‘मल्टीप्लेक्स दशक’ भारत के पहले मल्टीप्लेक्स ने पूरे किये दस साल, इस दौरान सिनेमा का हुआ क्या हाल ।
सात जुलाई को भारत के पहले मल्टीप्लेक्स दिल्ली के PVR को खुले हुए दस साल पूरे हो जायेंगे । इसे इंडियन एक्सप्रेस ने ‘दि मल्टीप्लेक्स डेकेड’ यानी मल्टीप्लेक्स के दशक का नाम दिया है । और एक लेखमाला आरंभ की है । जिसमें ये विमर्श किया जा रहा है कि क्या मल्टीप्लेक्स ने हमारी फिल्मों को बदला है, अगर हां तो कैसे । इस लेखमाला का पहला अंक कल छपा था । उसी के मुख्य अनूदित अंश । कोशिश यही रहेगी कि इस लेखमाला के सारे लेख यहां प्रस्तुत किये जाएं ।
श्याम बेनेगल के विचार---
श्याम बेनेगल के विचार---
मल्टीप्लेक्सों के आने से पहले ज्यादातर सिनेमाघरों में आठ सौ से तेरह सौ सीटें हुआ करती थीं । फिल्मों का कमाया पैसा सब तक पहुंचे इसके लिये ज़रूरी हुआ करता था कि टॉकीज़ कम से कम अस्सी प्रतिशत भरे । क्योंकि जब टॉकीज़ इतना भरती थी तो प्रोड्यूसर को मुनाफा होना शुरू होता था । इससे कम पर वो नुकसान में ही रहता था । अस्सी के दशक के ज़माने में निर्माताओं के सामने ये बड़ी समस्या थी कि वो आखिर थियेटरों को भरें कैसे । जब टेलीविजन आया तो फिल्मों को और गहरा धक्का पहुंचा । टेलीविजन ने शहरी मध्य वर्ग को सिनेमाघरों से दूर कर दिया । अब सिनेमाघरों तक या तो कामकाजी वर्ग आता था या वो लोग जो टी.वी.खरीदने की ताकत नहीं रखते थे । ऐसे समय में फिल्में ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को बटोरने के मकसद से बनाईं जाने
लगीं ।
सत्तर के दशक की शुरूआत में कुछ फिल्मकारों ने मुहिम चलाई और एक सीमित वर्ग के लिए फिल्में बनानी शुरू कीं । ये फिल्में कामकाजी मध्यवर्ग और छोटे शहरों और क़स्बों के पढ़े लिखे वर्ग के लिए बनाई जा रही थीं । इसे तथाकथित रूप से वैकल्पक सिनेमा का नाम दिया गया । अस्सी के दशक में ऐसी फिल्में बड़ी मुसीबत में पड़
गयीं ।
सत्तर के दशक में जब वैकल्पिक सिनेमा का दौर आरंभ हुआ तो सिनेमा के सामने कोई प्रतियोगिता नहीं थी । वो क्लास और मास दोनों के लिए था । लेकिन जैसे ही टी.वी. सारे देश पर छाया, मध्यवर्ग ने सिनेमाघरों से मुंह मोड़ा और टी.वी. से नाता जोड़ा, तो इसका पहला असर इस वैकल्पिक सिनेमा पर ही पड़ा । और धीरे धीरे वो खत्म ही हो गया ।
नब्बे के दशक के मध्य से लेकर आखिर तक हॉलीवुड में भी मल्टीप्लेक्स क्रांति ला चुके थे । वहां पचास के दशक में ही टी.वी. उरूज पर पहुंच चुका था और सिनेमा को नुकसान उठाना पड़ा था । ऐसे में कम सीटों वाले मल्टीप्लेक्सों के आने से हॉलीवुड में तहलका मच गया । ऐसे थियेटरों को भरना ज़रा आसान काम होता था । फिर मल्टीप्लेक्स के आने से दर्शकों को विकल्प मिला । बड़े थियेटरों के साथ दिक्कत ये थी कि या तो आप फिल्म देखिये या छोड़ दीजिये । कोई विकल्प नहीं था । सिनेमा से प्यार करने वाले हम लोग इसे छोड़ तो सकते नहीं थे, इसलिये जो कुछ परोसा जा रहा था, उसे ही सहते रहे और सिनेमा देखते रहे ।
