संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Wednesday, December 5, 2007

तुमसे एक कविता का वादा है-


ये आशीष है ।

मेरा स्‍कूल के ज़माने का दोस्‍त । हमारी दोस्‍ती बरसों पुरानी है । मज़े की बात ये है कि म.प्र. के सागर शहर में जब हम इकट्ठे घूमा करते थे तो लोग हमें भाई भाई समझते थे । हमने साथ में कविताएं करना शुरू किया था । साथ में हिंदी साहित्‍य पढ़ना शुरू किया था । हमारी रूचियां एक ही थीं, हमारी एक मंडली थी । आज भी वो मंडली एक हद तक बची है । मुझे याद है कि आशीष का सोलहवां जन्‍मदिन था और हम मित्रों ने उसे 'गुनाहों का देवता' भेंट की थी । अगले दिन स्‍कूल में हम सब इंतज़ार कर रहे थे, महाशय ग़ायब थे । देर से आए और बताया कि रात में ही शुरू की तो फिर सुबह खत्‍म करके ही उठा और देर हो गयी । ऐसा जुनूनी है ये बंदा ।

वो अस्‍सी के दशक के आखिरी दिन थे शायद जब हमने तय किया कि हम एक दूसरे को जन्‍मदिन पर एक कविता का तोहफा जरूर देंगे । और ये परंपरा काफी सालों तक अबाध चलती रही । फिर दोनों ओर से व्‍यस्‍तताओं ने मुंह फाड़ा और एक‍ाध साल बिना कविता वाला भी जाता रहा । लेकिन वो वादा आज भी बरक़रार है और पूरा ना हो पाए तो अपराध बोध का कांटा मन में गड़ता रहता है । तीन दिसंबर को आशीष का जन्‍मदिन था । मैंने फोन पर बधाई क्‍या दी, उधर से डांट पड़ गयी । अभी के अभी बाक़ी चीज़ें छोड़ो और कविता लिखो ।

मैं केवल दो दिन लेट हुआ हूं ।

ये कविता ईमेल से भी भेजी जा सकती थी । पर मुझे अपने चिट्ठे पर चढ़ाकर आप सबसे ये बातें शेयर करना ज्‍यादा अच्‍छा लगा । कविता टूटी फूटी जैसी रची गयी, सो आपके सामने है । बातें दिल से कही गयी हैं और हमारी आपकी सबकी मित्र मंडली पर लागू होती हैं ।

आशीष को जन्‍मदिन की मुबारकबाद फिर से ।

और ये कामना करना चाहता हूं कि दुनिया में हम सब अपनी दोस्तियों को काग़ज़ी होने से बचाए रखें । आमीन ।

हम छोटे शहर के बच्‍चे थे ।
अब बड़े शहर के मुंशी हैं
और जा रहे हैं 'और बड़े शहर' के मज़दूर बनने की तरफ़ ।

हमने जवानी में कविताएं लिखीं थीं और
कलम चलाते रहने का वादा किया था खुद से ।
जवानी की डायरी में अभी भी मौजूद हैं वो गुलाबी कविताएं ।
पर कलम अब मेज़ पर पड़ी जंग खा रही है
और हम कीबोर्ड के गुलाम बन गये हैं ।

मित्र हम दुनिया को बदलने के लिए निकले थे
और शायद दुनिया ने हमें ही बदल दिया भीतर बाहर से
अब हम नाप तौल कर मुस्‍कुराते हैं
अपनी पॉलिटिक्‍स को ठीक रखने की जद्दोजेहद करते हैं
झूठी तारीफें करते हैं, वादे करते हैं कोरे और झूठे
और हर शाम सिर झटककर दिन भर बोले झूठों को जस्‍टीफाई कर लेते हैं ।

हम छोटे शहर के बड़े दोस्‍त थे, जिंदगी भर वाले दोस्‍त
लेकिन बड़ी दुनिया के चालाक बाज़ार ने ख़रीद लिया हममें से कुछ को
और कुछ की बोली अब भी लगाई जा रही है

हम छोटे शहर के संकोची बच्‍चे
आज कितनी बेशर्मी से बेच रहे हैं खुद को । 

20 comments:

