क्या आप कब्बन मिर्ज़ा को जानते हैं । आईये उनके गाने सुनें ।
कब्बन मिर्ज़ा—क्या ख़ास है इस नाम में । कुछ नहीं । सुनकर लगता है कि लखनऊ का कोई शख़्स होगा और क्या ।
लेकिन कब्बन मिर्ज़ा सिर्फ़ एक नाम नहीं है, कब्बन मिर्जा एक आवाज़ हैं ।
अगर आज कब्बन साहब जिस्मानी तौर पर हमारे बीच नहीं हैं तो क्या हुआ, आवाज़ तो है ही उनकी, जो हमारे भीतर अजीब-सी कैफियत पैदा करती है । अगर आपको फिल्म-संगीत से प्यार है तो ज़रूर आप कब्बन मिर्ज़ा को जानते होंगे । कब्बन साहब ने कमाल अमरोहवी की फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ के दो गीत गाये और ऐसे गाये कि आज तक ज़माना इन्हीं गीतों के ज़रिये कब्बन मिर्ज़ा को याद करता है ।
ये गाने हैं--
तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है
और
आई ज़ंजीर की झंकार ख़ुदा ख़ैर करे
सबसे दिलचस्प बात ये है कि कब्बन मिर्ज़ा विविध-भारती में काम करते थे । और श्रोता बरसों-बरस उन्हें ‘संगीत-सरिता’ की उनकी प्रस्तुतियों के लिए याद करते रहे । सन 1996 में जब मैं विविध-भारती आया तब तक मिर्ज़ा साहब रिटायर हो चुके थे । एक दिन अचानक वो विविध-भारती आए और उन्हें देखकर मैं दंग रह गया । लंबा क़द, माथे से काफी पीछे सरक चुके घुंघराले बाल, बिना इन की हुई शर्ट, चेहरे पे मुस्कान, मिज़ाज में लखनऊ की नफ़ासत । मैं तो उनके सामने बच्चा था । मैंने कहा मैं तो धन्य हो गया आपके दर्शन करके । उन्हें अच्छा लगा । दरअसल ये वो दिन थे जब मिर्ज़ा साहब को कैंसर हो चुका था और उनका जसलोक अस्पताल में इलाज हुआ था । इस दरम्यान वो ठीक भी हो चुके थे ।
बाद में एक प्रायोजित कार्यक्रम ‘एच.एम.टी. समय-यात्रा’ या ऐसा ही कुछ नाम था उस कार्यक्रम का, जिसके लिये एकाध हफ्ते तक वो लगातार आए । एक दिन मैं उनके साथ स्टूडियो में बैठ गया और काम में उनकी मदद की । उन्हें काम करते देखकर अच्छा लगा । रेडियो को इन जुनूनी लोगों ने ही ऊंचाई तक पहुंचाया था ।
कब्बन साहब के बारे में मैं ज्यादा नहीं जानता पर उनकी जिंदगी का जिक्र मुझे ‘भावुक’ ज़रूर बना देता है । कैंसर से दो बार लड़े कब्बन साहब और जब दूसरी बार कैंसर लौटा तो फिर...........। ज़रा सोचिए कि आवाज़ ही जिसकी पहचान थी, उस व्यक्ति पर कैंसर से अपनी आवाज़ खो देने के बाद क्या गुज़रती होगी । कितनी पीड़ा और कितनी बेबसी झेली होगी कब्बन साहब ने । मुंबई के एक सुदूर उपनगर मुंब्रा में एक दिन वो चुपचाप से इस दुनिया से चले गये । लेकिन कब्बन साहब की आवाज़ है और दिल को बेचैन करती है ।
पिछले सप्ताह मैंने जब अपने छायागीत के लिए उनका गाया, अपना मनपसंद गाना चुना और उसे महीनों बाद बार-बार सुना तो बहुत अच्छा भी लगा और अफ़सोस भी हुआ । अच्छा लगा आवाज़ सुनकर । अफ़सोस हुआ कि इस तरह की आवाज़ को फिल्मों में ज्यादा मौक़े नहीं मिले । मैंने कोशिश की कि उनकी कोई तस्वीर मिल जाये, तो वो भी नहीं मिली ।
