संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Friday, October 26, 2007

अज़ीम शायर साहिर लुधियानवी की याद को सलाम--ख़ुदाऐ बरतर तेरी ज़मीं पर ज़मीं की ख़ा‍तिर ये जंग क्‍यों है ।

आज साहिर लुधियानवी की याद का दिन है ।
साहिर जिसकी शायरी में दुनिया की जुल्‍मतों के खिलाफ परचम लहराने का जुनून था ।
साहिर जो मुहब्‍बतों का शायर होने के साथ-साथ अपने सरोकारों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता था ।

साहिर की शायरी हमारी जिंदगी की ज़रूरत है । बहुत आत्‍मलीन होते इस समाज की नींद तोड़ने का ज़रिया हैं अशआर ।
एक बीहड़ जिंदगी जीने और अपने दुखों पी लेने वाले साहिर के भीतर भयानक अकेलापन था - मुहब्‍बतों का शायर जिंदगी भर तन्‍हा रहा, रेडियोवाणी पर किसी दिन हम साहिर के उन अशआर का जिक्र करेंगे जिनमें टूटकर की जाने वाली मोहब्‍बत की झलक है । लेकिन आज साहिर की वो शायरी पेश है जिसमें आग है । जिसमें आंच है । जिसमें जुनून है ।

ये रही साहिर की नज्‍़म- फ़नकार
फ़नकार


मैंने जो गीत तेरे प्‍यार की ख़ातिर लिखे
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूं ।।
आज दुकान पे नीलाम उठेगा उनका
तू ने जिन गीतों पे रखी थी मुहब्‍बत की असास । *असास-नींव
आज चांदी के तराज़ू में तुलेगी हर चीज़
मेरे अफ़कार, मेरी शायरी मेरा अहसास । *अफ़कार-लेखनी
जो तेरे ज़ात से मंसूब थे उन गीतों को । *ज़ात-शख्सियत । मंसूब-जुड़े थे
मुफलिसी जिंस बनाने पे उतर आई है । * जिंस-बिकाऊ वस्‍तु ।
भूख तेरे रूख़े-रंगीन के फ़सानों के एवज़ । रूख़े-रंगीन--खूबसूरत गाल
चंद अशीयाय-ऐ-तमन्‍नाई है ।
देख इस अर्सागाह-ऐ-मेहनत-ओ-सरमाया में । * मेहनत और रईसी के जंग के मैदान में
मेरे नग़्मे भी मेरे पास नहीं रह सकते
तेरे जलवे किसी ज़रदार की मीरास सही । *ज़रदार-पैसे वाले । मीरास-ज़ायदाद ।
तेरे ख़ाके भी मेरे पास नहीं रह सकते । *ख़ाके-चित्र
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूं ।


फिल्‍मी गीतों में साहिर लुधियानवी का योगदान ज़बर्दस्‍त रहा है । उन्‍होंने फिल्‍मी गीतों की रवायत को बदल कर रख दिया । ज़रा इस गाने पर ग़ौर कीजिए जो फिल्‍म ताजमहल के लिए लिखा गया था । इसे रोशन ने स्‍वरबद्ध किया है । ये फिल्‍मी गीत कम और इल्‍मी गीत ज्‍यादा लगता है । ये ख़ालिस शायरी है । मुझे लगता है कि आज की बारूदी दुनिया में उनका ये गीत पूरी तरह मौज़ूं है





खुदाऐ बरतर तेरी ज़मीं पर
ज़मीं की ख़ातिर ये जंग क्‍यों है
हर इक फतह-ओ- ज़फ़र के दामन पे
खूं-ऐ-इंसां के रंग क्‍यों है
ज़मीं भी तेरी, हैं हम भी तेरे,
ये मिल्कियत का सवाल क्‍या है
ये क़त्‍लो-खूं का रिवाज क्‍यों है
ये रस्‍मो-जंगो-जदाल क्‍या है
जिन्‍हें तलब है जहां भर की
उन्‍हीं का दिल इतना तंग क्‍यों है
ख़ुदाऐ बरतर ।।
ग़रीब मांओं, शरीफ़ बहनों को
अम्‍नो-इज्‍़ज्‍़ात की जिंदगी दे
जिन्‍हें अता की है तूने ताक़त
उन्‍हें हिदायत की रोशनी दे
सरों में खिब्रो-ग़रूर क्‍यों है
दिलों के शीशे पे जंग क्‍यों है
ख़ुदाऐ बरतर ।।
क़ज़ा के रास्‍ते पे जाने वालों को
बच के आने की राह देना
दिलों के गुलशन उजड़ ना जायें
मुहब्‍बतों को पनाह देना
जहां में जश्‍ने-वफ़ा के बदले
ये जश्‍ने-तीरो-तुफंग क्‍यों है ।
खुदाऐ बरतर ।।

