मंज़ूर सेठ, सुरैया, नूरजहां और वो पुरानी हवेली।।
रेडियोवाणी पर अमूमन हम एक गाना सुनवाते हैं और बातें उससे जुड़ी होती हैं। ये पोस्ट हमारे रोज़मर्रा के सांचे से अलग है। यहां बीते वक्त का एक मार्मिक किस्सा है, जिसमें समाए हैं कुछ गाने। सोचा ये था कि बिना गानों वाली पोस्ट होगी पर आखिर में हम एक गाना सुनवाने का मोह-संवरण नहीं कर सके हैं।
--यूनुस ख़ान
अनवर ख़ां मेहबूब कंपनी। जबलपुर के बीड़ी के बेहद कामयाब व्यापारी। एक शानदार और सुनहर वक्त देखा है इस परिवार ने। शानदार हवेलियां। शिकार पर जाना। मुंबई फिल्म-जगत की कुछ नामचीन हस्तियों की मेज़बानी। देश-भर में फैला लंबा-चौड़ा कारोबार। शौकीन ख़ानदान था ये।
वक्त बीतता चला गया और ख़ानदानी शानो-शौकत धीरे-धीरे फीकी पड़ती चली गई। अगली पीढियों ने ख़ानदान की विरासत को ना तो आगे बढ़ाया और ना ही संभाला-संजोया। हवेलियों को बेचने और किराए पर देने के दिन आ गए। पुरानी पीढियां बदलाव के सामने ख़ुद को बेबस पाकर भीतर ही भीतर घुटती रहीं। ऐसे ही दौर में हम जबलपुर पहुंचे थे। पापा को डिपार्टमेन्ट की ओर से घर मिलने में देर थी। किसी कनेक्शन के ज़रिए हमें अनवर ख़ां मेहबूब कंपनी की एक हवेली की ऊपरी मंजिल किराए पर मिल गई। इस ख़ानदान को क़रीब से तभी देखा।
मुस्लिमों की हवेलियां एक ख़ास तरह की होती हैं। सफेद रंग, मुग़लिया-शैली की मेहराबें। बड़े-बड़े आईने। मुहल्लों का पुरानापन। कबूतरों का डेरा। दीवारों की दरारों में पैर पसारता पीपल। पारिवारिक-मतभेदों की वजह से तालाबंद दरवाज़े। हवेलियों का विभाजित हो जाना। गैरेज में कवर के भीतर छिपी पुराने ज़माने की एंटीक ‘कार’। मोटर-सायकिलें। सुस्त और उनींदे नौकर। इस ताम-झाम के बीच रहते हैं मंज़ूर सेठ। उम्र बढ़ गयी, तकरीबन पैंसठ-सत्तर मोहर्रम आंखों के सामने बीत गए। पर ये पुराने-वक्तों में ठहरे हुए हैं। दुष्यंत कुमार ने कहा है ना—
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है।
मंज़ूर सेठ ऐसे ही रोशनदान हैं, जिनकी इस घर को ज़रूरत ना रही। पीढियां बदल गयीं। ख़ानदान के स्कूली बच्चे नए फैशन, घूमना और प्यार-मुहब्बत के चक्करों में मगन हो चुके हैं। बिज़नेस सिमट गया है और उसकी परवाह ना बड़ों को है ना बच्चों को। पुरानी हवेलियों के किराए से गुज़र-बसर ही नहीं बल्कि ऐश हो रहे हैं।
ऐसे ही बदलाव भरे दिनों में हम वहां रहने पहुंचे और ठीक इसी बीच मैं विविध-भारती में ज्वाइन करने आ गया। लौटा तो मंज़ूर सेठ को लगा कि मैं वो बंदा हूं जिससे वो बात कर सकते हैं। साफ़ और सीधी बात कहूं तो उन्हें लगा कि मैं ही वो बंदा हूं जो ‘शायद’ उनकी बातें सुन और समझ सकता है। बुलावा भेजा गया। हैरत हुई। क्योंकि मेरा उनसे ‘दुआ-सलाम’ वाला औपचारिक-सा ही रिश्ता था।
बहरहाल...मंज़ूर भाई ने बंबई का जिक्र फ़ौरन छेड़ा। कहने लगे कि एक ज़माने में उनका आना जाना था बंबई में। पृथ्वीराज कपूर से परिचय था। वो इस हवेली में आ चुके हैं। तब जब जबलपुर वो अपना नाटक लेकर आए थे। उन्हीं ने बताया कि राज (कपूर) की शादी भी जबलपुर की लड़की (कृष्णा मल्होत्रा) से हुई थी। पृथ्वीराज कपूर से उन्होंने कहा था कि हमारे साथ शिकार पर चलो।
