संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Sunday, June 6, 2010

'उड़ जायेगा हंस अकेला' :कुमार गंधर्व। अफ़सोस उनकी फ़रमाईश पूरी न हो सकी और वो चली गयीं।

विविध-भारती और रेडियोवाणी दोनों ही प्‍लेटफार्म ऐसे हैं जहां गाने सुनने सुनाने का सिलसिला चलता रहता है। अब तो इसमें फेसबुक भी शामिल हो गया है। ज़ाहिर है कि सोशल-नेटवर्किंग के ज़रिए 'अपनी तरह' के लोग आपको अपने आप ही मिलते रहते हैं।  मुझे ख़ुशी है कि बदलते ज़माने और बढ़ती टेक्‍नॉलॉजी ने गीत-संगीत के शौक़ीनों को क़रीब ला दिया है। 'फेसबुक' पर तो इतने सुर-साथी जुड़ गए हैं कि रोज़ाना ही जाने-अनजाने गानों का कारवां इंतज़ार कर रहा होता है। गीत सुनिए...उनके बारे में लोगों के नज़रिये जानिए। उनके पीछे की कहानियां भी कभी-कभी आपके सामने होती हैं।

लेकिन ये पोस्‍ट मैं 'फेसबुक' का गुणगान करने के लिए नहीं लिख रहा हूं। दरअसल पिछले दिनों एक दुखद घटना हुई है। जिससे मुझे काफी गहरा झटका लगा। दुख पहुंचा। पिछले क़रीब दस वर्षों से ज़्यादा से ये सिलसिला चल रहा है कि मित्रों, परिचितों और श्रोताओं या पाठकों को जो गीत उपलब्‍ध नहीं होते, या जिन्‍हें वे सुनना चाहते हैं और उन्‍हें खोजने की ज़हमत नहीं उठाना चाहते, या उन्‍हें खोज का तरीक़ा नहीं पता, वो मुझसे संपर्क करते हैं। और अमूमन मैं उनकी फ़रमाईशें किसी ना किसी माध्‍यम से पूरी करता हूं। चाहे लिंक भेजकर, चाहे खोजने का तरीक़ा बताकर या फिर मेल पर।

फेसबुक पर फ़रवरी के महीने में एक संदेश आया--'मैं फलां व्‍यक्ति के लगाए 'काला आदमी' के  मुकेश वाले गाने पर आपकी टिप्‍पणी देख रहा था, ग़लती से ‘friend request’ चली गयी। ये
दीपक सबनीस थे। जो कभी आई-आई-टी में थे। और फिर सेन-फ्रांसिस्‍को चले गए। आगे चलकर दीपक जी भी 'सुर-साथी' बन गए। और अकसर गानों के ज़रिए और गानों पर फेसबुक पर हमारी बातें होने लगीं।


26 अप्रैल को दीपक जी का एक संदेश फेसबुक पर ही आया। जो कमोबेश ऐसा था:- 
मैं पंडित कुमार गंधर्व का एक भजन खोज रहा हूं। जो आकाशवाणी पर 'सबरंग' कार्यक्रम में काफी बजता था। बोल हैं--'आज मुझे रघुवर की सुध आई, आगे-आगे राम चलत हैं, पीछे लछमन भाई'। ये गाना मुझे अपनी मां के लिए चाहिए। जो 86 बरस से ऊपर की हो गयी हैं और स्‍वयं पानी भी नहीं ले सकतीं। और अपने जीवन के अंतिम दिन बिता रही हैं। उन्‍होंने तीन बरस पहले मुझसे ये गीत सुनवाने को कहा था। मैंने तमाम व्‍यावसायिक-स्‍त्रोतों में खोजा, कुमार जी की उपलब्‍ध सी.डी.देखीं पर ये रचना कहीं नहीं मिली। कृपया मेरी मदद करें। मैं चाहता हूं कि उनके जाने से पहले उनकी ये इच्‍छा पूरी कर सकूं।

