नथली से टूटा मोती रे : मन्ना डे का ग़ैर-फि़ल्मी गीत ।।
ये शायद 1986 से 1988 के बीच के किसी साल की बात है । दूरदर्शन के दोपहर के प्रसारण में black and white era के कुछ नायाब गाने दिखाए जाते थे । इसमें कुछ ऐसे गाने हुआ करते थे जो ना हमने कभी देखे थे और ना सुने थे । ऐसे गानों में शामिल थे --मन्ना डे का गाया 'चलता चल' ( फिल्म 'फैशनेबल वाइफ' इसे जल्दी ही हम रेडियोवाणी पर सुनवाएंगे ), मन्ना दा का ही गाया 'रहने को घर दो' ( फिल्म 'बीवी और मकान' ) वग़ैरह ।
यहां पूरी फेहरिस्त दे दें तो अपने मन की बात कब कहें, बताईये आप ।
बहरहाल । ये वो उम्र थी जब हम नौंवी दसवीं या ग्यारहवीं जैसे कक्षाओं में विज्ञान की पढ़ाई से जूझते थे और सोचते थे कि इस 'मुई' पढ़ाई का कोई विकल्प नहीं हो सकता । जैसे कि हम 'गिटार' सीखें पांच साल और फिर जिंदगी भर गिटार बजाकर इज्ज़त से रोज़ी-रोटी कमाएं । हमारे इन ख़यालात को ना सिर्फ़ हमारे दोस्त और घर वाले बल्कि हम ख़ुद भी संदेह और हिकारत की नज़र से देखते थे । कंफूजियाने की उम्र थी ये । और हम अपनी जिंदगी में मन्ना दा (और तलत महमूद ) को 'discover' कर रहे थे । 'भए भंजना' सुनते थे तो जब मन्ना दा 'दरस तेरे मां.....गे ये तेरा पुजारी' की तान छेड़ते....हमारे दिल में एक ख़ला, एक निर्वात, एक वैक्यूम बन जाता था । जब मन्ना दा गाते 'अभी तो हाथ में जाम है' (फिल्म सीता और गीता) और हम बाद में अपनी ही तरंग में इसे गुनगुनाते तो घर वाले हम से रही सही उम्मीद भी छोड़ देते थे । धीरे-धीरे मन्ना डे की हम शैदाई उनके 'usual' गानों से थोड़े दूर आ गए । 'कुछ अलग-कुछ नए' की 'चिरंतन-तलाश' ने हमें कहां-कहां नहीं भटकाया । स्कूल के ज़माने में ही श्रवण हळवे ने 'मधुशाला' की कैसेट दी तब हमें पता चला कि 'बच्चन' की जिस पुस्तक के हम यूं ही 'शैदाई' बन चुके थे, उसकी चुनिंदा रूबाईयों को हमारे प्रिय गायक ने गाया भी है । फिर तो पंडित नरेंद्र शर्मा, बच्चन जी और जयदेव के इस प्रोजेक्ट के तमाम किस्से खोद-खोदकर निकाल लिए हमने ।
'मधुशाला' के बाद बारी थी मन्ना डे के ग़ैर-फिल्मी गीतों की दुनिया में घुसने की । जबलपुर जैसे एकदम सुस्त शहर की एक कैसेट-शॉप में जब display में मन्नादा के ग़ैर-फिल्मी गीतों का 'डबल-कैसेट-अलबम' नज़र आ गया तो अपने 'तंग-जेबख़र्च' के बावजूद उसे ख़रीद लिया । एक नई दुनिया खुली । 'नाच रे मयूरा', 'सावन की रिमझिम में थिरक-थिरक नाचे मयूरपंखी सपने', 'मेरी भी एक मुमताज थी', 'शाम हो जाम हो सुबू भी हो', 'चंद्रमा की चांदनी से भी नरम', 'नथली से टूटा मोती रे', 'ओ रंगरेजवा', 'हैरां हूं ऐ सनम'.......हमारे रिकॉर्डर पर ये कैसेट्स इतनी बार चलीं कि हमारे संस्कारों में समाहित हो गए हैं ये तमाम गीत । मन्ना दा हमारे लिए एक गायक नहीं रहे, वो हमारी जीवन का हिस्सा बन गए । वो इस भयानक, चालबाज़, नकली और बेहद शातिर संसार में हमारे लिए विश्वास की किरण बन गए ।
