ख़ुद साहिर लुधियानवी की दुर्लभ आवाज़ में उनकी तीन नज़्में
साहिर मेरे प्रिय शायर हैं और मेरे से भी ज्यादा साहिर प्रिय हैं बैंगलोर के मेरे मित्र शिरीष कोयल को । शिरीष और मैं कभी मिले नहीं, हमारी दोस्ती इसी चिट्ठे के ज़रिए हुई, और अब हम अकसर बातें करते हैं । आपको एक ख़ास बात बता दूं कि शिरीष भाई उन तमाम फिल्मों को जमा कर रहे हैं जिनमें साहिर लुधियानवी के गाने थे । कुछ महीनों पहले फ़ोन पर शिरीष ने मुझे साहिर की आवाज़ सुनवाई थी । फिर पिछले दिनों जब मैंने साहिर की नज़्म ‘ताजमहल’ अपने चिट्ठे पर पेश की तो उन्होंने कहा कि आपने बताया होता मैं अपने पास मौजूद साहिर के उनकी आवाज़ वाले सारे अशआर भेज देता । फिर उन्होंने भेजे भी । और आज मैं इन्हें आपके लिए पेश कर रहा हूं ।
नज़्म ‘ताजमहल’ पहले भी ‘रेडियोवाणी’ पर पेश की जा चुकी है, इसे आखिर में दोबारा सिर्फ़ इसलिये दिया जा रहा है, ताकि इस वक्त उपलब्ध साहिर की आवाज़ वाले उनके अशआर को सुनने का मुकम्मल अहसास हो सके ।
ये नज़्म है--‘खूबसूरत मोड़’
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों
ना मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिलनवाज़ी की
ना तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लतअंदाज़ नज़रों से
ना मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये मेरी बातों में
ना ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ नज़रों से
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों ।।
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशक़दमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराये हैं
मेरे हमराह भी रूसवाईयां हैं मेरे माज़ी की................माज़ी—अतीत
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साये हैं
ताअर्रूफ़ रोग हो जाये तो इसको भूलना बेहतर
ताल्लुक बोझ बन जाये तो इसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ।
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों ।।
बी.आर.चोपड़ा ने इस नज़्म को सन 1963 में अपनी फिल्म ‘गुमराह’ में शामिल किया था, इसे रवि की तर्ज़ पर गाया था महेंद्र कपूर ने ।
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और आईये अब सुनें नज़्म ‘ताजमहल’
ताज तेरे लिए इक मज़हरे-उल्फ़त ही सही
तुझको इस वादिये रंगीं से अकीदत ही सही
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज़्मे-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवते शाही के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
मेरे मेहबूब पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा तूने
सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक-मकानों को तो देखा होता
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तशहीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे
ये इमारतो-मकाबिर, ये फ़सीलें, ये हिसार
मुतलक-उल-हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूं
दामने-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अज़दाद का खूं
मेरी मेहबूब, उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनको सन्नाई ने बख्शी शक्ले-जमील
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनामो-नुमूद
आज तक उन पे जलाई ना किसी ने कंदील
ये चमनज़ार, ये जमना का किनारा, ये महल
ये मुनक्क़श दरोदीवार, ये मेहराब, ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझे ।।
कुछ कठिन शब्दों के मायने
मज़हर-ऐ-उल्फत—प्रेम का प्रतिरूप
वादिए-रंगीं—रंगीन घाटी
बज्मे शाही—शाही महफिल
सब्त—अंकित,
सतवते-शाही— शाहाना शानो शौक़त
पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा—प्रेम के प्रदर्शन/विज्ञापन के पीछे
मक़ाबिर—मकबरे तारीक—अंधेरे सादिक़—सच्चे
तशहीर का सामान—विज्ञापन की सामग्री
हिसार—किले
मुतलक-उल-हुक्म—पूर्ण सत्ताधारी
अज़्मत—महानता
सुतूं—सुतून
दामने-देहर—संसार के दामन पर
