कारवां गुज़र गया गु़बार देखते रहे
नीरज एक ज़माने में हमारे प्रिय कवि थे । हाईस्कूल के ज़माने वाले प्रिय
कवि । तब तक कविताओं के नाम पर हमारा परिचय ग़ज़लों और मंचीय कविताओं से ही हुआ था । और हम उन्हीं में मगन थे ।
तब कवि-सम्मेलनों में आज की तरह चुटकुलेबाज़ी नहीं हुआ करती थी । वो दिन अच्छी तरह से याद हैं जब 'नीरज' बहुधा कवि सम्मेलनों के अंत में खड़े होते और अपनी 'तरंग' में पढ़ते........'खुश्बू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की, लगता है खिड़की खुली है उनके मकान की' या फिर.....'अब तो कोई मज़हब भी ऐसा चलाया जाये, जिसमें आदमी को इंसान बनाया जाये' । और हम धन्य-धन्य हो जाते थे ।
फिल्मी-गीत उन दिनों की दोपहरों में हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा थे । मुहल्ले की गलियों से गुज़रो तो हर घर में रेडियो, और रेडियो पर वही 'मनचाहे गीत' बज रहे होते । यानी पूरा रास्ता घरों से छनकर आ रही रेडियो की आवाज़ के सहारे काटा जा सकता था । उन्हीं दिनों झुमरीतलैया, टाटानगर, जुगसलाई, राजकोट, इटारसी, खंडवा के श्रोताओं की चिट्ठियों के ढेर सारे नाम खूब लंबी-लंबी सांस लेकर पढ़े जाते, तब रेडियो के उदघोषक सादा-सरल होते, सांस लेते तो पता चल जाता, चोरी से सांस नहीं ली जाती थी, चिट्ठी पढ़ी, गीतकार संगीतकार बताए और ये गाना.....। बृजभूषण साहनी, विजय चौधरी, कांता गुप्ता, लड्डूलाल मीणा या श्रद्धा भारद्वाज की आवाज़ होती और फिर ये गीत बजता । और गलियों में अपने 'भौंरे' चलाते हुए या फिर तार के सहारे बेयरिंग का पहिया चलाते हुए, छतों पर दोस्तों के साथ कॉमिक्स, राजन इकबाल, प्रेमचंद और जेम्स हेडली चेइज़ पढ़ते या फिर सायकिल पर आवारागर्दी करते हुए हम धूप में तपते 'काले-ढुस' हो जाते । ठीक उन्हीं दिनों ये गाने हमारे अवचेतन में कब और कैसे एक 'संक्रमण' की तरह घुस गए हमें पता नहीं चला ।
हम छोटे शहरों की उन्हीं दोपहरों के आवारागर्द, 'काले-ढुस', भयानक पढ़ाकू, चश्मू बच्चे हैं, जो बड़े शहरों में आकर, अभी भी प्रीतम और हिमेश रेशमिया को नहीं सुनते, पुराने ज़माने के रोशन, शंकर जयकिशन, ओ.पी.नैयर और नीरज, साहिर, शैलेंद्र, फै़ज़ में मगन हैं । ऐसे ही दिनों की विकल-याद में ये गीत आपकी नज़र । हम अकेले नहीं सुनेंगे बल्कि साथ में आपको 'डाउनलोड लिंक' देंगे ताकि ऐसा ना लगे कि खिड़की खोलकर थोड़ी-सी धूप दिखाई और फिर पर्दा लगा दिया ।
कविता-कोश में नीरज को यहां पढि़ये । कविता-कोश ने एक विजेट भी तैयार किया है । ये रहा उसका कोड । आप कविता कोश का विजेट अपने ब्लॉग पर लगाकर इसका प्रसार कर सकते हैं । मुझे कविता-कोश एक सहज-संदर्भ-ग्रंथ जैसा लगता है । जब मशहूर कविताओं की जिन पंक्तियों का ध्यान आ जाये, फौरन कविता-कोश में जाकर उन्हें खोजा-पढ़ा जा सकता है । वरना पुस्तकों में खोजना कितना दुष्कर और असुविधाजनक हो सकता है ।
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स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गयी
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गयी
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गयी
चाह तो सकी निकल न पर उमर निकल गयी
गीत अश्क़ बन गए, छंद हो दफ़न गए
साथ के सभी दिए, धुआँ-धुआँ पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली
और हम लुटे-लुटे, वक़्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की संवार दूं
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर, शाम बन गयी सहर
वह उठी लहर कि ढह गए किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे, नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे
माँग भर चली कि एक जब नयी-नयी किरण
ढोलकें ढुमुक उठीं ठुमुक उठे चरण-चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पडा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भारी, गाज एक वह गिरी
पुंछ गया सिन्दूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से, दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे
24 comments:
कोई लौटा दे मेरे बिते हुए दिन/ बिते हुए दिन वो प्यारे पल छिन..