कमाल अमरोही ने अपनी सबसे महंगी फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ में उनसे दो गाने गवाये थे । इस फिल्म में धर्मेंद्र एक हब्शी ‘याकूब’ बने थे और धर्मेन्द्र के लिए अमरोही साहब को चाहिये थी एक भारी-भरकम गैर पेशेवर आवाज़ । पचास लोगों का ऑडीशन लिया उन्होंने और कोई आवाज़ उन्हें नहीं जमी । किसी ने कब्बन मिर्ज़ा का नाम उन्हें सुझाया । तब कब्बन मिर्ज़ा तब मुहर्रम के दिनों में नोहाख्वां का काम करते थे । यानी मरसिये और नोहे गाते थे । आपको बता दूं कि मरसिये और नोहे बहुत ही विकल स्वर में गाये जाते हैं । हालांकि आज इन्हें गाने वालों की तादाद काफी कम हो रही है । पर कई साल पहले जबलपुर में मुझे मुहर्रम के वक्त ऐसी महफिल में जाने का मौका मिला था जहां मरसिये गाये जा रहे थे । मैंने आकाशवाणी-जबलपुर के लिए उन्हें रिकॉर्ड कर लिया
था । बहरहाल—तो कब्बन मिर्ज़ा का ऑडीशन लिया गया और ये आवाज़ कमाल अमरोहवी को पसंद आ गयी । इस तरह ये दोनों गाने रिकॉर्ड हुए ।
पहले ज़िक्र इस गाने का--- ‘आई ज़ंजीर की झंकार, ख़ुदा ख़ैर करे’
इसे जांनिसार अख़्तर ने लिखा था, आज के जाने-माने गीतकार जावेद अख़्तर के वालिद थे अख़्तर साहब । और उर्दू के नामचीन शायर ।
ख़ैयाम साहब का टिपिकल-अरेंजमेन्ट है ये । एकदम दिव्य । शुरूआत बहुत गाढ़ी बांसुरी और संतूर की तरंगों से होती है और उसके बाद इसमें रबाब की लहरें शामिल हो जाती हैं, ख़ालिस अरेबियन धुन लगती है । फिर दिल को झंकृत कर देने वाली कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ । जब कब्बन मिर्ज़ा इसके दूसरे शेर ‘जाने ये कौन मेरी रूह को छूकर गुज़रा’ पर पहुंचते हैं तो अपनी आवाज़ को काफी ऊंचे सुर पर ले जाते हैं, इससे इस गाने में अंतर्निहित विकलता और बढ़ जाती है । इस गाने को सुनकर आप महसूस करेंगे कि जो असर आज हिमेश रेशमिया के ‘ढकचिक-ढकचिक’ रिदम और ‘वेस्टर्न-अरेन्जमेन्ट’ में नज़र नहीं आता, वो कितनी मासूमियत के साथ ख़ैयाम साहब के मिनिमम-रिदम और एकदम नाज़ुक अरेन्जमेन्ट में इतनी शिद्दत के साथ नज़र आता है । पढ़िये, सुनिए और मज़ा लीजिये इस गाने का ।
आई ज़ंजीर की झंकार ख़ुदा ख़ैर करे
दिल हुआ किसका गिरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे
जाने ये कौन मेरी रूह को छूकर गुज़रा
इक क़यामत हुई बेदार ख़ुदा ख़ैर करे
लम्हा-लम्हा मेरी आंखों में खिंची जाती है
इक चमकती हुई तलवार ख़ुदा ख़ैर करे
ख़ून दिल का ना छलक जाए कहीं आंखों से
हो ना जाए कहीं इज़हार ख़ुदा ख़ैर करे ।।
दूसरा गाना है —तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है ।
इस गाने का संगीत-संयोजन भी काफी-कुछ पिछले गाने जैसा ही है । वही संतूर और बांसुरी की तरंगें और वहीं झनकती हुई आवाज़ कब्बन साहब की । इसे निदा फ़ाज़ली ने लिखा है ।
आईये पहले इसे पढ़ें--
तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है.............हिज्र—विरह
