बिछड़े सभी बारी बारी-गुरूदत्त की याद में (जन्मदिन पर विशेष)
आज मैं अचानक गुरूदत्त को क्यों याद कर रहा हूं,
दरअसल आज उनका बयासीवां जन्मदिन है ।
गुरूदत्त एक अजीब और जटिल शख्सियत थे, मुझे लगता है कि जिन लोगों में रचनात्मकता और जुनून का ख़ज़ाना होता है, वो अकसर थोड़े या ज्यादा ‘सिनिक’ हो जाते हैं । और गुरूदत्त भी ऐसे ही थे ।
विविध भारती पर क़रीब दो बरस पहले बारिश के ऐसे ही दिनों में वहीदा रहमान आईं थीं और उन्होंने गुरूदत्त के जुनून के किस्से सुनाए थे । कैसे एक फिल्म की शूटिंग के दौरान उन्हें सीढ़ी से उतर के नीचे आना था और जहां खड़े होकर संवाद बोलने थे, वहां से उनकी नाक की लौंग को चमकना था । लाइटिंग की गड़बड़ी से ऐसा हो नहीं रहा था और वो दिन भर वहीदा को सीढियों से उतरवाते रहे थे । ये तो बहुत छोटी-सी घटना है । उससे भी बड़ी घटना ये है कि वहीदा रहमान से उनको जुड़ाव हो गया था, शायद हिंदी सिनेमा की ये सबसे अनोखी मिसाल है, गुरूदत्त ने अपनी फिल्मों में वहीदा को जिस काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया वो अनमोल है, वैसा तो किसी ने मधुबाला को भी पेश नहीं किया । तमाम फिल्मों की छबियां ले लीजिये और उनमें वहीदा के किरदारों को जोड़ लीजिये, निर्देशक के उद्दाम प्रेम और एक समझदार नायिका के अविकल-सौंदर्य ने जुड़कर जो समां रचा है, उस पर हम बस आहें भरते ही रह जाते हैं । अफ़सोस कि इस ‘प्रेम’ का अंत वहीदा के उस थप्पड़ से हुआ, भरे सेट पर वहीदा ने गुरूदत्त को थप्पड़ मारा और गुरूदत्त ने की आत्महत्या की कोशिश । बहरहाल, यहां से ‘गॉसिप’ का रास्ता शुरू होता है, इसलिये हम फिर से गुरूदत्त के कृतित्व की ओर आते हैं, पर पहले मेरे ज़ेहन में कौंधते इस सवाल का कोई जवाब है आपके पास, बेहद संवेदनशील और जुनूनी रचनाकार आत्महंता क्यों होते हैं । क्यों वो दुनिया को इस क़ाबिल नहीं पाते कि वहां जिया जाये, रचा जाये, ज़ुल्मतों को सहा जाये और फिर भी ‘बने’ रहा जाये ।
गुरूदत्त हिंदी के ऐसे पहले निर्माता-निर्देशक थे जो अपनी एक खास सोच के साथ रूपहले संसार में आये थे । उन्होंने सच्चा सिनेमा बनाया, कोई ख़ामख़याली नहीं थी उन्हें दुनिया के प्रति । मुझे हैरत होती है कि ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ जैसी फिल्मों में गहरे यथार्थ को उन्होंने अपने ‘रोमांटिसिज़्म’ के साथ किस कुशलता से पिरोया है । यथार्थवादी फिल्मों में ‘रोमांस’ या तो बहुत सूखा हो जाता है या फिर सिरे से ग़ायब नज़र आता है, पर गुरूदत्त के यहां ऐसा नहीं था । गुरूदत्त की फिल्मों के अलग-अलग दृश्यों में इसे महसूस किया जा सकता है । ख़ासतौर पर ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ में ।
दिलचस्प बात ये है कि गुरूदत्त ने एक ही तरह का सिनेमा नहीं बनाया, हालांकि बहुत उथले तरीक़े से देखकर कुछ आलोचक गुरूदत्त के सिनेमा को ‘मोनोटोनस’ और ‘बोझिल’ क़रार देते हैं । पर ऐसा नहीं है, गुरूदत्त बहुत ही ‘इन्टेन्स’ फिल्मकार थे । हम बात कर रहे थे उनके सिनेमा में विविधता की, उनकी निर्देशित पहली फिल्म ‘बाज़ी’ एक बेमिसाल अपराध-फिल्म थी । 1951 में रिलीज़ ये फिल्म आज छप्पन साल बाद भी कालजयी मानी जाती है । ( यहां ये जिक्र ज़रूरी है कि इसी फिल्म के एक गाने की रिकॉर्डिंग में गुरूदत्त की मुलाक़ात गीता रॉय से हुई थी और छब्बीस मई 1953 में उन्होंने शादी कर ली )
