‘मल्टीप्लेक्स दशक’-तीसरी कड़ी, छोटी फिल्में बड़ी कामयाबी
दिल्ली के पी.वी.आर. को सात जुलाई को दस साल पूरे हो चुके हैं । ये इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि ये मल्टीप्लेक्स-दशक रहा है, मल्टीप्लेक्सों ने अब छोटे शहरों में अपने पैर पसारने आरंभ किये हैं । इस परिदृश्य पर ‘इंडियन-एक्सप्रेस’ ने अपनी श्रृंखला ‘मल्टीप्लेक्स-दशक’ में कई लोगों के विचार देने शुरू किये हैं । ये इस सीरीज़ की तीसरी और अंतिम-कड़ी है ।
फिल्म-समीक्षक शुभ्रा गुप्ता के विचार
बहुत बरस पहले की बात है, मैंने एक फिल्म-वितरक से पूछा, तो क्या आपकी फिल्म फ्लॉप हो गयी है । मुझे उस फिल्म का नाम तो याद नहीं आ रहा है, लेकिन इस फिल्म का काफी ऊंचा बजट और ज़बर्दस्त स्टार-कास्ट थी, फिल्म को काफी धीमी ओपनिंग मिली और फिर दूसरे हफ्ते तक वो ग़ायब भी हो गई । इस सवाल पर उसने मुझे अपने दफ्तर में बैठाया, जो चांदनी चौक के भागीरथ पैलेस में था, ये वो जगह है जहां दिल्ली के फिल्म-व्यवसाय से जुड़े लोगों के दफ्तर हैं । इसके बाद उसने मुझे कुछ बुनियादी-बातें समझाईं । उसका कहना था कि सारा खेल अंकगणित का है । अगर फिल्म काफी कम बजट पर बनाई जाये और वो बहुत पैसा कमा लेती है और उस फिल्म से भी आगे निकल जाती है जो बड़े पैसे और बड़ी स्टारकास्ट को लेकर बनाई गयी थी । और जिसका बॉक्स-ऑफिस पर प्रदर्शन ठीक-ठाक था । पर वो लागत और आय के दायरे को ठीक से पाट नहीं पाई ।
उस वितरक ने बताया कि मिथुन चक्रवर्ती की छोटी फिल्में इसी तरह की बड़ी हिट साबित होती हैं । मिथुन को लेकर तेज़ी से बनने वाली फिल्मों का बजट एक करोड़ के आसपास होता है । वो दक्षिण भारत की संघर्षरत लड़कियों को नायिका बना देते हैं और ऊटी में शूटिंग करते हैं जहां उनका अपना होटल है । ज़ाहिर है कि होटल का पैसा बच जाता है । ये उन फिल्मों की बात है, जिन्हें ‘बी-ग्रेड’ का माना जाता है, और उत्तरप्रदेश तथा बिहार में मिथुन को पसंद करने वाले लोग इन फिल्मों को देखते और पसंद करते हैं । ये फिल्में निर्माण के खर्च से थोड़ी सी ज्यादा क़ीमत पर वितरित की जाती हैं और थियेटर हाउस-फुल हो जाते हैं, इससे सबको मुनाफा होता है ।
मेरे लिए ये एकदम नई जानकारी थी । मुझे उस वितरक की बात से ये समझ में आया कि हिट होने के लिए फिल्मों का बड़े बजट का होना जरूरी नहीं है । और छोटे बजट वाली फिल्मों को ‘छोटा’ समझना भी एक बड़ी भूल है । आज यही बात मुंबईया फिल्म जगत में सच होती नज़र आ रही है । तमाम बड़े बजट की फिल्में धड़ाधड़ फ्लॉप होती जा रही हैं । और छोटे बजट की फिल्में मुनाफ़ा बटोर रही हैं । मिसाल के लिए आदित्य चोपड़ा की मल्टी-करोड़ मल्टी-स्टारर फिल्म ‘झूम बराबर झूम’ को ही लीजिये, तीसरे ही दिन इसका दम निकल गया । जबकि सुनील जोशी द्वारा निर्मित और सागर बेल्लारी द्वारा निर्देशित ‘भेजा फ्राई’ बनी चौवन लाख में और इसने कमाये बारह करोड़, और अभी भी कमाती चली जा रही है ।
यानी नया फॉर्मूला है---छोटा बजट, बड़ा कन्सेप्ट और बड़ी हिट ।
