आंखों में तिर गया 'अमावस का मेला' : अतिथि पोस्ट रेडियोसखी ममता सिंह
(मुहूर्त के मुताबिक़) आज और कल मौनी-अमावस्या है। इलाहाबाद में कुंभ 2013 के सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक। 'रेडियोवाणी' पर रेडियो-सखी ममता सिंह इस अतिथि-पोस्ट में इलाहाबाद, अमावस्या के मेले, कैलाश गौतम, उनकी कविताई और अन्य कई स्मृतियों को सहेजकर लायी हैं।
कुंभ चल रहा है, एक बार महाकुंभ नहाने का मौक़ा पा चुकी हूं। उस वक्त गांव धौरहरा में थी। गांव से जो ट्रेन आती थी....वो लगातार भीड़-भभ्भड़ से परिपूर्ण होती थी। मां को भीड़ से घबराहट होती थी। पहले तो वो ट्रेन में चढ़ ही ना पायीं। दूसरे दिन जैसेसिंह -तैसे कोशिश करके भाईयों ने मिलके ट्रेन में तो चढ़ा दिया। बाप रे....दमघोंटू भीड़ का ऐसा आलम...पहले कभी ना देखा था। बहरहाल....आते हैं महाकुंभ और गंगा-स्नान पर। पैदल चलते-चलते हालत ख़राब हो गयी। नन्हें नन्हें पैर बुरी तरह पस्त हो चुके थे। ख़ैर..पानी का आकर्षण भी था और डर भी। नौका में ठुस्सम-ठुस्सा सवार हुए। संगम पहुंचे। पानी में उतार दिया गया। एक तरफ मां ने हाथ पकड़ा, दूसरी तरफ पिता जी ने। उफ....इतना ठंडा पानी कि उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। समझ लीजिए कि करंट-सा लग गया। और उस पर डुबकी पूरे सिर की ही होनी चाहिए। तभी गंगा-स्नान पूरा होता है। जैसे ही मां-पिताजी ने मेरा सिर नहाने के लिए गंगा में डुबोया--एक ज़ोरदार चीख़ निकली। अगल-बगल के लोग हंसने लगे। धीरे-धीरे डर और ठंडक का असर कम हुआ।
बहरहाल...आज याद कर रहे हैं वो दिन। और कैलाश गौतम की वो कविता याद आ रही है--जिसमें उन्होंने जैसे 'अमावस्या के मेले' को उतारकर रख दिया है। कविता नहीं शब्द-चित्र है। शब्द-चित्र नहीं पटकथा है। पटकथा नहीं--सजीव-प्रसारण है। जो कुछ भी है अदभुत है। अनमोल है। अद्वितीय है। चूंकि मेरा ताल्लुक आकाशवाणी इलाहाबाद से रहा है। इसलिए अनगिनत छबियां और यादें हैं कैलाश जी की। बेहद ख़ुशमिज़ाज, हंसमुख व्यक्तित्व। उनमें एक देसीपन नज़र आता था। एक ऐसी आत्मीयता थी उनमें...कि बहुत कम मुलाक़ातों में भी बहुत अज़ीज़ लगते थे। होठों पर हमेशा मुस्कान होती थी।
'कृषि-जगत' कार्यक्रम के 'कैलाश भैया' बड़े 'हंसैया' थे। हमें उनसे बात करते हुए इसलिए डर लगता था क्योंकि वो उम्र में बड़े थे। और बेहद मशहूर भी। माइक्रोफोन के सामने इतनी सहजता से बैठते थे कि लगता नहीं था...कार्यक्रम कर रहे हैं। बस बैठते और शुरू हो जाते। और हम देखते रह जाते। एक तरह से उन्हें देखकर प्रसारण की कुछ बारीकियां सीखने मिली हैं।
मुंबई में 'परिवार काव्योत्सव' में कैलाश जी के आने की ख़बर मिली तो भागी-भागी गयी उन्हें सुनने के लिए। मरीन लाइंस के उस सभागार में अन्य कवियों की मौजूदगी के बावजूद भीड़ जैसे ही एक ही मक़सद लेकर आई थी। कैलाश गौतम को सुनने की। ज़ाहिर है उन्हें लगभग अन्त में बुलाया गया। और फिर 'बड़की भौजी' और 'अमावस्या का मेला' ने धूम मचा दी। ये भी याद आता है कि मुंबई से एक बार उनसे फोन पर बातें हुईं और उन्होंने कहा था कि अगली बार इलाहाबाद आओ, तो ज़रूर मिलो। लेकिन मेरा दुर्भाग्य...वो मौक़ा आ ही ना सका।
जब 'जादू' आने वाले थे--तो इलाहाबाद से डॉक्टर-भैया ने यश मालवीय जी के सौजन्य से कैलाश गौतम की एक सी.डी. भेजी थी। जो उन मुश्किल भरे दिनों में बहुत सुनी थी।
जब भी 'अमावस्या का मेला' सुनती हूं...इलाहाबाद...बचपन...कैलाश भैया और एक साथ कई दृश्य आंखों के सामने आ जाते हैं। आज 'मौनी-अमावस्या' के अवसर पर इस अनमोल-रचना को साझा करने से खुद को रोक नहीं पाई। अगर आप इलाहाबाद में हैं तो जाईये मेले में हो आईये। और अगर इलाहाबाद से दूर हैं--तो इसे सुनिए और हो आईये। डॉक्टर-भैया का धन्यवाद इस सीडी के लिए।
kavita: amavasya ka mela
by: kailash gautam
duration: 7 56
courtesy: yash malviya.
