‘मल्टीप्लेक्स दशक’ दूसरी कड़ी । सिंगल-स्क्रीन थियेटर और मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने के अनुभव में फ़र्क़ है ।
भारत के पहले मल्टीप्लेक्स दिल्ली के PVR को सात जुलाई को दस वर्ष पूरे हो रहे हैं, इंडियन एक्सप्रेस ने इस अवधि को मल्टीप्लेक्स-दशक का नाम दिया है और अपनी एक लेखमाला के ज़रिए पड़ताल आरंभ की है कि मल्टीप्लेक्सों के आने से हिंदुस्तानी सिनेमा की दुनिया कितनी बदल रही है । पहले लेख में मैंने वरिष्ठ सिनेकार श्याम बेनेगल और युवा निर्दशक सागर बेल्लारी के विचारों के अनूदित अंश आप तक पहुंचाये थे । आज प्रस्तुत है इस लेखमाला के दूसरे भाग के अंश । जिसमें PVR के CMD अजय बिजली और चाणक्य सिनेमा के DIRECTOR आदित्य खन्ना ने अपनी बातें रखी हैं ।
PVR के CMD अजय बिजली के विचार
1997 में PVR ने अपना पहला मल्टीप्लेक्स शुरू किया था, जो देश का पहला मल्टीप्लेक्स भी था । आज दस साल बाद भारत में सिनेमा देखने के अनुभव में भारी बदलाव आ चुका है । और मल्टीप्लेक्स लगातार क्रांति लाये जा रहे हैं । इसका सबसे प्रमुख कारक ये रहा है कि मल्टीप्लेक्सों ने सिनेमा देखने के अनुभव का स्तर काफी ऊंचा किया है । पिछले कुछ सालों में कॉरपोरेट-जगत के आगमन, विस्तार के लिए भारी रकम की उपलब्धता और मनोरंजन-कर के मामले में सरकारी छूट का भी इस उद्योग को काफी फायदा मिला है । दरअसल भारत में आई रिटेल-क्रांति ने मल्टीप्लेक्स को बहुत बढ़ावा दिया है, क्योंकि अब देश के तमाम शहरों में मॉल और शॉपिंग-कॉम्पलेक्स बनते जा रहे हैं । यही नहीं मल्टीप्लेक्स के आने के बाद फिल्म-निर्माण, वितरण और प्रदर्शन पर भी सकारात्मक असर पड़ा है । ‘हैदराबाद ब्ल्यूज़’ जैसी लीक से हटकर बनी फिल्मों को सिनेमाघरों में जगह मल्टीप्लेक्सों की वजह से ही मिल सकी है ।
मल्टीप्लेक्सों के आने के बाद सिनेमा की दुनिया में ऐसी फिल्मों की जगह बन सकी है, जो देश के कुछ ही हिस्सों पर अपना असर डाल सकती हैं । क्षेत्रीय सिनेमा और भाषाई सिनेमा को भी मल्टीप्लेक्सों ने जगह दी है । आज से पांच सात साल पहले ‘इक़बाल’ और ‘पेज-3’ जैसी फिल्मों के रिलीज़ होने के टोटे पड़ जाते थे । ऐसी ऑफ बीट फिल्मों को थियेटर वाले और वितरक हाथ भी नहीं लगतो थे । उन्हें सिर्फ पहली कतार वाले दर्शकों की परवाह होती थी ।
मल्टीप्लेक्सों की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज देश भर में पांच सौ स्क्रीनें खुल चुकी हैं, इसका मतलब है लगभग 125 मल्टीप्लेक्स आ चुके हैं । आज देश में रिलीज़ होने वाली किसी भी फिल्म के व्यवसाय का तीस से चालीस प्रतिशत हिस्सा मल्टीप्लेक्सों से आ रहा है । शहरों में मल्टीप्लेक्सों ने युवा वर्ग को खूब आकर्षित किया है, इसका ही नतीजा है कि आज उनकी रूचि के मुताबिक हॉलीवुड की फिल्में भारतीय भाषाओं यहां तक कि भोजपुरी में भी डब करके रिलीज़ की जा रही हैं । spiderman 3 इसकी ताज़ा मिसाल है । जिसे पांच भारतीय भाषाओं में डब किया गया था । इससे साबित होता है कि अब लोग टॉकीज़ की तरफ लौट रहे हैं । आपको ये जानकर हैरत होगी कि चीन और भारत हॉलीवुड की फिल्मों का सबसे बड़ा बाजार बन चुके हैं ।
