संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Thursday, May 29, 2008

ऐ दिल कहां तेरी मंजिल-फिल्‍म माया

रेडियोवाणी पर हम सलिल दा को अकसर विकलता से याद करते रहे हैं । सलिल दा हमारे आराध्‍य हैं । मुझे हमेशा से लगता रहा है कि सलिल दा जैसा प्रयोगधर्मी संगीतकार हिंदी फिल्‍म संगीत में दूसरा नहीं हुआ । आज मैं आपको जो गीत सुनवा रहा हूं वो अपनी हर पहलू के लिहाज से अनमोल है । आप पाएंगे कि लता मंगेशकर की आवाज़ का उपयोग इस गाने में केवल आलाप के लिए किया गया है । और इस आलाप की intensity देखते ही बनती है । कोरस का इस गाने में नायाब इस्‍तेमाल है ।

सलिल दा ने अपने कई गीत विदेशी ट्यून्‍स पर बनाए हैं । लेकिन आज के संगीतकारों की तरह ट्यून्‍स को कॉपी नहीं किया । उन्‍होंने इन धुनों को अपने प्रयोगों में ढाला और उनसे जो कुछ तैयार हुआ, उसमें भारतीयता भी थी और रचनात्‍मकता का चरम भी । इस गाने को मैं गिटार के चलन और बहुत ही गाढ़े कोरस के लिए याद करता हूं ।

ढलती शाम की immortal sadness का गीत है ये । मुझे लगता है कि शाम चिरन्‍तन उदासी का नाम है । और बेहद सांद्र उदासी के क्षणों में हमें एक 821401_DV_M_F कंधे की ज़रूरत पड़ती है, जिसे हम अपने आंसुओं से भिगा सकें । इस गाने के कंधे पर सिर रखकर आप अपनी सारी उदासी धो सकते हैं । वैसे भी मजरूह सुल्‍तानपुरी का ये गीत उदासी से लड़ने का ही गीत है । 1961 में आई फिल्‍म 'माया' का ये गीत अपनी रचना, संगीत-रचना और गायकी में बेमिसाल । इसे द्विजेन मुखर्जी और लता मंगेशकर ने गाया था । इसे देव आनंद और माला सिन्‍हा पर फिल्‍माया गया है । आगे चलकर मुमकिन है कि फिल्‍म 'माया' के कुछ और गीत आपको सुनवाए जाएं ।


ऐ दिल कहां तेरी मंजिल ।

ना कोई दीपक है, ना कोई तारा है, गुम है ज़मीं, दूर आसमां

( लता का विकल आलाप और बेहतरीन कोरस )

किसलिए मिल मिल के दिल टूटते हैं

किसलिए बन बन महल टूटते हैं

किसलिए दिल टूटते हैं

पत्‍थर से पूछा, शीशे से पूछा ख़ामोश है सबकी ज़बां ।

ऐ दिल कहां तेरी मंजिल ।।

ढल गये नादां वो आंचल के साए

रह गए रस्‍ते में अपने पराए

रह गए अपने पराए

आंचल भी छूटा, साथी भी छूटा, ना हमसफ़र, ना क़ारवां

ऐ दिल कहां तेरी मंजिल ।।

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Tuesday, May 27, 2008

सैंया बिना घर सूना सूना- बप्‍पी लहरी का एक अनमोल गीत ।

बप्‍पी लहरी ( लाहिड़ी ) को आमतौर पर अस्‍सी के दशक के फूहड़ गानों के लिए ही याद किया जाता है और ये दुख की बात है । बहुत समय पहले रवि भाई ने लिखा था कि उन्‍हें अस्‍सी के दशक के झमाझम गाने पसंद आते हैं और उनके घर वाले इस बात पर उनका मज़ाक़ उड़ाते हैं । पिछले दिनों अपने छोटे भाई के साथ मैं भी बचपन के दिनों को याद कर रहा था और हमने हंस हंस कर तोहफा और मवाली जैसी फिल्‍मों के गानों को याद किया ।

सचमुच बेहद हल्‍के और फूहड़ गानों का युग था वो । लेकिन तब वो भी अच्‍छे लगते थे और आज उनमें एक नॉस्‍टेलजिक एलीमेन्‍ट नज़र आता है । तभी तो कहीं से अगर 'तोहफ़ा तोहफ़ा' की तरंग सुनाई देती है तो हम फौरन अस्‍सी के दशक में पहुंच जाते हैं । बहरहाल ....आज मैं ये बात ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि बप्‍पी लहरी को केवल 'अस्‍सी के दशक के फूहड़ गीतों तक' रिड्यूस करना ठीक नहीं है । मैं बप्‍पी दा को बेहद प्रतिभाशाली संगीतकार मानता हूं और इसके तर्क भी हैं मेरे पास ।

इच्‍छा तो ये है कि रेडियोवाणी पर 'अस्‍सी के दशक के फूहड़' गीतों की एक नॉस्‍टेलजिक सीरीज़ भी चलाई जाये और बप्‍पी दा के उत्‍कृष्‍ट गीत भी । ज़ाहिर है कि फिलहाल उत्‍कृष्‍टता पर ही हमारे रिकॉर्ड की सुई टिकी रहे तो अच्‍छा । पर अगर रेडियोवाणी पर आपको 'ता थैया ता थैया हो' सुनाई दे जाये, फिल्‍म 'हिम्‍मतवाला' से....तो बजाय मुंह बिचकाने के, अपने भीतर झांककर सोचिएगा कि उस ज़माने में आप इन गानों को कितना सुनते थे रेडियो पर ।

