करना फकीरी फिर क्या दिलगीरी सदा मगन मैं रहना जी: पंडित रविशंकर की याद में 'मीरा' की रचना।
बीते दिनों ‘सितार का सितारा’ अस्त हो गया। पंडित रवि शंकर सितार के महारथी थे और उनके इस फ़न के बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा गया है। लेकिन उनकी शख्सियत का एक और महत्वपूर्ण आयाम है—जिसके बारे में ज्यादा बात नहीं होती। बल्कि कई बार तो इसे नज़र-अंदाज़ ही कर दिया जाता है और वो है फिल्म-संगीत वाला आयाम। बतौर फिल्म-संगीतकार पंडित रविशंकर ने ऐसा काम किया है, जिसे सुनकर हर बार एक नया और निर्मल-आनंद प्राप्त होता है।
सबसे पहले पंडित रविशंकर ने सत्यजीत रे की फिल्म ‘पथेर-पांचाली’ में संगीत दिया था। ये शायद सन 1954-55 की बात है। ये तो हम सभी जानते हैं कि सत्यजीत रे को ‘पथेर-पांचाली’ को बनाने में कितना संघर्ष करना पड़ा था। कोई पैसा लगाने को राज़ी नहीं था। बहुत कम ख़र्च में फिल्म तैयार की गयी थी। जब मानिक दा (सत्यजीत रे को उनके क़रीबी इसी नाम से पुकारते थे) ने पंडित रविशंकर से अनुरोध किया तो वो संगीत देने के लिए राज़ी हो गये। और कहते हैं कि केवल दो दिनों में उन्होंने सारी संगीत-रचनाएं तैयार कीं और आनन-फानन उन्हें रिकॉर्ड किया गया। तब शायद पंडित रविशंकर और ख़ुद सत्यजीत रे को भी अंदाज़ा नहीं होगा कि इतनी हड़बड़ी में तैयार किया जा रहा ये संगीत ‘कल्ट’ बन जायेगा। इसे हर बार सुनकर एक नयी कैफियत होती है। दिलचस्प बात ये है कि ‘पथेर पांचाली’ का थीम-म्यूजिक और बाक़ी टुकड़े बाक़ायदा यू-ट्यूब पर उपलब्ध हैं। मुख्य-रूप से सितार, तबले और बांसुरी की तान वाला ये संगीत विश्व-सिनेमा की एक नायाब धरोहर माना जाता है। इस थीम-म्यूजिक के आखिर में बांसुरी की जो विकल-तान आती है...उससे एक भावभूमि तैयार हो जाती है...कि अब हम संवेदनाओं के एक सतरंगी समुद्र में ग़ोता लगाने वाले हैं।
सत्यजीत रे की ‘अपू त्रयी’ श्रृंखला की तीनों फिल्मों में पंडित रविशंकर ने संगीत दिया। सन 1956 में आयी ‘अपराजितो’ और सन 1959 में आयी ‘अपूर-संसार’। ‘अपराजितो’ का थीम-म्यूजिक बांसुरी और सितार के गाढ़े सुरों से शुरू होता है...और फिर कबूतरों वाला प्रसिद्ध दृश्य आता है...। ‘अपूर-संसार’ के आरंभ के लिए भी पंडित जी ने सुंदर धुन रची थी। धुनों को शब्दों में कैसे समझाया जाये। आप मौक़ा लगते ही इन तीनों फिल्मों को देखें और दृश्यों के पीछे रचे-बसे संगीत पर ग़ौर करें। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि पंडित रविशंकर और सलिल चौधरी ने भारत में सिनेमा के पार्श्वसंगीत को नई परिभाषा दी और उसे एक गंभीर विधा के रूप में स्थापित किया। वरना ये समझा जाता था कि दृश्यों के पीछे कोई संगीत भर दिया जाये...बस वही है बैक-ग्राउंड स्कोर।