ज़ाहिर है कि मांग बड़ी genuine थी। मैंने स्‍वयं खोजा। जब बात नहीं बनी तो मैंने कुमार गंधर्व की बेटी कोमकली को संदेश पहुंचवाया, भाई संजय पटेल के ज़रिए। उनका भी संदेश आ गया। उन्‍होंने बताया कि ये भजन व्‍यावसायिक रूप से रिलीज़ नहीं हुआ । जब ये बात दीपक जी को बताई गई तो उन्‍होंने बताया कि आकाशवणी इंदौर से पचास के दशक के उत्‍तरार्द्ध में और साठ के दशक की शुरूआत में बहुत बजा करता था। इंदौर में ख़बर भेजी गयी ताकि ये भजन खोजा जा सके। कुमार गंधर्व के तो हम भी शैदाई हैं और रेडियोवाणी की कुछ पोस्‍टों के ज़रिए अपने मन की बात कह चुके हैं।  

इंदौर में अभी इस भजन को खोजा ही जा रहा था कि दीपक सबनीस का ये मेल आया--और हमारा दिल बैठ गया:-



कोशिश करने के लिए आपका शुक्रिया। लेकिन अब इस भजन की ज़रूरत नहीं रही। 2 जून को मां का स्‍वर्गवास हो गया। मैं भाग्‍यशाली हूं कि मुझे ऐसी मां मिलीं। आज जो कुछ हूं उन्‍हीं की वजह से हूं। उन्‍होंने हमें शिक्षा का महत्‍व समझाया। और क्‍यों ना समझातीं। वो ऐसे समय में बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एम.ए.थीं जब सर्वपल्‍ली राधाकृष्‍णन वहां के कुलपति हुआ करते थे। ये सन 1948 की बात है। उस दौर में बहुत कम महिलाओं में इतना साहस होता था कि वो घर छोड़कर हॉस्‍टल में रहें और उच्‍च शिक्षा लें जबकि तब तो बहुत कम पुरूष भी ऐसा कर पाते थे। मुझे पूरा विश्‍वास है कि अब मां जहां हैं वहां मेरी किसी भी मदद के बिना वो भजन सुन सकती हैं। आपने प्रयास किया, ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। बहुत शुक्रिया।

सच मानिए जीवन में इतने अफ़सोस के पल शायद ही कभी आए हैं। मैंने हमेशा प्रयास किया है कि बुजुर्गों की विकल और मासूम फरमाईशों को फौरन से पेशतर पूरा किया जाए। रेडियो पर भी कई बार फोन-इन कार्यक्रमों में बुजुर्गों से बातें हुईं और उन्‍होंने ऐसे गाने सुनने चाहे, जिनके हमने बोल भी नहीं सुने थे। पर उन्‍हें किसी तरह खोजा, निकाला और बजाया। लेकिन कुमार गंधर्व का ये भजन ना मिल पाने का अफ़सोस जीवन भर रहेगा। ये एक ऐसी टीस है जो रह-रहकर चुभती रहेगी। एक ऐसा ज़ख़्म है जो कभी भर नहीं सकेगा। मैंने दीपक जी से उनके मेल को सार्वजनिक करने की अनुमति मांगी तो उन्‍होंने लिखा---


आप अफ़सोस मत कीजिए। आपने प्रयास किया था ना, बस। कभी-कभी हम जो चाहते हैं वो हमें हासिल नहीं हो पाता। अपने अंतिम क्षणों में मां बहुत शांत थीं। उनके चेहरे पर कोई दर्द या चिंता नहीं थी। इंदौर के कुछ निवासी जो मेरी पीढ़ी के हैं (इस बरस मैं साठ का हो जाऊंगा) वो मां के शिष्‍य रह चुके हैं। कई सालों तक वो हाई-स्‍कूल के छात्रों को अंग्रेज़ी पढ़ाती रहीं। इनमें से ज्‍यादातर वर्ष उन्‍होंने 'अहिल्‍याश्रम' में बिताए। जो लड़कियों का एक बहुत पुराना स्‍कूल है। उनकी पढ़ाई का सबसे ज्‍यादा फायदा संभवत: हम तीनों को हुआ ( मैं मेरे भाई और मेरी बहन को)। उनकी पढ़ाई और उनके प्रेम ने ही मुझे और मेरे छोटे भाई को IIT बंबई पहुंचाया। जबकि इंदौर में JEE की कोई कोचिंग-क्‍लास नहीं होती थी। और मेरी बहन इंदौर मेडिकल कॉलेज से डॉक्‍टर बनी। और आज इंदौर की सम्‍मानित स्‍त्री रोग विशेषज्ञ है।