सन 1979 में एक फिल्‍म आई थी-'आंगन की कली' । मैंने ये फिल्‍म नहीं देखी और ना ही देखने की कोई तमन्‍ना है । पर इस फिल्‍म का ये गाना....सही मायनों में अदभुत है । अगर हम 'हिम्‍मतवाला' , 'तोहफा' और 'जस्टिस bappi चौधरी' के गानों से भप्‍पी दा को आंकें तो ये कहीं से भी उनका गाना नहीं लगता । ग्रुप वायलिन की विकल तरंग के बीच लता जी का गुनगुनाना ......'सैंया बिना घर सूना-सूना' और फिर धीरे से नाज़ुक से रिदम का शुरू होना' । और फिर मुखड़े के बाद बांसुरी....वो भी हल्‍की सी प्रतिध्‍वनि के साथ । दिलचस्‍प बात ये है कि इस गाने में भूपिंदर एकदम आखिरी छोर पर आते हैं तकरीबन तीन मिनिट तिरेपन सेकेन्‍ड पर....और कहते हैं.....'आंसू यूं ना बहाओ, ये मोती ना लुटाओ' । ये गाना किसी ठेठ सामाजिक फिल्‍म का फलसफाई गाना भले हो...पर कहीं ना कहीं हमारे अंतस को छूता है । भप्‍पी दा को सलाम करते हुए ये अर्ज़ करूंगा कि उन्‍होंने सिर्फ सोने के गहने ही नहीं पहने और ना ही सिर्फ पश्चिम के गीतों की नकल करके डिस्‍को लहर चलाई । शास्‍त्रीयता से पगे ऐसे गीत भी बनाए हैं बप्‍पी दा ने कि अचरज होता है ।


आज महानायकों और सफल व्‍यक्तित्‍वों के तिलस्‍म को टूटते हुए देख रहे हैं हम । शायद ये सिलसिला अस्‍सी में ही शुरू हो गया था जब 'चलते चलते' जैसे गाने बनाने वाले बप्‍पी दा ने डिस्‍को की राह पकड़ी थी । बीच बीच में उन्‍होंने कैसे खुद को साबित किया....ये जानने के लिए और बहसियाने के लिए रेडियोवाणी पर आते रहिएगा । फिलहाल तो--सैंयां बिना घर सूना सूना ।



शैलेंद्र के सुपुत्र शैली शैलेंद्र की रचना है ये । शैली मार्च 2007 में एक गुमनाम मृत्‍यु को प्राप्‍त हुए हैं ।

लता: सैंयाँ बिना घर सूना, सूना
सैंयाँ बिना घर सूना
राही बिना जैसे सूनी गलियाँ
बिन खुशबू जैसे सूनी कलियाँ
सैंयाँ बिना घर सूना
सूना दिन काली रतियां
असुवन से भीगी पतियां
हर आहट पे डरी डरी
राह तके मेरी अँखियाँ
चाँद बिना जैसे सूनी रतिया
फूल बिना जैसे सूनी बगिया
सैंयाँ बिना घर सूना ...
अंधियारे बादल छाये
कुछ भी ना मन को भाये
देख अकेली घेरे मुझे
यादों के साये साये
चाँद बिना जैसे सूनी रतिया
फूल बिना जैसे सूनी बगिया सैंयाँ
बिना घर सूना ...
भूपिन्दर: आँसू यूँ ना बहाओ
ये मोती न लुटाओ
रुकती नहीं हैं वक़्त की धारा
पल पल बदले जग ये सारा

जैसे ढलेगी रात अँधेरी
मुस्कायेगा सूरज प्यारा
सुख के लिए पड़े दुःख भी सहना
अब ना कभी फिर तुम ये कहना.

चाँद बिना जैसे सूनी रतिया
फूल बिना जैसे सूनी बगिया
सैंयाँ बिना घर सूना !

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Sunday, May 25, 2008

ये जंग है जंगे-आज़ादी- मख़दूम मोहिउद्दीन की रचना समवेत स्‍वरों में ।

रेडियोवाणी पर मैंने बहुत पहले मख़दूम मोहीउद्दीन पर एक पूरी श्रृंखला की थी । मख़दूम हिंदुस्‍तान के अज़ीम शायर हैं । उनके बारे में इस सीरीज़ में बहुत कुछ लिखा जा चुका है । साथी चिट्ठाकार रियाज़ ने अपने चिट्ठे ढाई आखर पर मख़दूम की ये रचना प्रस्‍तुत की थी । उनका लिखा आप यहां पढ़ सकते हैं । आज बस आपको मख़दूम की ये क्रांतिकारी रचना सुनवानी है । मुझे ना तो इसके गायक-वृंद का पता है और ना ही इसके संगीतकार का । पर इसे पिछले हफ्ते भर से सुन रहा था और अपने ज़ेहन में उतार रहा था । अब ये आपकी नज़र है ।

 

ये जंगे है जंगे आज़ादी, आज़ादी के परचम के तले

हम हिंद के रहने वालों की महक़ूमों की मज़दूरों की   महकूम-सताए हुए लोग

आज़ादी के मतवालों की,दहक़ानों* की मज़दूरों की     *भट्टी चलाने वाले

सारा संसार हमारा है

पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन

हम अफ़रंगी हम अमरीकी               अफरंगी-फिरंगी

हम चीनी जावा जाने वतन

हम सुर्ख़ सिपाही ज़ुल्म शिकन          जुल्‍म-शिकन: जुल्‍मों को मिटाने वाले

आहन पयकर फ़ौलाद बदन             आहन-पयकर: लोहे के बदन वाले

वह जंग ही क्या वह अमन ही क्या

दुश्मन जिसमें ताराज़ न हो                   

वह दुनिया दुनिया क्या होगी

जिस दुनिया में स्वराज न हो

वह आज़ादी आज़ादी क्या

मज़दूर का जिसमें राज न हो

लो सुर्ख़ सवेरा आता है आज़ादी का आज़ादी का

गुलनार तराना गाता है आज़ादी का आज़ादी का

देखो परचम लहराता है आज़ादी का आज़ादी का ।।

मख़दूम मोहिउद्दीन पर केंद्रित श्रृंखला की सारी कडि़यां पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए ।