मल्टीप्लेक्स के आने से सिनेकारों को अहसास हुआ कि जनता सिर्फ भीड़ नहीं है । बल्कि उसमें भी कई वर्ग हैं । और हर वर्ग एक अलग तरह का सिनेमा चाहता है । अब मुमकिन था कि इस तरह के वर्ग के लिए फिल्में बनाई जाएं । इसलिये जो धारा सत्तर के दशक में शुरू होकर अस्सी के दशक में खत्म हो गयी थी, वो नब्बे के उत्तरार्द्ध में फिर से चल पड़ी ।
अब सवाल ये है कि सत्तर के दशक के वैकल्पिक सिनेमा और आज की मल्टीप्लेक्स धारा की फिल्मों में फर्क क्या है । वैसे तो हर पीढ़ी की अपनी चिंताएं,कल्पनाएं और सरोकार होते हैं । लेकिन मुझे एक फर्क साफ दिख रहा है । आज की फिल्में पहले से ज्यादा निजी हैं, लेकिन उनमें सामाजिक या राजनीतिक सरोकारों की कमी नज़र आती
हैं ।
इस दौरान भारत में मध्यवर्ग तेज़ी से फैला है । मगर मुझे दुख इस बात का है कि ग्रामीण परिवेश हमारे नक्शे से गायब होता चला जा रहा है । और ये बात सिनेमा में भी झलकती है । आज की फिल्मों की बजाय सत्तर के दशक की फिल्मों में ग्रामीण भारत की झलक ज्यादा नजर आती थी । इक्कीसवीं सदी में ग्रामीण भारत लोगों की चेतना से गायब ही हो गया है ।
मध्यवर्ग की सारी चिंताएं और सरोकार केवल खुद को लेकर ही हैं । उनके शहर, उनकी नौकरियां, उनका जीवन बस । अगर कामयाबी के पैमाने पर देखें तो हमारा सिनेमा काफी आगे बढ़ा है, लेकिन विश्व स्तर पर हमारे सिनेमा की कोई उपस्थिति नहीं है । हम एक ऐसी दुनिया के बारे में सोच रहे हैं जो पश्चिमी यूरोप और अमरीका में तो मौजूद है, पर हमारे अपने देश में नहीं । दुख की बात है कि फिल्मकार भी भारत को अपनी महत्वाकांक्षाओं के चश्मे से ही देखते हैं, इसीलिये वो मुंबई को नहीं देखते, मुंबई में शंघाई को तलाशते हैं ।
युवा निर्देशक सागर बेल्लारी के विचार ।
( इनकी ताज़ा फिल्म ‘भेजा फ्राइ’ काफी चर्चित रही है )
मैंने ‘भेजा फ्राई’ मल्टीप्लेक्स के लिये नहीं बनाई थी । लेकिन हुआ ये कि इसे पी.वी.आर. और एडलैब्स जैसे मल्टीप्लेक्सों की श्रृंखलाओं ने वितरित किया, पर भले ही मल्टीप्लेक्सों ने इसे वितरित किया और जनता तक पहुंचाया, लेकिन मेरा मानना है कि फिल्म की कथावस्तु और उसका प्रभाव यहां ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ।
ये सच है कि एक स्क्रीन वाले थियेटर बड़े स्टारों की फिल्में दिखाते हैं, वहां हमारी फिल्में प्रदर्शित करने का खर्च जबर्दस्त होता है, ऐसे में मल्टीप्लेक्सों ने मेरे जैसे निर्देशकों के लिए नए मौक़े पैदा किये हैं । अगर पी.वी.आर. जैसा संस्थान इसे प्रदर्शित नहीं करता तो शायद मेरी फिल्म को इतनी कामयाबी भी हासिल नहीं होती । इससे एक बात साफ हुई है, एक ऐसा कमर्शियल मॉडल सामने आया है, जो हम जैसे निर्देशकों के कलात्मक-आग्रह को आर्थिक सफलता से जोड़ता है । पर मैं ये कह देना चाहता हूं कि मैंने अपनी फिल्म ‘भेजा फ्राई’ मल्टीप्लेक्स दर्शकों को ध्यान में रखकर नहीं बनाई थी बल्कि ‘हिंदी वर्ग’ को ध्यान में रखकर बनाई थी ।