1954 में गुरूदत्त ने ‘आरपार’ बनाई, जो मुझे उनकी बनाई कमज़ोर फिल्म लगती है, पर इस फिल्म की खूबी ये थी कि इसके किरदार बेहद विश्वसनीय थे । सड़कछाप सामान्य लोग, अपनी जिंदगी में गुम, जद्दोजेहद करते लोग । यहां हम उनकी फिल्मों के संगीत की भी चर्चा करना चाहेंगे । चाहे ‘बाज़ी’ हो या ‘आरपार’ या फिर ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ या फिर ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ सारी फिल्मों का संगीत कमाल रहा है । ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने ओंकारनाथ नैयर को संगीतकार रखा था । और जिद्दी निर्देशक के जिद्दी संगीतकार ने वाकई कालजयी संगीत रचा । कहते हैं कि अपने गानों के फिल्मांकन में गुरूदत्त का जवाब नहीं था, वो गानों को पहले कहानी में बहुत बारीकी से पिरो लेते थे और जब फिल्माते तो वो सिनेमा पर रची एक कविता बन जाते ।
गुरूदत्त के सिनेमेटोग्राफर वी.के.मूर्ति कहते हैं कि ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम’ इस गाने की शूटिंग दोपहर में नटराज स्टूडियो में की जा रही थी । तभी रोशनदान से रोशनी की एक ‘बीम’ आती हुई दिखी, जब मैंने इसे गुरूदत्त को दिखाया तो उन्होंने कहा कि इसे हम अपने गाने में इस्तेमाल करेंगे । आप यकीन नहीं करेंगे कि किस तरह हमने दो मिरर लगाके बड़ी मुश्किल से रोशनी को भीतर रिफ्लेक्ट किया और वो मशहूर ‘बीम-शॉट’ लिया जो अब कालजयी बन चुका है ।
सन 1957 में आई ‘प्यासा’ और 1959 में आई ‘काग़ज के फूल’ सेल्यूलॉइड पर रची कविता की तरह हैं । दोनों ही फिल्में गुरूदत्त ने बड़े ही जतन से बनाईं थीं । ‘काग़ज़ के फूल’ के कुछ शॉट तो ‘मैजिकल मूमेन्ट्स’ की शक्ल में सामने आते हैं । एक निर्देशक और उसकी प्रिय अभिनेत्री के बीच के संबंधों की जटिलता और उतारचढ़ाव को उन्होंने बड़ी संवेदनशीलता के साथ उभारा था । क्योंकि एक तरह से ये उनकी जिंदगी की दास्तान थी । ये फिल्म भारत की पहली ‘सिनेमास्कोप’ फिल्म भी थी । जो बुरी तरह से असफल रही थी और गुरूदत्त टूट से गये थे । कहते हैं कि इसके बाद उन्होंने कभी फिल्म निर्देशित ना करने का फैसला किया था । फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ में निर्देशक के रूप में एम.सादिक़ का नाम आता है और फिल्म ‘साहेब बीवी और गुलाम’ में जाने माने लेखक अबरार अलवी का नाम आता है । पर कहते हैं कि गुरूदत्त के क्रियेटिव इनपुट इन फिल्मों को महान बना सके । बड़ौदा में फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ की शूटिंग के दौरान उन्होंने अपने कैमेरामैन वी.के.मूर्ति से कहा था—‘अगर ये दुनिया मुझे मिल भी जाये तो क्या है’ जब मूर्ति ने उनसे पूछा कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं तो बोले---मुझे ऐसा ही लग रहा है, देखो ना- मुझे निर्देशक बनना था, बन गया, अभिनेता बनना था, वो भी बन गया, अच्छी फिल्में बनानी थीं सो वो भी बनाईं, पैसा है, सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा । शायद ये वो दौर था जब वहीदा से उनकी अंतरंगता की वजह से उनके और गीता दत्त के बीच तक़रार चल रही थी और वो बच्चों को लेकर अलग रहने लगी थीं । गुरूदत्त ने खुद को खत्म किया और गीता रॉय शराब का शिकार होकर चल बसीं ।