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Friday, May 23, 2008

सो जा राजकुमारी सो जा: कुंदनलाल सहगल और लता की अलग अलग आवाज़ें ।

रेडियोवाणी पर आज हम कुंदनलाल सहगल का गाया एक बेमिसाल गीत लेकर हाजिर हुए हैं । जाने क्‍यों सहगल का ये गीत बहुत दिनों से मन में गूंज रहा था । मुझे लोरियों से ख़ास प्‍यार रहा है । फिल्‍म संसार की कुछ लोरियां मेरे दिल के काफी क़रीब हैं । जिनकी चर्चा फिर कभी की जाएगी ।

फिलहाल तो इस लोरी की बात की जाए । सन 1940 में एक फिल्‍म आई थी 'जिंदगी' । न्‍यू थियेटर्स कलकत्‍ता की इस फिल्‍म के कलाकार थे आशालता, ब्रिकम कपूर, जमुना, निम्‍मो और above all कुंदनलाल सहगल । प्रमथेश चंद्र बरूआ इस फिल्‍म के निर्देशक थे । इस गाने को केदार शर्मा ने लिखा और पंकज मलिक ने इसकी धुन बनाई ।

इस गाने में एक दिव्‍य-सांगीतिक-सौंदर्य है । लोरियां ऐसी ही होनी चाहिए, ज़रा सोचिए कि आज से अड़सठ साल पहले बना ये गीत अब तक हमारे बीच है और लोकप्रिय है । ये कितनी बड़ी बात है । इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि आज के ज़माने का कोई गीत क्‍या अड़सठ साल बाद उतने ही चाव से सुना जा सकेगा । मुझे तो शक है ।

तो आईये ढलती शाम के इन सायों में जीवन के तनावों और दबावों से छुटकारा पाने के लिए खुद को इस गाने की तरंगों पर आज़ाद छोड़ दें । और एक दिव्‍य सुकून का अहसास करें । तीन मिनिट सात सेकेन्‍ड का एक स्‍वर्गिक अनुभव

सो जा राजकुमारी सो जा ।

सो जा मैं बलिहारी सो जा ।।

सो जा मीठे सपने आएं,

सपनों में पी दरस दिखाएं

उड़कर रूपनगर में जायें ।

रूपनगर की सखियां आयें

राजाजी माला पहनायें

चूमे मांग तिहारी सो जा ।

सो जा राजकुमारी सो जा ।

लता मंगेशकर ने इस गाने को अपनी श्रृंखला श्रद्धांजली में शामिल किया था और गाया भी था । यूट्यूब पर मुझे इसका ऑडियो मिला है । इसे भी सुनिए

 

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Tuesday, May 20, 2008

यहां हर शख्‍स हर पल हादसा होने से डरता है: राजेश रेड्डी की ग़ज़ल, पंकज उधास की आवाज़ । जन्‍मदिन पर विशेष

सत्रह मई को पंकज उधास का जन्‍मदिन था ।

मैंने रेडियोवाणी पर पहले भी उस दौर का जिक्र किया है जब ग़ज़ल अपने उरूज ( चरम ) पर हुआ करती थी । और तमाम बेहतरीन कलाकार अपने उम्‍दा अलबमों के साथ हाजिर हुआ करते थे । चाहने वालों की कोई कमी pankaj udas नहीं थी । कंसर्टों की बहार आई हुई थी । कई बार एकल कंसर्ट होते और कई बार कई कई कलाकार ग़ज़ल के मंच पर एक साथ पेश होते  । मुझे ऐसा लगता है कि चूंकि उस दौर में फिल्‍मों में संगीत के नाम पर कचरा पेश किया जा रहा था शायद इसलिए ज़माना ग़ज़लों की मिठास में पनाह लेता था  । जैसे ही फिल्‍मों का संगीत सुधरा और मेलडी की वापसी हुई, ग़ज़लों का सुनहरा दौर खत्‍म हो गया और अब हम उसे विकलता से याद करते हैं । आज आपको जो ग़ज़ल सुनवाई जा रही है, उसका ताल्‍लुक उसी सुनहरे दौर से है । पंकज उधास की आवाज़ मुझे पसंद है, लेकिन उनकी गाई कुछ चुनिंदा चीज़ें ही हैं जो मेरे दिल के क़रीब हैं । मेरा मानना है कि उनकी आवाज़ का सही इस्‍तेमाल नहीं हो सका है । शायद उन्‍होंने भी नहीं किया । शायद बाज़ार के दबाव रहे होंगे ।

बहरहाल....इस ग़ज़ल के शायर हैं राजेश रेड्डी । राजेश रेड्डी विविध भारती परिवार का हिस्‍सा रह चुके हैं । कई बरस तक वो विविध भारती में बतौर केंद्र निदेशक पदस्‍थ थे । उनके साथ काम करने और महफिल जमाने का अपना अलग ही मज़ा रहा है । मुंबई शहर पर उनके लिखे एक शेर का जिक्र मैं अकसर करता हूं ।