ईश्‍वर मां की आत्‍मा को शांति दे।


यक़ीन मानिए अब जब भी कुमार गंधर्व को सुनूंगा तो ये पीड़ा उभर आएगी।
आज हम रेडियोवाणी पर कुमार जी की एक रचना 'उन्‍हें' समर्पित कर रहे हैं।

Bhajan: ud jayega hans akela
Singer: kumar gandharva
duration: 6:13
rachna: kabeer.



एक और प्‍लेयर ताकि सनद रहे।





डाउनलोड लिंक

उड़ जायेगा उड़ जायेगा 
उड़ जायेगा हंस अकेला
जग दर्शन का मेला 
जैसे पात गिरे तरुवर पे 
मिलना बहुत दुहेला
ना जाने किधर गिरेगा 
ना जानूं किधर गिरेगा
गगया पवन का रेला 
जब होवे उमर पूरी 
जब छूटे गा हुकुम हुज़ूरी
यम् के दूत बड़े मज़बूत 
यम् से पडा झमेला 
दास कबीर हर के गुण गावे 
वाह हर को पारण पावे 
गुरु की करनी गुरु जायेगा 
चेले की करनी चेला
 

ये इबारत यहां से। यहां इसका अंग्रेजी़ अनुवाद भी ज़रूर देखें।

निवेदन-''आज मुझे रघुवर की सुध आई'' कुमार जी की आवाज़ में ये रचना अगर आपके पास है तो कृपया हमसे संपर्क करें। 


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20 comments:

Arvind Mishra June 6, 2010 at 3:00 PM  

युनुस भाई आप सचमुच एक सार्थक जिन्दगी जी रहे हैं -आप जैसे ब्लॉग साथी पर गर्व है मुझे !

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल June 6, 2010 at 4:17 PM  

यूनुस भाई,
आप की मानवीयता को नमन करता हूं, बस.

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून June 6, 2010 at 5:34 PM  

सुंदर. डाउनलोड लिंक के लिए भी आभार.

डॉ. अजीत कुमार June 6, 2010 at 5:49 PM  

हमारी दादी जी के मुख मंडल पर कम से कम ये संतोष तो झलक रहा था की कोई इतनी व्यग्रता से उनके इस भजन को खोजने की कोशिश तो कर रहा है.ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे...

कंचन सिंह चौहान June 6, 2010 at 9:34 PM  

ऐसी माँ हर संतान के लिये गर्व का कारण होती हैं।

उन्हें प्रणाम....!

एक गीत और याद आ रहा है

जिंदगी में हज़ारों का मेला जुड़ा,
हंस जब भी उड़ा तब अकेला उड़ा...

Unknown June 6, 2010 at 10:24 PM  

YUNUS BHAI,
"AAJ MUJHE RAGHUBAR KI SUDH AAYI"
YE GEET TO MERI BOODHI BEHAN BHEE KAIN VARSHON SE SUN NE KI ICHHUK HAIN AUR UNKI TABIYAT BHEE ROZANA BAHUT KHARAB REHTI HAIN,WO CHALNE FIRNE SE BHEE MOHTAZ HAIN,MEERUT MEIN REHTI HAIN,MERE LIYE MAAN SAMAAN HAIN KYUNKI MAIN UNKI SHAADI MEIN SIRF EK VARSH KA THAA,KOSHISH KEEJIYE YE GEET AAPKO JALD SE JALD MIL JAAYE AUR HUM UNHEIN SUNWA PAAYEIN.jain ke sur yatriyon ka main bhee ek sattelite panchhi hoon,JUTHIKA JI KE PROGRAMMA MEIN NAHIN AA PAYA AUR AAPSE MILNE SE VANCHIT REH GAYA
DR.K.K.GOEL