अज़दाद—पुरखे
ख़ूं—खून
सन्नाई—कारीगरी
शक्ले-जमील—सुंदर रूप
बेनामो-नुमूद—गुमनाम
चमनज़ार—बाग़
मुनक़्क़श—नक्काशी
और इस नज़्म का उन्वान है ‘कभी-कभी’
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि जिंदगी तेरी जुल्फ़ों की नर्म छांव में गुज़रने पाती
तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरे ज़ीस्त का मुक़द्दर है,
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी
अजब ना था कि मैं बेगाना-ए-अलम होकर,
तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता
तेरा गुदाज़ बदन, तेरी नीमबाज़ आंखें,
इन्हीं हसीन फ़ज़ाओं में मैं हो रहता ।
पुकारतीं मुझे जब तल्खियां ज़माने की,
तेरे लबों से हलावत के घूंट पी लेता
हयात चीख़ती फिरती बरहना-सर और मैँ,
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता
मगर ये हो ना सका,
मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह जिंदगी जैसे,
इसे किसी सहारे की आरज़ू भी नहीं ।
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूं गले
गुज़र रहा हूं कुछ अनजानी रहगुज़रों से
मुहीब साये मेरी सिम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ार-ज़ारों से
ना कोई जादा ना मंजिल ना रोशनी का सुराग़
भटक रही है ख़लाओं में जिंदगी मेरी
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊंगा कभी खो कर
मैं जानता हूं मेरी हमनफ़स मगर यूं ही
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ।।
इस नज्म में आये कुछ कठिन उर्दू शब्दों के मायने
शादाब—ताज़ा,खुशनुमा
तीरगी—अंधेरा
ज़ीस्त—जिंदगी
बेगाना-ए-इल्म—ज्ञान से बेख़बर
जमाल—खूबसूरती
रानाईयों—चमक दमक
गुदाज़—नर्म, तंदुरूस्त
नीमबाज़—अधसोई
तल्खियां—कड़वापन, तीखापन
हलावत—स्वादिष्ट, अच्छा
हयात—जिंदगी
बरहना—खुला हुआ, नंगा
घनेरी—घनी
जुस्तजू—उम्मीद, तलाश
मुहीब—डरावना
सिम्त—तरफ, दिशा में
पुर हौल—डरावना
ख़ार—कांटे
ज़ारों—अफ़सोस, शोक
ख़ला—ख़ालीपन, निर्वात
हमनफ़स—हमसफर, दोस्त
एक बार फिर हम भाई शिरीष कोयल के आभारी हैं कि इन्होंने ये नज़्में साहिर की आवाज़ में हम तक पहुंचाईं । साहिर की आवाज़ में इन तीनों नज़्मों को सुनना सुकून का एक मुकम्मल अहसास कराता है । मेरा तो आज का दिन बन गया......और आपका ?
8 comments:
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों
दोनों- मैं और मेरा अतीत; यह गीत मुझे उनके विषय में बहुत सटीक लगता है.
यूनुस जिंदगी में एक अच्छा इरेजर (रबड़) मिल जाये तो कितना सुकून हो!
Saahir saheb ki shaayari mujhe bahut pasand hai.
Jahaan tak filmo ki baat hai - saahir saheb ki shaayari, Ravi ke sangeeth main Mahendra kapoor ki awaaz main B.R.Chopra ki prastuti main Laajawab ho jaathi hai.
Kabhi-kabhi nazm lokpriya hote huve bhi chalo ek baar pahir se - se kam hi lagthi hai.
Annapurna
यूनुस भाई
अँगरेज़ी में कहते हैं, can not thank you enough, यानी जिनता शुक्रिया कहूँ कम ही होगा.
पहले छन्नू मिश्रा, फिर माँझी और अब साहिर. हम तो निहाल हुए जा रहे हैं. आप बहुत दुआएँ बटोर रहे हैं हम जैसे प्यासे लोगों की .
मज़ा आ गया यूनुस भाई। महेंद्र कपूर की दिलकश आवाज़ में साहिर की नज्म और खिल उठती है। शिरीष जी को भी धन्यवाद साहिर की आवाज हम तक पहुँचाने के लिए ।
साहिर साहब की आवाज मे कभी-कभी सुनना अच्छा लगा।
और जो आप उर्दू के कठिन शब्दों का अर्थ लिख देते है वो बहुत अच्छा है।
यूनुस मियाँ...
क्यों क़तल करते हो यार? क्यों घावों की पपड़ी उखेड़ते हो नाख़ूनों से? कहाँ की दुश्मनी निकाल रहे हो इतना सारे दिलजलों से? कहाँ कहाँ से लाते हो ये ख़ज़ाना?
चलो ठीक है. वो ठीक था तो ये भी ठीक है.
जन सेवक
अब क्या तारीफ करें. शब्द खत्म हुये जा रहे हैं. कमाल कर रहे हैं आप, जनाब. बहुत बढ़िया. और यह उर्दू के शब्दों के हिन्दी अनुवाद का सिलसिला काबिले साधुवाद है.
इस वीडियो के लिये बहुत आभार -- शास्त्री जे सी फिलिप
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