कथाकार December 5, 2007 at 10:01 AM  

यूनुस भाई
कितना खजाना है तुम्‍हारे पास. हर बार एक से बढ़ कर एक नायाब आइटम.
बधाई
लगे रहो
सूरज

विजयशंकर चतुर्वेदी December 5, 2007 at 10:23 AM  

ब्लॉगजगत में मेरा स्वागत कराने के लिए धन्यवाद यूनुस!
तुम्हारी यह कविता सिर्फ़ निजी नहीं है. यह बहुत बड़े पाठक वर्ग की अनुभूति है. इसीलिए यह छोटी कविता नहीं कही जा सकती. तुम्हारी कुछ बहुत अच्छी कवितायें मैंने पिछले साल 'हमारा महानगर' में पढ़ी थीं. एक बात मशविरे के तौर पर- 'अभी भी' की जगह 'अब भी' लिखा जाना चाहिए.

Yunus Khan December 5, 2007 at 10:49 AM  

सूरज जी शुक्रिया । विजय भाई आपका भी शुक्रिया । मैंने फौरन संशोधन कर दिया है ।

कंचन सिंह चौहान December 5, 2007 at 11:21 AM  

आप की इस प्रतिभा से परिचित नही थे हम लोग, बड़े ही सटीक शब्द...हर उस व्यक्ति की कहानी जो मज़बूर हो जाता है हर सुबह समाज के अनुसार खुद को बदलने के लिये और हर रात अगर नींद के पहले कुछ विचार आते हैं तो यही कि हम कैसे इतना बदल गए। सच में सहेज कर रखने वाली कविता!

मित्र हम दुनिया को बदलने के लिए निकले थे
और शायद दुनिया ने हमें ही बदल दिया भीतर बाहर से
अब हम नाप तौल कर मुस्‍कुराते हैं
अपनी पॉलिटिक्‍स को ठीक रखने की जद्दोजेहद करते हैं
झूठी तारीफें करते हैं, वादे करते हैं कोरे और झूठे
और हर शाम सिर झटककर दिन भर बोले झूठों को जस्‍टीफाई कर लेते हैं ।
बहुत खुब!

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल December 5, 2007 at 11:34 AM  

यूनुस बाही, कितनी सादगी से इतनी बडी बात कह गए आप! कलम चूम लेने को मन करता है. लेकिन कलम है कहां?
क्या आप मुझे अनुमति देंगे कि मैं आपकी इस कविता को अपनी वेब पत्रिका इन्द्रधनुष इण्डिया पर काम में ले लूं? आभार मानूंगा.

ghughutibasuti December 5, 2007 at 1:10 PM  

बहुत अच्छा लिखा है । बाकी कविताएँ भी पढ़वाइये ।
घुघूती बासूती

Yunus Khan December 5, 2007 at 2:09 PM  

डॉ अग्रवाल जरूर छापिए । और सूचना दीजिए । सभी को धन्यवाद ।

mamta December 5, 2007 at 3:14 PM  

यूनुस भाई आप तो बडे छुपे रुस्तम निकले। :)

अफ़लातून December 5, 2007 at 3:20 PM  

बढिया । हिचकिचायें नहीं ,आनें दें । बधाई ।

Sanjeet Tripathi December 5, 2007 at 5:08 PM  

गुनाहों का देवता है ही ऐसी किताब की एक ही सिटिंग में खत्म किए बिना नही रह पाएंगे!!

कविता बहुत बढ़िया लिखी है आपने!!
और पढ़वाईए अपनी कविताएं

मीनाक्षी December 5, 2007 at 5:49 PM  

आज के दौर पर एकदम सटीक बैठती कविता... "वादे करते हैं कोरे और झूठे " सच लिखा आपने...