ई भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा
धरम में करम में सनल गाँव देखा
अगल में बगल में सगल गाँव देखा
अमवसा नहाये चलल गाँव देखा॥
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा
अ कान्ही पे बोरी, कपारे पे बोरा
अ कमरी में केहू, रजाई में केहू
अ कथरी में केहू, दुलाई में केहू
अ आजी रंगावत हईं गोड़ देखा
हँसत हउवैं बब्बा तनी जोड़ देखा
घुँघुटवै से पूँछै पतोहिया कि अइया
गठरिया में अबका रखाई बतइहा
एहर हउवै लुग्गा ओहर हउवै पूड़ी
रमायन के लग्गे हौ मड़ुआ के ढूँढ़ी
ऊ चाउर अ चिउरा किनारे के ओरी
अ नयका चपलवा अचारे के ओरी
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
मचल हउवै हल्ला चढ़ावा उतारा
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री-गुर्रा ओहर लोली-लोला
अ बिच्चे में हउवै सराफत से बोला
चपायल हौ केहू, दबायल हौ केहू
अ घंटन से उप्पर टंगायल हौ केहू
केहू हक्का-बक्का केहू लाल-पीयर
केहू फनफनात हउवै कीरा के नीयर
अ बप्पारे बप्पा, अ दइया रे दइया
तनी हमैं आगे बढ़ै देत्या भइया
मगर केहू दर से टसकले न टसकै
टसकले न टसकै, मसकले न मसकै
छिड़ल हौ हिताई नताई क चरचा
पढ़ाई लिखाई कमाई क चरचा
दरोगा क बदली करावत हौ केहू
अ लग्गी से पानी पियावत हौ केहू
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
जेहर देखा ओहरैं बढ़त हउवै मेला
अ सरगे क सीढ़ी चढ़त हउवै मेला
बड़ी हउवै साँसत न कहले कहाला
मूड़ैमूड़ सगरों न गिनले गिनाला
एही भीड़ में संत गिरहस्त देखा
सबै अपने अपने में हौ ब्यस्त देखा
अ टाई में केहू, टोपी में केहू
अ झूँसी में केहू, अलोपी में केहू
अखाड़न क संगत अ रंगत ई देखा
बिछल हौ हजारन क पंगत ई देखा
कहीं रासलीला कहीं परबचन हौ
कहीं गोष्ठी हौ कहीं पर भजन हौ
केहू बुढ़िया माई के कोरा उठावै
अ तिरबेनी मइया में गोता लगावै
कलपबास में घर क चिन्ता लगल हौ
कटल धान खरिहाने वइसै परल हौ
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
गुलब्बन क दुलहिन चलैं धीरे-धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे-तीरे
सजल देह हौ जइसे गौने क डोली
हँसी हौ बताशा शहद हउवै बोली
अ देखैलीं ठोकर बचावैलीं धक्का
मनै मन छोहारा मनै मन मुनक्का
फुटेहरा नियर मुस्किया-मुस्किया के
ऊ देखेलीं मेला सिहा के चिहा के
सबै देवी देवता मनावत चलैंलीं
अ नरियर पे नरियर चढ़ावत चलैलीं
किनारे से देखैं इशारे से बोलैं
कहीं गांठ जोड़ैं कहीं गांठ खोलैं
बड़े मन से मन्दिर में दरसन करैलीं
अ दूधे से शिवजी क अरघा भरैलीं
चढ़ावैं चढ़ावा अ गोठैं शिवाला
छुवल चाहैं पिन्डी लटक नाहीं जाला
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
बहुत दिन पर चम्पा चमेली भेटइलीं
अ बचपन क दूनो सहेली भेंटइलीं