हिंदी में सबसे पहले पंडित रविशंकर ने सन 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ‘धरती के लाल’ का संगीत दिया था। इसके बाद चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ में भी उनका संगीत था। इस फिल्म का एक गीत ‘हम रूकेंगे भी नहीं’ सुनिए...ये बाक़ायदा इप्टा का जनगीत लगता है। ऐसा ही एक और गाना था इस फिल्म में—‘उठो कि हमें वक्त की गर्दिश ने पुकारा'। यहां ये जिक्र ज़रूरी है कि पंडित रविशंकर इप्टा की संगीत-टोली के संस्थापकों में से एक रहे। और ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ की जो धुन उन्होंने तैयार की—उसे ही हम गाते हैं। इसके अलावा एक जिक्र और ज़रूरी है—जिसे लगभग भुला ही दिया जाता है। दूरदर्शन की जो सिग्नेचर ट्यून है—उसे भी पंडित रविशंकर ने तैयार किया था। एक पूरी पीढ़ी की स्मृतियों में वो ट्यून एक मधुर याद की तरह बसी है।
एक और अद्भुत संगीत-रचना पंडित जी के नाम है। जब 1982 में भारत में एशियाई खेलों का आयोजन किया गया तो इसके लिए पंडित रविशंकर ने ‘स्वागतम् अथ स्वागतम’ नामक गीत तैयार किया था।
इसे पंडित नरेंद्र शर्मा ने लिखा था।
इसका एल.पी. भी जारी किया गया था।
इस तरह मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘गोदान’ हिंदी में पंडित रविशंकर की बतौर संगीतकार तीसरी फिल्म थी। और ये शायद बतौर फिल्म-संगीतकार उनका सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काम था। इस फिल्म के लिए पंडित जी गीतकार अनजान के संग बनारस के आसपास के गांवों में भटके थे। हालांकि बनारस का बाशिंदा होने की वजह से ये उनके लिए अनजान-प्रदेश नहीं था। पर जिस तरह शोध के बाद पंडित रविशंकर ने ‘गोदान’ के गीत और उसके कुछ इंस्ट्रूमेन्टल तैयार किये....उसका दूसरा जोड़ नहीं है। ‘गोदान’ में जहां एक तरफ ‘पिपरा के पतवा’, ‘ओ बेदर्दी क्यों तड़पाये’ और ‘होली खेलत नंदलाल’ जैसे खूब जोशीले गीत हैं वहीं दूसरी तरफ है ‘जनम लियो ललना’ और ‘हिया जरत रहत दिन रैन’ जैसे गीत भी हैं। ख़ास जिक्र किया जाना चाहिए फिल्म के टाइटल म्यूजिक और प्ले आउट म्यूजिक का।
इसके अलावा पंडित रविशंकर ने ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘अनुराधा’ में भी संगीत दिया। लता मंगेशकर के गाये इस फिल्म के गाने उनके करियर के कई-कई गीतों पर भारी पड़ते हैं। ‘हाय रे वो दिन क्यों ना आये’, ‘कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियां’, ‘सांवरे’ और सबसे सुंदर गीत—‘जाने कैसे सपनों में खो गयीं अंखियां’...। हम ‘उफ़-उफ़’ करते रह जाते हैं। गुलज़ार की फिल्म ‘मीरा’ में भी पंडित रविशंकर का संगीत था। हालांकि लता जी ने इस फिल्म में गाने से इंकार कर दिया था। इसलिए सारे गीत वाणी जयराम ने गाये और अदभुत गाये। इनमें मुझे सबसे ज्यादा पसंद है—‘करना फकीरी फिर क्या दिलगीरी—सदा मगन मैं रहना जी’। आईये ये गीत सुना जाए।
bhajat: karna fakiri phir kya dilgeeri
singer: vani jairam
lyrics: meera bai
music: Pt. Ravi shankar
film: meera (1979)
duration: 3 17
करना फकीरी फिर क्या दिलगीरी, सदा मगन मैं रहना जी...