मंज़ूर सेठ बता रहे हैं--'बेटा एक वक्त हमारा भी था। बड़े शौक़ थे हमारे। गाडियों के। फिल्मों के। और जबलपुर में पहला ग्रामोफोन भी हमारे यहां ही आया था। जिस पर हम नूरजहां, सुरैया और पुराने गवैयों के गाने सुनते थे। विदेश से लाए गए और इस वक्त ख़राब पड़े फ़ानूस के ठीक नीचे हम बैठे हैं। टीक-की काले रंग की पुरानी गोल-मेज़, जिसे मंज़ूर सेठ बजा रहे हैं और यूं बजा रहे हैं जैसे डफ़ बज रहा हो। मंज़ूर सेठ का बुढ़ापे से लाचार गला, उखड़ती सांसें और विकल आवाज़---वो बता रहे हैं कि सन छियालीस में बंटवारे से पहले आई फिल्म का गाना सुना रहा हूं बेटा। तुम्हारे वालिद भी तब पैदा नहीं हुए होंगे। 'आवाज़ दे कहां है--दुनिया मेरी जवां है'। किस्मत पे छा रही है क्यूं रात की सियाही/ वीरान है मेरी नींदें तारों से ले गवाही/ बरबाद मैं यहां हूं आबाद तू कहां है/ दुनिया मेरी जवां है / बरबाद मैं यहां हूं/ आबाद तू कहां है/ बेदर्द आसमां है / दुनिया मेरी जवां है.......'
मैं देख रहा हूं कि गाते-गाते अचानक मंज़ूर सेठ का गला रूंध जाता है...आवाज़ नहीं निकलती और आंखों भीग-भीग जा रही हैं। पर उनके दिल में इतना ग़ुबार है कि वो सारा निकाल देना चाहते हैं। वो बता रहे हैं कि नूरजहां और सुरैया जैसी ख़ूबसूरत गवैया आगे चलकर कोई नहीं हुईं। उन्हें सुरैया की ख़ूबसूरती बेमिसाल लगती है। जैसे आसमान से उतर आई कोई परी। वो कह रहे हैं कि ऊपर वाला ख़ूबसूरत आवाज़ और ख़ूबसूरत जिस्म एक साथ सभी को नहीं देता। बहुत नसीब वालों को देता है। उन्हें नूरजहां का एक और गाना याद आ गया है। कह रहे हैं कि ये 'गांव की गोरी' फिल्म का गाना है। मैं कहता हूं कि ये फिल्म 'विलेज गर्ल' के नाम से ज़्यादा मशहूर है। वो बोल याद करते हैं और टेबल पर थाप देते हुए गा रहे हैं---'किस तरह भूलेगा दिल/ उनका ख्याल आया हुआ/ जा नहीं सकता अभी/ शीशे में बाल आया हुआ/ ओ घटा काली घटा.... अबके बरस तू ना बरस/ मेरे प्रीतम को अभी परदेस है भाया हुआ......।' मंज़ूर सेठ को सब याद है। ये सन पैंतालीस में आया गाना है।
जाने क्या हुआ है। मंज़ूर सेठ की आंखों में धुंआ-सा छा गया है। उनका गला रूंध गया है। वो हांफ रहे हैं। पुराने यादें इस पुरानी हवेली में जुगनू-सी चमक रही हैं। वो ज्यादा से ज्यादा गाने सुना देना चाहते हैं। वो ये जताना चाहते हैं कि उनकी जिंदगी सिर्फ कारोबार में नहीं बीती, उन्होंने अच्छे गानों का बक़ायदा लुत्फ़ लिया है। वो अपनी उम्र के दूसरे बूढ़ों से थोड़े-अलग हैं। कमरे में ज़ाफरान की गहरी ख़ुश्बू फैली है। ख़ूब मेवों से लदे ज़ाफ़रानी-चावल(ज़र्दा) परोसा गया है। उससे भी ज़्यादा गहरी है मंज़ूर सेठ की यादों की ख़ुश्बू। वो फिल्म 'शमा' की याद दिलाते हैं। 'खिलाओ फूल किसी के, किसी चमन में रहो/ जो दिल की राह से गुज़री है वो बहार हो तुम/ धड़कते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम, मुझे क़रार नहीं कि बेक़रार हो तुम...।' वो बता रहे हैं कि इस गाने में निम्मी कितनी ख़ूबसूरत लगी हैं।