इस शहर को आती हैं सैंकड़ों पगडंडियां

यहां से बाहर जाने का कोई रास्‍ता नहीं ।।

राजेश रेड्डी का ग़ज़ल-संग्रह उड़ान वाणी प्रकाशन से छपा है । उनकी रचनाएं पंकज उधास, जगजीत सिंह, रूप कुमार राठौड़ सहित कई नामी कलाकारों ने गाई हैं । पंकज उधास को जन्‍मदिन की बधाई देते हुए राजेश रेड्डी की इस ग़ज़ल को सुना जाए । जो हमारी इनसिक्‍यूरिटीज़ का सबसे बेबाक बयान है । ये ग़ज़ल पंकज उधास के अलबम 'नबील' का हिस्‍सा है ।

इसे सुनने का दूसरा तरीक़ा ।

यहां हर शख्‍़स हर पल हादसा होने से डरता है

खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है ।।

मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्‍चा

बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है ।।

न बस में जिंदगी इसके ना क़ाबू मौत पर इसका

मगर इंसान फिर भी कब ख़ुदा होने से डरता है ।।

अजब ये जिंदगी की क़ैद है दुनिया का हर इंसां

रिहाई मांगता है और रिहा होने से डरता है ।।

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Saturday, May 17, 2008

कैसे कैसे रंग दिखाए कारी रतिया-जगजीत सिंह की आवाज़ फिल्‍म कालका

रेडियोवाणी पर कुछ दिन पहले फिल्‍म कालका का वो गीत आपको सुनवाया था जो मैं बहुत दिनों से खोज रहा था । बिदेसिया । जब कालका का रिकॉर्ड मिल ही गया तो उसके साथ आए इस फिल्‍म के सारे नग़्मे । उनमें से एक ये भी है जिसे आज आप तक पहुंचा रहा हूं । ये गीत जगजीत सिंह अपने लगभग सभी कंसर्टों में गाते हैं ।

चूंकि मैंने फिल्‍म कालका नहीं देखी इसलिए पता नहीं है कि इस गीत की jagjit फिल्‍म में क्‍या जगह है । पर जगजीत सिंह के संगीतबद्ध किये इन गानों का क़द्रदान जरूर रहा हूं । जगजीत की गाढ़ी और खरजदार आवाज़ में शास्‍त्रीय-गीत बहुत जंचते हैं । इसलिए जब कंसर्टों में वो अपनी मनचाही रचनाएं गाते हैं तो आनंद की अनूठी अनुभूति होती है । मुझे जगजीत से हमेशा एक शिकायत रही है और वो ये कि अपनी ग़ज़लों को कम्‍पोज़ करने में जगजीत पिछले बीस सालों से बहुत ज्‍यादा टाइप्‍ड हो गये हैं । धुनों की कोई बड़ी क्रांति उन्‍होंने नहीं दिखाई । अपने ही बनाए एक पक्‍के रास्‍ते पर टहलते रहे और इस तरह हम जैसे चाहने वालों का दिल तोड़ दिया है जगजीत सिंह ने । बहरहाल कालका फिल्‍म का ये गीत सुनिए । इसे किन्‍हीं सत्‍यनारायण जी ने लिखा है ।

इस गाने को सुनने का एक और जुगाड़ ये रहा । अगर आपको अपने ब्राउज़र पर दिक्‍कत आए तो जांचें कि आपके पास फ्लैश प्‍लेयर है या नहीं ।

कैसे कैसे रंग दिखाए कारी रतिया

हमको ही हमसे चुराए कारी रतिया ।।

माया की नगरिया में सोने की बजरिया

नाच नाच हारी रामा बावरी गुजरिया

रह रह नाच नचावै कारी रतिया ।।

जेह दिन आइहैं पिया के संदेसवा

उड़ जईहैं सुगना, छूट जइहैं देसवा

रोए रोए हमको बताए कारी रतिया ।।

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Saturday, May 10, 2008

तलत मेहमूद के कुछ अनमोल वीडियो: मुहब्‍बत की धुन बेक़रारों से पूछो ।



तलत महमूद हमारे प्रिय कलाकार रहे हैं । कल उनकी दसवीं पुण्‍यतिथि थी । किन्‍हीं व्‍यस्‍तताओं के रहते कल रेडियोवाणी पर तलत की चर्चा नहीं हो सकी । इसलिए एक तरह की बेचैनी थी । तलत को सुनना तब शुरू किया था जब हम मध्‍यप्रदेश के शहर सागर में नौंवी या दसवीं की पढाई कर रहे थे । आपको बता दें कि ये बहुधा ब्‍लैक एंड व्‍हाइट टी.वी. का दौर था । और दूरदर्शन पुराने ज़माने की फिल्‍में खूब दिखाता था । उन दिनों तलत साहब के अभिनय वाली कई फिल्‍में देखने को मिलीं । लेकिन जिस फिल्‍म की याद अभी तक है वो है दिल-ए-नादां । ये फिल्‍म सन 1953 में आई थी । इस फिल्‍म के निर्माता और निर्देशक थे अब्‍दुल रशीद कारदार । तलत इस फिल्‍म के नायक थे । साथ में थीं श्‍यामा । शकील बदायूंनी ने इस फिल्‍म के गीत लिखे थे और संगीतकार थे गुलाम मोहम्‍मद । ये सारी बातें तो ख़ैर इंटरनेटी खोजबीन और encylopedia से ही प्राप्‍त की हैं । उस समय ये सब पता नहीं था लेकिन इस फिल्‍म का एक गीत आंखों में और ज़ेहन में रच बस गया था ।