स्टेज-शोज़ में उन्हें देखना हमारे लिए एक 'दिव्य-अनुभव' बन गया । जब मुंबई के सेंन्ट एंडूज़ हॉल में मन्ना दा कविता कृष्णमूर्ति के साथ 'तू छिपी है कहां मैं तड़पता यहां' गा रहे थे तो यूं लग रहा था कि एक जुनूनी बुजुर्ग उम्र और गले की थकन को मात देने की ईमानदार कोशिश कर रहा है । पुराने ज़माने के किस्से उनसे सुनना भी एक 'दिव्य' अनुभव होता है । मुझे मुंबई में उनके घर पर उनसे मिलने का भी सौभाग्य प्राप्त है । अदभुत अनुभव था वो ।
मन्ना दा की आवाज़ में रेडियोवाणी पर आज आपको वो गीत सुनवाया जा रहा है जो अपनी रचना और अपनी गायकी दोनों में ही अनमोल है । कल जब मैंने 'फेसबुक' पर ये गीत चढ़ाया तो भाई प्रियंकर इसके गीतकार मधुकर राजस्थानी के बारे में कितने उत्साहित हुए पढिए ।
अरे वाह ! आपने मन्ना दा के साथ मधुकर राजस्थानी को भी याद कर लिया . मैं तो ’नथनी’ की जगह ’नथली’ देख-सुन कर ही समझ गया था कि किसी राजस्थानी का गीत है . मधुकर राजस्थानी के तो क्या कहने . उनके लिखे ’मैं ग्वालो रखवालो मैया’ तथा ’पांव पड़ूं तोरे श्याम’ आदि भजनों को तो रफ़ी साहब ने अमरता प्रदान कर ही दी है, जैसे मन्ना दा ने विप्रलंभ श्रंगार के इस अद्भुत गीत को . गीत-संगीत की दुनिया में हम आपकी बनाई पगडंडियों से जल्दी पहुंचते हैं .
मन्ना दा ने इस गाने को अद्भुत रंग दिया है । हैरत है कि मधुकर राजस्थानी के बारे में हमें ज्यादा जानकारियां नहीं मिलतीं । जबकि उन्होंने अपने समय में शानदार गैर-फिल्मी गीत दिये, जिनमें से कुछ का जिक्र तो प्रियंकर जी ने कर ही दिया है । आपमें से कोई उनके बारे में विस्तार से बता सके तो मज़ा आ जाए ।
तो आईये सुनते हैं 'नथली से टूटा मोती रे' ।
एक और प्लेयर ताकि सनद रहे ।
मन्ना दा को दादा साहेब फालके पुरस्कार मिलने की घोषणा हम सब के लिए हर्ष का विषय है । असंख्य बधाईयां ।
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अगर आप चाहते हैं कि 'रेडियोवाणी' की पोस्ट्स आपको नियमित रूप से अपने इनबॉक्स में मिलें, तो दाहिनी तरफ 'रेडियोवाणी की नियमित खुराक' वाले बॉक्स में अपना ईमेल एड्रेस भरें और इनबॉक्स में जाकर वेरीफाई करें।
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बहरहाल । ये वो उम्र थी जब हम नौंवी दसवीं या ग्यारहवीं जैसे कक्षाओं में विज्ञान की पढ़ाई से जूझते थे और सोचते थे कि इस 'मुई' पढ़ाई का कोई विकल्प नहीं हो सकता । जैसे कि हम 'गिटार' सीखें पांच साल और फिर जिंदगी भर गिटार बजाकर इज्ज़त से रोज़ी-रोटी कमाएं । हमारे इन ख़यालात को ना सिर्फ़ हमारे दोस्त और घर वाले बल्कि हम ख़ुद भी संदेह और हिकारत की नज़र से देखते थे । कंफूजियाने की उम्र थी ये । और हम अपनी जिंदगी में मन्ना दा (और तलत महमूद ) को 'discover' कर रहे थे । 'भए भंजना' सुनते थे तो जब मन्ना दा 'दरस तेरे मां.....गे ये तेरा पुजारी' की तान छेड़ते....हमारे दिल में एक ख़ला, एक निर्वात, एक वैक्यूम बन जाता था । जब मन्ना दा गाते 'अभी तो हाथ में जाम है' (फिल्म सीता और गीता) और हम बाद में अपनी ही तरंग में इसे गुनगुनाते तो घर वाले हम से रही सही उम्मीद भी छोड़ देते थे । धीरे-धीरे मन्ना डे की हम शैदाई उनके 'usual' गानों से थोड़े दूर आ गए । 'कुछ अलग-कुछ नए' की 'चिरंतन-तलाश' ने हमें कहां-कहां नहीं भटकाया । स्कूल के ज़माने में ही श्रवण हळवे ने 'मधुशाला' की कैसेट दी तब हमें पता चला कि 'बच्चन' की जिस पुस्तक के हम यूं ही 'शैदाई' बन चुके थे, उसकी चुनिंदा रूबाईयों को हमारे प्रिय गायक ने गाया भी है । फिर तो पंडित नरेंद्र शर्मा, बच्चन जी और जयदेव के इस प्रोजेक्ट के तमाम किस्से खोद-खोदकर निकाल लिए हमने ।