गुरूदत्त जैसा सिनेकार अपने पीछे कई चीज़ें छोड़ गया है, वो जुनून, जो एक लाइटहाउस की तरह सिनेमा की दुनिया के लोगों को रास्ता दिखा सकता है, वो कलात्मकता, जो उस दौर की तकनीकी सीमाओं के बावजूद क्रांतिकारी लगती है, वो जज़्बा, जिसके तहत उन्होंने वहीदा रहमान, राज खोसला, अबरार अलवी और ना जाने कितने नये लोगों को मौक़ा दिया । वो सनक, जिसके तहत उन्होंने खुद को खत्म किया और जो हमें सिखाती है कि तमाम बातों के बावजूद जीवन में संतुलन बना रहना चाहिये ।
आज ही के दिन 1925 में गुरूदत्त पादुकोण जन्में थे । शायद तब भी बारिश हो रही होगी, आज भी हो रही है, शायद बारिश के इस पैथोस भरे, जमे-जमे, उदास और ख़ाली-ख़ाली से मौसम ने ही गुरूदत्त को ऐसा बनाया होगा ।
विनम्र श्रद्धांजली ।
दरअसल आज उनका बयासीवां जन्मदिन है ।
गुरूदत्त एक अजीब और जटिल शख्सियत थे, मुझे लगता है कि जिन लोगों में रचनात्मकता और जुनून का ख़ज़ाना होता है, वो अकसर थोड़े या ज्यादा ‘सिनिक’ हो जाते हैं । और गुरूदत्त भी ऐसे ही थे ।
विविध भारती पर क़रीब दो बरस पहले बारिश के ऐसे ही दिनों में वहीदा रहमान आईं थीं और उन्होंने गुरूदत्त के जुनून के किस्से सुनाए थे । कैसे एक फिल्म की शूटिंग के दौरान उन्हें सीढ़ी से उतर के नीचे आना था और जहां खड़े होकर संवाद बोलने थे, वहां से उनकी नाक की लौंग को चमकना था । लाइटिंग की गड़बड़ी से ऐसा हो नहीं रहा था और वो दिन भर वहीदा को सीढियों से उतरवाते रहे थे । ये तो बहुत छोटी-सी घटना है । उससे भी बड़ी घटना ये है कि वहीदा रहमान से उनको जुड़ाव हो गया था, शायद हिंदी सिनेमा की ये सबसे अनोखी मिसाल है, गुरूदत्त ने अपनी फिल्मों में वहीदा को जिस काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया वो अनमोल है, वैसा तो किसी ने मधुबाला को भी पेश नहीं किया । तमाम फिल्मों की छबियां ले लीजिये और उनमें वहीदा के किरदारों को जोड़ लीजिये, निर्देशक के उद्दाम प्रेम और एक समझदार नायिका के अविकल-सौंदर्य ने जुड़कर जो समां रचा है, उस पर हम बस आहें भरते ही रह जाते हैं । अफ़सोस कि इस ‘प्रेम’ का अंत वहीदा के उस थप्पड़ से हुआ, भरे सेट पर वहीदा ने गुरूदत्त को थप्पड़ मारा और गुरूदत्त ने की आत्महत्या की कोशिश । बहरहाल, यहां से ‘गॉसिप’ का रास्ता शुरू होता है, इसलिये हम फिर से गुरूदत्त के कृतित्व की ओर आते हैं, पर पहले मेरे ज़ेहन में कौंधते इस सवाल का कोई जवाब है आपके पास, बेहद संवेदनशील और जुनूनी रचनाकार आत्महंता क्यों होते हैं । क्यों वो दुनिया को इस क़ाबिल नहीं पाते कि वहां जिया जाये, रचा जाये, ज़ुल्मतों को सहा जाये और फिर भी ‘बने’ रहा जाये ।