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यूं, तू कहीं भी हो मेरे साथ है ।।
मेरे वास्ते तेरे नाम पर, कोई हर्फ़ आए, नहीं-नहीं
मुझे खौफे-दुनिया नहीं मगर, मेरे रू-ब-रू तेरी ज़ात है ।।
तेरा वस्ल ऐ मेरी दिलरूबा, नहीं मेरी किस्मत तो क्या हुआ,
मेरी माहजबीं यही कम है क्या, तेरी हसरतों का तो साथ है ।।
तेरा इश्क़ मुझपे है मेहरबां, मेरे दिल को हासिल है दो जहां,
मेरी जाने-जां इसी बात पर, मेरी जान जाए तो बात है ।।
कब्बन मिर्ज़ा ने फिल्म ‘शीबा’ में भी एक गाना गाया था इसके अलावा कुछ और गुमनाम फिल्में थीं जिनमें उनके गाने थे । मेरी तलाश जारी है ।
कब्बन मिर्जा की तस्वीरें यहां देखें
http://radiovani.blogspot.com/2007/07/blog-post_3434.html
लेकिन कब्बन मिर्ज़ा सिर्फ़ एक नाम नहीं है, कब्बन मिर्जा एक आवाज़ हैं ।
अगर आज कब्बन साहब जिस्मानी तौर पर हमारे बीच नहीं हैं तो क्या हुआ, आवाज़ तो है ही उनकी, जो हमारे भीतर अजीब-सी कैफियत पैदा करती है । अगर आपको फिल्म-संगीत से प्यार है तो ज़रूर आप कब्बन मिर्ज़ा को जानते होंगे । कब्बन साहब ने कमाल अमरोहवी की फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ के दो गीत गाये और ऐसे गाये कि आज तक ज़माना इन्हीं गीतों के ज़रिये कब्बन मिर्ज़ा को याद करता है ।
ये गाने हैं--
तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है
और
आई ज़ंजीर की झंकार ख़ुदा ख़ैर करे
सबसे दिलचस्प बात ये है कि कब्बन मिर्ज़ा विविध-भारती में काम करते थे । और श्रोता बरसों-बरस उन्हें ‘संगीत-सरिता’ की उनकी प्रस्तुतियों के लिए याद करते रहे । सन 1996 में जब मैं विविध-भारती आया तब तक मिर्ज़ा साहब रिटायर हो चुके थे । एक दिन अचानक वो विविध-भारती आए और उन्हें देखकर मैं दंग रह गया । लंबा क़द, माथे से काफी पीछे सरक चुके घुंघराले बाल, बिना इन की हुई शर्ट, चेहरे पे मुस्कान, मिज़ाज में लखनऊ की नफ़ासत । मैं तो उनके सामने बच्चा था । मैंने कहा मैं तो धन्य हो गया आपके दर्शन करके । उन्हें अच्छा लगा । दरअसल ये वो दिन थे जब मिर्ज़ा साहब को कैंसर हो चुका था और उनका जसलोक अस्पताल में इलाज हुआ था । इस दरम्यान वो ठीक भी हो चुके थे ।
बाद में एक प्रायोजित कार्यक्रम ‘एच.एम.टी. समय-यात्रा’ या ऐसा ही कुछ नाम था उस कार्यक्रम का, जिसके लिये एकाध हफ्ते तक वो लगातार आए । एक दिन मैं उनके साथ स्टूडियो में बैठ गया और काम में उनकी मदद की । उन्हें काम करते देखकर अच्छा लगा । रेडियो को इन जुनूनी लोगों ने ही ऊंचाई तक पहुंचाया था ।
कब्बन साहब के बारे में मैं ज्यादा नहीं जानता पर उनकी जिंदगी का जिक्र मुझे ‘भावुक’ ज़रूर बना देता है । कैंसर से दो बार लड़े कब्बन साहब और जब दूसरी बार कैंसर लौटा तो फिर...........। ज़रा सोचिए कि आवाज़ ही जिसकी पहचान थी, उस व्यक्ति पर कैंसर से अपनी आवाज़ खो देने के बाद क्या गुज़रती होगी । कितनी पीड़ा और कितनी बेबसी झेली होगी कब्बन साहब ने । मुंबई के एक सुदूर उपनगर मुंब्रा में एक दिन वो चुपचाप से इस दुनिया से चले गये । लेकिन कब्बन साहब की आवाज़ है और दिल को बेचैन करती है ।