आज का अत्याधुनिक मल्टीप्लेक्स ग्राहकों का सुविधाजनक-स्वर्ग है, जो मध्यवर्ग को अपनी तरफ खींच रहा है । आज मल्टीप्लेक्स उन लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं जो शॉपिंग मॉल में सिर्फ खरीददारी करने आये थे । इस तरह मल्टीप्लेक्स ने भारत में रिटेलिंग और एंटरटेनमेन्ट को जोड़ दिया है । लेकिन इस उद्योग में अभी विकास की भारी गुंजाईश है । भारत दुनिया के उन देशों में है जहां सिनेमा-स्क्रीनों की बहुत कमी है, ज़ाहिर है कि यहां अभी बड़ी तादाद में मल्टीप्लेक्सों की गुंजाइश बची है । संसार में सबसे ज्यादा फिल्में हमारे यहां बनती हैं, साल में औसतन 900 फिल्में, जबकि KPMG के ताज़ा आंकड़े कहते हैं कि भारत में दस लाख लोगों के बीच केवल 12 स्क्रीनें हैं । जबकि अमेरिका में दस लाख लोगों के बीच कुल 117 स्क्रीनें हैं ।
मल्टीप्लेक्स-क्रांति के पहले चरण में दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर और कोलकाता जैसे शहरों में मल्टीप्लेक्स खुले । अब लखनऊ, इंदौर, नासिक, औरंगाबाद, लातूर, नागपुर, कानपुर जैसे शहरों में भी मल्टीप्लेक्स आ रहे हैं । लेकिन मल्टीप्लेक्सों का विकास उनकी लोकेशन, शहर की आबादी और जनता की रूचि पर निर्भर करता है । खुद PVR एकल-स्क्रीन से ही विकसित हुआ संस्थान है, इसलिये हम किसी भी शहर में मॉल में मल्टीप्लेक्स खोलने से पहले जबर्दस्त रिसर्च करते हैं । आज फिल्म देखने का मतलब नज़दीक के किसी सिनेमाघर में कोई भी फिल्म देखना नहीं रहा, अब ये एक अनुभव और लाईफस्टाईल-स्टेटमेन्ट बन गया है । हम टेक्नॉलॉजी को उन्नत बनाने में लगे हैं, दर्शकों को ज्यादा सुविधाएं और विकल्प देना चाहते हैं । हो सकता है कि आगे चलकर हम ‘एंटरटेनमेन्ट ज़ोन’ बनाने लगें, जिससे दर्शकों को बेहतर अनुभव, सुविधाएं और विकल्प मिलें ।
चाणक्य सिनेमा के डाइरेक्टर आदित्य खन्ना के विचार
अगर व्यापार के नज़रिये से देखें तो ये समझना बहुत ही आसान है कि भारत में एक मल्टीप्लेक्स चलाना, एक सिंगल स्क्रीन थियेटर चलाने से कहीं ज्यादा फायदेमंद है । लेकिन सिनेमाई अनुभव के नज़रिये से सोचें तो मेरा मानना ये है कि किसी मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने की तुलना कभी एकल-स्क्रीन में फिल्म देखने से नहीं की जा सकती । क्योंकि मुझे लगता है कि सिनेमा अपने आप में एक सामुदायिक अनुभव है । हम एक ख़ास माहौल में बहुत सारे लोगों के साथ फिल्म देखना चाहते हैं । और इस मामले में जो अनुभव एकल-स्क्रीन देती है, मल्टीप्लेक्स नहीं दे पाते । डेढ़ सौ सीटों वाले किसी थियेटर में फिल्म देखने में वो मज़ा नहीं जो एक हज़ार सीटों वाले थियेटर में देखने में आता है । इस रोमांच की शुरूआत टिकिट लेने से ही हो जाती है, और फिर जब आप थियेटर में घुसते हैं और बड़ी भीड़ के साथ फिल्म देखते हैं तो ये कुछ और ही समां होता है ।