आनंद December 5, 2007 at 6:16 PM  

आपकी कविता में जैसे मेरे मन की बात लिख दी गई है।

Gyan Dutt Pandey December 5, 2007 at 8:37 PM  

बहुत बढ़िया लिखा।

Manish Kumar December 5, 2007 at 11:07 PM  

यूनुस ये हुई ना बात...बहुत बढ़िया तरीके से आप अपनी बात कह पाए हैं. अपने चिट्ठे में अपने ऐसे रंगों का समावेश करते रहें।

dr.shrikrishna raut December 6, 2007 at 8:06 PM  

प्यारे यूनुस भाई,
आपकी कविता तो बड़ी जानलेवा निकली यार | बच्‍चे > मुंशी > मज़दूर > कीबोर्ड के गुलाम
क्या बात है | एक से बढ़कर एक इमेज |
कौन मानेगा
`वो गुलाबी कविताएं' लिखनेवाली
`कलम अब मेज़ पर पड़ी जंग खा रही है'
हम तो नही मानेंगे |
हमे तो बेताब है आपकी ऐसी कविताए पढ़ने के लिए | झूठ के मुखौटे चढाने की मजबुरी और पीड़ा आपने बाखुबी लफ्जो मे उतारी है | तहे दिल से मुबारक हो |
- डॉ. श्रीकृष्ण राऊत







प्यारे यूनुस भाई,
आपकी कविता तो बड़ी जानलेवा निकली यार | बच्‍चे > मुंशी > मज़दूर > कीबोर्ड के गुलाम
क्या बात है | एक से बढ़कर एक इमेज |
कौन मानेगा
`वो गुलाबी कविताएं' लिखनेवाली
`कलम अब मेज़ पर पड़ी जंग खा रही है'
हम तो नही मानेंगे |
हमे तो बेताब है आपकी ऐसी कविताए पढ़ने के लिए | झूठ के मुखौटे चढाने की मजबुरी और पीड़ा आपने बाखुबी लफ्जो मे उतारी है | तहे दिल से मुबारक हो |
- डॉ. श्रीकृष्ण राऊत

प्यारे यूनुस भाई,
आपकी कविता तो बड़ी जानलेवा निकली यार | बच्‍चे > मुंशी > मज़दूर > कीबोर्ड के गुलाम
क्या बात है | एक से बढ़कर एक इमेज |
कौन मानेगा
`वो गुलाबी कविताएं' लिखनेवाली
`कलम अब मेज़ पर पड़ी जंग खा रही है'
हम तो नही मानेंगे |
हमे तो बेताब है आपकी ऐसी कविताए पढ़ने के लिए | झूठ के मुखौटे चढाने की मजबुरी और पीड़ा आपने बाखुबी लफ्जो मे उतारी है | तहे दिल से मुबारक हो |
- डॉ. श्रीकृष्ण राऊत

dr.shrikrishna raut December 9, 2007 at 10:07 AM  

प्यारे युनुसभाई,
कोमेंट दो बार repeat हुई है । कृपया repeation निकाल देना ।
- डॉ.श्रीकृष्ण राऊत

Anonymous,  December 10, 2007 at 12:16 AM  

मुकर्रर !

(आज के)दोस्त और दोस्ती पर याद आया :

बहुत से दोस्तों के चेहरे घर बैठे नज़र आये
बडा़ अच्छा रहा दुश्मन के घर के सामने रहना

-वही

Vikash December 10, 2007 at 2:58 PM  

ये इतनी अच्छी पोस्ट मिस हो गयी. :( आप तो कवि निकले. ;) अब इसे जरा अपनी आवाज में सुना भी दीजिये.

Unknown December 18, 2007 at 12:14 PM  

यूनुस जी आपके ब्लॉग पर पहली बार कल आया - पहले गाने सुने - अच्छा लगा - फिर थोड़ा पढ़ा - और अच्छा लगा - यहाँ ईद की लम्बी छुट्टी है - तो सबेरे उठ कर और गाने सुने, फिर इस कविता पर नज़र गई तो खड़ंजे से कोलतार का सफर बहुत ही आत्मीय/ जिया हुआ लगा - शुभकामनाऔं/ सद्भावनाऔं सहित [ पुनश्च : (१)मेरे पास शंकर हुसैन के तीन गाने हैं जो आम तौर मिलते नहीं - देख/ सुन के लगता है कि आपकी भी पसंद के होंगे - चाहियेंगे तो बताइयेगा (२) एक शिकायत/ झिड़की कि गीता दत्त की लोरी जिसपर कितनी पीढियां सोई हैं आप कैसे भूल गए? ]

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