गुरूदत्त हिंदी के ऐसे पहले निर्माता-निर्देशक थे जो अपनी एक खास सोच के साथ रूपहले संसार में आये थे । उन्होंने सच्चा सिनेमा बनाया, कोई ख़ामख़याली नहीं थी उन्हें दुनिया के प्रति । मुझे हैरत होती है कि ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ जैसी फिल्मों में गहरे यथार्थ को उन्होंने अपने ‘रोमांटिसिज़्म’ के साथ किस कुशलता से पिरोया है । यथार्थवादी फिल्मों में ‘रोमांस’ या तो बहुत सूखा हो जाता है या फिर सिरे से ग़ायब नज़र आता है, पर गुरूदत्त के यहां ऐसा नहीं था । गुरूदत्त की फिल्मों के अलग-अलग दृश्यों में इसे महसूस किया जा सकता है । ख़ासतौर पर ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ में ।
दिलचस्प बात ये है कि गुरूदत्त ने एक ही तरह का सिनेमा नहीं बनाया, हालांकि बहुत उथले तरीक़े से देखकर कुछ आलोचक गुरूदत्त के सिनेमा को ‘मोनोटोनस’ और ‘बोझिल’ क़रार देते हैं । पर ऐसा नहीं है, गुरूदत्त बहुत ही ‘इन्टेन्स’ फिल्मकार थे । हम बात कर रहे थे उनके सिनेमा में विविधता की, उनकी निर्देशित पहली फिल्म ‘बाज़ी’ एक बेमिसाल अपराध-फिल्म थी । 1951 में रिलीज़ ये फिल्म आज छप्पन साल बाद भी कालजयी मानी जाती है । ( यहां ये जिक्र ज़रूरी है कि इसी फिल्म के एक गाने की रिकॉर्डिंग में गुरूदत्त की मुलाक़ात गीता रॉय से हुई थी और छब्बीस मई 1953 में उन्होंने शादी कर ली )
1954 में गुरूदत्त ने ‘आरपार’ बनाई, जो मुझे उनकी बनाई कमज़ोर फिल्म लगती है, पर इस फिल्म की खूबी ये थी कि इसके किरदार बेहद विश्वसनीय थे । सड़कछाप सामान्य लोग, अपनी जिंदगी में गुम, जद्दोजेहद करते लोग । यहां हम उनकी फिल्मों के संगीत की भी चर्चा करना चाहेंगे । चाहे ‘बाज़ी’ हो या ‘आरपार’ या फिर ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ या फिर ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ सारी फिल्मों का संगीत कमाल रहा है । ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने ओंकारनाथ नैयर को संगीतकार रखा था । और जिद्दी निर्देशक के जिद्दी संगीतकार ने वाकई कालजयी संगीत रचा । कहते हैं कि अपने गानों के फिल्मांकन में गुरूदत्त का जवाब नहीं था, वो गानों को पहले कहानी में बहुत बारीकी से पिरो लेते थे और जब फिल्माते तो वो सिनेमा पर रची एक कविता बन जाते ।
गुरूदत्त के सिनेमेटोग्राफर वी.के.मूर्ति कहते हैं कि ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम’ इस गाने की शूटिंग दोपहर में नटराज स्टूडियो में की जा रही थी । तभी रोशनदान से रोशनी की एक ‘बीम’ आती हुई दिखी, जब मैंने इसे गुरूदत्त को दिखाया तो उन्होंने कहा कि इसे हम अपने गाने में इस्तेमाल करेंगे । आप यकीन नहीं करेंगे कि किस तरह हमने दो मिरर लगाके बड़ी मुश्किल से रोशनी को भीतर रिफ्लेक्ट किया और वो मशहूर ‘बीम-शॉट’ लिया जो अब कालजयी बन चुका है ।
सन 1957 में आई ‘प्यासा’ और 1959 में आई ‘काग़ज के फूल’ सेल्यूलॉइड पर रची कविता की तरह हैं । दोनों ही फिल्में गुरूदत्त ने बड़े ही जतन से बनाईं थीं । ‘काग़ज़ के फूल’ के कुछ शॉट तो ‘मैजिकल मूमेन्ट्स’ की शक्ल में सामने आते हैं । एक निर्देशक और उसकी प्रिय अभिनेत्री के बीच के संबंधों की जटिलता और उतारचढ़ाव को उन्होंने बड़ी संवेदनशीलता के साथ उभारा था । क्योंकि एक तरह से ये उनकी जिंदगी की दास्तान थी । ये फिल्म भारत की पहली ‘सिनेमास्कोप’ फिल्म भी थी । जो बुरी तरह से असफल रही थी और गुरूदत्त टूट से गये थे । कहते हैं कि इसके बाद उन्होंने कभी फिल्म निर्देशित ना करने का फैसला किया था । फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ में निर्देशक के रूप में एम.