कठिन शब्‍दों के अर्थ


ख़ुदा-ऐ-बरतर-सर्वशक्तिमान ईश्‍वर
फ़तह-ओ-ज़फ़र- विजय और जीत
मिल्कियत-जागीर
क़त्‍ल-ओ-खूं- हत्‍याएं और मारकाट
जंगो-जदाल- लड़ाईयां और युद्ध
तलब-प्‍यास
अम्‍नो-इज्‍जत-शांति और सम्‍मान
अता-वरदान
खिब्रो-गुरूर--घमंड
क़ज़ा-नसीब
जश्‍न-ऐ-तीरो-तुफंग-तीरों और बंदूकों का जश्‍न

Glossary:
Khudaa-e-bartar = O superior God, bartar means superior, high, excellent, used as an adjective here for God
fatah-o-zafar = victories and triumph
milkiyat = property, land, possession
qatl-o-KhuuN = murders and blood (basically both indicating and emphasising “Murders, riots”)
jaNg-o-jadaal = fights and battles
talab = thirst, need
amn-o-izzat = peace and respect
ataa = blessed (given by the grace of God, a blessing)
kibr-o-Gharoor = pride (kibr = pride, eminence, similar meanings for Gharoor as well)
qazaa = destiny, fate, divine decree
jashn-e-teer-o-tufaNg = celebrations with bows and guns

साहिर लुधियानवी की कुछ तस्‍वीरें




साहिर लुधियानवी का जिक्र रेडियोवाणी पर पहले भी हुआ है ये रही फेहरिस्‍त--
1. लोग औरत को फ़क़त जिस्‍म समझ लेते हैं
2.मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझसे
3. खुद साहिर की दुर्लभ आवाज़ में उनकी तीन नज़्में

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: sahir-ludhianvi, sahir-ludhiyanvi, 26-october, fankar, taj-mahal, tajmahal, khudae-bartar-teri-zameen-par, साहिर-लुधियानवी, फनकार, ताजमहल, खुदाए-बरतर, छब्‍बीस-अक्‍तूबर,


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13 comments:

डॉ. अजीत कुमार October 26, 2007 at 8:41 AM  
This comment has been removed by the author.
डॉ. अजीत कुमार October 26, 2007 at 8:43 AM  
This comment has been removed by the author.
डॉ. अजीत कुमार October 26, 2007 at 8:44 AM  

अरे यूनुस भाई, क्या आप भी देर से पोस्ट कर रहे हैं। फिर भी देर आए दुरुस्त आए।
आपके जितनी जानकारी तो नहीं पर कहीं से जानकारी जुटा कर मैंने एक पोस्ट कल लिखी थी, क्या आपकी नजर से गुजरी कि नहीं?
बहरहाल आपकी ये पोस्ट हमे एक बागी साहिर से मुलाक़ात कराती है।
धन्यवाद.
http://ajitdiary.blogspot.com/2007/10/blog-post_25.html

Sajeev October 26, 2007 at 9:24 AM  

जो तेरे ज़ात से मंसूब थे उन गीतों को ।
मुफलिसी जिंस बनाने पे उतर आई है ।
यूनुस भाई इन शब्दों में छुपी कैसी आह है, भीतर तक चुभ जाती है, साहिर, तल्खियों में भी जूनून को जिंदा रखते थे, तस्वीरें देकर आपने पोस्ट में चार चाँद लगा दिए, एक यादगार तोहफा , शुक्रिया

Unknown October 26, 2007 at 11:25 AM  

यूनुस भाई, आपने बड़ा अच्छा वर्णन किया साहिर साहब की शायरी का: उसमे आग है, आंच है, जुनून है ।
काश साहिर आज हमारे बीच होते | काश हम आज के बदले हुए समाज पर उनकी टीका सुन पाते |

SahityaShilpi October 26, 2007 at 1:10 PM  

जिन्‍हें तलब है जहां भर की
उन्‍हीं का दिल इतना तंग क्‍यों है

ये बहुत ही अहम सवाल है, जिसे साहिर जैसा शायर ही इतने तरीके से उठा सकता है. दोनों नज़्में बहुत पसंद आयीं. बहुत-बहुत शुक्रिया इतनी खूबसूरत नज़्म पढ़वाने का!