मुझे याद है कि इस गाने में खुद तलत महमूद पियानो पर बैठे हैं और गाना गा रहे हैं । कमाल का गाना था ये । कुछ दिन तक तो इस गाने को खोजा पर जब नहीं मिला तो इसकी खोज बंद कर दी । कुछ महीनों पहले यू-ट्यूब पर घुमक्‍कड़ी के दौरान इस गाने का वीडियो मिल गया । उस वक्‍त इसे डाउनलोड करने की सुध नहीं रही । आज जब इसे दोबारा खोजा तो फिर मिल गया । आप सबकी नज़र ये गीत । एक पुरानी और विकल खोज के नाम, इसे डाउनलोड तो अभी तक नहीं किया है पर अगर आपको ये गीत प्रिय है तो अपने ख़ज़ाने में फ़ौरन रख लीजिए । क्‍या पता....कब इसकी यू-ट्यूबी खिड़की बंद हो जाए ।

आज तो इस गाने को यूट्यूब से ही चढ़ाया जा रहा है । पर पहली फुरसत में इसे अपने ख़ज़ाने में रखकर अपलोड किया जायेगा ताकि रेडियोवाणी पर ये स्‍थायी रूप से मौजूद रहे । तो सुनिए और मज़ा लीजिए इस गाने का ।

यहां आपको ये भी बता दें कि तलत तो अपना गाना खुद ही गा रहे हैं । यहां वीडियो में दो नायिकाएं खड़ी दिख रही हैं । इनमें से एक हैं पीस कंवल और दूसरी हैं  श्‍यामा । पीस कंवल को आवाज़ दी है जगजीत कौर ने । और श्‍यामा को आवाज़ दी है सुधा मल्‍होत्रा ने । कोशिश करके जगजीत कौर और
सुधा मल्‍होत्रा की आवाज़ की अलग अलग पहचानियेगा ।



मुहब्‍बत की धुन बेक़रारों से पूछो
ये नग़मा है क्‍या चांद तारों से पूछो ।।
तुम्‍हारी ज़बां पे मेरी दास्‍तां है
तुम्‍हें ये ख़बर क्‍या मुहब्‍बत कहां है
भला क्‍यों ये दुनिया हसीं है जवां है
तुम अपनी नज़र के इशारों से पूछो ।।
मुहब्‍बत की धुन ।।
कोई बन खुश्‍ाबू बसा मेरे मन में
लुटा है मेरा दिल इसी अंजुमन
कली कौन सी खिल रही है चमन में
ये तुम अपने दिल की बहारों से पूछो ।।

इस गाने के बाद तलत के कुछ और वीडियो भी आपकी नज़र । जिन्‍हें मैं अपने संग्रह के लिए डाउनलोड कर रहा हूं । ये तलत के लाइव शो के वीडियो हैं ।


ये गाना है-'ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहां कोई ना हो' ।
1950 में आई फिल्‍म 'आरज़ू' का गीत । जांनिसार अख्‍तर के बोल हैं और संगीत अनिल विश्‍वास का । ज़रा देखिए कि तलत कितनी सहजता से गा रहे हैं । आज के स्‍टेज शो के लटकों-झटकों की तुलना में ये कितना बड़ा 'रिलीफ़' लगता है ।



तलत महमूद की आवाज़ में फिल्‍म सुजाता का गीत । सन 1959 में आई इस फिल्‍म के गीतकार थे मजरूह सुल्‍तानपुरी और संगीतकार थे सचिन देव बर्मन ।



ये गाना है--हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्‍हें हम दर्द के सुर में गाते हैं । ये फिल्‍म पतिता का गीत है । शैलेंद्र । शंकर जयकिशन  ।

इस वीडियो की क्‍वालिटी थोड़ी ख़राब है ।



तलत साहब को गये दस वर्ष हो गये । लेकिन इन गीतों ने हमें उनकी मौजूदगी का लगातार अहसास कराया है । तलत साहब की स्‍मृति को
नमन...

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Thursday, May 8, 2008

फिल्‍म कालका का रूला देने वाला गीत बिदेसिया रे । संगीत जगजीत सिंह ।

इस गाने को मैं एक लंबे अरसे से खोज रहा था ।

आश्‍चर्य की बात ये थी कि कभी विविध-भारती के संग्रहालय में हुआ करता था । लेकिन उसके बाद यह टेप बहुत ख़राब हो गया और किसी वजह से हमने ये गाना खो दिया । तब से मन में विकलता थी कि आखि़र कहां से ये गाना मिलेगा । कुछ महीनों पहले मीत ने इसी फिल्‍म के एक गाने की उपलब्‍धता के बारे में पूछा तो जैसे वो विकलता पुन: हरी हो गयी । शत्रुघ्‍न सिन्‍हा इस फिल्‍म के मुख्‍य कलाकार और संभवत: निर्माता भी थे । हालांकि नाम उनके बड़े भाई डॉ. लखन सिन्‍हा का दिया गया है । सोचा कि चलिए इस गाने को शत्रुघ्‍न सिन्‍हा के दफ्तर से ही प्राप्‍त किया जाए । फोन किया और अपनी बात कह दी ।  वहां से कहा गया कि जैसे ही उपलब्‍ध होता है सूचना दी जायेगी । हमारे नंबर लिख लिए गये ।

प्रतीक्षा की घडि़यां पसरने लगीं । कोई उत्‍तर नहीं आया तो हम समझ गये 28-04-08_1127 कि संभवत: प्रोड्यूसर महोदय के पास भी गाना नहीं है । इंटरनेटी खोजबीन में दो-एक जगह पर गाना अपलोडेड तो दिखा लेकिन वहां भी दिक्‍कतें थीं । ख़ैर....किसी तरह से हमारे सहयोगी स्‍त्रोतों ने मदद की और इस फिल्‍म का बाक़ायदा रिकॉर्ड उपलब्‍ध करवाया । अब हमारे पास कालका फिल्‍म के सभी गाने हैं । और एक एक करके इन्‍हें प्रस्‍तुत किया जायेगा रेडियोवाणी पर । बाज़ार में ये गाने उपलब्‍ध नहीं हैं । सुपर म्‍यूजिक ( सुपर कैसेट्स नहीं ) पर ये रिकॉर्ड निकला है । 'कालका' की डी.वी.डी. अगर किसी को उपलब्‍ध हुई तो कृपया सूचना दें । मैं बहुत विकलता से इसे खोज रहा हूं ।