हमारे देश में पहले भी छोटी फिल्में बनती रहीं हैं, जिन्हें वैकल्पिक सिनेमा का नाम दिया जाता रहा है । बासु चैटर्जी, सई परांजपे, ऋशिकेश मुखर्जी जैसे कई निर्देशक इस धारा से जुड़े रहे हैं । ‘भेजा फ्राई’ बनाते हुए मेरे मन में एक ही बात थी, और वो ये कि आज भी एक समझदार कॉमेडी (इंटेलीजेन्ट कॉमेडी) की ज़रूरत महसूस की जाती है । जनता खुद ऐसी फिल्में चाहती है, और जनता की इस मांग को पहले सई परांजपे ने चश्मे बद्दूर जैसी फिल्म बनाकर पूरा किया भी है । मैंने भेजा फ्राई बनाकर इस परंपरा को आगे बढ़ाया है, रिवाईव किया है । हालांकि ये सच है कि जैसी तैयार ऑडियेन्स मुझे अपनी फिल्म के लिए मिली वो ‘चश्मेबद्दूर’ को नसीब नहीं हुई । पर ऐसा इसलिये हुआ कि आज बहुत बड़े बदलाव आ चुके हैं । आज लोग ज्यादा ट्रैवल करते हैं । उनके पास घर में डी.वी.डी.प्लेयर आ चुके हैं, और उस पर वो विश्व भर के सिनेमा को देख सकते हैं । दर्शकों की रूचि और उनकी मांग में भी बदलाव आया है । इसलिये नई और तरोताज़ा फिल्में बनाने की गुंजाईश बढ़ी है । लेकिन ये बता दूं कि इसकी वजह मल्टीप्लेक्स क्रांति नहीं है । बस मल्टीप्लेक्स इसे भुनाने की कोशिश भर कर रहे हैं ।
सवाल ये है कि क्या आज भारत में वाकई सिनेमा की एक ‘नई धारा’ चल पड़ी है । मेरा जवाब होगा---नहीं । ऐसा तो तब कहा जा सकता है जब कम से कम चार पांच ऐसे निर्देशक हों, जो सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हों । जबकि हमारा मुख्य धारा का पेशेवर सिनेमा दुनिया के सरोकारों को ध्यान में रखकर बनाया ही नहीं जाता । मारे पास अच्छे निर्देशकों, निर्माताओं और सबसे ज्यादा अच्छी स्क्रिप्टों की भारी कमी है ।
अपनी फिल्म ‘भेजा फ्राई’ के लिए मैंने नये और गैर परंपरावादी अभिनेता जमा किये, पर इसके बावजूद ये फिल्म लोकप्रिय हुई । मैँने कम मशहूर कलाकारों को इसलिये लिया क्योंकि मैं स्टार्स को अफोर्ड ही नहीं कर सकता था । सवाल ये है कि अगर हमारे पास बजट अच्छा होता तो मैं क्या करता । मेरा जवाब है, मैं बेहतर कॉस्ट्यूम चुनता, बेहतर सेट लगाता । लेकिन शायद तब भी मैं बड़े स्टारों को नहीं लेता क्योंकि वो अपने साथ अपने तरह के दबाव और सीमाएं लेकर आते हैं । और नये ज़माने का फिल्मकार होने के नाते मुझे फायदा ये मिला है कि मैं स्टार्स के बिना भी काम कर सकता हूं । क्योंकि अब फोकस स्टारों पर नहीं बल्कि ‘कन्टेन्ट’ या कथावस्तु पर आ टिका है । और ये एक बहुत प्यारी सी तरक्की है ।