सुरैया की आवाज़ को लेकर मंज़ूर सेठ क़सीदे काढ़ रहे हैं। सुरैया की तारीफ़ के अलफ़ाज़ ख़त्म नहीं होते उनके पास। उन्हें अफ़सोस है कि बेचारी सुरैया को जिंदगी भर अकेले रहना पड़ा है। (तब तक सुरैया हयात हैं....और अख़बारों में उनकी कोई ख़बर नहीं आती है, ना ही उर्दू फिल्म मैग्ज़ीन उनका जिक्र करती हैं) मंज़ूर सेठ को सुरैया का सन 1947 का गाना याद आ गया है। इसलिए क्योंकि इस साल मुल्क का बंटवारा हुआ। और जबलपुर ख़ून में रंग गया। कारोबार ठप्प हो गया था। इस साल 'दर्द' का दर्द-भरा गाना आया था। सुना है तुमने। फिर टेबल बज रही है। 'चले दिल की दुनिया को बरबाद करके/ बहुत रोएंगे हम तो तुम्हें याद करके....'
मंज़ूर सेठ उस दौर की तारीफ़ करते नहीं थकते। इस दौरान कई नात और मनक़बत की लाइनें और कुछ शेर भी सुनाए जा चुके हैं। ग़ालिब से लेकर मीर तक का जिक्र हो चुका है। और रेडियो के बारे में मुझसे कौतुहल भरे सवाल पूछे जा चुके हैं। मंज़ूर सेठ का गाना ज़ारी है। उनका कहना है कि उनके ख़रीदे सारे रिकॉर्ड किसी कोठरी में बंद कर दिए गए हैं। ग्रामोफोन की सुई टूट गयी थी, पहले तो मिलती रही, अब कहीं नहीं मिलती। इसलिए उसे कमरे में कोने में सजा दिया गया है। कभी-कभार उस पर जमी धूल साफ कर ली जाती है। पुराने बाजे पर रेडियो सीलोन बजता है। वहां से या तुम्हारी विविध-भारती से गाने सुन लेते हैं। पर नाती-पोते कहते हैं ये क्या लगा रखा है। बंद करवा देते हैं।
मंज़ूर सेठ कहते हैं कुछ भी कहो पुराने गानों की बात ही अलग है। वो भी नूरजहां और सुरैया के। उनका कहना है कि अगर बंटवारे के बाद नूरजहां सरहद पार नहीं जाती...तो 'सबकी' छुट्टी कर देती। मुझे इस 'सबकी' के मायने फौरन समझ में आ गए हैं। मंज़ूर सेठ के ज़ेहन में सुरैया की तस्वीरें तैर रही हैं। रात बहुत हो चुकी है। मैं अपने घर लौट रहा हूं। मंज़ूर सेठ कहते हैं तुम जाओ। अभी हम थोड़ी देर और गायेंगे। मैं सीढियां चढ़ रहा हूं। ऊपर की मंजिल पर ही तो हमारा घर है। एक विकल आवाज़ मेरा पीछा करती है----'तेरा ख़्याल दिल से...भुलाया ना जायेगा/ उल्फत की जिंदगी को मिटाया ना जायेगा।'
मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि ये कोई फिल्मी-सिचुएशन है या असली जिंदगी। कुछ साल बीते। हमारा परिवार वहां से अपने नए ठिकाने पर चला गया। नई बस्ती का हमारा ये अपना घर मंज़ूर सेठ की दुनिया से बहुत दूर है। एक बार मंज़ूर सेठ की खोज-ख़बर ली। पता चला..वो तो कब के अल्लाह को प्यार हो गये। उनकी बसाई दुनिया अब भी उजड़ रही है। हवेलियों की दीवारों पर काई जमी है। उनके आंगनों में बच्चे गर्मियों की दोपहर में क्रिकेट खेलते हैं। उन्हीं की एक हवेली में 'बर्फ' बनती है। 'आईस-फैक्ट्री' बना दी गयी है। पुराना ज़माना और पुरानी शानो-शौक़त पर अब बर्फ जमाई जाती है। हमारे दिल कितने 'ठंडे' हो गये हैं। इनमें जज़्बात की गरमी नहीं रही।
song: tera khayal dil se
singer: suraiya
year: 1949
lyrics: shakeel
music: naushad
duration: 3.03
एक और प्लेयर ताकि सनद रहे।
डाउनलोड लिंक
उल्फ़त की जिंदगी को मिटाया ना जायेगा
मजबूरियों ने छीन मुझसे अगर ज़बां
आंसू कहेंगे दिल के उजड़ने की दास्तां
आंखों से हाल दिल का छिपाया ना जायेगा
उल्फत की जिंदगी को मिटाया ना जायेगा।।
लूटो ना दुनिया वालो, मेरे दिल की तुम ख़ुशी
अच्छी नहीं है हाय, ग़रीबों से दिल्ल्लगी
ये घर उजड़ गया तो बसाया ना जायेगा
उल्फत की जिंदगी को मिटाया ना जायेगा।।
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17 comments:
युनुस भाई,
आंखे नम हैं ये अफ़साना सुनते सुनते....