बहरहाल...ये एक बिदेसिया है । ( यहां पटना डेली से संजय उपाध्‍याय के निर्देशन में हुए 'बिदेसिया' नाटक के मंचन की एक तस्‍वीर दी जा रही है, जिसके बारे में डॉ. अजीत ने बताया)

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'बिदेसिया' ...लोकगीतों की वो शैली है जिसमें परदेस में पैसा कमाने गए मज़दूर अपने गांव और अपने आत्‍मीयों को विकलता से याद करते हैं ।

ये बिदेसिया भी आपकी आंखें नम कर देगा । इसे आप जल्‍दीबाज़ी में ना सुनें । दस मिनिट चौंतीस सेकेन्‍ड का समय हो तभी तसल्‍ली से आंखें बंद करके इस गाने को अपने भीतर उतरने दें ।

बिदेसिया आमतौर पर आपको रूला देने में सक्षम होता है । ये बिदेसिया भी आपकी आंखें नम कर देगा । इसे आप जल्‍दीबाज़ी में ना सुनें । दस मिनिट चौंतीस सेकेन्‍ड का समय हो तभी तसल्‍ली से आंखें बंद करके इस गाने को अपने भीतर उतरने दें । और फिर इसका असर देखें । अगर आप पर इस गाने का असर बचा हुआ है तो समझिये कि आपके भीतर इंसानियत के अंश बचे हुए हैं । और अगर ये गाना आपके भीतर विकलता और नमी पैदा नहीं करता तो आपको चिंता करनी चाहिए कि कहीं आप एक मशीन में तो नहीं बदल रहे हैं ।

जगजीत सिंह ने बहुत कम फिल्‍मों में संगीत दिया है । जगजीत संगीतकार के तौर पर कई बार बड़े ज़हीन नज़र आए हैं । ख़ासकर इस फिल्‍म के सभी गाने अनमोल हैं । इस गाने की बात चल रही है तो आपको बता दूं कि जगजीत ने अपने पसंदीदा युवा गायकों की पूरी फौज जमा की है इस गाने के लिए । इसे जगजीत सिंह के अलावा आनंद कुमार सी., विनोद सहगल, घनश्‍याम वासवानी, अशोक खोसला, मुरली वग़ैरह ने गाया है ।

वास्‍तव में जो ठेठ बिदेसिया होता है उसमें साज़ इस तरह के इस्‍तेमाल नहीं होते । वो तो शहरों में दिन भर पसीना बहाकर रात को अपनी यादों की महफिल जमाने वाले मज़दूरों का बेचैन गीत होता है, जिसमें ढोलक, मंजीरे इत्‍यादि का इस्‍तेमाल किया जाता है । लेकिन रबाब और गिटार जैसे साज़ों से सजाकर भी जगजीत ने इस गीत की आत्‍मा से न्‍याय किया है । इस गाने में बिदेसिया वाली वो विकलता है । वो नमी है । पैसों की ख़ातिर शहर में आए मज़दूरों के भीतर पलने वाले अपराध बोध का बयान है ।

देखा जाये तो हम सब गांव छोड़कर शहरों में काम करने वाले एलीट मज़दूर ही तो हैं । या और ठीक से कहें तो अपने शहर को छोड़कर और बड़े शहर में काम खोजने आए एलीट मज़दूर । इस लिहाज से ये हमारा भी गीत है । आईये अपने मन का ये गीत सुनें ।