Manish Kumar June 6, 2010 at 10:28 PM  

भजन तो अभी नहीं सुना पर सच में आपने जो प्रयास किया उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की जानी चाहिए।

Anonymous,  June 6, 2010 at 11:00 PM  

मैं तो बचपन में इस भजन को रेडियो पर अक्सर सुना करता था. मुझे नहीं पता था कि ये कुमार गंधर्व जी ने गाया था. इस भजन के बोल बहुत साधारण थे, इसमें भाव तो राम की मां कौशल्या के थे, जिसका परिवार बिखर गया था,

इसे गाया इस तरह से था कि कोई भी इसे भुला नहीं सकता. मेरे दिल के अन्दर पैंतालीस साल बाद भी अन्दर ज़मा बैठा हैं.
इसके बोल थे

आज मुझे रघुबर की सुधि आई, मोहे रघुबर की सुधि आई
आगे आगे राम चलत हैं पीछे लक्षमन भाई
ताके पीछे चलत जानकी,
(ये लाइन याद नहीं है)
मोहे रघुबर की सुधि आई
आज मुझे रघुबर की सुधि आई, मोहे रघुबर की सुधि आई

राम बिना मेरी सूनी रे अयोध्या, लक्षमन बिनु ठकुराई
सिया बिना मेरी सूनी रसोई
अकथ कही ना जाई
मोहे रघुबर की सुधि आई
आज मुझे रघुबर की सुधि आई, मोहे रघुबर की सुधि आई


मैंने भी इसे खोजने की कोशिश की, लेकिन कहीं नहीं मिला

Yunus Khan June 7, 2010 at 11:16 AM  

आज पोस्‍ट चेक करने पर पता चला कि गूगल-क्रोम पर दोनों ही प्‍लेयर नज़र नहीं आ रहे हैं। कृपया एक्‍स्‍प्‍लोरर और फायरफॉक्‍स पर देखें।

Dr. kedar June 7, 2010 at 11:47 PM  

yunusji.... aapki maanavta ko pranaam.... sahi maayne me aap ek "param mitra" hai.... i m trying my level best to get "aaj mujhe..." yah sundar post ke liye dhanyawaad...

Yunus Khan June 8, 2010 at 10:30 PM  

प्रिय मित्रो, इस पोस्‍ट को पढ़ने के बाद विकास ज़ुत्‍शी ने अपने मित्रों प्रदीप प्रभु और क्षितिज माथुर के सहयोग से ये भजन उपलब्‍ध करवा दिया है। हालांकि दीपक जी की 'अम्‍मां' संसार से चली गयीं। पर वे जहां कहीं भी हैं इन सभी को आशीष रही होंगी। इसमें जिसने भी सहयोग किया सबको हृदय से धन्‍यवाद।

Unknown June 8, 2010 at 10:37 PM  

YUNUS JI,PLEASE YE BHAJAN JALDI POST KEEJIYE NA
DR.K.K.GOEL

Yunus Khan June 9, 2010 at 5:51 PM  

http://pprabhu.com/empithree/KumarGandharv_RaghubarKiSudh.mp3

Unknown June 9, 2010 at 8:35 PM  

YUNUS BHAI,
BAHUT BAHUT DHANYAWAAD
AB MAIN JALDI SE IS DURLABH BHAJAN KO APNI JIJI KO SUNWANE KE LIYE MEERUT JAUNGA.WO KESARIYA BALMA BHI SUN NA CHAHTI HAIN LEKIN WADALI BANDUON KI AWAAZ MEIN,AGAR SAMBHAV HO TO WO BHI UPLOAD KEEJIYEGA
DOBARA SHUKRIYA SAHIT
DR.K.K.GOEL

vikas zutshi June 10, 2010 at 2:11 PM  

गीत को यहाँ देखकर बहुत खुशी हुई..युनुस जी हो सके तो पोस्ट को edit कर इस गीत को UPLOAD कर दीजिये जिससे पोस्ट पढ़ने वालों को भी गीत का पता चल सके... कई बार लोग COMMENTS पढ़ना पसंद नहीं करते और ऐसे ही आगे बढ़ जाते हैं..पोस्ट के साथ गीत को लगाने से शायद वो भी इस बेहतरीन भजन का आनंद ले सकें