ई आपन सुनावैं ऊ आपन सुनावैं
दूनों आपन गहना गदेला गिनावैं
असों का बनवलू असों का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो न अब तक पठवलू
न ई उन्हैं रोकैं न ऊ इन्हैं टोकैं
दूनौ अपने दुलहा क तारीफ झोकैं
हमैं अपनी सासू क पुतरी तू जान्या
अ हम्मैं ससुर जी क पगरी तू जान्या
शहरियों में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवै टेम्पो चलत हउवै चक्की
मनैमन जरै अ गड़ै लगलीं दूनों
भयल तू-तू मैं-मैं लड़ै लगली दूनों
अ साधू छोड़ावैं सिपाही छोड़ावै
अ हलुवाई जइसे कराही छोड़ावैं
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
कलौता क माई क झोरा हेरायल
अ बुद्धू क बड़का कटोरा हेरायल
टिकुलिया क माई टिकुलिया के जोहै
बिजुलिया क भाई बिजुलिया के जोहै
माचल हउवै मेला में सगरों ढुंढाई
चमेला क बाबू चमेला का माई
गुलबिया सभत्तर निहारत चलैले
मुरहुवा मुरहुवा पुकारत चलैले
अ छोटकी बिटिउवा क मारत चलैले
बिटिउवै पर गुस्सा उतारत चलैले
गोबरधन क सरहज किनारे भेंटइलीं
गोबरधन के संगे पउँड़ के नहइलीं
घरे चलता पाहुन दही-गुड़ खियाइत
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइत
उहैं फेंक गठरी परइलैं गोबरधन
न फिर-फिर देखइलैं धरइलैं गोबरधन
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
केहू शाल सुइटर दुशाला मोलावै
केहू बस अटैची क ताला मोलावै
केहू चायदानी पियाला मोलावै
सोठउरा क केहू मसाला मोलावै
नुमाइस में जातैं बदल गइलीं भउजी
अ भइया से आगे निकल गइलीं भउजी
हिंडोला जब आयल मचल गइलीं भउजी
अ देखतै डरामा उछल गइलीं भउजी
अ भइया बेचारू जोड़त हउवैं खरचा
भुलइले न भूलै पकौड़ी क मरचा
बिहाने कचहरी कचहरी क चिन्ता
बहिनिया क गौना मसहरी क चिन्ता
फटल हउवै कुरता फटल हउवै जूता
खलित्ता में खाली केराया क बूता
तबौ पीछे-पीछे चलत जात हउवन
गदेरी में सुरती मलत जात हउवन
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
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कुंभ चल रहा है, एक बार महाकुंभ नहाने का मौक़ा पा चुकी हूं। उस वक्त गांव धौरहरा में थी। गांव से जो ट्रेन आती थी....वो लगातार भीड़-भभ्भड़ से परिपूर्ण होती थी। मां को भीड़ से घबराहट होती थी। पहले तो वो ट्रेन में चढ़ ही ना पायीं। दूसरे दिन जैसेसिंह -तैसे कोशिश करके भाईयों ने मिलके ट्रेन में तो चढ़ा दिया। बाप रे....दमघोंटू भीड़ का ऐसा आलम...पहले कभी ना देखा था। बहरहाल....आते हैं महाकुंभ और गंगा-स्नान पर। पैदल चलते-चलते हालत ख़राब हो गयी। नन्हें नन्हें पैर बुरी तरह पस्त हो चुके थे। ख़ैर..पानी का आकर्षण भी था और डर भी। नौका में ठुस्सम-ठुस्सा सवार हुए। संगम पहुंचे। पानी में उतार दिया गया। एक तरफ मां ने हाथ पकड़ा, दूसरी तरफ पिता जी ने। उफ....