param>

बिदेसिया रे ।। हो बिदेसिया रे ।।

घरवा के सुध-बुध सब बिसराइये, कंहवा करे है रोजगार रे बिदेसिया

गांव-गली सब बिछड़े रामा, छूटी खेती-बारी

दो रोटी की आस में कैसी दुरगत भईल हमारी रे ।

बिदेसिया ।।

याद बहुत आवै है अपने, घर का छोटा-सा अंगना ।

सूखी रोटी-चटनी परसके पिरिया का पंखा झलना ।

किसको बतावैं, कैसे बतावैं, आफतिया में जान रे ।

बिदेसिया ।।

पुरखन की बीघा-भर खेती,  धर आए थे रहन कभी ।

ऊह को छुड़वाने की खातिर, पैसा जोड़ ना पाए अभी ।

का हुईहै जो आती बिरिया भाई को दीन्‍ही जुबान रे ।

बिदेसिया ।।

घर मां अबके बार हुई है, खबसूरत-सी इक बेटी ।

हमरे कहिन पे नाम रखिन है ऊ गुडि़या का भागमती।

दिन भर खेल-खिलावत हुईहै, हमारी गुडिया माई रे ।

बिदेसिया ।।

आज ही गांव से दादू की इक लंबी चिठिया आई है ।

खबर दिये हैं भादों में छोटी बहना की सगाई है ।

सुबहो से लईये साम तलक सब राह तकिन हैं हमारी रे ।।

बिदेसिया ।।

सूरतिया को देखेंगे कब इह तो राम ही जानै रे ।

मनवा को समझैके हारे, मनवा कछु ना मानै रे ।

सीने पे धर लीन्‍हे पत्‍थर, खुल ना पईहैं जुबान रे ।

बिदेसिया ।।

खेलत हुईहै घाट पे जईके, हमरा नन्‍हा-सा बिटवा ।

खुसी-खुसी घर लावत हुईहै टुकना में भरके कछुआ ।

हंसत बढ़त जो देखते उह को अईसा भाग कहां रे ।

बिदेसिया ।। 

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Wednesday, May 7, 2008

उस्‍ताद अली अकबर ख़ां साहब के सत्‍यजीत राय से जुड़े अनुभव

रेडियोवाणी पर हमने महत्‍त्‍वपूर्ण अखबारों से संगीत से जुड़ी महत्‍त्‍वपूर्ण जानकारी साभार प्रस्‍तुत करने की परंपरा शुरू की है । इस परंपरा को आगे भी निभाया जायेगा । टाइम्‍स ऑफ इंडिया के दिनांक दो मई 2008 के अंक में उस्‍ताद विलायत खां साहब से रंजन दास गुप्‍ता ने सत्‍यजीत राय के बारे में छोटी सी बातचीत की है । टाइम्‍स में छपे इसी साक्षात्‍कार का हिंदी अनुवाद यहां प्रस्‍तुत किया जा रहा है । इस आलेख की ख़बर जयपुर से राजेंद्र जी ने भेजी । दो मई को सत्‍यजीत राय का 87 वां जन्‍मदिवस था । तब इस बातचीत को नहीं दे सका । देर से ही सही हम सत्‍यजीत राय को याद तो कर रहे हैं ।

सत्‍यजीत राय ऐसे अकेले फिल्‍म निर्देशक हैं जिन्‍होंने पंडित रविशंकर, उस्‍ताद अली अकबर खां और उस्‍ताद विलायत खां साहब तीनों के साथ काम किया । उस्‍तार अली अकबर खां ने 1960 में फिल्‍म 'देवी' के संगीत पर काम किया था, अमरीका से दिये गये इस दुर्लभ इंटरव्‍यू में ख़ां साहब सत्‍यजीत रे के साथ काम करते हुए मिले अनुभवों का ब्‍यौरा दे रहे हैं ।

                                ali_akbar_khan

आपको फिल्‍म देवी में पार्श्‍वसंगीत देने का मौक़ा कैसे मिला था

सत्‍यजीत राय ने सीधे मुझसे संपर्क किया था और वो मेरे साथ काम करने को व्‍यग्र थे । उन्‍हें लगता था कि 'देवी' के साथ केवल मैं ही न्‍याय कर सकता हूं । उन्‍होंने मुझे कई संगीत-समारोहों में सरोद बजाते सुना था और 1952 में आई फिल्‍म 'आंधियां' में मेरे संगीत को भी सुना था । चूंकि सत्‍यजीत एक संवेदनशील और प्रतिभाशाली निर्देशक थे इसलिए मैं उन्‍हें मना नहीं कर सका ।

फिल्‍म  'देवी' पर काम करते हुए सत्‍यजीत राय की कार्यशैली कैसी थी

उन्‍हें साफ तौर पर पता था कि उन्‍हें मुझसे क्‍या चाहिए । उन्‍होंने मेरे साथ अनगिनत रिहर्सलें कीं । और कुछेक धुनों को चुना । ये वो धुनें थीं जो फिल्‍म 'देवी' के मूड के एकदम अनुकूल बैठती थीं । लेकिन कुछ ऐसे मौक़े भी आए जब वो एकदम अड़ गये थे । उन्‍होंने मुझे पूरी रचनात्‍मक आजा़दी नहीं दी थी । इससे मुझे धक्‍का लगा था । क्‍योंकि मेरी रचनात्‍मकता पर एक तरह से अंकुश जैसा लग गया था ।

क्‍या 'देवी' के संगीत निर्देशन के दौरान कभी आप दोनों के बीच कोई झगड़ा हुआ

मैं दूसरे रचनात्‍मक लोगों के साथ झगड़ा नहीं करता । दरअसल मेरी कार्यशैली उनके साथ जमी नहीं । मुझे लगा कि सत्‍यजीत राय शास्‍त्रीय संगीत के क़द्रदान नहीं थे हालांकि उनमें संगीत की गहरी समझ थी । शायद उन्‍होंने मुझे इसलिए रोका क्‍योंकि उन्‍हें लगा होगा कि जरूरत से ज्‍यादा संगीत उनकी फिल्‍म के प्रवाह को खत्‍म कर देगा । मैंने इस बात को समझा लेकिन देवी के संगीत को लेकर मैं बहुत खुश नहीं था ।

आपको क्‍या लगता है कि पंडित रविशंकर और उस्‍ताद विलायत खां साहब के साथ कैसे काम किया होगा सत्‍यजीत राय ने

सबसे ज्‍यादा उनकी पंडित रविशंकर से ही जमी । अपू त्रयी और परश पाथर में उन्‍होंने शानदार संगीत दिया है । रविशंकर सत्‍यजीत राय की जरूरतों और उनके मूड को अच्‍छी तरह से समझते थे । बाकी किसी भी फिल्‍म में रविशंकर ने इतना अच्‍छा संगीत नहीं दिया । विलायत खां साहब ने फिल्‍म जलसाघर में संगीत दिया था । जो बहुत ही उत्‍कृष्‍ट था । लेकिन मुझे लगता है कि सत्‍यजीत राय ने उन्‍हें भी अपना सर्वश्रेष्‍ठ संगीत देने से रोक दिया था