एक ज़माना था जब बॉलीवुड की फिल्में पूरे देश में हिट होती थीं । फिर 1985 से लेकर नब्बे के दशक के उत्तरार्द्ध तक वी.सी.आर की क्रांति ने फिल्मों को ज़बर्दस्त झटका दिया, फिर वी.सी.डी. आ गया । ठीक इसी दौर में मल्टीप्लेक्स के आने से एक नई क्रांति आई । तीन सौ सीटों वाले थियेटर को भरना हज़ार सीटों वाले थियेटर को भरने की तुलना में ज्यादा आसान था । और इसका असर फिल्मों के सब्जेक्ट पर भी पड़ा, जैसे ही फिल्म बनाने वालों को समझ में आया कि दर्शक ‘मल्टीप्लेक्स-अनुभव’ के लिये तैयार हैं, नए विषयों पर फिल्में बनना शुरू हो गया । इससे फिल्मकारों और दर्शकों दोनों को चुनाव का मौका मिला, दोनों को एक नई तरह की आज़ादी मिली ।
पी.वी.आर. साकेत जैसे मल्टीप्लेक्सों के आने से भारतीय शहरों में फिल्में देखने की परंपरा में बड़ा बदलाव आया है । मल्टीप्लेक्स तेज़ी से बढ़ते चले जा रहे हैं । और इससे ये सुनिश्चित हो गया है कि अब बॉलीवुड में नई तरह की फिल्में ना सिर्फ बनेंगी, बल्कि अपना खर्च भी वसूल कर सकेंगी । भले इन फिल्मों में सितारे ना हों, लेकिन ये ऐसे कलाकार होंगे जो अपने रोल को बखूबी निभाना जानते हैं । ये ऐसी कहानियां होंगी जिनमें ग्लिसरीन से बहाये आंसू नहीं होंगे, जो शहरी दर्शकों को अपील करेंगी । हालांकि मल्टीप्लेक्स के आने से फिल्मों से गांव एकदम ग़ायब ही हो गया है, फिल्म इक़बाल में भले गांव था, ऐसा गांव जिसका एक अपाहिज युवक भारतीय क्रिकेट टीम में अपनी जगह बनाता है ।
अब मल्टीप्लेक्स का कारवां छोटे शहरों की तरफ बढ़ चला है, ये ऐसे शहर हैं जहां एकल स्क्रीन वाली टॉकीज़ें ही नहीं चल रही हैं । सवाल ये है क्या दूसरे दर्जे के शहरों में मल्टीप्लेक्स के फैलने से सिनेमा के विषयों में बदलाव आ सकेंगे ।
फिल्मों की असिस्टेन्ट एडीटर हरप्रीत सिंह के विचार—
अवनी जोशी अपने आप को महिला आदित्य चोपड़ा समझती है, अरे नहीं वो आदित्य चोपड़ा की तरह फिल्में नहीं बनातीं, पर वो FDFS सिन्ड्रोम से ग्रस्त हैं । जानते हैं ये है क्या---अरे फर्स्ट डे फर्स्ट शो सिन्ड्रोम । अवनी बचपन से ही ऐसी ही है । और ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ बनाने वाले आदित्य चोपड़ा की तरह वो भी ‘गेटी-गैलेक्सी’ में नियमित रूप से जाती हैं । मुंबई से बाहर के लोगों को बता दें कि ‘गेटी-गैलेक्सी’ बांद्रा मुंबई के जी-7 मल्टीप्लेक्स का हिस्सा हैं, एक ज़माने से हर शुक्रवार यहां जनता की भीड़ जमा होती रही है । पर जब से अवनी को अंधेरी में खुले मल्टीप्लेक्स फेम, फन और सिनेमैक्स का पता चला है, उसने गेटी गैलैक्सी में जाना बंद कर दिया है । आज अवनी मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने और इसका सुख लेने की ज़बर्दस्त समर्थक हैं ।
हर शुक्रवार अवनी अपना एक गर्म जैकेट लेती हैं और फिल्म देखने जाती हैं, उनका कहना है कि मल्टीप्लेक्स का ए.सी. जानलेवा ठंडा होता है । सिनेमैक्स में वो ‘रेड लाउंज’ की ही टिकिटें लेती हैं, क्योंकि यहां की ‘रिक्लाईनर सीटें’ लेट के सिनेमा देखने का अहसास कराती हैं । अवनी को लगता है मानो वो अपने लिविंग रूम में फिल्म देख रही है । उसके हाथ में पॉपर्कान और कोला भी होता है । उसका कहना है कि दिल्ली जैसी चाट भी उसे मल्टीप्लेक्स में मिल जाती हैं । पैसों वाली अवनी का कहना है कि मल्टीप्लेक्स की सीटें इतनी आरामदायक हैं कि फिल्म बुरी भी हो तो उसके पूरे होने तक बैठा जा सकता है । आजकल बॉलीवुड में जिस तरह की बुरी फिल्में बन रही हैं उसमें अवनी का इस तरह पैसा खर्च करना बचपना लग सकता है । पर कम से कम अवनी ईमानदारी से सिनेमा देखने निकलती तो है ।