पिछले सप्ताह मैंने जब अपने छायागीत के लिए उनका गाया, अपना मनपसंद गाना चुना और उसे महीनों बाद बार-बार सुना तो बहुत अच्छा भी लगा और अफ़सोस भी हुआ । अच्छा लगा आवाज़ सुनकर । अफ़सोस हुआ कि इस तरह की आवाज़ को फिल्मों में ज्यादा मौक़े नहीं मिले । मैंने कोशिश की कि उनकी कोई तस्वीर मिल जाये, तो वो भी नहीं मिली ।
कमाल अमरोही ने अपनी सबसे महंगी फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ में उनसे दो गाने गवाये थे । इस फिल्म में धर्मेंद्र एक हब्शी ‘याकूब’ बने थे और धर्मेन्द्र के लिए अमरोही साहब को चाहिये थी एक भारी-भरकम गैर पेशेवर आवाज़ । पचास लोगों का ऑडीशन लिया उन्होंने और कोई आवाज़ उन्हें नहीं जमी । किसी ने कब्बन मिर्ज़ा का नाम उन्हें सुझाया । तब कब्बन मिर्ज़ा तब मुहर्रम के दिनों में नोहाख्वां का काम करते थे । यानी मरसिये और नोहे गाते थे । आपको बता दूं कि मरसिये और नोहे बहुत ही विकल स्वर में गाये जाते हैं । हालांकि आज इन्हें गाने वालों की तादाद काफी कम हो रही है । पर कई साल पहले जबलपुर में मुझे मुहर्रम के वक्त ऐसी महफिल में जाने का मौका मिला था जहां मरसिये गाये जा रहे थे । मैंने आकाशवाणी-जबलपुर के लिए उन्हें रिकॉर्ड कर लिया
था । बहरहाल—तो कब्बन मिर्ज़ा का ऑडीशन लिया गया और ये आवाज़ कमाल अमरोहवी को पसंद आ गयी । इस तरह ये दोनों गाने रिकॉर्ड हुए ।
पहले ज़िक्र इस गाने का--- ‘आई ज़ंजीर की झंकार, ख़ुदा ख़ैर करे’
इसे जांनिसार अख़्तर ने लिखा था, आज के जाने-माने गीतकार जावेद अख़्तर के वालिद थे अख़्तर साहब । और उर्दू के नामचीन शायर ।
ख़ैयाम साहब का टिपिकल-अरेंजमेन्ट है ये । एकदम दिव्य । शुरूआत बहुत गाढ़ी बांसुरी और संतूर की तरंगों से होती है और उसके बाद इसमें रबाब की लहरें शामिल हो जाती हैं, ख़ालिस अरेबियन धुन लगती है । फिर दिल को झंकृत कर देने वाली कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ । जब कब्बन मिर्ज़ा इसके दूसरे शेर ‘जाने ये कौन मेरी रूह को छूकर गुज़रा’ पर पहुंचते हैं तो अपनी आवाज़ को काफी ऊंचे सुर पर ले जाते हैं, इससे इस गाने में अंतर्निहित विकलता और बढ़ जाती है । इस गाने को सुनकर आप महसूस करेंगे कि जो असर आज हिमेश रेशमिया के ‘ढकचिक-ढकचिक’ रिदम और ‘वेस्टर्न-अरेन्जमेन्ट’ में नज़र नहीं आता, वो कितनी मासूमियत के साथ ख़ैयाम साहब के मिनिमम-रिदम और एकदम नाज़ुक अरेन्जमेन्ट में इतनी शिद्दत के साथ नज़र आता है । पढ़िये, सुनिए और मज़ा लीजिये इस गाने का ।
आई ज़ंजीर की झंकार ख़ुदा ख़ैर करे
दिल हुआ किसका गिरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे
जाने ये कौन मेरी रूह को छूकर गुज़रा
इक क़यामत हुई बेदार ख़ुदा ख़ैर करे
लम्हा-लम्हा मेरी आंखों में खिंची जाती है