पर मैं फिर से ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि हमारे सिनेमा में कोई नई धारा नहीं आई है, हां उसका इंतज़ार हम सबको है । वो तब तक नहीं आयेगी जब तक हम लगातार आला दर्जे की फिल्में नहीं बनायेंगे ।
‘इंडियन एक्सप्रेस से साभार’
प्रयास यही रहेगा कि कल अगली कड़ी प्रस्तुत करूं ।
लगीं ।
सत्तर के दशक की शुरूआत में कुछ फिल्मकारों ने मुहिम चलाई और एक सीमित वर्ग के लिए फिल्में बनानी शुरू कीं । ये फिल्में कामकाजी मध्यवर्ग और छोटे शहरों और क़स्बों के पढ़े लिखे वर्ग के लिए बनाई जा रही थीं । इसे तथाकथित रूप से वैकल्पक सिनेमा का नाम दिया गया । अस्सी के दशक में ऐसी फिल्में बड़ी मुसीबत में पड़
गयीं ।
सत्तर के दशक में जब वैकल्पिक सिनेमा का दौर आरंभ हुआ तो सिनेमा के सामने कोई प्रतियोगिता नहीं थी । वो क्लास और मास दोनों के लिए था । लेकिन जैसे ही टी.वी. सारे देश पर छाया, मध्यवर्ग ने सिनेमाघरों से मुंह मोड़ा और टी.वी. से नाता जोड़ा, तो इसका पहला असर इस वैकल्पिक सिनेमा पर ही पड़ा । और धीरे धीरे वो खत्म ही हो गया ।
नब्बे के दशक के मध्य से लेकर आखिर तक हॉलीवुड में भी मल्टीप्लेक्स क्रांति ला चुके थे । वहां पचास के दशक में ही टी.वी. उरूज पर पहुंच चुका था और सिनेमा को नुकसान उठाना पड़ा था । ऐसे में कम सीटों वाले मल्टीप्लेक्सों के आने से हॉलीवुड में तहलका मच गया । ऐसे थियेटरों को भरना ज़रा आसान काम होता था । फिर मल्टीप्लेक्स के आने से दर्शकों को विकल्प मिला । बड़े थियेटरों के साथ दिक्कत ये थी कि या तो आप फिल्म देखिये या छोड़ दीजिये । कोई विकल्प नहीं था । सिनेमा से प्यार करने वाले हम लोग इसे छोड़ तो सकते नहीं थे, इसलिये जो कुछ परोसा जा रहा था, उसे ही सहते रहे और सिनेमा देखते रहे ।
मल्टीप्लेक्स के आने से सिनेकारों को अहसास हुआ कि जनता सिर्फ भीड़ नहीं है । बल्कि उसमें भी कई वर्ग हैं । और हर वर्ग एक अलग तरह का सिनेमा चाहता है । अब मुमकिन था कि इस तरह के वर्ग के लिए फिल्में बनाई जाएं । इसलिये जो धारा सत्तर के दशक में शुरू होकर अस्सी के दशक में खत्म हो गयी थी, वो नब्बे के उत्तरार्द्ध में फिर से चल पड़ी ।
अब सवाल ये है कि सत्तर के दशक के वैकल्पिक सिनेमा और आज की मल्टीप्लेक्स धारा की फिल्मों में फर्क क्या है । वैसे तो हर पीढ़ी की अपनी चिंताएं,कल्पनाएं और सरोकार होते हैं । लेकिन मुझे एक फर्क साफ दिख रहा है । आज की फिल्में पहले से ज्यादा निजी हैं, लेकिन उनमें सामाजिक या राजनीतिक सरोकारों की कमी नज़र आती
हैं ।
इस दौरान भारत में मध्यवर्ग तेज़ी से फैला है । मगर मुझे दुख इस बात का है कि ग्रामीण परिवेश हमारे नक्शे से गायब होता चला जा रहा है । और ये बात सिनेमा में भी झलकती है । आज की फिल्मों की बजाय सत्तर के दशक की फिल्मों में ग्रामीण भारत की झलक ज्यादा नजर आती थी । इक्कीसवीं सदी में ग्रामीण भारत लोगों की चेतना से गायब ही हो गया है ।