कविता कोश एक बहुत ही अच्छा वेबसाइट है। अनूप भार्गव के साथ वो सभी बधाई के पात्र हैं जो इसकी देख रेख कर रहे हैं। सबका योगदान ज़रूरी है इसको बढ़ाने के लिये। नीरज जी की इतनी अच्छी कविता के लिये धन्यवाद यूनुस आपका।
याद आ गई वो स्कूल की आधी छुट्टी जब हम खाना खाकर पान की दुकान पर मीठी संतरे की गोली लेने जाते थे वहाँ हमेशा ही नीरज जी के गाने चल रहे होते थे और बाकी बचा समय उन्हीं को सुनने में लगाते थे। अच्छी लगी इस बार की पोस्ट भी।
यूनुस भाई,
आज तो आपने सवेरे-सवेरे ही 'नास्टेल्जिया' से घेर दिया । नीरजजी के कई मंच-पाठ आंखें के सामने से गुजर गए । आज दिन भर अब शायद ही कोई काम किया जा सके ।
अगहन की नरम-नरम सर्दी में नीरजजी के गीतों की गुनगुनी धूप - इस माहौल से वही निकले जिसे दोजख कबूल हो ।
Carvan has not passed out. The great caravan of melodious music is still running thanks to the efforts of those like Yunus ji.
उस घर से ग्रामोफोन रिकार्ड की आवाज आती है
वो कौन है जिसे गुजरे जमाने की बात भाती है......
युनुस भाई :
कविता कोश के बारे में लिखने के लिये धन्यवाद । यह वास्तव में हम सब के लिये एक उपयोगी साधन और आगे आने वाली पीढी के लिये हमारी ओर से भेंट हो सकती है । किताबों के भविष्य के प्रति मैं अधिक आशावान नहीं हूँ लेकिन इंटरनेट पर आने के बाद कविता अमर हो जाती है , मर नहीं सकती ।
इस पोस्ट में नीरज जी के बारे में पढ कर भी बहुत अच्छा लगा । 2004 में अपनी अमेर्रिका यात्रा के दौरान वह करीब १ महिने तक हमारे साथ रहे थे । उन के साथ अलग अलग शहरों में यात्रा करने और कवि सम्मेलनों में सुनने का अवसर मिला । वास्तव में ’युग पुरुष’ से कम नहीं हैं वह ।
मेरे पास ’नीरज’ जी खुद की आवाज़ में ’कारवां गुज़र गया’ तथा उन के अनेक गीत हैं । रफ़ी साहब ने बहुत अच्छा गाया है लेकिन नीरज जी की आवाज़ में सुनने का अपना ही आनन्द है ।
यदि आप अपने ब्लौग पर लगाना चाहें तो मुझे खुशी होगी आप के साथ बाँटने में ।
स्नेह
एक बार और सुनकर आनंद आ गया. उनकी स्वयं की आवाज में सुनाइये जरा कुछ.
मुझे इस गीत को सुनने से ज्यादा अच्छा इस कविता को खुद पढ़ना अच्छा लगता है। काश इसे नीरज जी की आवाज़ में सुनने को मौका मिलता। आपकी इस पोस्ट के लिए गीत कविता की इस महान विभूति की ये पंक्तियाँ पेश करना चाहता हूँ...
गायक जग में कौन गीत जो मुझ सा गाए
मैंने तो केवल हैं ऍसे गीत बनाए
कंठ नहीं जिनको गाती हैं पलकी गीलीं
स्वर सम जिनका अश्रु मोतिया हास नहीं है।
पलकी को 'पलकें' पढ़ें
क्या कहें, बस सुन कर आनंदित हुए जा रहे हैं, बरसों बाद जो सुनी।
धन्यवाद यूनुसजी।
कालजयी रचना है यह और इसे पुन: सुनना आनन्ददायक रहा मित्र!
इस आलेख ने वाकई कॉलेज के दिनों में पहुँचा दिया। उन से यह गीत कॉलेज के कवि सम्मेलन में ही सुना था। साथ में बाल कवि बैरागी भी थे।
उन दिनों नजदीक में कहीं भी ये कवि सम्मेलन में आए होते तो हम इन्हें सुनने के लिए वहाँ पहुँच जाते थे।
कालजयी रचना सुनकर आनंद आ गया
कविता कोश एक बहुत ही अच्छा वेबसाइट है।
ललित जी तथा अनूप भार्गव तथा अन्य सभी के साथ वो सभी बधाई के पात्र हैं जो इसकी देख रेख कर रहे हैं। शुक्रिया युनूस भाई ~~
दमोह में बचपन के दिन याद दिला दिये आपने...कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!