'मधुशाला' के बाद बारी थी मन्ना डे के ग़ैर-फिल्मी गीतों की दुनिया में घुसने की । जबलपुर जैसे एकदम सुस्त शहर की एक कैसेट-शॉप में जब display में मन्नादा के ग़ैर-फिल्मी गीतों का 'डबल-कैसेट-अलबम' नज़र आ गया तो अपने 'तंग-जेबख़र्च' के बावजूद उसे ख़रीद लिया । एक नई दुनिया खुली । 'नाच रे मयूरा', 'सावन की रिमझिम में थिरक-थिरक नाचे मयूरपंखी सपने', 'मेरी भी एक मुमताज थी', 'शाम हो जाम हो सुबू भी हो', 'चंद्रमा की चांदनी से भी नरम', 'नथली से टूटा मोती रे', 'ओ रंगरेजवा', 'हैरां हूं ऐ सनम'.......हमारे रिकॉर्डर पर ये कैसेट्स इतनी बार चलीं कि हमारे संस्कारों में समाहित हो गए हैं ये तमाम गीत । मन्ना दा हमारे लिए एक गायक नहीं रहे, वो हमारी जीवन का हिस्सा बन गए । वो इस भयानक, चालबाज़, नकली और बेहद शातिर संसार में हमारे लिए विश्वास की किरण बन गए ।
स्टेज-शोज़ में उन्हें देखना हमारे लिए एक 'दिव्य-अनुभव' बन गया । जब मुंबई के सेंन्ट एंडूज़ हॉल में मन्ना दा कविता कृष्णमूर्ति के साथ 'तू छिपी है कहां मैं तड़पता यहां' गा रहे थे तो यूं लग रहा था कि एक जुनूनी बुजुर्ग उम्र और गले की थकन को मात देने की ईमानदार कोशिश कर रहा है । पुराने ज़माने के किस्से उनसे सुनना भी एक 'दिव्य' अनुभव होता है । मुझे मुंबई में उनके घर पर उनसे मिलने का भी सौभाग्य प्राप्त है । अदभुत अनुभव था वो ।
मन्ना दा की आवाज़ में रेडियोवाणी पर आज आपको वो गीत सुनवाया जा रहा है जो अपनी रचना और अपनी गायकी दोनों में ही अनमोल है । कल जब मैंने 'फेसबुक' पर ये गीत चढ़ाया तो भाई प्रियंकर इसके गीतकार मधुकर राजस्थानी के बारे में कितने उत्साहित हुए पढिए ।
अरे वाह ! आपने मन्ना दा के साथ मधुकर राजस्थानी को भी याद कर लिया . मैं तो ’नथनी’ की जगह ’नथली’ देख-सुन कर ही समझ गया था कि किसी राजस्थानी का गीत है . मधुकर राजस्थानी के तो क्या कहने . उनके लिखे ’मैं ग्वालो रखवालो मैया’ तथा ’पांव पड़ूं तोरे श्याम’ आदि भजनों को तो रफ़ी साहब ने अमरता प्रदान कर ही दी है, जैसे मन्ना दा ने विप्रलंभ श्रंगार के इस अद्भुत गीत को . गीत-संगीत की दुनिया में हम आपकी बनाई पगडंडियों से जल्दी पहुंचते हैं .
मन्ना दा ने इस गाने को अद्भुत रंग दिया है । हैरत है कि मधुकर राजस्थानी के बारे में हमें ज्यादा जानकारियां नहीं मिलतीं । जबकि उन्होंने अपने समय में शानदार गैर-फिल्मी गीत दिये, जिनमें से कुछ का जिक्र तो प्रियंकर जी ने कर ही दिया है । आपमें से कोई उनके बारे में विस्तार से बता सके तो मज़ा आ जाए ।
तो आईये सुनते हैं 'नथली से टूटा मोती रे' ।
एक और प्लेयर ताकि सनद रहे ।
सजनी, सजनी
नथली से टूटा मोती रे
कजरारी अँखियां रह गईं रोती रे \-२
नथली से टूटा मोती रे
रूप की अगियाऽऽ आऽऽ
रूप की अगिया रूप की अगिया अंग में लागी
अंग में लागी कैसे छुपाए,
लाज अभागी, लाज अभागी
मनवाऽऽ कहताऽऽ भोर कभी ना होती रे
कजरारी अँखियाँ रह गईं ...