मध्यवर्ग की सारी चिंताएं और सरोकार केवल खुद को लेकर ही हैं । उनके शहर, उनकी नौकरियां, उनका जीवन बस । अगर कामयाबी के पैमाने पर देखें तो हमारा सिनेमा काफी आगे बढ़ा है, लेकिन विश्व स्तर पर हमारे सिनेमा की कोई उपस्थिति नहीं है । हम एक ऐसी दुनिया के बारे में सोच रहे हैं जो पश्चिमी यूरोप और अमरीका में तो मौजूद है, पर हमारे अपने देश में नहीं । दुख की बात है कि फिल्मकार भी भारत को अपनी महत्वाकांक्षाओं के चश्मे से ही देखते हैं, इसीलिये वो मुंबई को नहीं देखते, मुंबई में शंघाई को तलाशते हैं ।
युवा निर्देशक सागर बेल्लारी के विचार ।
( इनकी ताज़ा फिल्म ‘भेजा फ्राइ’ काफी चर्चित रही है )
मैंने ‘भेजा फ्राई’ मल्टीप्लेक्स के लिये नहीं बनाई थी । लेकिन हुआ ये कि इसे पी.वी.आर. और एडलैब्स जैसे मल्टीप्लेक्सों की श्रृंखलाओं ने वितरित किया, पर भले ही मल्टीप्लेक्सों ने इसे वितरित किया और जनता तक पहुंचाया, लेकिन मेरा मानना है कि फिल्म की कथावस्तु और उसका प्रभाव यहां ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ।
ये सच है कि एक स्क्रीन वाले थियेटर बड़े स्टारों की फिल्में दिखाते हैं, वहां हमारी फिल्में प्रदर्शित करने का खर्च जबर्दस्त होता है, ऐसे में मल्टीप्लेक्सों ने मेरे जैसे निर्देशकों के लिए नए मौक़े पैदा किये हैं । अगर पी.वी.आर. जैसा संस्थान इसे प्रदर्शित नहीं करता तो शायद मेरी फिल्म को इतनी कामयाबी भी हासिल नहीं होती । इससे एक बात साफ हुई है, एक ऐसा कमर्शियल मॉडल सामने आया है, जो हम जैसे निर्देशकों के कलात्मक-आग्रह को आर्थिक सफलता से जोड़ता है । पर मैं ये कह देना चाहता हूं कि मैंने अपनी फिल्म ‘भेजा फ्राई’ मल्टीप्लेक्स दर्शकों को ध्यान में रखकर नहीं बनाई थी बल्कि ‘हिंदी वर्ग’ को ध्यान में रखकर बनाई थी ।
हमारे देश में पहले भी छोटी फिल्में बनती रहीं हैं, जिन्हें वैकल्पिक सिनेमा का नाम दिया जाता रहा है । बासु चैटर्जी, सई परांजपे, ऋशिकेश मुखर्जी जैसे कई निर्देशक इस धारा से जुड़े रहे हैं । ‘भेजा फ्राई’ बनाते हुए मेरे मन में एक ही बात थी, और वो ये कि आज भी एक समझदार कॉमेडी (इंटेलीजेन्ट कॉमेडी) की ज़रूरत महसूस की जाती है । जनता खुद ऐसी फिल्में चाहती है, और जनता की इस मांग को पहले सई परांजपे ने चश्मे बद्दूर जैसी फिल्म बनाकर पूरा किया भी है । मैंने भेजा फ्राई बनाकर इस परंपरा को आगे बढ़ाया है, रिवाईव किया है । हालांकि ये सच है कि जैसी तैयार ऑडियेन्स मुझे अपनी फिल्म के लिए मिली वो ‘चश्मेबद्दूर’ को नसीब नहीं हुई । पर ऐसा इसलिये हुआ कि आज बहुत बड़े बदलाव आ चुके हैं । आज लोग ज्यादा ट्रैवल करते हैं । उनके पास घर में डी.वी.डी.प्लेयर आ चुके हैं, और उस पर वो विश्व भर के सिनेमा को देख सकते हैं । दर्शकों की रूचि और उनकी मांग में भी बदलाव आया है । इसलिये नई और तरोताज़ा फिल्में बनाने की गुंजाईश बढ़ी है । लेकिन ये बता दूं कि इसकी वजह मल्टीप्लेक्स क्रांति नहीं है । बस मल्टीप्लेक्स इसे भुनाने की कोशिश भर कर रहे हैं ।
