'अकसर शब-ए-तन्हाई' में.....रेशमा की आवाज़
रेडियोवाणी पर पिछली पोस्ट में हमने गायिका रेशमा को अंतिम विदाई दी थी।
रेशमा के अचानक चले जाने के बाद हम संगीत की उस दुनिया में फिर लौटे, जिसमें पहले कभी-कभार जाना होता था। और हमने उन कोनों की भी पड़ताल की..जिनसे शायद पहले अनजान रहे थे। शायद इसकी वजह ये थी कि अचानक रेशमा का विदा हो जाना। संगीत की जो दुनिया उन्होंने रची..उसके अनजान कोनों में हमें मिलीं उनकी गायी कुछ ग़ज़लें और नज्में। और ये हमारे लिए हैरत की बात थी।
आज जो नज़्म पेश की जा रही है--उसे नादिर काकोरवी ने लिखा है। खोजने पर पता चला कि ये तो अंग्रेज़ी के मशहूर कवि सर थॉमस मूर की मशहूर कविता oft, in the stilly night का उर्दू तर्जुमा है। आपको बता दें कि नादिर काकोरवी ने अंग्रेज़ी के कई क्लासिकी कवियों की रचनाओं का उर्दू में अनुवाद किया है। नादिर काकोरवी के बारे में और ज्यादा जानने के लिए आप इस पोस्ट के समांतर आज की 'तरंग' की ये पोस्ट पढ़ सकते हैं। वहां हमने थॉमस मूर की मूल कविता और फिर नादिर काकोरवी का किया तर्जुमा पेश किया है। तर्जुमा क्या है बाक़ायदा पुनर्रचना है।
रेशमा ने इसका केवल एक अंश गाया है।
रेशमा की ये धुन और उनकी आवाज़ का दर्द कुछ ऐसा है कि ये नज्म सुनते ही दिलो-दिमाग़ पर तारी हो जाती है। हमारे भीतर कहीं ठहर जाती है..जम जाती है। ध्यान देने वाली बात ये है ये रेशमा ग़ज़लों और नज्मों की नाज़ुक ज़मीन की मुसाफिर नहीं थीं। वो तो लोकधुनों पर परवाज़ करने वाला परिंदा थीं। फिर भी उन्होंने कितनी खूबसूरती से इसे निभाया है।
तो पहले इसे रेशमा की आवाज़ में सुना जाए।
और अब उस्ताद अमानत अली ख़ां साहब की आवाज़ में।
दोनों धुनों का मिज़ाज अलग है। लेकिन दोनों का लुत्फ़ अलग अलग है।
फिर से बता दें कि तरंग पर आप इस नज्म की पूरी इबारत और अंग्रेज़ी की मूल कविता पोस्ट की गयी है। यहां पर।
रेडियोवाणी पर रेशमा और मन्ना डे की यादों का कारवां जारी रहेगा।
हमारी कोलकाता की मित्र नीलम शर्मा 'अंशु' ने बलवंत गार्गी का रेशमा पर पंजाबी में लिखे एक लेख का अनुवाद किया है। उसे भी रेडियोवाणी और तरंग पर जल्दी ही पेश किया जायेगा।
अगर आप चाहते हैं कि 'रेडियोवाणी' की पोस्ट्स आपको नियमित रूप से अपने इनबॉक्स में मिलें, तो दाहिनी तरफ 'रेडियोवाणी की नियमित खुराक' वाले बॉक्स में अपना ईमेल एड्रेस भरें और इनबॉक्स में जाकर वेरीफाई करें।
रेशमा के अचानक चले जाने के बाद हम संगीत की उस दुनिया में फिर लौटे, जिसमें पहले कभी-कभार जाना होता था। और हमने उन कोनों की भी पड़ताल की..जिनसे शायद पहले अनजान रहे थे। शायद इसकी वजह ये थी कि अचानक रेशमा का विदा हो जाना। संगीत की जो दुनिया उन्होंने रची..उसके अनजान कोनों में हमें मिलीं उनकी गायी कुछ ग़ज़लें और नज्में। और ये हमारे लिए हैरत की बात थी।
आज जो नज़्म पेश की जा रही है--उसे नादिर काकोरवी ने लिखा है। खोजने पर पता चला कि ये तो अंग्रेज़ी के मशहूर कवि सर थॉमस मूर की मशहूर कविता oft, in the stilly night का उर्दू तर्जुमा है। आपको बता दें कि नादिर काकोरवी ने अंग्रेज़ी के कई क्लासिकी कवियों की रचनाओं का उर्दू में अनुवाद किया है। नादिर काकोरवी के बारे में और ज्यादा जानने के लिए आप इस पोस्ट के समांतर आज की 'तरंग' की ये पोस्ट पढ़ सकते हैं। वहां हमने थॉमस मूर की मूल कविता और फिर नादिर काकोरवी का किया तर्जुमा पेश किया है। तर्जुमा क्या है बाक़ायदा पुनर्रचना है।
रेशमा ने इसका केवल एक अंश गाया है।
रेशमा की ये धुन और उनकी आवाज़ का दर्द कुछ ऐसा है कि ये नज्म सुनते ही दिलो-दिमाग़ पर तारी हो जाती है। हमारे भीतर कहीं ठहर जाती है..जम जाती है। ध्यान देने वाली बात ये है ये रेशमा ग़ज़लों और नज्मों की नाज़ुक ज़मीन की मुसाफिर नहीं थीं। वो तो लोकधुनों पर परवाज़ करने वाला परिंदा थीं। फिर भी उन्होंने कितनी खूबसूरती से इसे निभाया है।
तो पहले इसे रेशमा की आवाज़ में सुना जाए।
और अब उस्ताद अमानत अली ख़ां साहब की आवाज़ में।
दोनों धुनों का मिज़ाज अलग है। लेकिन दोनों का लुत्फ़ अलग अलग है।
फिर से बता दें कि तरंग पर आप इस नज्म की पूरी इबारत और अंग्रेज़ी की मूल कविता पोस्ट की गयी है। यहां पर।
रेडियोवाणी पर रेशमा और मन्ना डे की यादों का कारवां जारी रहेगा।
हमारी कोलकाता की मित्र नीलम शर्मा 'अंशु' ने बलवंत गार्गी का रेशमा पर पंजाबी में लिखे एक लेख का अनुवाद किया है। उसे भी रेडियोवाणी और तरंग पर जल्दी ही पेश किया जायेगा।
अगर आप चाहते हैं कि 'रेडियोवाणी' की पोस्ट्स आपको नियमित रूप से अपने इनबॉक्स में मिलें, तो दाहिनी तरफ 'रेडियोवाणी की नियमित खुराक' वाले बॉक्स में अपना ईमेल एड्रेस भरें और इनबॉक्स में जाकर वेरीफाई करें।
0 comments:
Post a Comment
if you want to comment in hindi here is the link for google indic transliteration
http://www.google.com/transliterate/indic/