बोली दुल्हनिया पलकें झुकाएऽऽ
पलकें झुकाए घूँघटवा में सहमे लजाये
सहमे लजाये बलमाऽऽ पढ़ाएऽऽ
प्रीत की पहली पोथी रे कजरारी अँखियाँ रह गईं ...
lyrics corutesy:
http://lyricsindia.net/songs/show/9287
मन्ना दा को दादा साहेब फालके पुरस्कार मिलने की घोषणा हम सब के लिए हर्ष का विषय है । असंख्य बधाईयां ।
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अगर आप चाहते हैं कि 'रेडियोवाणी' की पोस्ट्स आपको नियमित रूप से अपने इनबॉक्स में मिलें, तो दाहिनी तरफ 'रेडियोवाणी की नियमित खुराक' वाले बॉक्स में अपना ईमेल एड्रेस भरें और इनबॉक्स में जाकर वेरीफाई करें।
9 comments:
बहुत ही खुबसुरत। आभार आपका
यूनुस भाई,
मन्ना दा के बारे में आपका यह कहना कि उनके ये सभी गीत आपके संस्कारों में समाहित हो गये , अपने आपमें बहुत गहरी बात रेखांकित कर जाती है.
मन्ना दा , लताजी और ऐसे ही अन्य कलाकार हमारे अंतर्मन में ही ऐसे घुल मिल गये हैं, और संस्कारों में परिलक्षित होते हैं, कि हमें भावनाओं और मानवीय मूल्यों की समझ बनाने के लिये इनके द्वारा गाये फ़िल्मी गीतों के ऋणी होना चाहिये.
इन्दौर के आपके अल्प प्रवास में आपसे मुलाकात अच्छी रही. आपके भीतर के संस्कारों की बानगी भी देख ली. धन्यवाद...
बहुत नायाब गीत. आपसे छोटी सी मुलाकात यादगार रही. वादे के मुताबिक आपसे एक लंबी भेंट का ईंतजार रहेगा. आपका सौम्य और हंसमुख चेहरा आपकी पसंद बयान कर देता है. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
I have always been a fan of Manna Dey and love his non filmy songs. Some years ago,he had autographed his non filmy cd for me which has all the songs you mention including this particular one.
Thanks Yunus,for writing a fine post mentioning Madhukar
Rajasthani,whose beautiful pen had created many more gems.
बहुत बहुत शुक्रिया युनुस जी ...इतना ख़ूबसूरत गीत सुनवाने के लिए...इतना सोज़ भरा गीत सुनकर जैसे मैं किसी और ही लोक में पहुँच गयी...
यूनुस जी,
मैं भी मन्ना दा की प्रशंसिका हूँ. कृपया मुझे बतायें कि मन्ना दा की नान फ़िल्मी गीतों का अलबम मुझे दिल्ली में कहाँ मिल सकती है? और हो सके तो मुझे बतायें कि उनका ये गाना किस फ़िल्म का है--"फिर कहीं कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको"
मुक्ति मन्ना दा के ग़ैर-फिल्मी गीतों का 'डबल-एल्बम' आजकल सिंगल सीडी की शक्ल में सारेगामा एच एम वी से आता है । किसी अच्छे म्यूजिक शॉप में खोजिए । कोई दिक्कत हो तो मेल कीजिए । रही बात 'फिर कहीं कोई फूल खिला' की तो ये सन 71 में आई फिल्म अनुभव का गीत है ।
युनूस भाई,चित्रपट संगीत से अलहदा हिन्दी गीतिधारा को समृध्द करने में आकाशवाणी और विविध भारती की सुगम संगीत रचनाओं का अनमोल योगदान रहा है. इस विधा में कवि या शायर द्वारा रचे गए शब्द के वज़न का निबाह एक बड़ी अहम चीज़ होती है और चूँकि मन्ना दा के संस्कारों में रवीन्द्र संगीत समाहित रहा है जो अपने आप में बेजोड़ और शब्द प्रधान ही है सो उनका स्वर तो जैसे कविता/शायरी का संदर्भ ग्रंथ ही बन उभरा है. विविध भारती के रंगतरंग कार्यक्रम से इन गीतों को न जाने कितनी बार सुना और मधुकर राजस्थानी,पं.नरेन्द्र शर्मा,उध्दवकुमार,वीरेन्द्र मिश्र जैसे रचनाकारों की कविताओं और गीतों का परिचय ही इस कार्यक्रम से हुआ. नथली...एक अदभुत गीत है और ध्यान से सुनिये कहीं कहीं मन्ना दा किसी शब्द को विस्तार दे रहे हैं वहाँ कितने अर्थ तलाशे जा सकते हैं.आपके संदर्भ से यह ज़रूर बताइयेगा कि इन गीतों का संगीत नियोजन किसने किया है...ख़ैयाम साहब या मुरली मनोहरस्वरूप ने.दादा साहब फ़ालके सम्मान की बेला में मन्ना डे के कालजयी स्वर में एक ग़ैर-फ़िल्मी रचना रेडियोवाणी पर सुनवाकर बड़ा एहसान किया आपने.शुक्रिया.
ख़ूबसूरत गीत सुनवाने के many many thanks
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if you want to comment in hindi here is the link for google indic transliteration
http://www.google.com/transliterate/indic/