हम दो पट्टों में पिसे जाते हैं, एक तरफ़ गुमान है कि हमारी पीढी इस आंधी को भी झेल ले जायेगी और दूसरी तरफ़ दिल नम है कि कुछ ऐसे नगीने हम खो देंगे कि जिनकी कीमत कुछ भी करके न चुका पायेंगे...
अपनी पीढी को कटघरें में खडा करें तो सजा तो बाकी पीढियों को भी मिलेगी, हम दागदार दामन के लिये तैयार हैं बशर्ते इन यादों को संजो सकें...
उफ़ इस दर्द से कौन जीता....
सर
जिस हवेली का ज़िक्र अपने किया है वह आज भी है. जबलपुर के हनुमानताल इलाके में यह हवेली है. लेकिन इसके बारे में मैंने थोडा बहुत है सुना था. बहरहाल यह पोस्टिंग एकदम अलग है. इसमें दर्द है, यादें है, यादें ऐसीं जो ता उम्र नहीं भुलाई जा सकती. सुरैयाजी का गाना भी लाजवाब है. सीधे बोल है सीहा संगीत, कोई लाग्लापट नहीं.
poora vaakye ne dard se bhar diya.
लगता है हम सिर्फ 'ओल्ड इज गोल्ड' कहना जानते हैं इसका मतलब नहीं समझते.. महबूब साहब की ये दर्द भारी दास्ताँ पढ़ बहुत दुःख हुआ.. कई सारे गाने पहली बार सुने. आपका आभार युनुस भाई.
वाह-वाह ! अद्भुत !! ये हुआ न असली माल !!!
आपकी कलम वाकई ज़ोरदार है ( किस कम्पनी की इस्तेमाल करते हैं ? )। दशकों बाद महादेवी वर्मा जी के "अतीत के चलचित्र" का मज़ा आ गया ।
हमारे मुँह की दूसरी बातें बकिया लोग यहाँ पहले ही छीन चुके हैं ।
अब चलते-चलते आपकी इस नायाब पोस्ट के लिये हम ख़ुद अपनी पीठ भी थप-थपा ही लें!+++
(+++जो लोग हमारी इस बात का मतलब न समझे हों, वे सन्दर्भ के लिये इसके ठीक पिछली वाली पोस्ट के अख़िरी दो "कमेन्ट्स" पढ़ें। वैसे वहाँ तक जाने की ज़हमत उठाने की ज़रूरत भी नहीं है। नीचे हम ख़ुद ही वहाँ से "कॉपी ऐण्ड पेस्ट" किये दे रहे हैं )
एक वो थे(हनुमान जी)और एक ये हैं-जब तक क्षमता का अहसास न कराया जाए,तब तक कोई काम करते ही नहीं !
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"डाक-साब" said...
अब अगली पोस्ट चार साल पूरे होने पर ही आयेगी क्या ?
माल-मसाला न हो,तो हम फिर से भेजें कुछ ?
May 29, 2010 6:47 PM
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Blogger yunus said...
आपके माल-मसाला भेजने को मना नहीं कर रहे। माल तो हमारे पास भी है। पर जाने क्या हुआ था कि इधर कुछ लिखने का संयोग/हौसला/मन जो भी कह लें...हुआ नहीं था। आज ही नई पोस्ट डाली है।
May 30, 2010 1:10 PM
युनुस जी, अभी तक इस ब्लॉग दुनिया में हजारों-लाखो पोस्ट पढ़े होंगे मैंने, और लोगों को यह कमेन्ट करते देख आश्चर्य होता था कि एक पोस्ट भर से लोग कैसे रो पड़ते हैं..