कोई दिन गाडी, न कोई दिन बंगला, कोई दिन जंगल बसना जी
कोई दिन हाथी न कोई दिन घोडा, कोई दिन पैदल चलना जी
कोई दिन खाजा न कोई दिन लाडू , कोई दिन फाकमफाका जी
कोई दिन ढोलिया, कोई दिन तलाई, कोई दिन भुईं पर लेटना जी
मीरा कहे प्रभु गिरिधरनागर, आन पड़े सो सहना जी
करना फकीरी।।
फिल्म मीरा के बनने की कहानी गुलज़ार की ज़बानी रेडियोवाणी के दूसरे पन्ने पर यहां पढिए।
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सबसे पहले पंडित रविशंकर ने सत्यजीत रे की फिल्म ‘पथेर-पांचाली’ में संगीत दिया था। ये शायद सन 1954-55 की बात है। ये तो हम सभी जानते हैं कि सत्यजीत रे को ‘पथेर-पांचाली’ को बनाने में कितना संघर्ष करना पड़ा था। कोई पैसा लगाने को राज़ी नहीं था। बहुत कम ख़र्च में फिल्म तैयार की गयी थी। जब मानिक दा (सत्यजीत रे को उनके क़रीबी इसी नाम से पुकारते थे) ने पंडित रविशंकर से अनुरोध किया तो वो संगीत देने के लिए राज़ी हो गये। और कहते हैं कि केवल दो दिनों में उन्होंने सारी संगीत-रचनाएं तैयार कीं और आनन-फानन उन्हें रिकॉर्ड किया गया। तब शायद पंडित रविशंकर और ख़ुद सत्यजीत रे को भी अंदाज़ा नहीं होगा कि इतनी हड़बड़ी में तैयार किया जा रहा ये संगीत ‘कल्ट’ बन जायेगा। इसे हर बार सुनकर एक नयी कैफियत होती है। दिलचस्प बात ये है कि ‘पथेर पांचाली’ का थीम-म्यूजिक और बाक़ी टुकड़े बाक़ायदा यू-ट्यूब पर उपलब्ध हैं। मुख्य-रूप से सितार, तबले और बांसुरी की तान वाला ये संगीत विश्व-सिनेमा की एक नायाब धरोहर माना जाता है। इस थीम-म्यूजिक के आखिर में बांसुरी की जो विकल-तान आती है...उससे एक भावभूमि तैयार हो जाती है...कि अब हम संवेदनाओं के एक सतरंगी समुद्र में ग़ोता लगाने वाले हैं।
सत्यजीत रे की ‘अपू त्रयी’ श्रृंखला की तीनों फिल्मों में पंडित रविशंकर ने संगीत दिया। सन 1956 में आयी ‘अपराजितो’ और सन 1959 में आयी ‘अपूर-संसार’। ‘अपराजितो’ का थीम-म्यूजिक बांसुरी और सितार के गाढ़े सुरों से शुरू होता है...और फिर कबूतरों वाला प्रसिद्ध दृश्य आता है...। ‘अपूर-संसार’ के आरंभ के लिए भी पंडित जी ने सुंदर धुन रची थी। धुनों को शब्दों में कैसे समझाया जाये। आप मौक़ा लगते ही इन तीनों फिल्मों को देखें और दृश्यों के पीछे रचे-बसे संगीत पर ग़ौर करें। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि पंडित रविशंकर और सलिल चौधरी ने भारत में सिनेमा के पार्श्वसंगीत को नई परिभाषा दी और उसे एक गंभीर विधा के रूप में स्थापित किया। वरना ये समझा जाता था कि दृश्यों के पीछे कोई संगीत भर दिया जाये...बस वही है बैक-ग्राउंड स्कोर।
हिंदी में सबसे पहले पंडित रविशंकर ने सन 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ‘धरती के लाल’ का संगीत दिया था। इसके बाद चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ में भी उनका संगीत था। इस फिल्म का एक गीत ‘हम रूकेंगे भी नहीं’ सुनिए...ये बाक़ायदा इप्टा का जनगीत लगता है। ऐसा ही एक और गाना था इस फिल्म में—‘उठो कि हमें वक्त की गर्दिश ने पुकारा'। यहां ये जिक्र ज़रूरी है कि पंडित रविशंकर इप्टा की संगीत-टोली के संस्थापकों में से एक रहे। और ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ की जो धुन उन्होंने तैयार की—उसे ही हम गाते हैं। इसके अलावा एक जिक्र और ज़रूरी है—जिसे लगभग भुला ही दिया जाता है। दूरदर्शन की जो सिग्नेचर ट्यून है—उसे भी पंडित रविशंकर ने तैयार किया था। एक पूरी पीढ़ी की स्मृतियों में वो ट्यून एक मधुर याद की तरह बसी है।
एक और अद्भुत संगीत-रचना पंडित जी के नाम है। जब 1982 में भारत में एशियाई खेलों का आयोजन किया गया तो इसके लिए पंडित रविशंकर ने ‘स्वागतम् अथ स्वागतम’ नामक गीत तैयार किया था।
इसे पंडित नरेंद्र शर्मा ने लिखा था।
इसका एल.पी. भी जारी किया गया था।