इक चमकती हुई तलवार ख़ुदा ख़ैर करे
ख़ून दिल का ना छलक जाए कहीं आंखों से
हो ना जाए कहीं इज़हार ख़ुदा ख़ैर करे ।।
|
दूसरा गाना है —तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है ।
इस गाने का संगीत-संयोजन भी काफी-कुछ पिछले गाने जैसा ही है । वही संतूर और बांसुरी की तरंगें और वहीं झनकती हुई आवाज़ कब्बन साहब की । इसे निदा फ़ाज़ली ने लिखा है ।
आईये पहले इसे पढ़ें--
तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है.............हिज्र—विरह
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यूं, तू कहीं भी हो मेरे साथ है ।।
मेरे वास्ते तेरे नाम पर, कोई हर्फ़ आए, नहीं-नहीं
मुझे खौफे-दुनिया नहीं मगर, मेरे रू-ब-रू तेरी ज़ात है ।।
तेरा वस्ल ऐ मेरी दिलरूबा, नहीं मेरी किस्मत तो क्या हुआ,
मेरी माहजबीं यही कम है क्या, तेरी हसरतों का तो साथ है ।।
तेरा इश्क़ मुझपे है मेहरबां, मेरे दिल को हासिल है दो जहां,
मेरी जाने-जां इसी बात पर, मेरी जान जाए तो बात है ।।
|
कब्बन मिर्ज़ा ने फिल्म ‘शीबा’ में भी एक गाना गाया था इसके अलावा कुछ और गुमनाम फिल्में थीं जिनमें उनके गाने थे । मेरी तलाश जारी है ।
कब्बन मिर्जा की तस्वीरें यहां देखें
http://radiovani.blogspot.com/2007/07/blog-post_3434.html
15 comments:
भई युनुस भाई वाह, बहूत दिनों से कब्बन मिर्जाजी की तलाश थी,आपने पूरी करवा दी।
क्या बात है। वाह ही वाह।
विकिपिडिया पर कब्बन मिर्ज़ा;
http://en.wikipedia.org/wiki/Kabban_Mirza
हां ये अच्छा लिखा आपने. अफ़्सोस ये है कि इस बुनियादी जानकारी के अलावा आप भी कुछ ज़्यादा निकाल पाने में नाकाम रहे. आपका पैशन समझ में आता है और आपका दर्द भी लेकिन आप भी क्या करें, एक हद के बाद आप भी ख़ुद को हेल्पलेस पाते होंगे इससे इस "महान ऑर्गेनाइज़ेशन" की हालत का पता चलता है. इसे हिंदी में कृतघ्नता नाम दिया जायेगा कि जिन लोगों ने रेडियो को ऊंचाइयों पर पहुंचाया उनका कोई ढंग का आर्काइव विकसित नहीं किया जा सका है. आपको उनकी कोई फ़ोटो नहीं मिल सकी, शायद आप उनकी आवाज़ का कोई रेफ़रेंस वहां तलाशें तो वह भी शायद न मिल सके. आइये कमाल अमरोही का शुक्रिया अदा करें. मैं भी अपने किसी न किसी शो में कब्बन मिर्ज़ा के ये गीत बजाने के बहाने निकाल लिया करता हूं. सचमुच वो एक दिलकश आवाज़ के मालिक थे. मैने उनका कोई रेडियो प्रोग्राम नहीं सुना. सुनने की बहुत तमन्ना है.
कब्बन मिर्जा के इस गीत [आई ज़ंजीर की] की सबसे बेहतरीन समीक्षा नईदुनिया पर अजानशत्रु साहब ने लिखी थी. वो बेव पर अभी उपलब्ध नहीं है.
सालों पहले पढी उस समीक्षा से अपनी याददाश्त के आधार पर एक बात लिख रहा हूं-
अजातशत्रु लिखते है की इस गीत की सबसे बडी खासियत यह है की एक अनपढ गुलाम जो एक अंगरक्षक भी था उसके व्यक्तिगत शब्द कोश में जैसे शब्द हो सकते हैं - मसलन ज़ंजीर/तलवार/झंकार वे ही प्रयोग किये गए हैं.
