। वहाँ अपना बढि़या काम जमा लिया है। मैंने कई लोगों से उनकी खोज खबर लेने की कोशिश की, परंतु क़ामयाब नहीं हुआ। यहाँ दिल्ली जो कोई भी आता उनसे अपने सभी लोगों के बारे में जानकारी लेने की कोशिश करता था। यह जानकर बड़ा अच्छा लगा कि तुम्हें ऐसी नौकरी मिली है जिसका काम तुम Enjoy करते हो। अपने Passon को बतौर कैरियर चुना है। परंतु सबके साथ ऐसा नहीं है। कोई अभिनेता अच्छा है, अभिनेता ही बना रहना चाहता है पर कैमरामैन बन गया, या पत्रकार बन गया। इसी तरह रोजी रोटी को लेकर हम लोगों ने समझौते किए हैं। इस तरह हमारा व्यक्तित्व दो हिस्सों में बँट गया है। एक वह जो हमें बनना पड़ा हैं, और दूसरा वह जो हम दरअसल हैं, या होना चाहते थे। और दो-दो भूमिकाएँ निभाना आसान नहीं है। मैं तो कई बार सोचता हूँ कि मैं क्या हूँ, मतलब मैं किस काम के लिए फिट हूँ, यह अभी तक नहीं जान पाया हूँ। जब तुम जैसे लोग मिलते हैं, पुरानी यादें ताज़ा होती हैं, तब अपनी Discovery की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। शेष बातें बाद में। तुम क्या कर रहे हो, अपने बारे में विस्तार से लिखो। अपनी यात्रा भी Share करो। - आनंद
Post a Comment
if you want to comment in hindi here is the link for google indic transliteration
http://www.google.com/transliterate/indic/