इतना ठंडा पानी कि उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। समझ लीजिए कि करंट-सा लग गया। और उस पर डुबकी पूरे सिर की ही होनी चाहिए। तभी गंगा-स्नान पूरा होता है। जैसे ही मां-पिताजी ने मेरा सिर नहाने के लिए गंगा में डुबोया--एक ज़ोरदार चीख़ निकली। अगल-बगल के लोग हंसने लगे। धीरे-धीरे डर और ठंडक का असर कम हुआ।
बहरहाल...आज याद कर रहे हैं वो दिन। और कैलाश गौतम की वो कविता याद आ रही है--जिसमें उन्होंने जैसे 'अमावस्या के मेले' को उतारकर रख दिया है। कविता नहीं शब्द-चित्र है। शब्द-चित्र नहीं पटकथा है। पटकथा नहीं--सजीव-प्रसारण है। जो कुछ भी है अदभुत है। अनमोल है। अद्वितीय है। चूंकि मेरा ताल्लुक आकाशवाणी इलाहाबाद से रहा है। इसलिए अनगिनत छबियां और यादें हैं कैलाश जी की। बेहद ख़ुशमिज़ाज, हंसमुख व्यक्तित्व। उनमें एक देसीपन नज़र आता था। एक ऐसी आत्मीयता थी उनमें...कि बहुत कम मुलाक़ातों में भी बहुत अज़ीज़ लगते थे। होठों पर हमेशा मुस्कान होती थी।
'कृषि-जगत' कार्यक्रम के 'कैलाश भैया' बड़े 'हंसैया' थे। हमें उनसे बात करते हुए इसलिए डर लगता था क्योंकि वो उम्र में बड़े थे। और बेहद मशहूर भी। माइक्रोफोन के सामने इतनी सहजता से बैठते थे कि लगता नहीं था...कार्यक्रम कर रहे हैं। बस बैठते और शुरू हो जाते। और हम देखते रह जाते। एक तरह से उन्हें देखकर प्रसारण की कुछ बारीकियां सीखने मिली हैं।
मुंबई में 'परिवार काव्योत्सव' में कैलाश जी के आने की ख़बर मिली तो भागी-भागी गयी उन्हें सुनने के लिए। मरीन लाइंस के उस सभागार में अन्य कवियों की मौजूदगी के बावजूद भीड़ जैसे ही एक ही मक़सद लेकर आई थी। कैलाश गौतम को सुनने की। ज़ाहिर है उन्हें लगभग अन्त में बुलाया गया। और फिर 'बड़की भौजी' और 'अमावस्या का मेला' ने धूम मचा दी। ये भी याद आता है कि मुंबई से एक बार उनसे फोन पर बातें हुईं और उन्होंने कहा था कि अगली बार इलाहाबाद आओ, तो ज़रूर मिलो। लेकिन मेरा दुर्भाग्य...वो मौक़ा आ ही ना सका।
जब 'जादू' आने वाले थे--तो इलाहाबाद से डॉक्टर-भैया ने यश मालवीय जी के सौजन्य से कैलाश गौतम की एक सी.डी. भेजी थी। जो उन मुश्किल भरे दिनों में बहुत सुनी थी।
जब भी 'अमावस्या का मेला' सुनती हूं...इलाहाबाद...बचपन...कैलाश भैया और एक साथ कई दृश्य आंखों के सामने आ जाते हैं। आज 'मौनी-अमावस्या' के अवसर पर इस अनमोल-रचना को साझा करने से खुद को रोक नहीं पाई। अगर आप इलाहाबाद में हैं तो जाईये मेले में हो आईये। और अगर इलाहाबाद से दूर हैं--तो इसे सुनिए और हो आईये। डॉक्टर-भैया का धन्यवाद इस सीडी के लिए।
kavita: amavasya ka mela
by: kailash gautam
duration: 7 56
courtesy: yash malviya.