सवाल ये है कि क्या आज भारत में वाकई सिनेमा की एक ‘नई धारा’ चल पड़ी है । मेरा जवाब होगा---नहीं । ऐसा तो तब कहा जा सकता है जब कम से कम चार पांच ऐसे निर्देशक हों, जो सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हों । जबकि हमारा मुख्य धारा का पेशेवर सिनेमा दुनिया के सरोकारों को ध्यान में रखकर बनाया ही नहीं जाता । मारे पास अच्छे निर्देशकों, निर्माताओं और सबसे ज्यादा अच्छी स्क्रिप्टों की भारी कमी है ।
अपनी फिल्म ‘भेजा फ्राई’ के लिए मैंने नये और गैर परंपरावादी अभिनेता जमा किये, पर इसके बावजूद ये फिल्म लोकप्रिय हुई । मैँने कम मशहूर कलाकारों को इसलिये लिया क्योंकि मैं स्टार्स को अफोर्ड ही नहीं कर सकता था । सवाल ये है कि अगर हमारे पास बजट अच्छा होता तो मैं क्या करता । मेरा जवाब है, मैं बेहतर कॉस्ट्यूम चुनता, बेहतर सेट लगाता । लेकिन शायद तब भी मैं बड़े स्टारों को नहीं लेता क्योंकि वो अपने साथ अपने तरह के दबाव और सीमाएं लेकर आते हैं । और नये ज़माने का फिल्मकार होने के नाते मुझे फायदा ये मिला है कि मैं स्टार्स के बिना भी काम कर सकता हूं । क्योंकि अब फोकस स्टारों पर नहीं बल्कि ‘कन्टेन्ट’ या कथावस्तु पर आ टिका है । और ये एक बहुत प्यारी सी तरक्की है ।
पर मैं फिर से ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि हमारे सिनेमा में कोई नई धारा नहीं आई है, हां उसका इंतज़ार हम सबको है । वो तब तक नहीं आयेगी जब तक हम लगातार आला दर्जे की फिल्में नहीं बनायेंगे ।
‘इंडियन एक्सप्रेस से साभार’
प्रयास यही रहेगा कि कल अगली कड़ी प्रस्तुत करूं ।
2 comments:
जरुर करें अगली कड़ी पेश. इन्तजार करेंगे.
युनुसजी,
एक बढिया लेख पढवाने के लिये धन्यवाद । कल ही मैने एक नयी फ़िल्म देखी "आप का सुरूर" । जानकर दुखद आश्चर्य हुआ कि ये फ़िल्म भारत में इस साल की सफ़ल फ़िल्मों से एक है । कैसी विडम्बना है कि जहाँ "कागज के फ़ूल" जैसी फ़िल्म फ़्लाप हो गयी थी "आप का सुरूर" हिट हो रही है ।
नसीरुद्दीन साहब ने एक बार कहा था कि केवल दो प्रकार की फ़िल्में होती हैं, अच्छी फ़िल्में और खराब फ़िल्में । उनकी ईमानदारी इस हद तक थी कि उन्होनें अपनी फ़िल्म "यूँ होता तो क्या होता" तक को अच्छी फ़िल्म नहीं बताया था ।
देखिये आगे आगे होता है क्या?
हम और आप तो केवल अच्छे सिनेमा की उम्मीद ही कर सकते हैं ।
साभार,
नीरज
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