संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Thursday, August 15, 2013

ये दाग़-दाग़ उजाला.. सुब्‍ह-ए-आज़ादी: आवाज़ जिया मोहीउद्दीन की

देश की आज़ादी का दिन। 
बहुत सारे देशभक्ति गीत आपको सुनने मिलेंगे आज।
पता नहीं आज ये गीत सुनवाया जाना चाहिए या नहीं।
लेकिन हमें लगता है कि आज के दिन सुनने के लिए ये एक ज़रूरी रचना है।
ताकि हम ये समझ सकें कि हम कहां से चले थे और कहां आ पहुंचे।
क्‍या ये वही मंजिल है...जिसकी हमने तमन्‍ना की थी।

'फ़ैज़' ने ये जिन भी संदर्भों के तहत लिखा--वो संदर्भ आज भी कायम हैं।
लेकिन ऐसा भी नहीं कि हर तरफ़ अंधेरा हो... रोशनी की किरणें भी हैं।
एक मिला-जुला सा सफ़र है ये।
जिया मोहीउद्दीन की आवाज़ ने इस रचना के असर को कुछ और बढ़ा दिया है।
आवाज़ की दुनिया के हम जैसे छात्रों के लिए जिया एक 'लाइट हाउस' की तरह रहे हैं। वो किस तरह आवाज़ को लोच देते हैं...अलफ़ाज़ को किस तरह बरतते हैं..कहां बोलते बोलते रूक जाते हैं....हमने हमेशा उन्‍हें बार बार सुना। ग़ौर से सुना। समझ लीजिए कि हम एकलव्‍य की तरह उनके शिष्‍य रहे हैं। जिया के दीवाने
नीरज रोहिल्‍ला हमें समय समय पर उनकी रचनाएं खोज-खोजकर भेजते रहे हैं। तो चलिए 'जश्‍न-ए-आज़ादी' के मौक़े पर आज सुनी जाए फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' की ये नज़्म। आप सभी को स्‍वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।
इस नज्‍़म को अली सरदार जाफ़री की नज्‍़म 'सुब्‍ह-ए-फ़र्दा' से जोड़कर पढ़ा जाए। जिसे तरंग पर यहां पोस्‍ट किया गया है।

Zia_Mohyeddinfaiz

बांये जिया मोहउद्दीन की तस्‍वीर।
यहां से साभार
दाहिने- फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'

Song: Ye Daagh Daagh Ujaala (Nazm: Subh-E-Aazadi)
Poet: Faiz Ahmed Faiz
Narrator: Ziya Mohiuddin
Duration: 3:27




ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर 
वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़री मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़म-ए-दिल

जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन

सुना है हो भी चुका है फ़िरक़-ए-ज़ुल्मत-ए-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ए-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई
अभी चिराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई


अगर उर्दू के भारी-भरकम शब्‍द समझने में दिक्‍कत हो उनके लिए इसका अंग्रेज़ी तरजुमा। ये डॉ. नज़ीर ख्‍वाजा ने किया है।
This tattered raiment of darkness 
This sputtering of dawn.
This is not the dawn that we had hoped for.
This is not the dawn we had set out for.
Through the darkness,
Towards the last station of the night stars;
Hoping to find the end of our journey,
Somewhere on the distant shore
Of the languishing sea of night,
Where our sorrow-laden ship
Would at last come home to anchor.

Through youth's warm blooded venues
As we traveled,
Many a hand tugged at our cloak
From beauty`s sleepless abode
Many arms and bodies beckoned us

But very dear was the blush of dawn,
And inviting was the glowing raiment
Of the maidens of light.

Brisk was then the desire
And suppressed entirely the thought of fatigue.

Darkness now has cleaved from light, We hear.
The Journey has finally now ended,
We hear.

How changed are the rules
For those who have struggled painfully.
Permitted now only is the pleasure
From the delusion of attainment;
Forbidden is the persistent pain of struggle.

Alas! Though the spark of vision,
The fire raging in the mind,
The heartache, none has dimmed.

From whither came the gust of dawn's breeze,
And where did it go?
The flickering lamp on the wayside,
Does not know.

The darkness of the night has not ended yet.
The moment of liberation of hearts and minds
Has not come yet.
Keep going, for we have not come
To the end of our journey yet!


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2 comments:

PD September 2, 2013 at 3:31 PM  

आह! पूरे अठारह दिन बाद इस पर नज़र गई और आज ही सुना. वैसे जिया के दीवानों में एक नाम मेरा भी शामिल रखें, और यह भी की इस लिस्ट में नीरज ने ही शामिल कराया है.

Udan Tashtari October 7, 2013 at 7:56 PM  

vaah!! AAz aana hua is taraf! :)

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