संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Tuesday, April 9, 2013

बांध प्रीत फूल डोर- लता मंगेशकर, पंडित नरेंद्र शर्मा और सुधीर फड़के का त्रिवेणी-संगम।

संगीत की दुनिया कितनी अद्भुत है।  एक अनंत-समुद्र है सुरों का। जिसमें आप चाहे जितनी गहरी डुबकी लगा सकते हैं। हर बार आपके सामने कुछ नया और अद्भुत होगा। रेडियो की पेशेवर जिंदगी में हम गानों के आसपास ही रहते हैं या ये कहें कि गाने हमारे आसपास गूंजते रहते हैं। लेकिन इतने से भला कहां प्‍यास बुझती है। रेडियो-चैनलों का अपना एक फॉरमेट होता है। श्रोताओं की अपनी मांग....बाज़ार में टिके रहने की कवायद। इन सबके बीच भी अपने मन के संगीत की जगह बची रहती है। शायद यही जिद और प्‍यास थी जिसने हमें आज से छह साल पहले 'रेडियोवाणी' शुरू करने को प्रेरित किया था।


तब पता नहीं था कि इस ब्‍लॉग की दशा और दिशा क्‍या होगी। पर बीते इन कुछ बरसों में 'रेडियोवाणी' ने अपना एक अलग रास्‍ता तैयार किया है। ब्‍लॉगिंग ने हमारी अपनी जिंदगी को कई मायनों में बदला है। संगीत के दीवानों की एक ऐसी टोली तैयार की है--जो हर बार कोई नया सुर, कोई नई गूंज पेश करती है। कोलाहल भरे इस जीवन में भला और क्‍या चाहिए। हालांकि पिछले कुछ बरसों में हमारी अपनी ब्‍लॉगिंग की रफ्तार कम हुई है। निजी जीवन में एक भोले-तोतले और शरारती सुर ने हमारे पलों और दिनों को अपनी प्‍यारी गिरफ्त में लिया है। और हमें इससे कोई शिकायत नहीं।

'रेडियोवाणी' अभी भी हमारी प्राथमिकता है और रहेगा। हमारे मित्र और अजीज़ 'डाक-साब' ने कल उलाहना दिया कि दूसरा बच्‍चा आने के बाद पहली संतान से मोह कम हो जाता है। अपनी संतान 'रेडियोवाणी' के प्रति हमारा मोह कम नहीं हुआ...हां जेब में समय के सिक्‍के कम हो गये। हालांकि गये कुछ बरसों में ब्‍लॉगिंग का उफ़ान कम हुआ है। पर
मनीष जैसे मनीषी पूरी ताक़त के साथ डटे हैं। उम्‍मीद करें कि मनीष से प्रेरणा पाकर हम भी कम से कम हफ्ते में एक पोस्‍ट वाली पुरानी रफ्तार पर लौट आयें।

'रेडियोवाणी' की सालगिरह पर हम पंडित नरेंद्र शर्मा, सुधीर फड़के और लता मंगेशकर के त्रिवेणी-संगम को नमन कर रहे हैं। ये गाना आज से सड़सठ साल पहले आया था। घनघोर पतन के इस कोलाहल भरे युग में कविताई वाले गीतों के लिए बहुधा हमें आधी सदी पीछे लौटना पड़ता है। ललित-भावों का इस तरह मद्धम पड़ते जाना बहुत अफ़सोस का विषय है। तीन मिनिट बाईस सेकेन्‍ड के इस गाने को आप जीवन की आपा-धापी के बीच थोड़ा अंतराल निकालकर सुनिए। मुझे यक़ीन है कि सितार की शुरूआती धुन से लेकर एकदम आखिर में लता के 'दूर जाना ना' गाने तक...आपके भीतर कुछ बदल जायेगा। आपको ख़ुशी की एक फांक मिल जायेगी।

इस गाने की सादी-सी धुन है। लता जी ने अपनी नाज़ुक आवाज़ में अलफ़ाज़ को कुछ इस तरह बरता है कि गाना एक अनमोल रतन बन गया है। दिलचस्‍प बात ये है कि सुधीर फड़के ने किसी आयोजन में इसे स्‍वयं भी गाया। इसलिए यहां हम दोनों संस्‍करण प्रस्‍तुत कर रहे हैं। मक़सद यही है कि एक संगीतकार की परिकल्‍पना और गायक के किसी गीत को अपने तरीक़े से बरतने के बीच कितने परिवर्तन होते हैं।

पंडित नरेंद्र शर्मा की कविताई को भी हमारा नमन है।
कितने कम शब्‍द। कितनी गहन अनुभूतियां।


Song: bandh preet phool dor

Film: Malti Madhav (1951)
Singer: Lata mangeshkar
Lyrics: Pandit Narendra Sharma

Music: Sudhir Phadke
Duration: 3 22







बांध प्रीती फूल डोर 
मन ले के चितचोर
दूर जाना ना।।


मन की किवाड़ खोल,  मीत मेरे अनमोल
भूल जाना ना।।

कैसे सहूं विछोह  मन मे रमा है मोह
रूठ जाना ना।।


सुधीर फड़के के संस्‍करण में ये पंक्तियां अतिरिक्‍त हैं
नैन मिले मन मिल गये, मिलकर बिछड़े मीत
व्‍याकुल लतिका मालती फूल विरह का गीत





रेडियोवाणी की छठी सालगिरह कारवां में शामिल सभी मित्रों को मुबारक हो।

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6 comments:

’डाक-साब’,  April 9, 2013 at 11:11 PM  

चलिये, आज की तारीख़ में आपकी पोस्ट तो आयी;
....और वो भी इतनी ज़ोरदार !
हम तो समझे बैठे थे कि आज फिर भूल गये आप ।

हमारे अपने ख़ुद के कोलाहल भरे इस जीवन का सच तो ये है कि बरसों-बरस चाकूबाज़ी करते और दूसरों के ख़ून से हाथ रंगते हमारी वो हिन्दी जाने कब की पीछे छूट गयी ,जिसमें इस पोस्ट और इसमें शामिल गीत की हिन्दी की टक्कर में टिप्पणी की जा सके ।

आपके प्रथम मानस-शिशु की छठीं वर्षगाँठ पर हम सबकी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ !

भई, ब्लॉगिंग हो तो यूनुस खान जी जैसी हो,
नहीं तो ना हो !

पारुल "पुखराज" April 10, 2013 at 11:57 AM  

mubaarak ..radiovani par adbhut geet sunne mile hain..sudhir phadke kii avaaz ke liye shukriya yunus

Anonymous,  May 18, 2013 at 6:00 PM  

bahut achchha
visit to
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Girish Kumar Billore July 8, 2013 at 2:10 PM  

हम भी तो डूब
गये.

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