ई भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा
धरम में करम में सनल गाँव देखा
अगल में बगल में सगल गाँव देखा
अमवसा नहाये चलल गाँव देखा॥
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा
अ कान्ही पे बोरी, कपारे पे बोरा
अ कमरी में केहू, रजाई में केहू
अ कथरी में केहू, दुलाई में केहू
अ आजी रंगावत हईं गोड़ देखा
हँसत हउवैं बब्बा तनी जोड़ देखा
घुँघुटवै से पूँछै पतोहिया कि अइया
गठरिया में अबका रखाई बतइहा
एहर हउवै लुग्गा ओहर हउवै पूड़ी
रमायन के लग्गे हौ मड़ुआ के ढूँढ़ी
ऊ चाउर अ चिउरा किनारे के ओरी
अ नयका चपलवा अचारे के ओरी
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
मचल हउवै हल्ला चढ़ावा उतारा
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री-गुर्रा ओहर लोली-लोला
अ बिच्चे में हउवै सराफत से बोला
चपायल हौ केहू, दबायल हौ केहू
अ घंटन से उप्पर टंगायल हौ केहू
केहू हक्का-बक्का केहू लाल-पीयर
केहू फनफनात हउवै कीरा के नीयर
अ बप्पारे बप्पा, अ दइया रे दइया
तनी हमैं आगे बढ़ै देत्या भइया
मगर केहू दर से टसकले न टसकै
टसकले न टसकै, मसकले न मसकै
छिड़ल हौ हिताई नताई क चरचा
पढ़ाई लिखाई कमाई क चरचा
दरोगा क बदली करावत हौ केहू
अ लग्गी से पानी पियावत हौ केहू
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
जेहर देखा ओहरैं बढ़त हउवै मेला
अ सरगे क सीढ़ी चढ़त हउवै मेला
बड़ी हउवै साँसत न कहले कहाला
मूड़ैमूड़ सगरों न गिनले गिनाला
एही भीड़ में संत गिरहस्त देखा
सबै अपने अपने में हौ ब्यस्त देखा
अ टाई में केहू, टोपी में केहू
अ झूँसी में केहू, अलोपी में केहू
अखाड़न क संगत अ रंगत ई देखा
बिछल हौ हजारन क पंगत ई देखा
कहीं रासलीला कहीं परबचन हौ
कहीं गोष्ठी हौ कहीं पर भजन हौ
केहू बुढ़िया माई के कोरा उठावै
अ तिरबेनी मइया में गोता लगावै
कलपबास में घर क चिन्ता लगल हौ
कटल धान खरिहाने वइसै परल हौ
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
गुलब्बन क दुलहिन चलैं धीरे-धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे-तीरे
सजल देह हौ जइसे गौने क डोली
हँसी हौ बताशा शहद हउवै बोली
अ देखैलीं ठोकर बचावैलीं धक्का
मनै मन छोहारा मनै मन मुनक्का
फुटेहरा नियर मुस्किया-मुस्किया के
ऊ देखेलीं मेला सिहा के चिहा के
सबै देवी देवता मनावत चलैंलीं
अ नरियर पे नरियर चढ़ावत चलैलीं
किनारे से देखैं इशारे से बोलैं
कहीं गांठ जोड़ैं कहीं गांठ खोलैं
बड़े मन से मन्दिर में दरसन करैलीं
अ दूधे से शिवजी क अरघा भरैलीं
चढ़ावैं चढ़ावा अ गोठैं शिवाला
छुवल चाहैं पिन्डी लटक नाहीं जाला
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
बहुत दिन पर चम्पा चमेली भेटइलीं
अ बचपन क दूनो सहेली भेंटइलीं
ई आपन सुनावैं ऊ आपन सुनावैं
दूनों आपन गहना गदेला गिनावैं
असों का बनवलू असों का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो न अब तक पठवलू
न ई उन्हैं रोकैं न ऊ इन्हैं टोकैं
दूनौ अपने दुलहा क तारीफ झोकैं
हमैं अपनी सासू क पुतरी तू जान्या
अ हम्मैं ससुर जी क पगरी तू जान्या
शहरियों में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवै टेम्पो चलत हउवै चक्की
मनैमन जरै अ गड़ै लगलीं दूनों
भयल तू-तू मैं-मैं लड़ै लगली दूनों
अ साधू छोड़ावैं सिपाही छोड़ावै
अ हलुवाई जइसे कराही छोड़ावैं
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
कलौता क माई क झोरा हेरायल
अ बुद्धू क बड़का कटोरा हेरायल
टिकुलिया क माई टिकुलिया के जोहै
बिजुलिया क भाई बिजुलिया के जोहै