WWW.VIKASZUTSHISN.BLOGSPOT.COM

sanjay patel June 12, 2010 at 10:20 PM  

अफ़सोस युनूस भाई कि दीपकजी की वालदैन न रहीं.ज़िन्दगी में कई बार ऐसा कुछ होता है जो हमें कहीं भीतर तक हिला देता है. इस प्रकरण में भी कुछ ऐसी ही प्रतीती हुई. मुझे ख़ुद ज़ाती तौर पर दीपकजी की मदद न कर पाने का अफ़सोस है. ख़ुद मेरी ज़िन्दगी में भी कुछ ऐसा ही घटा था. मरहूम दादा अनन्य कृष्ण भक्त थे. ख़ूब बढ़िया गाते,तबला बजाते और बेहतरीन कवि भी थे. सबके लिये दौड़ता रहता हूँ. सन 1998 में वे गुज़रे तब तक हर दिन बस सोचता रहा उनकी आवाज़ में कुछ रचनाएँ रेकॉर्ड कर लूँ. हमेशा उनसे चर्चा करता और फ़िर भिड़ जाता निन्यानवे के फ़ेर में.एक बार पूरा प्लान तय हो गया...लिस्ट बन गई कौन कौन सी रचनाएँ रेकॉर्ड करनी है..कौन से साज़िन्दों को साथ लेना है...लेकिन उसके चंद रोज़ बाद ही दादाजी जिन्हें हम सब बापूजी कहते थे चल गुज़रे....अब जब भी इस तरह के वाक़ये पेश आते हैं कि हम बुज़ुर्गों के लिये कुछ न कर सके तो एक विचित्र तरह की ग्लानि और अपराध बोध से घिर जाता हूँ...कभी कभी महसूस भी करता हूँ कि हम भारतीय लोग कुछ अजीब तरह की बेफ़िक्रि में रहते हैं और दस्तावेज़ीकरण के मामले में कुछ कमज़ोर ही हैं....जब कुछ विपरीत घट जाता है तब श्रेय लूटते हैं कि हमने इतना परिश्रम करके यह सामग्री जुटाई है. वक़्त रहते ये सब कर लिया करें को कितना अच्छा हो. जाने वालों के पीछे न केवल यादें रह जातीं हैं बल्कि ये दु:खद अनुभूतियाँ भी कि काश हम ये कर पाते.यदि दीपकजी इजाज़त दें तो उनकी अग्रजा का नाम बताइयेगा; शायद मेरा उनके कोई परिचय निकल आए....

Anonymous,  June 25, 2010 at 1:23 PM  

Yunusji,

My sincere thanks to Mr Pradeep Prabhu and Mr Kshitij Mathur for making the song available. Just playing it over and over in the quiet night has been very soothing...

Deepak

S.M.Masoom June 26, 2010 at 7:14 AM  

मां निस्वार्थ प्रेम की सबसे बेहतर मिसाल है.

मौत की आगोश में जब थक के सो जाती हैं माँ
तब कही जाकर सुकू थोडा सा पा जाती हैं मां

फ़िक्र में बच्चों की कुछ इस तरह घुल जाती है माँ ।
नौजवान होते हुए बूढी नज़र आती है माँ ॥
http://aqyouth.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html

दिलीप कवठेकर June 28, 2010 at 12:44 AM  

यूनुस भाई,

जीवन में ऐसे क्षणों के कारण हम मानवीयता का छुपा हुआ पहलु देख पाते हैं.

संजयभाई सच कहते हैं, हम भारतीय दस्तावे्ज़ीकरण में बडे ही बेफ़िकर रहते हैं. उनका इशारा भी समझ गया हूं.

ganand July 5, 2010 at 1:47 PM  

बहुत दिनों बाद रेडियोवाणी पर आया ...ये पोस्ट दिल को छू गयी.. दीपक जी के माँ को भगवान शांति दे ..

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http://www.google.com/transliterate/indic/

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