व्यक्ति सिनेमाघर के अंधेरे में खुद को भुला देना चाहता है और फिल्म में खो जाना चाहता है । लेकिन मल्टीप्लेक्स की तंग दीवारों के बीच ना तो आप फिल्म में खो पाते हैं और ना ही उसका मज़ा ले पाते हैं । इसके लिए एक बड़ी जगह और एक ख़ास माहौल चाहिये, जो यहां सिरे से नदारद होता है । टेक्निकल नज़रिये से देखें तो एकल-स्क्रीन थियेटर में साउंड की क्वालिटी मल्टीप्लेक्स से ज्यादा अच्छी होती है । दर्शक कोई पेशेवर साउंड इंजीनियर नहीं होता, लेकिन जब अलग अलग दिशाओं से आवाज़ आती है, तो उसे आनंद मिलता है, इससे एक समां बनता है । मल्टीप्लेक्स के सीमित दायरे में ये समां रच ही नहीं पाता । इसके अलावा तीन सौ लोगों की प्रतिक्रियाओं को सुनते हुए फिल्म देखने और हज़ार लोगों की प्रतिक्रियाओं को सुनते हुए फिल्म देखने का अंतर भी आप खुद ही समझ सकते हैं । जिस तरह की ख़ामोशी निर्देशक फिल्म ‘ब्लैक’ में रचता है, उसका गहन अनुभव भी एकल स्क्रीन के बड़े दायरे में बड़ी शिद्दत से होता है ।
एकल स्क्रीन थियेटर में वो मज़ा कहां से आयेगा जो बालकनी में आपको मिलता है, जहां आपको लगता है कि आप गतिविधियों को बहुत ऊपर से, बहुत शाही तरीक़े से देख रहे हैं । टिकिटों की क़ीमत को देखें तो तीन सौ सीटों वाले एक थियेटर में एक-जैसे लोग मौजूद होते हैं । एकल स्क्रीन थियेटर में अलग अलग टिकिट दरें होती हैं और अलग अलग वर्गों के लोग एक साथ वहां मौजूद होते हैं । कई बार पहली क़तार से जो फिक़रा कसा जाता है, उस पर आपकी हंसी रोके नहीं रूकती है ।
भारत ऐसा शायद एकमात्र देश होगा, जहां मल्टीप्लेक्स की टिकिटें एकल-स्क्रीन थियेटरों से ज्यादा हैं और काफी ज्यादा हैं । जबकि दोनों ही टॉकीज़ों में वही ज़ेनॉन प्रोजेक्टर, वही डिजिटल साउंड, वही स्क्रीन होती है । हां मल्टीप्लेक्स को संभालना अपने आप में महंगा ज़रूर होता है । यही नहीं भारत में लोग घर से ही तय करके जाते हैं कि उन्हें कौन सी फिल्म देखनी है । दो से तीन प्रतिशत लोग ही ऐसे होते हैं जो टिकिट ना मिलने पर कोई और फिल्म देखना पसंद करते हैं । इसलिये जो विकल्प की बात मल्टीप्लेक्स कह रहे हैं वो महज़ एक छलावा है । जब ‘झूम बराबर झूम’ जैसी कोई चर्चित फिल्म आती है तो मल्टीप्लेक्स के सारे स्क्रीनों पर प्रदर्शित की जाती है । तब विकल्प कहां जाते हैं । दरअसल मल्टीप्लेक्स में जाने पर दर्शक खुद को लुटा हुआ महसूस करते हैं । अब लोग ये पूछ रहे हैं कि जब सारे सिंगल स्क्रीन थियेटर मल्टीप्लेक्स बन जायेंगे, तब क्या होगा । ये एक बड़ा सवाल है ।
मेरी राय में मल्टीप्लेक्स एक डिपार्टमेन्टल स्टोर की तरह है और सिंगल स्क्रीन थियेटर एक स्टोर की तरह । अफ़सोस की जनता और सरकार ये बात समझ नहीं पा रही है और सारी रियायतें मल्टीप्लेक्सों की दी जा रही हैं ।
इंडियन एक्सप्रेस से साभार
कल संभवत:अगली कड़ी प्रस्तुत की जायेगी ।
1 comments:
मेरी राय में मल्टीप्लेक्स एक डिपार्टमेन्टल स्टोर की तरह है और सिंगल स्क्रीन थियेटर एक स्टोर की तरह ।----
यह आबजर्वेशन पसंद आया.
Post a Comment
if you want to comment in hindi here is the link for google indic transliteration
http://www.google.com/transliterate/indic/