सादिक़ का नाम आता है और फिल्म ‘साहेब बीवी और गुलाम’ में जाने माने लेखक अबरार अलवी का नाम आता है । पर कहते हैं कि गुरूदत्त के क्रियेटिव इनपुट इन फिल्मों को महान बना सके । बड़ौदा में फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ की शूटिंग के दौरान उन्होंने अपने कैमेरामैन वी.के.मूर्ति से कहा था—‘अगर ये दुनिया मुझे मिल भी जाये तो क्या है’ जब मूर्ति ने उनसे पूछा कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं तो बोले---मुझे ऐसा ही लग रहा है, देखो ना- मुझे निर्देशक बनना था, बन गया, अभिनेता बनना था, वो भी बन गया, अच्छी फिल्में बनानी थीं सो वो भी बनाईं, पैसा है, सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा । शायद ये वो दौर था जब वहीदा से उनकी अंतरंगता की वजह से उनके और गीता दत्त के बीच तक़रार चल रही थी और वो बच्चों को लेकर अलग रहने लगी थीं । गुरूदत्त ने खुद को खत्म किया और गीता रॉय शराब का शिकार होकर चल बसीं ।
गुरूदत्त जैसा सिनेकार अपने पीछे कई चीज़ें छोड़ गया है, वो जुनून, जो एक लाइटहाउस की तरह सिनेमा की दुनिया के लोगों को रास्ता दिखा सकता है, वो कलात्मकता, जो उस दौर की तकनीकी सीमाओं के बावजूद क्रांतिकारी लगती है, वो जज़्बा, जिसके तहत उन्होंने वहीदा रहमान, राज खोसला, अबरार अलवी और ना जाने कितने नये लोगों को मौक़ा दिया । वो सनक, जिसके तहत उन्होंने खुद को खत्म किया और जो हमें सिखाती है कि तमाम बातों के बावजूद जीवन में संतुलन बना रहना चाहिये ।
आज ही के दिन 1925 में गुरूदत्त पादुकोण जन्में थे । शायद तब भी बारिश हो रही होगी, आज भी हो रही है, शायद बारिश के इस पैथोस भरे, जमे-जमे, उदास और ख़ाली-ख़ाली से मौसम ने ही गुरूदत्त को ऐसा बनाया होगा ।
विनम्र श्रद्धांजली ।
प्यासा-ये महलों ये तख्तों
प्यासा-जाने वो कैसे लोग थे
काग़ज़ के फूल
ठंडी हवा काली घटा
जाने वो कैसे लोग थे जिनके
कुछ तस्वीरें
प्यासा-जाने वो कैसे लोग थे
काग़ज़ के फूल
ठंडी हवा काली घटा
जाने वो कैसे लोग थे जिनके
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कुछ तस्वीरें
11 comments:
Mujhe lagta hai jo rachnaatmakta Gurudatt main rahi vo cinema ke badalte mahole se match nahi kar pai.
Sundarta ke naam par glamour, sangharsh ke naam par takneek ke sahare fight scenes aur doosari taraf art cinema ke naam par desh ki gharibi ko viswa bazaar main becha jana aise mahole ki filme naa Gurudatt bana pate aur naa hi onki filme aise daur main chal paati. Acchha hi kiya jo filmo se door ho gaye.
Annapurna
Yunusbhai,
Gurudutt ka jab bhi jikra hota hain mera man udasiyonse bhar jata hain. Aaj bhi aapka article padhkar man udas ho gaya.
गुरूद्दत की यादों और प्यासा के वीडियो को हम तक इतने खूबसूरत अन्दाज मे पहुँचाने के लिये धन्यवाद !
