संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Tuesday, December 2, 2008

कुछ कर गुज़रने को ख़ून चला

रेडियोवाणी पर इन दिनों कुछ भी सुनने सुनाने का मन नहीं है ।
हम ख़ामोश रहना चाहते हैं और एक किनारे बैठकर तमाशा देखना चाहते
हैं । हम अपने ग़ुस्‍से को उबलने देना चाहते हैं । कल सुरमई उदास शाम में इस गीत ने मन को मथ
दिया । हम आपके मन को भी मथ देना चाहते हैं ।




स्‍वर-मोहित चौहान
रचना-प्रसून जोशी
संगीत-रहमान
फिल्‍म-रंग दे बसंती
अवधि: बमुश्किल तीन मिनिट

कुछ कर गुज़रने को ख़ून चला
आंखों के शीशे में उतरने को ख़ून चला
बदन से टपक कर, ज़मीन से लिपटकर
दुनिया से, रस्‍तों से उभरकर, उमड़कर 
नये रंग भरने को ख़ून चला, ख़ून चला ।।
खुली-सी चोट लेकर, बड़ी-सी टीस लेकर
आहिस्‍ता-आहिस्‍ता सवालों की उंगली,
जवाबों की मुट्ठी संग लेकर ख़ून चला ।
कुछ कर गुज़रने को ख़ून चला, ख़ून चला ।।

11 comments:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } December 2, 2008 at 12:46 PM  

समय के हिसाब से गीत का चयन उत्तम है धन्यबाद

डॉ. अजीत कुमार December 2, 2008 at 1:02 PM  

यूनुस भाई,
शायद अब इसी खून की जरूरत है जो खून से भरे सड़कों को साफ़ कर सके और अमन के फूल खिला सके.

Gyan Dutt Pandey December 2, 2008 at 1:05 PM  

सही, सामयिक भाव।

विष्णु बैरागी December 2, 2008 at 1:33 PM  

आज के वातावरण में यह सटीक गीत है ।

Abhishek Ojha December 2, 2008 at 2:51 PM  

क्या कहें ! इस फ़िल्म की तरह बदलाव हो जाय शायद अब !

समयचक्र December 2, 2008 at 9:22 PM  

सामयिक भाव सटीक गीत है.

mahendr mishra jabalpur.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` December 2, 2008 at 11:40 PM  

अमर शहीदोँ को हमारी श्रध्धाँजलि
अब भी वक्त है सम्हलने का
शहीदोँ का खून सस्ता नहीँ है -
उन्नीकृषणन की माँ के आँसू देखिये

Anita kumar December 3, 2008 at 11:57 PM  

ये गुस्सा आज हर भारतवासी का है,गीत बहुत बड़िया है और सामयिक भी…आभार

Vikash December 6, 2008 at 12:57 PM  

प्रासंगिक. :)

Anonymous,  November 6, 2009 at 6:10 PM  

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