उस पर कब्बन मिर्जा साहब की आवाज़ इस गीत को पढे लिखे आदमी के काव्यमय विरह नहीं वरन एक बंधे हुए मासूम जीव की कामुकता वाले विरह का नैसर्गिक स्पर्श देती है जिसमें एक गुलाम की मजबूरी का जबरदस्त चित्रण है.
इन दोनों चीज़ों के चलते यह गीत अमूल्य है.
वेबदुनिया वालों से अजातशत्रुजी वाले सारे गीत-गंगा उपलब्ध करवाने की गुज़ारिश करूंगा. अभी कुछ ही गीत उपलब्ध करवाए गए हैं जो बालिवुड चैनल में हैं.
Kabban Mirza sang for the following films:-
1.JUNGLE KING(1959)
2.CAPTAIN AZAD(1964)
3.RAZIA SULTAN(1983)
4.SHEEBA (YEAR??)
I will try to get these songs for you.
Anurag
आपके ये दो वाक्य पढ कर बहुत बुरा लगा -
क्या आप कब्बन मिर्जा को जानते है ?
लखनऊ का कोई श्ख्स होगा
मैने कितनी बार ये बात विविध भारती को लिखी कि हम जैसे बहुत सारे पुराने श्रोता है इस देश मे।
ऐसे श्रोता जो ये नाम कही भी सुनेगें तो रेडिओ से जोड लेगें।
कब्बन मिर्जा के छाया गीत भी मैने सुने।
मुझे ये भी याद है कि बहुत पहले एक दिन सिलोन के मनोहर महाजन ने एक कार्यक्र्म मे कहा था कि कब्बन मिर्जा उनके मित्र है और रजिया सुल्तान का ये गीत सुनवाया था।
अन्न्पूर्णा
मैं हमेशा गीत पढ़ता था. आज सुना:
आई ज़ंजीर की झंकार ख़ुदा ख़ैर करे
दिल हुआ किसका गिरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे
बहुत अच्छा लगा, यूनुस! धन्यवाद.
युनुस भाई
एक से एक नायाब प्रस्तुति कर रहे है ,बहुत साधुवाद.
शुक्रिया कब्बन मिर्ज़ा की शख्सियत से रूबरू कराने के लिए। जानकर खुशी हुई कि इस चिट्ठे के बहाने आप अपने पुराने मित्रों से मिल पा रहे हैँ।
अन्नपूर्णा जी यक़ीन मानिए आपके जैसे सुधी श्रोता इने गिने ही रह गये हैं । हिमेश रेशमिया को सुनने वाली पीढ़ी कब्बन साहब को जानती तक नहीं । रेडियो में होने की वजह से मेरा वास्ता तरह तरह के लोगों से पड़ता है, अफ़सोस है कि आज के कई संगीतकार कब्बन साहब की आवाज़ और नाम से ही वाकिफ नहीं हैं । यक़ीन नहीं आता तो अपने आसपास सर्वे कर लीजिये । पर ऐसे माहौल में आप जैसे सुधी लोग उम्मीद जगाते हैं ।
आलोक भाई धन्यवाद, इरफान भाई आपने कब्बन साहब का कार्यक्रम नहीं सुना, अफ़सोस । विविध भारती के संग्रहालय में उनकी आवाज़ है ।
ई स्वामी, आपने अच्छा याद दिलाया, गीतगंगा में अजातशत्रु की कई समीक्षाएं मैंने पढ़ी हैं । म.प्र. में उन्हें नियमित पढ़ता था ।
अनुराग भाई ये गाने मैं भी खोज रहा हूं, शायद हम दोनों का प्रयास कामयाब हो ।
उड़न तश्तरी, ज्ञान जी और मनीष आपका भी शुक्रिया ।
विषय से हटकर टिप्प्णी दे रहा हूँ कि आपकी पोस्ट में फोन्ट की साईज हद से ज्यादा बड़ी है, जिससे पढ़ने में अरुचि होती है।
