संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Thursday, April 21, 2022

आईये 'सारे जहां से अच्‍छा' और 'लब पे आती है दुआ' वाले अल्‍लाम इक़बाल को पहचानें

 



आज अल्‍लामा इक़बाल की याद का दिन है। बचपन से हम सब अल्‍लामा इक़बाल को याद करते रहे हैं उनके लिए
तराना-ए-हिंदीके लिए। इक़बाल का लिखा यह तराना सबसे पहले 16 अगस्‍त 1904 में इत्‍तेहाद रिसाले में छपा था। बाद में उनकी किताब बांग-ए-दरामें इसे शामिल किया गया। आज़ादी की लड़ाई के दौरान ये गीत ब्रिटिश सरकार के विरोध का एक बड़ा ज़रिया बन गया था। इसे सबसे पहले सरकारी कॉलेज लाहौर में पढ़कर सुनाया गया था।

यहां ये ज़िक्र ज़रूरी है कि इसकी धुन 1950 के आसपास भारतरत्‍न पंडित रविशंकर ने तैयार की थी और इसे सुर-साम्राज्ञी भारत-रत्‍न लता मंगेशकर ने गाया था। ये भी ज़िक्र ज़रूरी है कि जब अस्‍सी के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से पूछा के ऊपर से आपको भारत कैसा नज़र आता है तो उनका जवाब था—
सारे जहां से अच्‍छा


सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा

ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा

परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ- रोमा, सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशाँ हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा

'इक़बाल' कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा



इक़बाल को क़रीब से पहचानना इसलिए ज़रूरी है ताकि अहसास हो कि वो कितने बड़े स्‍कॉलर थे। कई सालों तक वो लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज में अरबी पढ़ाते रहे और उसके बाद जब जर्मनी गयी तो म्‍यूनिख यूनिवर्सिटी से फ़ि‍लॉसफ़ी में पीएचडी की। लंदन से बैरिस्‍ट्री का इम्तिहान भी पास किया। और लाहौर में फ़ि‍लॉसफ़ी के प्रोफ़ेसर बन गये। साथ ही वकालत भी करते रहे।

इक़बाल को आप
सारे जहां से अच्‍छाके लिए तो याद करते ही हैं। लेकिन उनके कई ऐसे शेर हैं जिनका हम आम ज़िंदगी में इस्‍तेमाल करते हैं और इस अहसास के बिना कि ये इक़बाल के अशआर हैं। जैसे ये शेर--

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।।


कमाल की बात ये है कि इस शेर का इस्‍तेमाल
RM आर्ट की फिल्‍मों की शुरूआत में किया जाता रहा। निर्माता रतन मोहन की ये फिल्‍में थीं—संग्राम, ज्‍वाला, हातिमताई, प्राण जाये पर वचन ना जाए, हीरा-मोती, जग्‍गू, महा-शक्तिशाली वग़ैरह।


अल्‍लामा इक़बाल का एक और मशहूर शेर है--

हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है 

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा।।


 इसके अलावा इस शेर का भी ख़ूब इस्‍तेमाल किया जाता है--


न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो

तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।।


ये शेर भी अल्‍लामा इक़बाल का लिखा हुआ ही है--


सितारों से आगे जहाँ और भी हैं

अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं


 अदब की महफिलों में इस शेर का ज़िक्र भी अकसर होता है-


अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल

लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे।।


आईये अब आपको बताते हैं गुलज़ार के इक़बाल कनेक्‍शन के बारे में। गुलज़ार साहब को फिल्‍म
राज़ीके ए वतनगाने के लिए सर्वश्रेष्‍ठ गीतकार का फ़िल्‍मफ़ेयर पुरस्‍कार मिला है। आपको बता दें कि इस गाने की रचना-प्रक्रिया बड़ी मजेदार रही है। बात ये है कि देशभक्ति गीतों के अकाल के इस समय में किसी फिल्‍म में ऐसा गीत आये जो अल्‍लामा इकबाल से प्रेरित होतो इसे एक बड़ी घटना क्‍यों ना माना जाए। अपने एक इंटरव्‍यू में गुलज़ार ने कहा भी है कि इस गीत की प्रेरणा उन्‍हें बचपन में गाये जाने वाले इकबाल के एक गीत से मिली। ये गीत गुलज़ार के स्‍कूल में गाया जाता था। जिन पंक्तियों ने गुलज़ार को प्रेरित किया हैवो हैंलब पे आती है दुआ बनके तमन्‍ना मेरी/ जिंदगी शम्‍मा की सूरत हो खुदाया मेरी

अल्‍लामा इकबाल की ये रचना
बच्‍चे की दुआ सन 1902 की है और कई स्‍कूलों में इसे प्रार्थना के तौर पर गाया जाता है। गुलज़ार ने इन पंक्तियों को भी गाने में शामिल किया है। इसी गाने के लिए अरिजीत सिंह को सर्वश्रेष्‍ठ गायक का फिल्‍मफेयर पुरस्‍कार मिला है। तो चलिए अल्‍लामा इक़बाल की बच्‍चे की दुआपढ़ी जाए।

लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शमा की सूरत[1] हो ख़ुदाया मेरी

दूर दुनिया का मेरे दम से अँधेरा हो जाये
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाये

हो मेरे दम से यूँ ही मेरे वतन की ज़ीनत[2]
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत

ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब
इल्म की शम्मा[3] से हो मुझको मोहब्बत या रब

हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत[4] करना
दर्द-मंदों से ज़इफ़ों[5] से मोहब्बत करना

मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको


सभी कविताएं कविता-कोश से साभार  

  1.  दीपक की भाँति
  2. ऊपर जायें शोभा
  3. ऊपर जायें ज्ञान का दीपक
  4. ऊपर जायें सहानुभूति
  5. ऊपर जायें दुर्बल

1 comments:

Ashok Kumar Gupta April 23, 2022 at 3:13 PM  

युनुस खान जी, बहुत दिनों बाद आप नजर आए। स्वागत है।

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