बहुत ही बेहतरीन अंदाज में याद किया है गुरुदत्त जी को उनके जन्म दिन पर. साधुवाद.
युनूस भाई,
बेहतरीन प्रस्तुति और गुरुदत्त जी के अनमोल गीतोँ से सजा ये पन्ना ! आह ! बार बार पढने को मन करेगा !!
शुक्रिया ....आपका जो आपने गुरुदत्त जी जैसे सदाबहार निर्देशक, एक्टर को २१ वीँ सदी के लिये, ब्लोग पर स्थापित कर दीया --
गुरुदत्त जी के छोटे भाई , आत्माराम जी हमारे घर १९ वेँ रास्ते के सामने रहते थे.आना , जाना रहता था.
गीता दत्त जी और गुरु दत्त जी के देहाँत के बाद, उनके २ बेटोँ का जीवन, "कश्ती मँझधार मेँ " जैसा हो गया था.
वहीदा जी जैसी उम्दा कलाकारा भी तो गुरु जी की देन है -- भारतीय सिने जगत को !
" वक्त ने किया, क्या हसीँ सितम, तुम रहे ना तुम ! हम रहे ना हम,"..उनकी यादोँ को मेरे प्रणाम !
स्नेह सहित,
-- लावण्या
हमेशा की तरह पढ़- सुनकर अच्छा लगा, गुरुदत्तजी के बारे में बहुत जानकारी मिली। जाने वो कैसे लोग थे मेरे सबसे पसंदीदा गानों की सुचि में से एक है, और अक्सर मैं यह गाना गुनगुनाता रहता हूँ।
धन्यवाद यूनुस भाई
युनूस भाई....महान निर्देशक गुरूदत्त के पीछे अक्सर अदाकार गुरूदत्त को भुला दिया जाता रहा है.यह वक़्त की नाइंसाफ़ी ही कही जानी चाहिये कि हम एक्टर गुरूदत्त को ज़्यादा तरज़ीह नहीं देते.साहेब बीवी और ग़ुलाम,क़ाग़ज़ के फूल,प्यासा,मिस्टर मिसेस 55 जैसी तस्वीरों में गुरूदत्त साहब ने अदाकारी के जो शेडस दिये हैं वे बेमिसाल हैं.लावण्या बेन ने अपने कमेंट को जिस नोट पर समाप्त किया है वही रेडियोवाणी के ज़रिये इस सर्वकालिक महान कलाकार को हमारी ख़िराजे अकी़दत है.
अंजन कुमार ने मराठी में आमेन नाम से एक उपन्यास लिखा है जिसमें अब्रार अलवी के जरिये गुरुदत कि कहानी कहने की कोशिश की गई है। मैंने इसके कुछ अनुवादित अंश पढ़े हैं जो गुरुदत्त के काम करने के तरीके, वहीदा को तराशने में उनकी मेहनत और उनकी जीवन की उदासियों का बेहतरीन खाका खींचते हैं। आप को मौका लगे तो जरूर पढ़ें..दिल को छूने वाली किताब है।
उनके जन्मदिन पर इस तरह की श्र्धान्जली वाकई मे काबिले तारीफ़ है।
मालुम नहीं कितनी बिती बातें याद आ गयी,
जाने वो कैसे थे लोग थे जिनको प्यार से प्यार मिला
कितना सुना कितना जिया।
Gurudutt was a sensitive and an emotional artiste. He was a genious. Emotional and sensitive persons tend to be self destructive while facing failure. He sufferred at two fronts when he gulped overdose of sleeping pills. His personal life was on rocks and he had lost his professional confidence after his ambitious project 'Kagaz ker Phool' bombed at the box office. He could never recovered from his defeat as director. He could never direct another film after that. Interestingly, his buddy Dev Anand is just the opposite. He does not delude himself in remorseful moods even after his film after film is declared as failure at box office. I wonder sometimes how could two opposite personalities could become close friends. Probably Dev Anand is too a sensitive person in the depth of his heart but does not show his inner self living the lines of his famous HumDono song by Sahir 'Har Fiqr Ko Dhoonen mein Udaata...
Thanks for discussing Guru Dutt.
By the way his greatness was discovered by media after his death.
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