रो तो मैं अभी भी नहीं रहा हूँ, मगर ग़मगीन जरूर हूँ.. जो बाते कहना चाह रहा था वह नीरज ने पहले ही दुहरा दी है, सो दुबारा कहना मुनासिब नहीं समझ रहा हूँ..
आज गीत सुने बिना ही जा रहा हूँ, डाउनलोड कर लिया है कल सुनूंगा..
युनुस साहब, ये पुरानी यादें बहुत दुख देती हैं लेकिन कुछ लोगों के पास इन यादों के अलावा और कुछ होता ही नहीं है, वो बदनसीब हैं या खुशनसीब?
यादें इंसान का पीछा ताउम्र नहीं छोड़ती। बाकी बहुत पुराने दौर के संगीत का तो हम मजा नहीं ले पाये। काश नूरजहाँ वाकई हिंदुस्तान में ही रहती।
युनुस ।
उस हवेली में मैं भी गया हूं जब तुम वहां रहा करते थे मगर उसका इतिहास मुझे पता नहीं था। मंजूर सेठ की दास्तान सुनकर वो हवेली फिर से आंखों के आगे साकार हो गयी। बहुत अरसे बाद ऐसा अदभुत संस्मरण पढा है। साधुवाद ।
आपकी नियमित पोस्टों से अलग तरह की पोस्ट लगी ये। बहुत शिद्दत से सुनाया है आपने मंजूर सेठ और उनकी हवेली का किस्सा..
युनूस भाई! कमाल कर दिया आपने। गजब की लेखनी चलाई है आपने। जी करता है जैसे कलेजे रूपी कपडे को मरोड या निचोड रहा हो कोई वाकई। अब इसे मंजूर सेठ की दास्तां कहें या अपना भविष्य लेकिन वाकई दिल रो उठता है एेसी पोस्ट को पढकर। शुक्रिया।
संजोने वाली चीजे एक -एक कर खतम हो जाती है .....सिवाय यादों के .....क्यॊ?.......ये सब संजोकर रख नही पाते हम .....
bade hi gaur se padhaa sb kuchh
aankheiN nm haiN
aur
be-lafz hooN ....
God bless !
बहुत दिन बाद इधर आना हुआ....अच्छा लगा...ऐसे किस्से ब्लॉग पर डाल देना ज़रूरी हैं,नहीं तो दफ्न हो जाएंगे...
Yunus Bhai,
Jabalpur ke mahlon ka kissa nihayat hi khubsoorati se draft kiya hai aapne ! saans rok kar padhna pada,hum aapke kayal hue ! bhagwan aapki kabiliyat mein hamesha izafa karte rahen !!
यूँ लगा जैसे एक पूरी फिल्म ही देख ली. दुखांत. मुझे अपने बाऊ जी की याद हो आयी. देहांत के समय उनकी उम्र उन्हत्तर थी. वो भी ऐसी बातें किया करते थे. और एक पीढ़ी तो हमारी भी तैयार है ना कैसेटों वाली. पर ये चालीस-पचास का फ़िल्मी दशक मुझे बहुत रूमानी लगता है. मेरे बाऊ की किशोरावस्था से लेकर जवानी तक के दिन. फिल्मों के लिए उनकी हद दर्जे की दीवानगी.
एक अजीब सी उदासी सी छा गयी है जेहन में. उस पर सुरैया की दर्द भरी आवाज़.
हाँ, 'धड़कते दिल की तमन्ना' मुझे बहुत पसंद है. एक बार में चार-पाँच बार सुन जाती हूँ उसे.
jee bhar aya..is article padne ke baad.. guzra hua zamana laut kke nahi aata..bus unke yaadien rehjati hai...ab ise khushnaseebi samjho ya dard samjho...jo bhi hai usee insaan ko jhelna hoga jisko yaadien mien jeena ho..koi nahi samajh sakta unke vichaaron ko nahi unke jazbaat ko...sab apne apne Dil o Dimaag ke kuch kone mien in yaadon ko paalte hain..bus kisi ko khuredne ki deri hai..sab yaadien ganga ki tarah beh jaate hain..sunne wala bus hairath hi reh jaata hai..
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