युनूस भाई..कब्बन मिर्ज़ा हम विविध भारती प्रेमियों के लिये और मुझ जैसे आवाज़ के अदने से ख़िदमतगार के लिये काशी-क़ाबा थे.रामसिंहजी की आवाज़ कब्बन साहब से मिलती जुलती थी .मै शर्त लगाया करता था ये कब्बन मिर्ज़ा बोल रहे हैं और अमूमन मैं ठीक होता था.रामसिंह वर्मा भी थे जिन्हें आवाज़ पर एक वर्कशाप में मिला था.ब्रजभूषण साहनी,ब्रजेंद्रमोहन(मौजीरामजी) से लेकर कमल शर्मा और आप तक की पीढ़ी ने विविध भारती के लिये बहुत समर्पित सेवाएँ दी हैं . रज़िया सुल्तान तो बहुत बाद में आई,कब्बन साहब तो एक बहुत मकबूल शख़्सियत थे उसके पहले.हाँ रंगतरंग वाले अशोक आवाज़ भी याद आ गए..दोपहर दो बजे भजन,गीत,ग़ज़ल बजाया करते थे.मधुकर राजस्थानी,उध्दवकुमार,रामानंद शर्मा जैसे गीतकार और खैयाम,के.महावीर,मुरलीमनोहर स्वरूप जैसे संगीतकार और शर्मा बंधु,मन्ना डे,मोहम्मद रफ़ी,सुमन कल्याणपुर,युनूस मलिक(यूं उनकी मस्त निगाही का एहतराम किया..सुराही झुक गई पैमानों ने सलाम किया...सुनवाइये न कभी आपको ब्लाँग पर),मुबारक़ बेगम,बेगम अख़्तर,हरि ओम शरण ,जगजीत सिंह,मेहदी हसन और ग़ुलाम अली जैसी आवाज़ों को रंगतरंग ने घर घर में पहुँचाया था..युनूस भाई यादों के गलियारे बडे़ बेरहम होते हैं वे आपके पैरों में खु़शबूदार धूल बन कर चिपट जाते हैं और आपसे शिद्दत से पूछते हैं...कहाँ थे तुम इतने दिन...यहीं रोकता हूं अपने आप को ...दोस्त कहेंगे कमेंट लिख रहा है या ब्लाँग.हाँ ईस्वामी जी के लिये ये खु़शख़बर है कि अजातशत्रुजी वेबदुनिया पर उपलब्ध हैं ..हो सका तो जल्द ही उन्हे(ईस्वामीजी को लिंक मेल कर दूंगा..ईस्वामीजी आप मुझे sanjaypatel1961@gmail.com पर एक हैलो मेल दे दीजिये जिससे आपका मेल आई डी मेरे पास दर्ज़ हो जाए) नईदुनिया ने अभी ५ जून को अपनी यात्रा की हीरक जयंती (६० वर्ष) मनाई है और सूत्र बताते हैं कि अजात दा की गीत-गंगा पुस्तकाकार में जल्द ही पाठकों के हाथों में होगी.युनूस भाई किशोरवय और युवावस्था की जो भी सुखद यादें ज़हन में ताज़ा हैं उसमें विविध भारती सबसे ज़्यादा जगह घेरता है..रेडियोनामा जल्द शुरू कीजिये न ..उसमें अपनी यादों की किताब के पन्नों को सहलाने को मुझ जैसे कई रेडियो मुरीद बेसब्र है. अल्लाहाफ़िज़.
kabban Mirza ki eik video is link par dekhen.
http://www.youtube.com/watch?v=M9JwIxq__g8&feature=email&email=comment_received
क्या मुझे कब्बन मिर्ज़ा की नात "आज उनके पा ए नाज़ " सुनने को मिल सकती है
Great post. This song was written by Kaif Bhopali, not Janisar Akhtar, but at some other places too mistakenly the song 'aai zanjeer ki jhankar, is mentioned as Akhtar's. This is in Kaif's diwan too.
Post a Comment
if you want to comment in hindi here is the link for google indic transliteration
http://www.google.com/transliterate/indic/