अवनी की तरह ही है अंगद और उसका परिवार, जिसकी रविवार की हर शाम मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखते बीतती है । ये लोग दोपहर को यहां आते हैं, फिल्म देखते हैं और फिर ‘फूड-कोर्ट’ में दावत उड़ाते हैं । क्योंकि यहां उन्हें खानेपीने की तमाम मनपसंद चीजें मिल जाती हैं । इन दो मिसालों से साबित होता है कि हमारे महानगरों में मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखना एक रवायत बनता जा रहा है । ये महज़ फिल्म देखना नहीं है बल्कि छुट्टी का एक यादगार दिन है । मॉल में सबके लिए कुछ ना कुछ है, बच्चों के लिए गेमिंग ज़ोन, बुक शॉप, गिफ्ट शॉप, फूड कोर्ट, शॉपिंग आरकेड और साथ में सिनेमाघर भी । हालांकि मल्टीप्लेक्स के टिकिट थोड़े-से ज्यादा हैं, लेकिन मल्टीप्लेक्स की सुविधाएं और आराम इसकी भरपाई कर देता है । अगर फिल्म अच्छी हो तो क़ीमत वसूल लगती है, अगर बुरी हो तो सुखद सीट पर आप समय तो काट ही सकते हैं । हां सर्दी से बचने के लिए जैकेट ले जाना मत भूलियेगा ।
इस तीसरी कड़ी के साथ ही ‘मल्टीप्लेक्स दशक’ नामक ये श्रृंखला खत्म होती है ।
तीनों लेख इंडियन एक्सप्रेस के मुंबई संस्करण से साभार ।
फिल्म-समीक्षक शुभ्रा गुप्ता के विचार
बहुत बरस पहले की बात है, मैंने एक फिल्म-वितरक से पूछा, तो क्या आपकी फिल्म फ्लॉप हो गयी है । मुझे उस फिल्म का नाम तो याद नहीं आ रहा है, लेकिन इस फिल्म का काफी ऊंचा बजट और ज़बर्दस्त स्टार-कास्ट थी, फिल्म को काफी धीमी ओपनिंग मिली और फिर दूसरे हफ्ते तक वो ग़ायब भी हो गई । इस सवाल पर उसने मुझे अपने दफ्तर में बैठाया, जो चांदनी चौक के भागीरथ पैलेस में था, ये वो जगह है जहां दिल्ली के फिल्म-व्यवसाय से जुड़े लोगों के दफ्तर हैं । इसके बाद उसने मुझे कुछ बुनियादी-बातें समझाईं । उसका कहना था कि सारा खेल अंकगणित का है । अगर फिल्म काफी कम बजट पर बनाई जाये और वो बहुत पैसा कमा लेती है और उस फिल्म से भी आगे निकल जाती है जो बड़े पैसे और बड़ी स्टारकास्ट को लेकर बनाई गयी थी । और जिसका बॉक्स-ऑफिस पर प्रदर्शन ठीक-ठाक था । पर वो लागत और आय के दायरे को ठीक से पाट नहीं पाई ।
उस वितरक ने बताया कि मिथुन चक्रवर्ती की छोटी फिल्में इसी तरह की बड़ी हिट साबित होती हैं । मिथुन को लेकर तेज़ी से बनने वाली फिल्मों का बजट एक करोड़ के आसपास होता है । वो दक्षिण भारत की संघर्षरत लड़कियों को नायिका बना देते हैं और ऊटी में शूटिंग करते हैं जहां उनका अपना होटल है । ज़ाहिर है कि होटल का पैसा बच जाता है । ये उन फिल्मों की बात है, जिन्हें ‘बी-ग्रेड’ का माना जाता है, और उत्तरप्रदेश तथा बिहार में मिथुन को पसंद करने वाले लोग इन फिल्मों को देखते और पसंद करते हैं । ये फिल्में निर्माण के खर्च से थोड़ी सी ज्यादा क़ीमत पर वितरित की जाती हैं और थियेटर हाउस-फुल हो जाते हैं, इससे सबको मुनाफा होता है ।