इस तरह मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘गोदान’ हिंदी में पंडित रविशंकर की बतौर संगीतकार तीसरी फिल्म थी। और ये शायद बतौर फिल्म-संगीतकार उनका सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काम था। इस फिल्म के लिए पंडित जी गीतकार अनजान के संग बनारस के आसपास के गांवों में भटके थे। हालांकि बनारस का बाशिंदा होने की वजह से ये उनके लिए अनजान-प्रदेश नहीं था। पर जिस तरह शोध के बाद पंडित रविशंकर ने ‘गोदान’ के गीत और उसके कुछ इंस्ट्रूमेन्टल तैयार किये....उसका दूसरा जोड़ नहीं है। ‘गोदान’ में जहां एक तरफ ‘पिपरा के पतवा’, ‘ओ बेदर्दी क्यों तड़पाये’ और ‘होली खेलत नंदलाल’ जैसे खूब जोशीले गीत हैं वहीं दूसरी तरफ है ‘जनम लियो ललना’ और ‘हिया जरत रहत दिन रैन’ जैसे गीत भी हैं। ख़ास जिक्र किया जाना चाहिए फिल्म के टाइटल म्यूजिक और प्ले आउट म्यूजिक का।
इसके अलावा पंडित रविशंकर ने ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘अनुराधा’ में भी संगीत दिया। लता मंगेशकर के गाये इस फिल्म के गाने उनके करियर के कई-कई गीतों पर भारी पड़ते हैं। ‘हाय रे वो दिन क्यों ना आये’, ‘कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियां’, ‘सांवरे’ और सबसे सुंदर गीत—‘जाने कैसे सपनों में खो गयीं अंखियां’...। हम ‘उफ़-उफ़’ करते रह जाते हैं। गुलज़ार की फिल्म ‘मीरा’ में भी पंडित रविशंकर का संगीत था। हालांकि लता जी ने इस फिल्म में गाने से इंकार कर दिया था। इसलिए सारे गीत वाणी जयराम ने गाये और अदभुत गाये। इनमें मुझे सबसे ज्यादा पसंद है—‘करना फकीरी फिर क्या दिलगीरी—सदा मगन मैं रहना जी’। आईये ये गीत सुना जाए।
bhajat: karna fakiri phir kya dilgeeri
singer: vani jairam
lyrics: meera bai
music: Pt. Ravi shankar
film: meera (1979)
duration: 3 17
करना फकीरी फिर क्या दिलगीरी, सदा मगन मैं रहना जी...
कोई दिन गाडी, न कोई दिन बंगला, कोई दिन जंगल बसना जी
कोई दिन हाथी न कोई दिन घोडा, कोई दिन पैदल चलना जी
कोई दिन खाजा न कोई दिन लाडू , कोई दिन फाकमफाका जी
कोई दिन ढोलिया, कोई दिन तलाई, कोई दिन भुईं पर लेटना जी
मीरा कहे प्रभु गिरिधरनागर, आन पड़े सो सहना जी
करना फकीरी।।
फिल्म मीरा के बनने की कहानी गुलज़ार की ज़बानी रेडियोवाणी के दूसरे पन्ने पर यहां पढिए।
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9 comments:
सागर नाहर को समर्पित। उन्हें मीरा की रचनाएं बहुत प्रिय हैं।
बहुत बहुत धन्यवाद यूनुस भाई सा.
मुझे आज तक मिले सबसे सुन्दर उपहारों में से एक है यह पोस्ट। मैं अक्सर अपने मित्रों से कहता हूँ कि मीरा बाई कृष्ण की दीवानी थी और मैं मीरा बाई की रचनाओं का। बड़ी इच्छा है कि मीरा बाई की उन सभी रचनाओं को जो फिल्मों में गाई गई है उन सब के बारे में एक बड़ी सी पोस्ट लिखूं, लेकिन परेशानी यह है कि मैं सिर्फ सुनना जानता हूँ-लिखना नहीं।
हमने मीरा बाई की रचनाओं पर श्रोता बिरादरी में एक थ्रेड भी शुरु किया था जिसमें कई अद्भुद रचनाएं हमें मिली थी।
पण्डित रविशंकर के बारे में इतनी जानकारी मुझे नहीं थी। मुझे तो अब तक यही पता था कि पण्डितजी ने मीरा, गोदान, अनुराधा और बंग्ला की काबुलीवाला में ही संगीत दिया है, और ना ही नीचा नगर के गीत सुने थे। सो सुन्दर जानकारी देने के लिए, गीत सुनवाने के लिए और सम्मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
श्रद्धाँजलि पण्डित जी को।
सच में, सितार का सितारा चला गया।
Shukriya is pyari post ke liye!
पं. रविशंकर जी पर बहुत सी अनछूई जानकारियां मिली, बहुत उपयोगी पोस्ट.
रामराम.
शुरुआती दौर में ही उन्होंने चेन्दरू और बस्तर वाली फिल्म 'एन डी जंगल सागा' में भी संगीत दिया था.
एक अनमोल दस्तावेज़ी पोस्ट.
आभार !
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