माचल हउवै मेला में सगरों ढुंढाई
चमेला क बाबू चमेला का माई
गुलबिया सभत्तर निहारत चलैले
मुरहुवा मुरहुवा पुकारत चलैले
अ छोटकी बिटिउवा क मारत चलैले
बिटिउवै पर गुस्सा उतारत चलैले
गोबरधन क सरहज किनारे भेंटइलीं
गोबरधन के संगे पउँड़ के नहइलीं
घरे चलता पाहुन दही-गुड़ खियाइत
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइत
उहैं फेंक गठरी परइलैं गोबरधन
न फिर-फिर देखइलैं धरइलैं गोबरधन
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
केहू शाल सुइटर दुशाला मोलावै
केहू बस अटैची क ताला मोलावै
केहू चायदानी पियाला मोलावै
सोठउरा क केहू मसाला मोलावै
नुमाइस में जातैं बदल गइलीं भउजी
अ भइया से आगे निकल गइलीं भउजी
हिंडोला जब आयल मचल गइलीं भउजी
अ देखतै डरामा उछल गइलीं भउजी
अ भइया बेचारू जोड़त हउवैं खरचा
भुलइले न भूलै पकौड़ी क मरचा
बिहाने कचहरी कचहरी क चिन्ता
बहिनिया क गौना मसहरी क चिन्ता
फटल हउवै कुरता फटल हउवै जूता
खलित्ता में खाली केराया क बूता
तबौ पीछे-पीछे चलत जात हउवन
गदेरी में सुरती मलत जात हउवन
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा क मेला॥
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अगर आप चाहते हैं कि 'रेडियोवाणी' की पोस्ट्स आपको नियमित रूप से अपने इनबॉक्स में मिलें, तो दाहिनी तरफ 'रेडियोवाणी की नियमित खुराक' वाले बॉक्स में अपना ईमेल एड्रेस भरें और इनबॉक्स में जाकर वेरीफाई करें।
5 comments:
एक कालजयी उत्सव पर एक कालजयी रचना के माध्यम से कालजयी स्मृतियों का रेडियोसखी जी द्वारा अत्यन्त सुन्दर शब्द-चित्रण !
लेकिन भइया, रेडियोसखी या उनकी पोस्ट कब से अतिथि हो गयीं रेडियोवाणी पर ?
:-)
सुनवाने का आभार..मजा आ गया..
आप ने पुरानी यादों का पिटारा फिर से खोल दिया..... वे रेडियो सुनने के दिन.... जब हम कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता से एक घर के सदस्य जैसे जुड़े होते थे। कैलाश गौतम(इलाहाबाद), हरिराम द्विवेदी (वाराणसी), मोहम्मद सलीम राही (वाराणसी) आदि जो लिखते भी थे और कई कार्यक्रमों के प्रस्तुतकर्ता भी थे, तो पंचदेव पाण्डेय
(वाराणसी, बाद में दिल्ली), श्रीमती वीणा कालिया (वाराणसी), गया प्रसाद शास्त्री (वाराणसी) आदि उद्घोषक हमेशा हमें याद आते रहेंगे।
कैलाश गौतम जी की यह कविता पता नहीं कितनी बार सुनी है, पर हर बार कुछ नई-सी ही लगती है। पूरा चित्र ही प्रस्तुत हो जाता है। जैसे प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानी की तुलना नि:सन्देह कैलाश जी की इन कविताओं से की जा सकती हैं जो एकदम यथार्थ के धरातल पर अपने आस-पास की ही बात दर्शाती हैं....है न!
बहुत उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
सच में पिटारी तो खुल ही गयी। कैलाश जी का स्वर और उनकी यह कविता जादू घोलती है मन-अंतर! बेहतरीन प्रभाव है इस कविता का मन-मस्तिष्क पर। सम्मुख सुना है इसलिए जब भी सुनते हैं लगता है सामने खड़े कैलाश जी अमौसा का मेला सुना रहे हैं।
प्रस्तुति का हृदय से आभार।
खेले मसाने में होरी ...को खोजते खोजते न जाने कब रेडिओ वाणी
पर आ पहुचा ...पूरा खजाना हैं भाई यहाँ तो ...क्या अध्बुध लिखा हैं
कैलाश भैया ने ...साधुवाद इस कविता को हम तक पहुचने के लिए
और यहाँ ज्ञान भैया को पा कर लगा जैसे मेला ( ट्विट्टर) पर
बिछड़े ..यहाँ मिल गए ...जय हो !
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if you want to comment in hindi here is the link for google indic transliteration
http://www.google.com/transliterate/indic/