मेरे लिए ये एकदम नई जानकारी थी । मुझे उस वितरक की बात से ये समझ में आया कि हिट होने के लिए फिल्मों का बड़े बजट का होना जरूरी नहीं है । और छोटे बजट वाली फिल्मों को ‘छोटा’ समझना भी एक बड़ी भूल है । आज यही बात मुंबईया फिल्म जगत में सच होती नज़र आ रही है । तमाम बड़े बजट की फिल्में धड़ाधड़ फ्लॉप होती जा रही हैं । और छोटे बजट की फिल्में मुनाफ़ा बटोर रही हैं । मिसाल के लिए आदित्य चोपड़ा की मल्टी-करोड़ मल्टी-स्टारर फिल्म ‘झूम बराबर झूम’ को ही लीजिये, तीसरे ही दिन इसका दम निकल गया । जबकि सुनील जोशी द्वारा निर्मित और सागर बेल्लारी द्वारा निर्देशित ‘भेजा फ्राई’ बनी चौवन लाख में और इसने कमाये बारह करोड़, और अभी भी कमाती चली जा रही है ।
यानी नया फॉर्मूला है---छोटा बजट, बड़ा कन्सेप्ट और बड़ी हिट ।
एक ज़माना था जब बॉलीवुड की फिल्में पूरे देश में हिट होती थीं । फिर 1985 से लेकर नब्बे के दशक के उत्तरार्द्ध तक वी.सी.आर की क्रांति ने फिल्मों को ज़बर्दस्त झटका दिया, फिर वी.सी.डी. आ गया । ठीक इसी दौर में मल्टीप्लेक्स के आने से एक नई क्रांति आई । तीन सौ सीटों वाले थियेटर को भरना हज़ार सीटों वाले थियेटर को भरने की तुलना में ज्यादा आसान था । और इसका असर फिल्मों के सब्जेक्ट पर भी पड़ा, जैसे ही फिल्म बनाने वालों को समझ में आया कि दर्शक ‘मल्टीप्लेक्स-अनुभव’ के लिये तैयार हैं, नए विषयों पर फिल्में बनना शुरू हो गया । इससे फिल्मकारों और दर्शकों दोनों को चुनाव का मौका मिला, दोनों को एक नई तरह की आज़ादी मिली ।
पी.वी.आर. साकेत जैसे मल्टीप्लेक्सों के आने से भारतीय शहरों में फिल्में देखने की परंपरा में बड़ा बदलाव आया है । मल्टीप्लेक्स तेज़ी से बढ़ते चले जा रहे हैं । और इससे ये सुनिश्चित हो गया है कि अब बॉलीवुड में नई तरह की फिल्में ना सिर्फ बनेंगी, बल्कि अपना खर्च भी वसूल कर सकेंगी । भले इन फिल्मों में सितारे ना हों, लेकिन ये ऐसे कलाकार होंगे जो अपने रोल को बखूबी निभाना जानते हैं । ये ऐसी कहानियां होंगी जिनमें ग्लिसरीन से बहाये आंसू नहीं होंगे, जो शहरी दर्शकों को अपील करेंगी । हालांकि मल्टीप्लेक्स के आने से फिल्मों से गांव एकदम ग़ायब ही हो गया है, फिल्म इक़बाल में भले गांव था, ऐसा गांव जिसका एक अपाहिज युवक भारतीय क्रिकेट टीम में अपनी जगह बनाता है ।
अब मल्टीप्लेक्स का कारवां छोटे शहरों की तरफ बढ़ चला है, ये ऐसे शहर हैं जहां एकल स्क्रीन वाली टॉकीज़ें ही नहीं चल रही हैं । सवाल ये है क्या दूसरे दर्जे के शहरों में मल्टीप्लेक्स के फैलने से सिनेमा के विषयों में बदलाव आ सकेंगे ।
फिल्मों की असिस्टेन्ट एडीटर हरप्रीत सिंह के विचार—