नीरज को सुनने का आनंद ही कुछ और है, अनूप जी से आडियो ले कर पोस्ट करें।
युनुस जी,
"हम छोटे शहरों की उन्हीं दोपहरों के आवारागर्द, 'काले-ढुस', भयानक पढ़ाकू, चश्मू बच्चे हैं, जो बड़े शहरों में आकर, अभी भी प्रीतम और हिमेश रेशमिया को नहीं सुनते, पुराने ज़माने के रोशन, शंकर जयकिशन, ओ.पी.नैयर और नीरज, साहिर, शैलेंद्र, फै़ज़ में मगन हैं "
इससे सरल और सटीक शब्दों में अपनी हालत बयान करना सम्भव नहीं है | शायद आजकल भी कुछ अच्छे गीत बन रहे हों लेकिन अक्सर सुनकर निराशा ही मिलती है | हजारों ख्वाहिशें ऐसी का "बावरा मन देखने चला एक सपना", खोया खोया चाँद का टाइटल गीत और "चले आओ सैंया" सुनकर बड़ी खुशी हुयी थी |
खैर सुबह सुबह ३३.५ किमी दौड़कर जब पूरे शरीर में सितार और तबला बज रहा हो, इस गीत को सुनने में बड़ा आनंद आ रहा है |
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सरूप था कि देख आइना सिहर उठा .
वाह! नीरज जी का कवितापाठ सुन कविसम्मेलन में आना सफल हो जाता था।
नीरज जी के श्रीमुख से यह रचना सुनने का सौभाग्य तो मुझे नहीं मिला पर यह गीत रफ़ी साहब की आवाज़ में कई बार रेडियो पर सुना। जब भी सुनती हूँ अच्छा लगता है।
एक बहुत जाने माने हास्य कवि है, नाम मुझे याद नहीं आ रहा है, उन्होंनें इस गीत की पैरोडी तैयार की और अक्सर कवि सम्मेलनों में सुनाते है। एक बार मुझे कालेज में आयोजित कवि सम्मेलन में सुनने का अवसर मिला। गीत की पहली पंक्ति ठीक से याद नहीं आ रही, भाव कुछ ऐसे है कि पत्नी बेलन से मार रही है और आगे की पंक्तियाँ है -
और हम खड़े-खड़े शरीर पर पड़े गुबार देखते रहे
अन्नपूर्णा
ये है all time super duper hit रचना.
यूनुस जी..नीरज मुझे क्यों इतने अच्छे लगते हैं, ये तो मैं भी नही जानती.. बस लगता है कि उनसे मिलने की तमन्ना कहीं अधूरी न रह जाये...! और ये गीत इसे मैं सुनती रहूँ...सुनती रहूँ..बोर नही होती...! उनके गीत बहुत पवित्र, बहुत सात्विक से लगते हैं..जाने कौन सा प्रेम जिया होगा उन्होने जो गीतो में इतनी गहराई आई....!
बादल, बिजली, चंदन, पानी जैसा अपना प्यार,
लेना होगा जनम हमें कई, कई बार
और
तुम मिल जाते तो हो जाती पूरी अपनी राम कहानी,
खंडहर ताजमहल हो जाता, गंगाजल आँखों का पानी।
जब ये पंक्तियाँ सुनती हूँ, तो गहराई ऐसी उतरती जाती हूँ, कि पहरों उबरती ही नही
छाया गीत के उद्घोषकों का नाम सुनाकर आपने स्मृतियों को झकझोर दिया । मनचाहे गीत , आपकी फरमाइश या अनुरोध गीत ....इनको सुनना अपने आप में एक सुखद अनुभूती थी । संगीत - सरिता के माध्यम से यह पता चलता था कि फलां गीत किस राग पर आधारित है । जैसे भूली हुइ यादें हमें इतना ना सताओं ..राग यमन पर आधारित है ..आज तक याद है ।
यूनुस भाइ आपका व्लाग विल्कुल हट के है ..नीरज साहब ..क्या बात है । इंदीवर साहब ने लिखा ..चंदन सा बदन ..कोइ जब तुम्हारा ह्दय तोड दें ..और बाद में बाजार में ढलते हुए एक आंख मारुं तो पर्दा फट जाए भी लिखा ...कम से कम नीरज साहब की कलम कलंकित नही हुइ । मेरे पसंदीदा गानों नें नीरज साहब की ..शोकियों में घोला जाए , खिलते है गुल यहां ....और कविताओं में गीत जब मर जाएंगे तो तू कहां रह जाएगा बहुत पसंद है ।
बेहतरीन पोस्ट के लिये शुक्रिया।
Gulzar aur Mukesh ji ke kuchh gaano ko chhod dijiye to ye metra sarvaadhik priy gaana hai...3-4 saal se is gaane ka jaado mujhpe chhayaa hua hai...film mein jo geet hai wo poori kavita nahi hai,maine Neeraj ji ki poori kavita padhee tab to aur bhi zyaada khaas lagaa...
bahut achha laga aapko padhke Sir... :)
वाह वाह भाईजान, आनन्द दिला दिया जी आपने. इस गीत को हमने या तो नीरज जी से सुना है या रफ़ी साहब या चचा लुक़्मान से या ख़ुद से. शायद उड़नतश्तरी वाले समीर लालजी के साहबज़ादे की शादी २५.१२.२००८ को फिर इसे गाने का मौका लगेगा तो अबके बार आपको भी याद करके गाएंगे जी. शुक्रिया इस कालजयी गीत को सुनवाने और पढ़वाने के लिए.
कविता कोश के बारे में जानकारी देने और लिंक देने के लिए धन्यवाद.बहुत उपयोगी है. .
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