संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Thursday, February 16, 2017

जब तेरी राह से होकर गुज़रे- गुलाम अली की आवाज़

उम्र यूं गुजरी है जैसे सर से
सनसनाता हुआ पत्‍थर गुज़रे।


वो एक डबल कैसेट अलबम था।
एक ही अलबम में दो दो सौग़ातें।
हमारी बोसीदा दोपहरियों का अलबम। तब गुलाम अली धूप होते थे।
वो सुकून होते थे। वो किनारा भी होते थे और सहारा भी।

गुलाम अली का मतलब सिर्फ
चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद हैया आवारगीनहीं है। उनके पंजाबी गीत भी सुने जाने चाहिए। और उनकी कुछ कम मशहूर ग़ज़लें भी। इस लगभग बे-ग़ज़ल ज़माने में पुरानी चीज़ें ही रह गयी हैं दोहराने को। और पुरानी नग़्मे, पुरानी ग़ज़लें हमारे लिए पुरानी तस्‍वीरों की तरह फ्लैश-बैक होती हैं—हमें उस गली, उस शहर, उस दौर में ले जाती हैं।
 सुनने का सही मज़ा तब ही तो होता था। आज हर तरफ गाने हैं। मोबाइल से लेकर डेस्‍कटॉप तक और स्‍टूडियो से लेकर रेडियो-सेट तक। पर सुनने का लुत्‍फ वो क्‍यों नहीं।

Ghazal: jab teri raah se hokar guzre
Singer: Ghulam ali
Shayar: Bashar Nawaz
Duration: 5 35




आज जाने क्‍यों बेसबब ये ग़ज़ल याद आ गयी।


जब तेरी राह से होकर गुज़रे
आँख से कितने ही मंजर गुज़रे।।
तेरी तपती हुई सांसों की तरह
कितने झोंके मुझे छूकर गुज़रे।।
उम्र यूं गुज़री है जैसे सर से
सनसनाता हुआ पत्‍थर गुजरे।
जानते हैं कि वहां कोई नहीं
फिर भी उस राह से अकसर गुज़रे।।
अब कोई ग़म न कोई याद बशर
वक्‍त गुज़रे भी तो क्‍यों कर गुज़रे।। 

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