अवनी जोशी अपने आप को महिला आदित्य चोपड़ा समझती है, अरे नहीं वो आदित्य चोपड़ा की तरह फिल्में नहीं बनातीं, पर वो FDFS सिन्ड्रोम से ग्रस्त हैं । जानते हैं ये है क्या---अरे फर्स्ट डे फर्स्ट शो सिन्ड्रोम । अवनी बचपन से ही ऐसी ही है । और ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ बनाने वाले आदित्य चोपड़ा की तरह वो भी ‘गेटी-गैलेक्सी’ में नियमित रूप से जाती हैं । मुंबई से बाहर के लोगों को बता दें कि ‘गेटी-गैलेक्सी’ बांद्रा मुंबई के जी-7 मल्टीप्लेक्स का हिस्सा हैं, एक ज़माने से हर शुक्रवार यहां जनता की भीड़ जमा होती रही है । पर जब से अवनी को अंधेरी में खुले मल्टीप्लेक्स फेम, फन और सिनेमैक्स का पता चला है, उसने गेटी गैलैक्सी में जाना बंद कर दिया है । आज अवनी मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने और इसका सुख लेने की ज़बर्दस्त समर्थक हैं ।
हर शुक्रवार अवनी अपना एक गर्म जैकेट लेती हैं और फिल्म देखने जाती हैं, उनका कहना है कि मल्टीप्लेक्स का ए.सी. जानलेवा ठंडा होता है । सिनेमैक्स में वो ‘रेड लाउंज’ की ही टिकिटें लेती हैं, क्योंकि यहां की ‘रिक्लाईनर सीटें’ लेट के सिनेमा देखने का अहसास कराती हैं । अवनी को लगता है मानो वो अपने लिविंग रूम में फिल्म देख रही है । उसके हाथ में पॉपर्कान और कोला भी होता है । उसका कहना है कि दिल्ली जैसी चाट भी उसे मल्टीप्लेक्स में मिल जाती हैं । पैसों वाली अवनी का कहना है कि मल्टीप्लेक्स की सीटें इतनी आरामदायक हैं कि फिल्म बुरी भी हो तो उसके पूरे होने तक बैठा जा सकता है । आजकल बॉलीवुड में जिस तरह की बुरी फिल्में बन रही हैं उसमें अवनी का इस तरह पैसा खर्च करना बचपना लग सकता है । पर कम से कम अवनी ईमानदारी से सिनेमा देखने निकलती तो है ।
अवनी की तरह ही है अंगद और उसका परिवार, जिसकी रविवार की हर शाम मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखते बीतती है । ये लोग दोपहर को यहां आते हैं, फिल्म देखते हैं और फिर ‘फूड-कोर्ट’ में दावत उड़ाते हैं । क्योंकि यहां उन्हें खानेपीने की तमाम मनपसंद चीजें मिल जाती हैं । इन दो मिसालों से साबित होता है कि हमारे महानगरों में मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखना एक रवायत बनता जा रहा है । ये महज़ फिल्म देखना नहीं है बल्कि छुट्टी का एक यादगार दिन है । मॉल में सबके लिए कुछ ना कुछ है, बच्चों के लिए गेमिंग ज़ोन, बुक शॉप, गिफ्ट शॉप, फूड कोर्ट, शॉपिंग आरकेड और साथ में सिनेमाघर भी । हालांकि मल्टीप्लेक्स के टिकिट थोड़े-से ज्यादा हैं, लेकिन मल्टीप्लेक्स की सुविधाएं और आराम इसकी भरपाई कर देता है । अगर फिल्म अच्छी हो तो क़ीमत वसूल लगती है, अगर बुरी हो तो सुखद सीट पर आप समय तो काट ही सकते हैं । हां सर्दी से बचने के लिए जैकेट ले जाना मत भूलियेगा ।
इस तीसरी कड़ी के साथ ही ‘मल्टीप्लेक्स दशक’ नामक ये श्रृंखला खत्म होती है ।
तीनों लेख इंडियन एक्सप्रेस के मुंबई संस्करण से साभार ।
2 comments:
तीन लेखों की यह श्रृंख्ला मजेदार रही और बहुत सी नई जानकारियाँ मिली. बहुत आभार.
ये सही है की multiplex के आने से लोगों को फायदा भी हुआ है और नुकसान भी।क्यूंकि पहले कई बार छोटे बजट की फ़िल्में बिना release के ही रह जाती थी।
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