सत्‍यजीत राय, चेतन आनंद और तपन सिन्‍हा की कार्यशैली में फर्क बताईये

सत्‍यजीत राय इन तीनों में सबसे ज्‍यादा विविधरंगी थे । बाद में उन्‍होंने अपनी फिल्‍मों का संगीत स्‍वयं भी दिया । और कुछ अविस्‍मरणीय धुनें बनाईं, चेतन आनंद दिल से एक कवि थे । और अपने संगीतकार को पूरी आजादी देते थे । तपन सिन्‍हा का सौंदर्यबोध बड़ा अच्‍छा है । वे रवींद्रनाथ ठाकुर के संगीत विद्यालय से आते हैं । और अपनी फिल्‍म खुदीतो पशन में उन्‍होंने मुझसे उसी शैली का काम करवाया ।

बातचीत टाइम्‍स ऑफ इ‍ंडिया के दो मई के संस्‍करण में छपे इंटरव्‍यू का अनुवाद है ।

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Monday, May 5, 2008

गीतकार आनंद बख्‍शी के गाए गीतों पर आधारित पॉडकास्‍ट

रेडियोवाणी के एक साल पूरे होने पर मैंने कहा था कि इस साल कोशिश ये रहेगी कि आपको कुछ पॉडकास्‍ट अपनी आवाज़ में भी सुनवाए जाएं । तो लीजिए इस कड़ी में आपको सुनवा रहा हूं आनंद बख्‍शी के गाए गीतों पर केंद्रित ये पॉडकास्‍ट ।                               

                                     anand

लेकिन इससे पहले कुछ और बातें करना चाहता हूं ।

रेडियोवाणी और रेडियोनामा दोनों पर हम पॉडकास्‍ट पर थोड़ा और ज़ोर देना चाहते हैं । रेडियोनामा पर जल्‍दी ही आप रेडियोसखी ममता सिंह की आवाज़ में मुंशी प्रेमचंद के उपन्‍यास निर्मला का वाचन सुनेंगे । आप सोचेंगे कि निर्मला ही क्‍यों । दरअसल कुछ बरस पहले विविध भारती के लिए रेडियोसखी ममता सिंह ने निर्मला का वाचन किया था जिसे देश-विदेश के श्रोताओं ने बहुत सराहा था । अफ़सोस ये है कि उस समय उसकी कोई कॉपी विविध भारती के संग्रहालय में सुरक्षित नहीं रखी जा सकी । इस तरह से एक शुरूआत भी होगी और एक डेटाबेस भी बनेगा । उम्‍मीद करूं कि हम ऐसी व्‍यवस्‍था कर पाएंगे कि इन तमाम कडियों को आप डाउनलोड भी कर पाएं । अगर आपके मन में कोई ऐसी आकार में छोटी कृति है और जिसे लेकर कॉपीराइट का कोई इशू नहीं बनता, तो सुझाएं । जल्‍दी ही रेडियोनामा और रेडियोवाणी पर मैं और रेडियोसखी ममता सिंह दोनों ही कुछ कृतियों का वाचन आरंभ करेंगे ।

अपनी राय देकर इस मुद्दे को आगे बढ़ाएं । ताकि जल्‍दी ही काम शुरू करें ।

तो चलिए फिलहाल आनंद बख्‍शी की गायकी पर केंद्रित ये पॉडकास्‍ट सुनें ।

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Thursday, May 1, 2008

हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे- फिल्‍म मज़दूर । मई दिवस पर विशेष



आज मज़दूर दिवस है ।
मज़दूर दिवस पर मैं आपको फ़ैज़ की वो रचना अपनी आवाज़ में सुनवाना चाहता था । नहीं नहीं मैं गाता नहीं बल्कि पढ़कर सुनाता । लेकिन अफ़सोस...ना तो मेरे संग्रह में वो रचना मिली और ना ही इंटरनेट पर । फ़ैज़ की प्रतिनिधि कविताओं वाली राजकमल पेपरबैक्‍स की पुस्‍तक में भी इसे शामिल नहीं किया गया है । मुझे लगता है कि मज़दूर की भावनाओं और उसके खौलते हुए इरादों को इस रचना में फ़ैज़ ने ठीक तरह से अलफ़ाज़ दिये हैं । सभी से निवेदन है कि अगर फ़ैज़ की मूल रचना आपको पास उपलब्‍ध हो तो कृपया भेजें ।
Mazdoor - DVD

सन 1983 में बी. आर. प्रोडक्‍शंस की फिल्‍म आई थी मज़दूर । इस फिल्‍म में  फ़ैज़ से प्रेरणा लेकर हसन कमाल ने ये गीत लिखा था । आईये दुनिया के सारे मज़दूरों को सलाम करें और ये प्रण लें कि उनका हिस्‍सा नहीं मारेंगे । दुनिया के सारे पूंजीपति, कम या ज्‍यादा पैसे वाले सबसे ज्‍यादा कटौती करते हैं तो वो मज़दूर के पैसों में करते हैं । बाक़ी नारेबाजि़यां अपनी जगह हैं पर अपने स्‍तर पर हम इतना तो कर ही सकते हैं । काग़जी सहानुभूतियों और चर्चाओं से आखिर होता क्‍या है ।


हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे

इक बाग़ नहीं, एक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे ।।
दौलत की अंधेरी रातों ने, मेहनत का सूरज का छिपा लिया
दौलत की अंधेरी रातों से हम अपना सवेरा मांगेंगे ।।
क्‍यूं अपने खून-पसीने पर हक़ हो सरमायादारी का
मज़ूदूर की मेहनत पर हम मज़दूर का क़ब्‍ज़ा मांगेंगे ।।
हर ज़ोर ज़ुल्‍म की टक्‍कर में हड़ताल हमारा नारा है
हर ज़ालिम से टकराएंगे, हर ज़ुल्‍म का बदला मांगेंगे ।। 

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