--
अजय यादव
http://ajayyadavace.blogspot.com/
http://merekavimitra.blogspot.com/

annapurna October 26, 2007 at 3:05 PM  

साहिर, रवि, महेन्द्र कपूर और बी आर चोपड़ा एक बेहतरीन टीम है चाहे गुमराह हो या हमराज़ या कोई और…

Udan Tashtari October 26, 2007 at 4:07 PM  

बहुत बेहतरीन तरीके से याद किया. साहिर साहब की याद को नमन एवं श्रृद्धांजली.

Gyan Dutt Pandey October 26, 2007 at 5:27 PM  

यूनुस, सवेरे गीत के कठिन शब्दों की ग्लॉसरी के साथ समझने का यत्न कर रहा था। मजा नहीं आया। पर अब वीडियो चला कर गीत सुना तो शब्द का अर्थ समझने की जरूरत ही नहीं पड़ी! सब कुछ तैरता सा चला गया मन में।
बहुत सुन्दर।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` October 26, 2007 at 7:31 PM  

शायरी के अल्फाज़ जब तासीर का आइना बन
जायेँ तब रुबरु हो जाते हैँ सारे जहीन रुखसार...

मुमताज़ महल की पाकीज़गी, साहिर के कलाम से उभर कर सामने जाती है
जब "हिन्दोस्ताँ की मल्लिका "ये कहती है कि,
" खुदाऐ बरतर तेरी ज़मीं पर
ज़मीं की ख़ातिर ये जंग क्‍यों है
हर इक फतह-ओ- ज़फ़र के दामन पे
खूं-ऐ-इंसां के रंग क्‍यों है
ज़मीं भी तेरी, हैं हम भी तेरे,
ये मिल्कियत का सवाल क्‍या है
और,
"ख़ुदाऐ बरतर ।।
क़ज़ा के रास्‍ते पे जाने वालों को
बच के आने की राह देना
दिलों के गुलशन उजड़ ना जायें
मुहब्‍बतों को पनाह देना
जहां में जश्‍ने-वफ़ा के बदले
ये जश्‍ने-तीरो-तुफंग क्‍यों है ।
खुदाऐ बरतर ।। "
स्नेह,
-- लावण्या

sanjay patel October 26, 2007 at 8:42 PM  

साहिर साहब के मानी होते हैं जादूगर.वाक़ई वे शब्दों के जादूगर ही तो थे.
युनूस भाई चित्रपट गीत लेखन की तकनीक को क्या बढ़िया साधा था साहिर साहब ने.आपके द्वारा जारी रचना को सुनने के बाद यही कहूँगा कि साहिर और उन जैसे चंद लाजवाब क़लमनिगारों की वजह से ही फ़िल्मों में शायरी का माथा ऊँचा रहा.साहिर साहब का लेखन कालातीत है और रंजक भी . इस अज़ीम शायर को अपने ब्लॉग पर ज़िंदा करने के लिये शुक्रिया क़ुबूलें.

sanjay patel October 26, 2007 at 8:46 PM  

मुआफ़ कर मेरी टिप्पणी की पहली पंक्ति यूँ पढ़ें:
साहिर के मानी होते है जादूगर; वाक़ई वे शब्दों के जादूगर ही तो थे.

Manish Kumar October 27, 2007 at 4:38 PM  

वाइरल एटैक ने दो तीन दिन से लिखना पढ़ना बंद करा रखा है। अभी आपकी आवाज़ में सरगम के सितारे सुन रहा हूँ तो लगा कि जरूर आपने चिट्ठे पर कुछ लिखा होगा और यहाँ पहुंच गया. इस प्रस्तुति का आभार है। वैसे रेडियो पर आपने और भी अच्छी जानकारी दी, धन्यवाद।

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